वाडिया मूवीटोन

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वाडिया मूवीटोन (अंग्रेज़ी: Wadia Movietone) भारतीय फ़िल्म निर्माण कम्पनी थी, जिसे स्टंट फ़िल्मों के निर्माण में विशिष्टता प्राप्त थी। इस कंपनी की प्रथम फ़िल्म 'लाल-ए-यमन' थी, जिसकी कथा जादुई करिश्मों पर आधारित थी और जो पारसी थिएटर के लिए लिखी गई थी।

स्थापना

सन 1933 में जमशेड बोमन होमी वाडिया ने अपने छोटे भाई होमी बामन वाडिया, बी बिल्मोरिया और टाटा के रिश्तेदारों के साथ मिलकर, उस समय अपने ढंग की अलग फ़िल्म निर्माण कंपनी की स्थापना की, जिसका नाम था 'वाडिया मूवीटोन' था। इस फ़िल्म कंपनी को स्टंट फ़िल्में बनाने में विशिष्टता हासिल थी। इनकी अधिकतर फ़िल्मों का निर्देशन होमी वाडिया किया करते थे और इन फ़िल्मों की नायिका नाडिया हुआ करती थीं, जो 'फियरलेस नाडिया' के नाम से सिनेमा जगत में आज तक मशहूर हैं। निर्देशक होमी वाडिया ने बाद में नाडिया से शादी भी कर ली थी। इस कंपनी ने स्टंट फ़िल्मों के अलावा दूसरे विश्वयुद्ध से जुड़े कई वृत्तचित्रों और न्यूज़ रीलों का निर्माण भी किया था।[1]

फ़िल्म निर्माण

इस कंपनी की प्रथम फ़िल्म 'लाल-ए-यमन' थी, जिसकी कथा जादुई करिश्मों पर आधारित थी जो पारसी थिएटर के लिए लिखी गई थी। सन 1935 में निर्मित 'देश-दीपक' फ़िल्म एक राजा-रानी की कथा पर आधारित थी, जिस पर पारसी थियेटर की छाप स्पष्ट थी। 'वाडिया मूवीटोन' की इसी फ़िल्म से नाडिया का प्रवेश हुआ था। इस फ़िल्म के कथाकार थे जोसेफ डेविड, जिन्होंने भारत की प्रथम सवाक फ़िल्म 'आलम आरा' की कथा लिखी थी। उसी वर्ष बनी फ़िल्म 'हिंद केसरी' से होमी वाडिया ने फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश किया। सन 1935 में ही होमी वाडिया ने नाडिया को लेकर 'हंटरवाली' फ़िल्म बनाई जो अत्यंत लोकप्रिय हुई। लोगों ने फ़िल्म में नाडिया के दिलेर और हैरतअंगेज़ स्टंट को बहुत सराहा।

नाडिया फ़िल्म से 'फियरलेस नाडिया' (निडर नादिया) के नाम से मशहूर हो गई। इस फ़िल्म की कथा एक राज घराने की पृष्ठभूमि पर आधारित है। उस राज्य की राजकुमारी मुखौटा पहनकर ग़रीबों पर अत्याचार करने वाले अत्याचारियों पर हंटर से वार कर ग़रीबों की रक्षा करती है। नाडिया चलती हुई रेलगाड़ी की छतों पर स्टंट के दृश्यों को साहस के साथ जीवंत रूप में करने में माहिर थीं। किसी नायिका का ऐसे दृश्यों को करना दर्शकों के लिए आश्चर्य और रोमांच से भरा होता था, इसलिए ये फ़िल्में ख़ूब लोकप्रिय हुईं। निडर नाडिया के इसी स्टंट को भुनाकर 'वाडिया मूवीटोन' ने कई फ़िल्में बनाईं, जिसमें सन 1936 में निर्मित 'मिस फ़्रांटियर मेल', सन 1939 में निर्मित 'पंजाब मेल' और सन 1940 में बनी 'डायमंड क्वीन' फ़िल्में आज तक याद की जाती हैं।

राजकमल कला मंदिर

सन 1942 के अंत तक वाडिया मूवीटोन भीतरी लड़ाई-झगड़ों के कारण बंद हो गई। इस कंपनी को वी. शांताराम ने ख़रीद कर इसे ही अपनी निर्माण संस्था 'राजकमल कला मंदिर' नाम से स्थापित किया। वर्तमान में वाडिया परिवार के लोग मिलकर 'वाडिया मूवीटोन' के नाम से ही टेलीविज़न कार्यक्रमों का निर्माण कर रहे हैं।[1]

वितीय विश्वयुद्ध और भारतीय सिनेमा

फ़िल्म निर्माण कंपनियों का प्रारम्भ वैसे तो सन 1918 के आसपास हो चुका था और यह सन 1940 तक निर्बाध गति से फ़िल्म निर्माण करती रहीं। एक आंकड़े के अनुसार सन 1935 में पूरे भारत में छोटी-बड़ी मिलाकर कुल 85 फ़िल्म निर्माण कंपनियाँ मिलकर फ़िल्मों का निर्माण कर रहीं थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध कालीन स्थितियों में भारतीय फ़िल्म निर्माण व्यवस्था काफ़ी प्रभावित हुई। इसका व्यापक असर फ़िल्म बाज़ार पर पड़ा। इस कारण कई फ़िल्म कंपनियाँ वित्तीय संकट के कारण बंद होने लगीं।

भारतीय सिनेमा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद परिवर्तन के दौर से गुज़रने लगा। यह परिवर्तन फ़िल्म उद्योग के पुनर्व्यवस्थीकरण के क्षेत्र के साथ-साथ फ़िल्मों के विषय और उसकी प्रस्तुति के ढंग पर भी दिखाई देने लगा था। इसी कारण सन 1946 में बनी फ़िल्मों में, विशेष रूप से नवगठित 'इप्टा' की द्वारा बनी फ़िल्म 'धरती के लाल', चेतनानन्द की फ़िल्म 'नीचा नगर', वी. शांताराम की 'सस्ता' राजकमल कला मंदिर की फ़िल्म 'डॉ कोटनिस की अमर कहानी' की कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण पर द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से उत्पन्न परिस्थितियों का तथा भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। ये तीनों फ़िल्में भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और इन्हें विदेशी सिनेमा जगत में भी अनूठी पहचान प्राप्त हुई।

भारतीय सिनेमा को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता

15 अगस्त सन 1947 को देश आज़ाद हुआ। आज़ाद भारत के उन्मुक्त वातावरण में भारतीय सिनेमा को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। भारतीय सिनेमा में इस नए युग की छवि स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी। इसी वर्ष बंगाल के सत्यजित रे और चिदानंद दास गुप्त ने कुछ लोगों के साथ 'कलकत्ता फ़िल्म सोसाइटी' गठन कर लोगों में सिनेमा के प्रति नई संवेदनाओं और जागृति का संचार करने में जुट गए। आज़ादी का उत्सव मनाने के लिए 'भारतीय मोशन पिक्चर्स प्रोड्यूसर्स एसोसिएयशन' (आईएमपीपीए) ने 'आज़ादी का उत्सव' नाम से एक फ़िल्म का निर्माण कर इसे हर जगह थियेटरों में प्रदर्शित किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति से भारतीय फ़िल्म उद्योग की सरकार से उम्मीदें बढ़ गईं। फ़िल्म निर्माण जगत को आशा थी कि भारत सरकार भी फ़िल्म निर्माण को प्रोत्साहित करेगी और उनकी सहायता करेगी, लेकिन सन 1948 में प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने सिनेमा थियेटरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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