मार्कण्डेय पुराण

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मार्कण्डेय पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ

'मार्कण्डेय पुराण' आकार में छोटा है। इसके एक सौ सैंतीस अध्यायों में लगभग नौ हज़ार श्लोक हैं। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा इसके कथन से इसका नाम 'मार्कण्डेय पुराण' पड़ा। यह पुराण वस्तुत: दुर्गा चरित्र एवं दुर्गा सप्तशती के वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। इसीलिए इसे शाक्त सम्प्रदाय का पुराण कहा जाता है। पुराण के सभी लक्षणों को यह अपने भीतर समेटे हुए है। इसमें ऋषि ने मानव कल्याण हेतु सभी तरह के नैतिक, सामाजिक आध्यात्मिक और भौतिक विषयों का प्रतिपादन किया है। इस पुराण में भारतवर्ष का विस्तृत स्वरूप उसके प्राकृतिक वैभव और सौन्दर्य के साथ प्रकट किया गया है।

दुर्गा देवी
Durga Devi

गृहस्थ-धर्म की उपयोगिता

इस पुराण में धनोपार्जन के उपायों का वर्णन 'पद्मिनी विद्या' द्वारा प्रस्तुत है। साथ ही राष्ट्रहित में धन-त्याग की प्रेरणा भी दी गई है। आयुर्वेद के सिद्धान्तों के अनुसार शरीर-विज्ञान का सुन्दर विवेचन भी इसमें है। 'मन्त्र विद्या' के प्रसंग में पत्नी को वश में करने के उपाय भी बताए गए हैं। 'गृहस्थ-धर्म' की उपयोगिता, पितरों और अतिथियों के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह, विवाह के नियमों का विवेचन, स्वस्थ एवं सभ्य नागरिक बनने के उपाय, सदाचार का महत्त्व, सत्संग की महिमा, कर्त्तव्य परायणता, त्याग तथा पुरुषार्थ पर विशेष महत्त्व इस पुराण में दिया गया है।

निष्काम कर्म

'मार्कण्डेय पुराण' में सन्न्यास के बजाय गृहस्थ जीवन में निष्काम कर्म पर विशेष बल दिया गया है। मनुष्यों को सन्मार्ग पर चलाने के लिए नरक का भय और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का सहारा लिया गया है। करुणा से प्रेरित कर्म को पूजा-पाठ और जप-तप से श्रेष्ठ बताया गया है। ईश्वर प्राप्ति के लिए अपने भीतर ओंकार (ॐ) की साधना पर ज़ोर दिया गया है। यद्यपि इस पुराण में 'योग साधना' और उससे प्राप्त होने वाली अष्ट सिद्धियों का भी वर्णन किया गया है, किन्तु 'मोक्ष' के लिए आत्मत्याग और आत्मदर्शन को आवश्यक माना गया है। संयम द्वारा इन्द्रियों को वश में करने की अनिवार्यता बताई गई है। विविध कथाओं और उपाख्यानों द्वारा तप का महत्त्व भी प्रतिपादित किया गया है।

समान रूप से आदर

ब्रह्मा
Brahma

इस पुराण में किसी देवी-देवता को अलग से विशेष महत्त्व नहीं दिया गया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, अग्नि, दुर्गा, सरस्वती आदि सभी का समान रूप से आदर किया गया है। सूर्य की स्तुति करते हुए वैदिकों की पराविद्या, ब्रह्मवादियों की शाश्वत ज्योति, जैनियों का कैवल्य, बौद्धों की बोधावगति, सांख्यों का दर्शन ज्ञान, योगियों का प्राकाम्य, धर्मशास्त्रियों की स्मृति और योगाचार का विज्ञान आदि सभी को सूर्य भगवान के विभिन्न रूपों में स्वीकार किया गया है।

जैन मस्तक
Head of a Jina

'मार्कण्डेय पुराण' में मदालसा के कथानक द्वारा जहां ब्राह्मण धर्म का उल्लेख किया गया है, वहीं अनेक राजाओं के आख्यानों द्वारा क्षत्रिय राजाओं के साहस, कर्त्तव्य परायणता तथा राजधर्म का सुन्दर विवेचन भी दिया गया है। पुराणकार कहता है कि जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता, वह नरकगामी होता है। मद्यपान के दोषों को बलराम के प्रसंग द्वारा और क्रोध तथा अहंकार के दुष्परिणामों पर वसिष्ठ एवं विश्वामित्र के कथानकों द्वारा प्रकाश डाला गया है।

बुद्ध
Buddha

विस्तृत व्याख्या की दृष्टि से इस पुराण के पांच भाग किए जा सकते हैं-

  • पहला भाग- पहले भाग में जैमिनी ऋषि को महाभारत के सम्बन्ध में चार शंकाएं हैं, जिनका समाधान विन्ध्याचल पर्वत पर रहने वाले धर्म पक्षी करते हैं।
  • दूसरा भाग- दूसरे भाग में जड़ सुमति के माध्यम से धर्म पक्षी सर्ग प्रतिसर्ग अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति, प्राणियों के जन्म और उनके विकास का वर्णन है।
  • तीसरा भाग- तीसरे भाग में ऋषि मार्कण्डेय अपने शिष्य क्रोष्टुकि को पुराण के मूल प्रतिपाद्य विषय- सूर्योपासना और सूर्य द्वारा समस्त सृष्टि के जन्म की कथा बताते हैं।
  • चौथा भाग- चौथे भाग में 'देवी भागवत पुराण' म् वर्णित 'दुर्गा चरित्र' और 'दुर्गा सप्तशती' की कथा का विस्तार से वर्णन है।
  • पांचवां भाग- पांचवें भाग में वंशानुचरित के आधार पर कुछ विशेष राजवंशों का उल्लेख है।

महाभारत

'महाभारत' के सम्बन्ध में पूछे गए चार प्रश्नों के उत्तर में धर्म पक्षी बताते हैं कि श्रीकृष्ण के निर्गुण और सगुण रूप में राग-द्वेष से रहित वासुदेव का प्रतिरूप, तमोगुण से युक्त शेष का अंश, सतोगुण से युक्त प्रद्युम्न की छाया, रजोगुण से युक्त अनिरुद्ध की प्रगति विद्यमान है। वे समस्त चराचर जगत् के स्वामी हैं और अधर्म तथा अन्याय का विनाश करने के लिए सगुण रूप में अवतार लेते हैं।

कृष्ण और अर्जुन
Krishna And Arjuna

द्रौपदी के पांच पतियों से सम्बन्धित दूसरे प्रश्न के उत्तर में वे बताते हैं कि पांचों पाण्डव देवराज इन्द्र के ही अंशावतार थे और द्रौपदी इन्द्र की पत्नी शची की अंशावतार थी। अत: उसका पांच पतियों को स्वीकार करना पूर्वजन्म की कथा से जुड़ा प्रसंग है। इस प्रकार बहुपतित्व के रूप को दोष रहित बताने का विशेष प्रयास किया गया है।

तीसरा प्रश्न महाबली बलराम द्वारा तीर्थयात्रा में ब्रह्यहत्या के शाप के संबंध में था उसके विषय में धर्म पक्षी बताते हैं कि मद्यपान करने वाला व्यक्ति अपना विवेक खो बैठता है। बलराम भी मद्यपान के नशे में ब्रह्महत्या कर बैठे थे। मद्यपान का दोष सच्चे पश्चाताप से दूर किया जा सकता है और ब्रह्महत्या के शाप से मुक्ति मिल सकती है।

चौथा प्रश्न, द्रोपदी के अविवाहित पुत्रों की हत्या की शंका के उत्तर में धर्म पक्षी सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सम्पूर्ण कथा का वर्णन करते हैं। राजत्याग करके जाते राजा हरिश्चन्द्र और उनकी पत्नी शैव्या पर विश्वामित्र का अत्याचार देखकर पांचों विश्वदेव विश्वामित्र को पापी कहते हैं। इस पर विश्वामित्र उनको शाप दे डालते हैं। उस शाप के वशीभूत वे पांचों विश्वदेव कुछ काल के लिए द्रोपदी के गर्भ से जन्म लेते हैं। वे शाप की अवधि पूर्ण होते ही अश्वत्थामा द्वारा मारे जाते हैं और पुन: देवत्व प्राप्त कर लेते हैं।

मदालसा

इस प्रसंग के द्वारा और भार्गव पुत्र सुमति के प्रसंग के माध्यम से पुनर्जन्म के सिद्धान्त का बड़ा सुन्दर चित्रण 'मार्कण्डेय पुराण' में किया गया है। साथ ही इस पुराण में नारियों के पतिव्रत धर्म को बहुत महत्त्व दिया गया है। मदालसा का आख्यान नारी के उदात्त चरित्र को उजागर करता है। मदालसा अपने तीन पुत्रों को उच्च कोटि की आध्यात्मिक शिक्षा देती है। वे वैरागी हो जाते हैं। तब शव्य के लिए चिन्तित पति के कहने पर वह अपने चौथे पुत्र को धर्माचरण, सत्संगति, राजधर्म, कर्त्तव्य परायण और एक आदर्श राजा के रूप में ढालती है। इस प्रकार उसके कथानक से माता की महत्ता, अध्यात्म, वैराग्य, गृहस्थ धर्म, राजधर्म, राजधर्म, कर्त्तव्य पालन आदि की अच्छी शिक्षा प्राप्त होती है।

सृष्टि का विकास क्रम

सृष्टि के विकास क्रम में पुराणकार ब्रह्मा द्वारा पुरुष का सृजन और उसके आधे भाग से स्त्री का निर्माण तथा फिर मैथुनी सृष्टि से पति-पत्नी द्वारा सृष्टि का विकास किया जाना बताते हैं। इस पुराण में जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्राँच, शाक और पुष्कर आदि सप्त द्वीपों का सुन्दर वर्णन किया गया है। सारी सृष्टि को सूर्य से ही उत्पन्न माना गया है। सूर्य पुत्र वैवस्वत मनु से ही सृष्टि का प्रारम्भ कहा गया है। इस पुराण में सूर्य से सम्बन्धित अनेक कथाएं भी हैं।

दुर्गा चरित्र और दुर्गा सप्तशती की कथा में मधु-कैटभ, महिषासुर वध, शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज आदि असुरों के वध के लिए देवी अवतारों की कथाएं भी इस पुराण में प्राप्त होती हैं। जब-जब आसुरी प्रवृत्तियां सिर उठाती हैं, तब-तब उनका संहार करने के लिए देवी-शक्ति का जन्म होता है। पुराणों की काल गणना में मन्वन्तर को एक इकाई माना गया है। ब्रह्मा का एक दिन चौदह मन्वन्तरों का होता है। इस गणना के अनुसार ब्रह्मा का एक दिन आज की गणना के हिसाब से एक करोड़ उन्नीस लाख अट्ठाईस हज़ार दिव्य वर्षों का होता है। एक चतुर्युग में बारह हज़ार दिव्य वर्ष होते हैं। ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं। पुराणों की यह काल गणना अत्यंत अद्भुत है।

इस पुराण में पृथ्वी का भौगोलिक वर्णन नौ खण्डों में है। ऋषियों द्वारा यह काल गणना, पृथ्वी का भौगोलिक वर्णन तथा ब्रह्माण्ड की असीमता गूढ़ रूप में योग साधना की अंग हैं। ब्रह्माण्ड रचना शरीर में स्थित इस ब्रह्माण्ड के लघु रूप से सम्बन्धित ही दिखाई पड़ती है, जो अत्यन्त गोपनीय है।


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