मध्यकाल में अयोध्या
मध्यकाल में अयोध्या
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विवरण | 'अयोध्या' भगवान श्रीराम से सम्बंधित एक धार्मिक नगरी है। हिंदुओं के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से यह एक है। कई धार्मिक ग्रंथों व महाकाव्यों में इसका वर्णन हुआ है। |
विशेष | मध्य काल में मुस्लिमों के उत्कर्ष के समय अयोध्या उपेक्षित ही बनी रही। मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर मसजिद बनवाई। |
संबंधित लेख | अयोध्या, बौद्ध साहित्य में अयोध्या, महाकाव्य में अयोध्या |
अन्य जानकारी | यह माना जाता है कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई। |
मध्य काल में मुस्लिमों के उत्कर्ष के समय अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही। यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मसजिद बनवाई, जो आज भी विद्यमान है। मसजिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर 'कनक भवन' आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू नदी को छोड़कर भगवान राम के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।
विस्तार
सुखोदय राज्य की अवनति के पश्चात् 1350 ई. में स्याम में अयोध्या राज्य की स्थापना की गई थी। इसका श्रेय उटोंग के शासक को दिया जाता है, जिसने रामाधिपति की उपाधि ग्रहण की थी। अपने राज्य की राजधानी उसने 'अयुठिया' या 'अयोध्या' में बनाई। इस राज्य का प्रभुत्व धीरे-धीरे लाओस और कंबोडिया तक स्थापित हो गया था। किंतु बर्मा (वर्तमान म्यांमार) के राजाओं ने अयोध्या के विस्तार को रोक दिया। 1767 ई. में बर्मा के स्याम पर आक्रमण के समय अयोध्या नगरी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया और तत्पश्चात् स्याम की राजधानी बैंकॉक में बनी।
सांप्रदायिक असहिष्णुता
हिंदू धार्मिक नेताओं के बीच सांप्रदायिक असहिष्णुता का स्पष्ट उदाहरण अयोध्या के मध्यकालीन इतिहास से लिया जा सकता है, जब तक औरंगज़ेब का शासन था। उसके लौह हस्त के बीच अयोध्या में सब कुछ शांत रहा, पर 1707 में उसकी मृत्यु के बाद वहाँ शैव सन्न्यासियों और वैष्णव वैरागियों के संगठित दलों के बीच खुला और हिंसक टकराव हुआ। इन दोनों के बीच विवाद का मुद्दा यह था कि धार्मिक स्थलों पर किसका क़ब्ज़ा रहे और तीर्थ यात्रियों की भेंट और उपहारों से प्राप्त होने वाली आय किसके हाथ लगे। 1804-1805 की एक पुस्तक से इन दोनों संप्रदायों के बीच होने वाले हिंसक टकरावों के बारे में उद्धरण दिये जा सकते हैं-
"उस समय जब राम जन्म दिवस का अवसर आया, लोग बड़ी संख्या में कौसलपुर में एकत्र हुए। कौन उस जबर्दस्त भीड़ का वर्णन कर सकता है। उस स्थान पर हथियार लिये जटाजूटधारी और अंग-प्रत्यंग में भस्म रमाये असीमित संन्यासी वेश में बलिष्ठ योद्धा उपस्थित थे। वह युद्ध के लिए मचलती सैनिकों की असीम सेना थी। वैरागियों के साथ लड़ाई छिड़ गयी। इस लड़ाई में वैरागियों को कुछ भी हाथ न लगा, क्योंकि उनके पास रणनीति का अभाव था। उन्होंने वहां उनकी ओर बढ़ने की गलती की। वैरागी वेशभूषा दुर्गति का कारण बन गयी। वैरागी वेशभूषा वाले सारे लोग भाग खड़े हुए। उनसे बहुत दूर (सन्न्यासियो से) उन्होंने अवधपुर का परित्याग कर दिया। जहां भी उन्हें (सन्न्यासियों को) वैरागी वेष में लोग नजर आते, वे उन्हे भयावह रूप से आतंकित करते। उनके डर से हर कोई भयभीत था और जहां भी संभव हो सका, लोगों ने गुप्त स्थानों में शरण ली और अपने को छिपा लिया। उन्होंने अपना बाना बदल डाला और अपने संप्रदाय संबंधी चिह्र छिपा दिये। कोई भी अपनी सही-सही पहचान नहीं प्रकट कर रहा था।[1][2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हैंसबेकर, अयोध्या, गोरनिंगनन, 1986, पृष्ठ 149 में श्रीमहाराजचरित रघुनाथ प्रसाद से उद्धृत।
- ↑ शर्मा, प्रो. रामशरण शर्मा। मुस्लिम हमलावरों की लूटपाट और ऐतिहासिक तथ्य (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 08 नवम्बर, 2013।
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