ब्राह्मण ग्रन्थों का साहित्यिक वैशिष्टय

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साहित्यिक वैशिष्टय

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सम्प्रति, मैक्समूलर और उनके अनुयायियों की वह धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में कलात्मक चेतना के अवशेष नहीं हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के गम्भीर अनुशीलन से अब यह प्रोद्भासित हो चुका है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से ब्राह्मण ग्रन्थों में उत्कृष्ट साहित्यिक सौष्ठव सन्निहित है। इनकी अभिव्यक्ति-भंगिमाओं की रमणीयता पाठक-हृदय को पुलक-पल्ल्वित कर देती है। ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रणयन यद्यपि काव्यात्मक सौन्दर्य के उन्मीलन हेतु नहीं हुआ है और उनका प्रमुख प्रतिपाद्य भी काव्य नहीं याग ही है, तथापि इनके रचयिताओं का अन्त:करण नि:सन्देह कलात्मक चेतना से अनुप्राणित रहा है। याग के सुनिश्चित व्यापारों की प्रस्तुति करते समय भी उन्होंने कल्पना-प्रवणता का परिचय दिया है। सामवेदिय ब्राह्मणग्रन्थों को इस सन्दर्भ में निदर्शनरूप में रखा जा सकता है, जिनमें स्तोमों और विष्टुतियों की योजना करते हुए केवल दृष्ट और अदृष्ट पुण्य-लाभ की ही दृष्टि नहीं रही है। उनके सम्मुख-स्तोत्र-क्लृप्ति के सन्दर्भ में यह दृष्टि भी स्पष्टरूप से हो रही है कि गानों की प्रस्तुति में कलात्मकता रहे, पतिवेश श्रुति-मधुर हो उठे, पुनरुक्ति न हो और क्रियमाण साम-गान सम्पूर्ण वातावरण को सरस बना दे।

इस सन्दर्भ में 'जामि' और 'यातयामता' सदृश शब्दों का प्रयोग किया गया है। इनका अभिप्राय है कि एक ही गान की पौन:पुन्येन उसी तारतम्य में, उसी स्वर-मण्डल में आवृति से अप्रिय और अरुचिकर वातावरण हो जाता है। इसके परिहार के लिए ब्राह्मणग्रन्थकारों ने निरन्तर सजगता रखी है। ब्राह्मण-ग्रन्थों में रस-निष्पत्ति और भाव-व्यंजन के स्थल भले ही पुष्कल न हों, किन्तु मानवीय मनोभावों की ब्राह्मणग्नन्थकारों को गहरी पहचान है। अर्थवादों का सेवैविध्यपूर्ण वितान वस्तुत: मानवीय मनोविज्ञान की आधार-शिला पर ही प्रतिष्ठित है। मनुष्य के अन्तर्तम में निहित वासनाओं, कामनाओं और आकांक्षाओं को समझे बिना प्रशस्ति या निन्दा के माध्यम से याग की प्रेरणा ही नहीं उत्पन्न की जा सकती। अतएव चेतना के निगूढ़ स्तरों में सुप्त अथवा अर्धसक्रिय संस्कारों से अनुस्यूत विभिन्न कामनाओं-प्रियपत्नी, वंशवदपुत्र, सामाजिक प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य, अप्रिय व्यक्तियों और शत्रुओं के विनाश, मरणोत्तर सुखद जीवन और अन्त में वासनओं के उपशम को ध्यान में रखकर ही अर्थवाद का समानान्तर संसार ब्राह्मणग्रन्थकारों ने रचा है। साहित्य में स्थायीभावों की योजना जिन मूल मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों-राग, क्रोध, भय, विस्मय, घृणा और विराग के आधार पर की गई है, उनकी ब्राह्मणग्रन्थों को गहरी प्रतीति है। काव्यात्मक रमणीयता का दूसरा पक्ष अभिव्यक्तिमूलक है, जिसके सन्दर्भ में ब्राह्मणग्रन्थों में लाक्षणिकता, उपमा और रूपक-विधान, पदावृत्ति तथा अक्षरावृत्तिराज्य लालित्य एवं संश्लिष्ट प्रस्तुति मुख्यत: दिखलाई देती है। इनके आलोक में ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य को प्रभावोत्पादक सम्प्रेषणीयता प्राप्त हुई है।


ब्राह्मणग्रन्थों में विद्यमान लाक्षणिक प्रवृत्ति की ओर सर्वप्रथम हमारा ध्यानाकर्षण निरुक्तकार यास्क ने किया। उनका कथन है- बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि[1] अभिप्राय यह है कि ब्राह्मणग्रन्थों में, देवताओं के विषय में, भक्ति अथवा गुण-कल्पना के माध्यम से बहुविध तात्त्विक अन्वेषण हुआ है। अर्थवादों के तीन भेद हैं-

  • गुणवाद,
  • अनुवाद और
  • भूतार्थवाद।

इनमें से गुणवाद लक्षणा के अत्यन्त निकट है। परवर्ती मीमांसकों और काव्यशास्त्र के आचार्यों ने दोनों को एक ही मानकर विवेचन किया है। गुणवाद के सन्दर्भ में ब्राह्मणग्रन्थों में प्राप्त उदाहरण इस प्रकार हैं- 'स्तेनं मन:', 'आदित्यो यूप:', 'श्रृणोत ग्रावाण:' इत्यादि। इनकी सीधे-सीधे अभिधाशक्ति से व्याख्या नहीं की जा सकती। 'पत्थर सुनें!' यह कथन आपातत: उन्मत्त प्रलाप के सदृश प्रतीत होता है। इसी कारण इस प्रकार के वाक्यों में मीमांसकों ने लक्षणा का आश्रय लिया है, जिसका अभिप्राय प्रातरनुवाक की मार्मिकता का द्योतन है जिसे प्रस्तर भी तन्मयता से सुनते हैं, फिर विद्वानों और सहृदयों की बात ही क्या। नदी की स्तुति के सन्दर्भ में प्राप्त विशेषणों 'चक्रवाकस्तनी', 'हंस-दन्तावली', 'काशवस्त्रा', और 'शेवालकेशिनी' की व्याख्या शाबरभाष्य में भी लाक्षणिक दृष्टि से की गई है। उनका कथन है-
असतोऽर्थस्य अभिधायके वाक्ये गौणस्य अर्थस्य उक्तिर्द्रष्टव्या।[2]
साहित्यशास्त्र के ग्रन्थों में, लक्षणा-निरूपण के प्रसंग में, आचार्यों ने इसलिए 'सिंहो माणवक:', 'गार्वाहीक:' प्रभृति लौकिक उदाहरणों के साथ ही 'यजमान: प्रस्तर:', 'आदित्यो यूप:' प्रभृति ब्राह्मणग्रन्थोक्त उदाहरण उन्मूक्तता से दिये हैं। उपमा और रूपकों के विधान से भी ब्राह्मणग्रन्थों की सम्प्रेषणीयता अत्यन्त प्राणमयी हो उठी है। षडविंश ब्राह्मण से उपमा के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं-

  • विधि-विधान से परिचय प्राप्त किये बिना होम करना वैसे ही है जैसे अंगारों को हटाकर राख में आहुति डालना-

स य इदमविद्वान् अग्निहोत्रं जुहोति यथाङ्गारानपोह्य भस्मनि जुहुयात् तादृक् तत् स्यात्।[3]

  • जैसे क्षुधित बालक माता के पास जाते हैं, वैसे ही कष्ट में पड़े प्राणी भी अग्निहोत्र करते हैं।[4]

ताण्ड्य ब्राह्मण के अनुसार यज्ञ में अध्वर्यु-प्रमुख ॠत्विक् वैसे ही वहिष्पवमान में प्रसर्पण करते हैं, जैसे अहेरी मृग को पकड़ने के लिए आगे बढ़ता है-मन्द-मन्द गीत से बिना आहट किये।[5] ब्राह्मणग्रन्थों में रूपक-विधान की उपादेयता पर प्रकाश डाला है मीमांसकों ने। 'अभिधानेऽर्थवाद:'[6] की व्याख्या के प्रसंग में कुमारिल भट्ट का कथन है कि रूपक के द्वारा यज्ञ की स्तुति अनुष्ठान-काल में ॠत्विजों और यजमानों तथा अन्य समवेत व्यक्तियों में भी उत्साहभाव का संचार करती है-
रूपकद्वारेण याग-स्तुति: कर्मकाले उत्साहं करोति।
ब्राह्मण ग्रन्थों में रूपकों की विशाल राशि विद्यमान है। सर्वाधिक रूपक नर-नारी-सम्बन्ध पर आधृत हैं। लौकिक जीवन में मिथुनभाव के प्रति मानव-मन में सहज और स्वाभाविक आकर्षण देखा जाता है। अदृष्ट और अपूर्व की अवधारणाओं को कुछ क्षणों के लिए परे रखकर यदि विचार किया जाय, तो कहा ज सकता है कि मानवीय अभिरुचि को ध्यान में रखकर ही ब्राह्मणग्रन्थकारों ने युग्मजीवन के रूपकों को याग-क्रिया के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। ताण्ड्य ब्राह्मण[7] में बहुत ही लम्बा रूपक मिलता है। तपस्या, सत्य, ओज, यश, प्राणशक्ति, आशा, बल, वाक् आदि की इस विश्व-सृष्टि में क्या भूमिका है, इसे विश्वस्त्रष्टा देवों के द्वारा अनुष्ठीयमान यागात्मक रूपक के माध्यम से यों व्यक्त किया गया है। तदनुसार विश्वसृष्टि एक महायज्ञ है, जिसमें तपस्या गृहपति, ब्रह्म (वैदिक ज्ञानराशि) ब्रह्मा, हरा गृहपत्नी, अमृत उद्गाता, भूतकाल प्रस्तोता, भविष्यत्काल प्रतिहर्ता, ॠतुएँ उपगाता, आर्त्तव वस्तुएँ सदस्य, सत्य होता, ॠत मैत्रावरुण, ओज ब्राह्मणच्छंसी, त्विषि और अपचिति क्रमश: नेष्टा और पोता, यश अच्छावाक, अग्नि अग्नीत्, भग ग्रावस्तुत, अक्र उन्नेता, वाक् सुब्रह्यण्य, प्राण अध्वर्यु, अपान प्रतिप्रस्थाता, दिष्टि विशास्ता, बल ध्रुवगोप, आशा हविष्य, अहोरात्र इध्मवाह और मृत्यु शमितास्वरूप हैं। आशारूप हविष्य पर चलने वाले जीवन-यज्ञ की कितनी प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है। इस प्रकार के रूपकों की रमणीय सृष्टि ब्राह्मणग्रन्थकारों की साहित्यिक प्रतिभा के प्रति हमें आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त है। ब्राह्मण-साहित्य का गम्भीर अनुशीलन इसलिए भी आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि वह वैदिक और लौकिक साहित्य के मध्य सेतु-स्वरूप है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निरुक्त 7.24
  2. द्र., सायण, ऋग्वेद भाष्यभूमिका, पृष्ठ, 21
  3. षड्विंशब्राह्मण 5.24.1
  4. षड्विंशब्राह्मण 5.24.5
  5. ताण्ड्य ब्राह्मण, 6.7.10
  6. जैमनीय मीमांसासूत्र, 1.2.46
  7. ताण्ड्य ब्राह्मण, 25.18.4

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