बौद्ध साहित्य में अयोध्या
बौद्ध साहित्य में अयोध्या
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विवरण | अयोध्या श्रीराम का जन्म स्थान है। यह उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध धार्मिक नगरों में से एक है। भगवान बुद्ध से भी इस प्राचीन नगरी का घनिष्ठ सम्बंध रहा है। |
पाली ग्रंथों में नाम | 'अयोज्झा' तथा 'अयुज्झनगर' |
विशेष | प्राचीन भारतीय साहित्य संसार में बौध ग्रंथो में साकेत के रूप में अयोध्या का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है। |
संबंधित लेख | अयोध्या, गौतम बुद्ध, साकेत |
अन्य जानकारी | विख्यात बौद्ध भिक्षु सारिपुत्र एवम अनिरुद्ध के अयोध्या में ठहरने की बात प्रमाण सहित मिलती है। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद जिन चार शक्तिशाली प्रशासनिक इकइयो का उदय हुआ, उनमे अयोध्या भी एक है। |
बौद्ध साहित्य में अयोध्या का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके 'मज्झिमनिकाय' में उन्हें 'कोसलक' (कोशल का निवासी) कहा गया है।[1] प्राचीन भारतीय साहित्य संसार में बौध ग्रंथो में साकेत के रूप में अयोध्या का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है। बुद्ध के समय के छह प्रमुख नगरो में साकेत की गिनती होती थी। विख्यात बौद्ध भिक्षु सारिपुत्र एवम अनिरुद्ध के अयोध्या में ठहरने की बात प्रमाण सहित मिलती है। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद जिन चार शक्तिशाली प्रशासनिक इकइयो का उदय हुआ, उनमे अयोध्या भी एक है।
बुद्ध का अयोध्या में उपदेश
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार कार्य हेतु गौतम बुद्ध अयोध्या में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्सरता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार का निर्माण भी करवाया था।[2]
संयुक्तनिकाय का उल्लेख
'संयुक्तनिकाय' में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त[3] और दारुक्खंधसुक्त[4] का व्याख्यान दिया था। इस सूक्त में भगवान बुद्ध को गंगा नदी के तट पर विहार करते हुए बताया गया है।[5] इसी निकाय की अट्ठकथा में कहा गया है कि यहाँ के निवासियों ने गंगा के तट पर एक विहार बनवाकर किसी प्रमुख भिक्षु संघ को दान कर दिया था।[6] इस प्रकार पालि त्रिपिटक और अट्ठकथा दोनों साक्ष्यों में बुद्धकालीन अयोध्या की स्थिति गंगा नदी के तट पर वर्णित है। सम्भव है कि पालि साहित्यकारों ने दोनों नदियों को पवित्रता के आधार पर एक समझकर प्रयोग किया हो और इसी आधार पर अन्तर स्थापित करने में असफल रहे होंगे।
उल्लेखनीय है कि ह्वेन त्सांग ने भी गंगा नदी पार करके अयोध्या में प्रवेश किया था, जबकि वर्तमान अयोध्या गंगा नदी के तट पर स्थित नहीं है।[7] अत: जब तक हम पालि विवरणों को ग़लत न मानें, बुद्धकालीन अयोध्या का वर्तमान अयोध्या से समीकरण सम्भव नहीं है। बहुत सम्भव है कि पालि त्रिपिटक में वर्णित अयोध्या गंगा नदी के किनारे स्थित इसी नाम का कोई अन्य नगर रहा हो।[8]
पालि ग्रन्थों में अयोध्या
पालि ग्रन्थों में अयोध्या के लिए 'अयोज्झा' तथा 'अयुज्झनगर' शब्द आते हैं। 'अयुज्झा' (अयुज्झनगर) में अरिंदक तथा उसके उत्तराधिकारियों ने शासन किया था।[9] इसे 'कोशल' में स्थित एक नगर से समीकृत किया गया है। 'घट जातक'[10] में अयोध्या के कालसेन नामक नरेश का उल्लेख आया है। इसके शासन काल में अंधकवेण्हु के दस पुत्रों ने इस नगर को बहुत क्षति पहुँचाई थी। उन्होंने आक्रमण करके इसके उद्यानों एवं प्राकारों को क्षतिग्रस्त कर दिया था।[11]
इक्ष्वाकुभूमि
परवर्ती बौद्ध ग्रन्थों में अयोध्या का वर्णन एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मिलता है। धार्मिक क्षेत्र में इसकी महत्ता का कारण सरयू नदी के तट पर इसकी स्थिति तथा इक्ष्वाकु शासकों विशेषकर राम के जीवन के साथ इसका सम्बन्ध था। इसी कारण अयोध्या को 'इक्ष्वाकुभूमि' तथा 'रामपुरी' भी कहते थे।[12]
हर्षवर्धन का समय
सम्राट हर्षवर्धन के राजत्व काल में सन 629 में चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने अयोध्या की यात्रा के दौरान यहाँ की वैभव शाली परम्पराओं एवं नागरिकों के स्नेह पूर्ण व्यवहार का वर्णन किया है। इस सम्बन्ध में प्राचीनतम बौद्ध साहित्य में वर्णित तथ्यों की पुष्टि कालांतर में ह्वेन त्सांग के द्वारा होती है। अयोध्या साम्प्रदायिक एवं धार्मिक संकीर्णता या सामाजिक विघटनकारी प्रबत्तियो से अलग, अपूर्व और अद्वितीय ज्ञान केंद रही है। प्रमाणों की परिधि इस बात को स्पष्ट करती है कि अयोध्या मूलतः मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम की जन्म भूमि रही है, जिसे बौद्धों ने वेद विरुद्ध धार्मिक पुनर्जागरण काल में अपना केंद्र बनाया। राजसत्ता के परिवर्तनों के साथ साकेत में भी परिवर्तनों का दौर चला। अयोध्या मुस्लिम शासन काल में भी सन 1206 से 1800 तक आद्यात्मिक विरासत की धरोहर बनी रही। भक्ति आंदोलनों के दौरान भी यह अनेक संतो की आराधना स्थली बनी। वैष्णव भक्ति शाखा के अग्रदूत रामानंदाचार्य की रामोपासना के आदर्शों में लीन साधक, भक्तों की भक्त भूमि अयोध्या ही रही। गोस्वामी तुलसीदास के भक्ति साहित्य की रचना स्थली अयोध्या ही थी। नाभादास ने अयोध्या नगरी से बाहर रहकर भी 'भक्तमाल' की रचना कर भक्ति परम्परा को अमर कर दिया।[13]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124
- ↑ मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165
- ↑ संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे
- ↑ तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179
- ↑ संयुक्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद), भाग 1, पृष्ठ 382
- ↑ सारत्थप्पकासिनी, भाग 2, पृष्ठ 320; भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 252
- ↑ वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 354
- ↑ विनयेंद्रनाथ चौधरी, बुद्धिस्ट सेंटर्स इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, 1969) पृष्ठ 81
- ↑ दीपवंस, भाग 2, पृष्ठ 15; वमसत्थप्पकासिनी (पालि टेक्ट्स सोसायटी), भाग 1, पृष्ठ 127; विमलचरण लाहा, इंडोलाकिल स्टडीज, भाग 3, पृष्ठ 23
- ↑ घट जातक, संख्या 454
- ↑ जाति (फाउसबाल संस्करण), खण्ड 4, पृष्ठ 82-83
- ↑ विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 24; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृष्ठ 7
- ↑ अयोध्या इतिहास के आइने में (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 08 नवम्बर, 2013।
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