जगन्नाथ रथयात्रा
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तिथि | जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। |
धार्मिक मान्यता | वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। |
प्रसिद्धि | भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। |
संबंधित लेख | जगन्नाथ मंदिर पुरी |
रथ का निर्माण | भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु को नहीं लगाया जाता। |
बाहुड़ा यात्रा | आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। |
अन्य जानकारी | जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों ने भी प्रभावित किया है। |
जगन्नाथ रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक महामहोत्सवों में सबसे प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह रथयात्रा न केवल भारत अपितु विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए भी ख़ासी दिलचस्पी और आकर्षण का केंद्र बनती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली 'जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव' के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह और कहीं दुर्लभ है। इस रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुँचने का बहुत ही सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। देश-विदेश से लाखों लोग इस पर्व के साक्षी बनने हर वर्ष यहाँ आते हैं। भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहाँ बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं।
दर्शन
हिन्दू धर्म में श्रीकृष्ण साक्षात भगवान विष्णु के अवतार हैं। अपने भक्तों को सन्देश देते हुए उन्होंने स्वयं कहा है- |
वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों ने भी प्रभावित किया है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होता है, ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करता है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।
इतिहास
पौराणिक कथाओं के अनुसार 'राजा इन्द्रद्युम्न' भगवान जगन्नाथ को 'शबर राजा' से यहां लेकर आये थे तथा उन्होंने ही मूल मंदिर का निर्माण कराया था जो बाद में नष्ट हो गया। इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। 'ययाति केशरी' ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोल 'गंगदेव' तथा 'अनंग भीमदेव' ने कराया था। परंतु जगन्नाथ संप्रदाय वैदिक काल से लेकर अब तक मौजूद है।
पुरी का मंदिर
रथयात्रा के समय भक्तों को प्रतिमाओं तक पहुँचने का अवसर मिलता है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर भक्तों की आस्था केंद्र है, जहाँ पूरे वर्ष भक्तों का मेला लगा रहता है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर उच्चस्तरीय नक़्क़ाशी और भव्यता लिए प्रसिद्ध है। रथोत्सव के समय इसकी छटा निराली होती है। पुरी के महान् मन्दिर में तीन मूर्तियाँ हैं -
- भगवान जगन्नाथ की मूर्ति
- बलभद्र की मूर्ति
- उनकी बहन सुभद्रा की की मूर्ति।
ये सभी मूर्तियाँ काष्ठ की बनी हुई हैं। पुरी की ये तीनों प्रतिमाएँ भारत के सभी देवी – देवताओं की तरह नहीं होतीं। यह मूर्तियाँ आदिवासी मुखाकृति के साथ अधिक साम्यता रखती हैं। पुरी का मुख्य मंदिर बारहवीं सदी में राजा अनंतवर्मन के शासनकाल के समय बनाया गया। उसके बाद जगन्नाथ जी के 120 मंदिर बनाए गए हैं।
- विशाल मंदिर
जगन्नाथ के विशाल मंदिर के भीतर चार खण्ड हैं -
- प्रथम भोगमंदिर, जिसमें भगवान को भोग लगाया जाता है।
- द्वितीय रंगमंदिर, जिसमें नृत्य-गान आदि होते हैं।
- तृतीय सभामण्डप, जिसमें दर्शकगण (तीर्थ यात्री) बैठते हैं।
- चौथा अंतराल है।
- जगन्नाथ के मंदिर का गुंबद 192 फुट ऊंचा और चवक्र तथा ध्वज से आच्छन्न है। मंदिर समुद्र तट से 7 फर्लांग दूर है। यह सतह से 20 फुट ऊंची एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी गोलाकार है, जिसे 'नीलगिरि' कहकर सम्मानित किया जाता है। अन्तराल के प्रत्येक तरफ एक बड़ा द्वार है, उनमें पूर्व का द्वार सबसे बड़ा और भव्य है। प्रवेश द्वार पर एक 'बृहत्काय सिंह' है, इसीलिए इस द्वार को 'सिंह द्वार' भी कहा जाता है।
- यह मंदिर 20 फीट ऊंची दीवार के परकोटे के भीतर है जिसमें अनेक छोटे-छोटे मंदिर है। मुख्य मंदिर के अलावा एक परंपरागत डयोढ़ी, पवित्र देवस्थान या गर्भगृह, प्रार्थना करने का हॉल और स्तंभों वाला एक नृत्य हॉल है। सदियों से पुरी को अनेक नामों से जाना जाता है जैसे - नीलगिरि, नीलाद्री, नीलाचंल, पुरुषोत्तम, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, जगन्नाथ धाम और जगन्नाथ पुरी। यहां पर बारह महत्त्वपूर्ण त्यौहार मनाये जाते हैं, लेकिन इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण त्यौहार जिसने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है, वह रथयात्रा ही है।
- दस दिवसीय महोत्सव
पुरी का जगन्नाथ मंदिर के दस दिवसीय महोत्सव की तैयारी का श्रीगणेश अक्षय तृतीया को श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण से हो जाता है। कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं।
- गरुड़ध्वज
जगन्नाथ जी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। 16 पहियों वाला यह रथ 13.5 मीटर ऊँचा होता है जिसमें लाल व पीले रंग के वस्त्र का प्रयोग होता है। विष्णु का वाहक गरु़ड़ इसकी रक्षा करता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी' या ‘नंदीघोष’ रथ कहते हैं।
- तालध्वज
बलराम का रथ 'तलध्वज' के नाम से पहचाना जाता है। यह रथ 13.2 मीटर ऊँचा 14 पहियों का होता है। यह लाल, हरे रंग के कप़ड़े व लक़ड़ी के 763 टुक़ड़ों से बना होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को 'उनानी' कहते हैं। 'त्रिब्रा', ;घोरा', 'दीर्घशर्मा' व 'स्वर्णनावा' इसके अश्व हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है, वह 'वासुकी' कहलाता है।
- पद्मध्वज या दर्पदलन
सुभद्रा का रथ 'पद्मध्वज' कहलाता है। 12.9 मीटर ऊँचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कप़ड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का प्रयोग होता है। रथ की रक्षक 'जयदुर्गा' व सारथी 'अर्जुन' होते हैं। रथध्वज 'नदंबिक' कहलाता है। 'रोचिक', 'मोचिक', 'जिता' व 'अपराजिता' इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को 'स्वर्णचूडा' कहते हैं। दसवें दिन इस यात्रा का समापन हो जाता है।[1]
प्रथाएँ
रथयात्रा आरंभ होने से पूर्व पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से सोने के हत्थे वाली झाडू से ठाकुर जी के प्रस्थान मार्ग को बुहारते हैं। इसके बाद मंत्रोच्चार एवं जयघोष के साथ रथयात्रा शुरू होती है। कई वाद्ययंत्रों की ध्वनि के मध्य विशाल रथों को हज़ारों लोग मोटे-मोटे रस्सों से खींचते हैं। सबसे पहले बलभद्र का रथ तालध्वज प्रस्थान करता है। थोड़ी देर बाद सुभद्रा की यात्रा शुरू होती है। अंत में लोग जगन्नाथ जी के रथ को बड़े ही श्रद्धापूर्वक खींचते हैं। लोग मानते हैं कि रथयात्रा में सहयोग से मोक्ष मिलता है, अत: सभी कुछ पल के लिए रथ खींचने को आतुर रहते हैं। जगन्नाथ जी की यह रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है। 'गुंडीचा मंदिर' वहीं है, जहां विश्वकर्मा ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। इसे 'गुंडीचा बाड़ी' भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। सूर्यास्त तक यदि कोई रथ गुंडीचा मंदिर नहीं पहुंच पाता तो वह अगले दिन यात्रा पूरी करता है। गुंडीचा मंदिर में भगवान एक सप्ताह प्रवास करते हैं। इस बीच इनकी पूजा अर्चना यहीं होती है।
- बाहुड़ा यात्रा
आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। शाम से पूर्व ही रथ जगन्नाथ मंदिर तक पहुंच जाते हैं। जहां एक दिन प्रतिमाएं भक्तों के दर्शन के लिए रथ में ही रखी रहती हैं। अगले दिन प्रतिमाओं को मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में पुन: स्थापित कर दिया जाता है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की सौम्य प्रतिमाओं को श्रद्धालु एकदम निकट से देख सकते है। भक्त एवं भगवान के बीच यहां कोई दूरी नहीं रखी जाती। काष्ठ की बनी इन प्रतिमाओं को भी कुछ वर्ष बाद बदलने की परंपरा है। जिस वर्ष अधिमास रूप में आषाढ़ माह अतिरिक्त होता है उस वर्ष भगवान की नई मूर्तियां बनाई जाती हैं। यह अवसर भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही समाधि दी जाती है।[2]
पुराणों के अनुसार
जगन्नाथपुरी का वर्णन स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में मिलता है। जगन्नाथ मंदिर के निजी भृत्यों की एक सेना है जो 36 रूपों तथा 97 वर्गों में विभाजित कर दी गयी है। पहले इनके प्रधान खुर्द के राजा थे जो अपने को जगन्नाथ का भृत्य समझते थे। काशी की तरह जगन्नाथ धाम में भी पंच तीर्थ हैं -
- मार्कण्डेय
- वट (कृष्ण)
- बलराम
- समुद्र और
- इन्द्रद्युम्न सेतु।
जगन्नाथ की रथयात्रा प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास में शुक्ल द्वितीया को होती है। यह एक विस्तृत समारोह है, जिसमें भारत के विभिन्न भागों से आए लोग सहभागी होते हैं। दस दिन तक यह पर्व मनाया जाता है। इस यात्रा को 'गुण्डीय यात्रा' भी कहा जाता है।
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मार्कण्डेय की कथा ब्रह्मपुराण [3] में वर्णित है। विष्णु ने मार्कण्डेय से जगन्नाथ के उत्तर में शिव का मंदिर तथा सेतु बनवाने को कहा था। कुछ समय के उपरान्त यह 'मार्कण्डेय सेतु' के नाम से विख्यात हो गया। ब्रह्म पुराण के अनुसार तीर्थयात्री को 'मार्कण्डेय सेतु' में स्नान करके तीन बार सिर झुकाना तथा मंत्र पढ़ना चाहिए। तत्पश्चात उसे तर्पण करना तथा शिवमंदिर जाना चाहिए।
शिव के पूजन में 'ओम नमः शिवाय' नामक मूल मंत्र का उच्चारण अत्यावश्यक है। अघोर तथा पौराणिक मंत्रों का भी उच्चारण होना चाहिए। तत्पश्चात उसे वट वृक्ष पर जाकर उसकी तीन बार परिक्रमा करनी और मंत्र से पूजा करनी चाहिए। ब्रह्मपुराण [4] के अनुसार वट स्वयं कृष्ण हैं। वह भी एक प्रकार का 'कल्पवृक्ष' ही है। तीर्थ यात्री को श्रीकृष्ण के समक्ष स्थित गरुड़ की पूजा करनी चाहिए और तब कृष्ण, सुभद्रा तथा संकर्षण के प्रति मंत्रोच्चारण करना चाहिए। ब्रह्मपुराण [5] श्रीकृष्ण के भक्तिपूर्ण दर्शन से मोक्ष का विधान करता है।
पुरी में समुद्र स्नान का बड़ा महत्व है, पर यह मूलतः पूर्णिमा के दिन ही अधिक महत्वपूर्ण है। तीर्थयात्री को इन्द्रद्युम्न सेतु में स्नान करना, देवताओं का तर्पण करना तथा ऋषि पितरों को पिण्डदान करना चाहिए। ब्रह्मपुराण [6] में इन्द्रद्यम्न सेतु के किनारे सात दिनों की गुण्डिचा यात्रा का उल्लेख है। यह कृष्ण संकर्षण तथा सुभद्रा के मण्डप में ही पूरी होती है। ऐसा बताया जाता है कि गुण्डिचा जगन्नाथ के विशाल मंदिर से लगभग दो मील दूर जगन्नाथ के विशाल मंदिर में लगभग दो मील दूर जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन भवन है। यह शब्द संभवतः घुण्डी से लिया गया है जिसका अर्थ बंगला तथा उड़िया में मोटी लकड़ी का कुंदा होता है। यह लकड़ी का कुंदा एक पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र में बहते हुए इन्द्रद्युम्न को मिला था। पुरुषोत्तम क्षेत्र में धार्मिक आत्मघात का भी ब्रह्मपुराण में उल्लेख है।
वट वृक्ष पर चढ़कर या उसके नीचे या समुद्र में, इच्छा या अनिच्छा से, जगन्नाथ के मार्ग में, जगनाथ क्षेत्र की किसी गली में या किसी भी स्थल पर जो प्राण त्याग करता है वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करता है। ब्रह्मपुराण [7] के अनुसार यह तीन गुना सत्य है कि यह स्थल परम महान् है। पुरुषोत्तम तीर्थ में एक बार जाने के उपरांत व्यक्ति पुनः गर्भ में नहीं जाता।[8]
ब्रह्मपुराण के अनुसार कथा
ब्रह्मपुराण के 43 तथा 44 अध्याओं में मालवा स्थित उज्जयिनी [9] के राजा इन्द्रद्युम्न का विवरण है। राजा इन्द्रद्युम्न बड़ा विद्वान् तथा प्रतापी राजा था। सभी वेद शास्त्रों के अध्ययन के उपरान्त वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वासुदेव सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। फलतः वह अपनी सारी सेना, पंडितों तथा किसानों के साथ वासुदेव क्षेत्र में गया। दस योजन लम्बे तथा पांच योजन चौड़े इस 'वासुदेव स्थल' पर उसने अपना ख़ैमा लगाया। इसके पूर्व इस दक्षिणी समुद्र तट पर एक 'वटवृक्ष' था जिसके समीप 'पुरुषोत्तम' की इन्द्रनील मणि की बनी हुई मूर्ति थी। कालक्रम से यह बालुका से आच्छन्न हो गयी और उसी में निमग्न हो गयी। उस स्थल पर झाड़ियां और पेड़ पौधे उग आये। इन्द्रद्युम्न ने वहां एक अश्वमेध यज्ञ करके एक बहुत बड़े मंदिर का निर्माण कराया। उस मंदिर में भगवान वासुदेव की एक सुंदर मूर्ति प्रतिष्ठित करने की उसे चिंता हुई।
स्वप्न में राजा ने वासुदेव को देखा, जिन्होंने उसे समुद्रतट पर प्रातःकाल जाकर कुल्हाड़ी से उगते हुए वटवृक्ष को काटने को कहा। राजा ने ठीक समय पर वैसा ही किया। उसमें भगवान विष्णु (वासुदेव) और विश्वकर्मा ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए। विष्णु ने राजा से कहा कि मेरे सहयोगी विश्वकर्मा मेरी मूर्ति का निर्माण करेंगे। कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की तीन मूर्तियां बनाकर राजा को दी गयीं। तदुपरांत विष्णु ने राजा को वरदान दिया कि अश्वमेघ के समाप्त होने पर जहां इन्द्रद्युम्न ने स्नान किया है वह बांध उसी के नाम से विख्यात होगा। जो व्यक्ति उसमें स्नान करेगा वह इंद्रलोक को जायेगा और जो उस सेतु के तट पर पिण्डदान करेगा उसके 21 पीढ़ियों तक के पूर्वज मुक्त हो जायेंगे। इन्द्रद्युम्न ने इन तीन मूर्तियों की उस मंदिर में स्थापना की।
स्कन्द पुराण के उपभाग 'उत्कलखण्ड' में इन्द्रद्युम्न की कथा 'पुरुषोत्तम माहात्म्य' के अन्तर्गत कुछ परिवर्तनों के साथ दी गयी है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन काल में पुरुषोत्तम क्षेत्र को 'नीलाचंल' नाम से अभिहित किया गया था और कृष्ण की पूजा उत्तर भारत में होती थी।
मैत्रायणी उपनिषद[10] से इन्द्रद्युम्न के चक्रवर्ती होने का पता चलता है। सातवीं शताब्दी ई0 से वहां बौद्घों के विकास का भी पता चलता है। सम्प्रति जगन्नाथ तीर्थ का पवित्र स्थल 20 फुट ऊंचा, 652 फुट लंबा तथा 630 फुट चौड़ा है। इसमें ईश्वर के विविध रूपों के 120 मंदिर हैं, 13 मंदिर शिव के, कुछ पार्वती के तथा एक मंदिर सूर्य का है। हिंदू आस्था के प्रायः प्रत्येक रूप यहां मिलते हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार जगनाथपुरी में शैवों और वैष्णवों के पारस्परिक संघर्ष नष्ट हो जाते हैं।[8]
पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा राजा इन्द्रद्युम्न ने मंत्रोच्चारण व विधि - विधान से की थी। महाराज इन्द्रद्युम्न मालवा की राजधानी अवन्ति से अपना राज–पाट चलाते थे। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास में शुक्ल द्वितीया को होती है। यह एक विस्तृत समारोह है, जिसमें भारत के विभिन्न भागों से आए लोग सहभागी होते हैं। दस दिन तक यह पर्व मनाया जाता है। इस यात्रा को 'गुण्डीय यात्रा' भी कहा जाता है। गुण्डीच का मन्दिर भी है।
- नारद जी को वरदान
जगन्नाथ जी की रथयात्रा में श्रीकृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी के स्थान पर बलराम और सुभद्रा होते हैं। इस सम्बंध में कथा इस प्रकार है - एक बार द्वारिका में श्रीकृष्ण रुक्मिणी आदि राजमहिषियों के साथ शयन करते हुए निद्रा में राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। सुबह जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं किया। रुक्मिणी ने रानियों से बात की कि वृंदावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु हम सबकी इतनी सेवा, निष्ठा और भक्ति के बाद भी नहीं भूल पाये है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रासलीलाओं के विषय में माता रोहिणी को ज्ञान होगा। अत: उनसे सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की, कि वह इस विषय में बतायें। पहले तो माता रोहिणी ने इंकार किया किंतु महारानियों के अति आग्रह पर उन्होंने कहा कि ठीक है, पहले सुभद्रा को पहरे पर बिठा दो, कोई भी अंदर न आ पाए, चाहे वह बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
माता रोहिणी ने जैसे ही कथा कहना शुरू किया, अचानक श्रीकृष्ण और बलराम महल की ओर आते हुए दिखाई दिए। सुभद्रा ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया, किंतु श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम अद्भुत प्रेमरस का अनुभव करने लगे, सुभद्रा भी भावविह्वल हो गयी।
अचानक नारद के आने से वे पूर्ववत हो गए। नारद ने श्री भगवान से प्रार्थना की कि - 'हे प्रभु आपके जिस 'महाभाव' में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्यजन के हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। प्रभु ने तथास्तु कहा।
रथयात्रा का प्रारंभ
कथा हैं कि राजा इंद्रद्युम्न सपरिवार नीलाचल सागर, उड़ीसा के पास रहते थे। राजा को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखायी दिया। राजा ने उससे भगवान विष्णु की मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय किया। वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हुए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए शर्त रखी कि मैं जहाँ मूर्ति बनाऊँगा वहाँ मूर्ति के पूर्ण होने तक कोई नहीं आएगा। राजा ने इस शर्त को मान लिया। वर्तमान में जहाँ श्रीजगन्नाथ जी का मंदिर है, उसी के पास वह एक घर में मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिजनों को ज्ञात न था कि 'वृद्ध बढ़ई' कौन है? कई दिनों तक घर का द्वार बंद रहा। महारानी ने सोचा कि बढ़ई बिना खाए-पिये कैसे काम करेगा। महारानी ने महाराजा को अपनी शंका बतायी। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला किन्तु उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिल गयी। राजा और रानी दुखी हो गये, उसी क्षण दोनों को आकाशवाणी सुनायी दी - 'दु:खी मत होओ, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।' आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ 'पुरी की रथयात्रा' और मंदिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर रथयात्रा करवाई थी। सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है।
रथ का निर्माण
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु का नहीं लगाया जाता। यह एक धार्मिक कार्य है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से 'वनजगा' महोत्सव से प्रारम्भ होता है तथा लकड़ियाँ चुनने का कार्य इसके पूर्व बसन्त पंचमी से शुरू हो जाता है। पुराने रथों की लकड़ियाँ भक्तजन श्रद्धापूर्वक ख़रीद लेते हैं और अपने–अपने घरों की खिड़कियाँ, दरवाज़े आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं।
सामुदायिक पर्व
रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। घरों में कोई भी पूजा इस अवसर पर नहीं होती है तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है। जगन्नाथपुरी और भगवान जगन्नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएं हैं। यहां किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है। जगन्नाथ के लिए पकाया गया चावल वहां के पुरोहित निम्न कोटि के नाम से पुकारे जाने वाले लोगों से भी लेते हैं। जगन्नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्घ नहीं होता, इसे 'महाप्रसाद' की संज्ञा दी गयी है। इसकी विशेषता रथयात्रा पर्व की महत्ता है। इसका पुरी के चौबीस पर्वों में सर्वाधिक महत्व है। रथ तीर्थ यात्रियों और कुशल मज़दूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण गीतों से यह 'महा उत्सव' मनाया जाता है।
अधिक मास में उत्सव
जिस वर्ष आषाढ़ मास में अधिक मास होता है, उस वर्ष रथयात्रा - उत्सव के साथ एक नया महोत्सव और भी होता है, जिसे 'नवकलेवर उत्सव' कहते हैं। इस उत्सव पर भगवान जगन्नाथ अपना पुराना कलेवर त्याग कर नया कलेवर धारण करते हैं, अर्थात् लकड़ियों की नयी मूर्तियाँ बनाई जाती हैं तथा पुरानी मूर्तियों को मन्दिर परिसर में ही 'कोयली वैकुण्ठ' नामक स्थान पर भू - समाधि दे दी जाती है।
धार्मिक उत्सव की तैयारियाँ
- पुरी में रथयात्रा के लिए बलदेव, श्रीकृष्ण व सुभद्रा के लिए अलग–अलग तीन रथ बनाये जाते हैं।
- बलभद्र के रथ को 'पालध्वज' व उसका रंग लाल एवं हरा, सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' और उसका रंग एवं नीला तथा भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नन्दीघोष' कहते हैं। इसका रंग लाल व पीला होता है।
- रथयात्रा में सबसे आगे बलभद्र जी का रथ, उसके बाद बीच में सुभद्रा जी का रथ तथा सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ जी का रथ होता है।
- आषाढ़ की शुक्ल द्वितीय को तीनों रथों को 'सिंहद्वार' पर लाया जाता है। स्नान व वस्त्र पहनाने के बाद प्रतिमाओं को अपने–अपने रथ में रखा जाता है। इसे 'पहोन्द्रि महोत्सव' कहते हैं।
- जब रथ तैयार हो जाते हैं, तब पुरी के राजा एक पालकी में आकर इनकी प्रार्थना करते हैं तथा प्रतीकात्मक रूप से रथ मण्डप को झाडू से साफ़ करते हैं। इसे 'छर पहनरा' कहते हैं।
- अब सर्वाधिक प्रतीक्षित व शुभ घड़ी आती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही तथा शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं।
- इस पवित्र धार्मिक कार्य के लिए दूर–दूर से लोग प्रत्येक वर्ष पुरी में आते हैं। भव्य रथ घुमावदार मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तथा गुण्डीच मन्दिर के पास रुकते हैं।
- ये रथ यहाँ पर सात दिन तक रहते हैं। यहाँ पर सुरक्षा व्यवस्था काफ़ी चुस्त व दुरुस्त रखी जाती है।
- रथयात्रा का विभिन्न टेलीविज़न चैनलों के द्वारा सीधा प्रसारण भी किया जाता है।
- सारा शहर श्रद्धालु भक्तगणों से खचाखच भर जाता है। भगवान जगन्नाथ की इस यात्रा में शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो, जो कि सम्मिलित न होता हो।
मुख्य मन्दिर की ओर पुर्नयात्रा
- आषाढ़ की दसवीं तिथि को रथों की मुख्य मन्दिर की ओर पुर्नयात्रा प्रारम्भ होती है। इसे 'बहुदा यात्रा' कहते हैं।
- सभी रथों को मन्दिर के ठीक सामने लाया जाता है, परन्तु प्रतिमाएँ अभी एक दिन तक रथ में ही रहती हैं।
- आगामी दिन एकादशी होती है, इस दिन जब मन्दिर के द्वार देवी - देवताओं के लिए खोल दिए जाते हैं, तब इनका श्रृंगार विभिन्न आभूषणों व शुद्ध स्वर्ण से किया जाता है।
- इस धार्मिक कार्य को 'सुनबेसा' कहा जाता है।
रथ यात्रा का भव्य समापन
आस–पास के दर्शकों के मनोरंजन के लिए, प्रतिमाओं की वापसी यात्रा के मध्य एक हास्यपूर्ण दृश्य किया जाता है। मुख्य जगन्नाथ मन्दिर के अन्दर एक छोटा 'महालक्ष्मी मन्दिर' भी है। ऐसा दिखाया जाता है कि भगवती लक्ष्मी इसलिए क्रुद्ध हैं, क्योंकि उन्हें यात्रा में नहीं ले जाया गया। वे भगवान पर कटाक्ष करती हैं। प्रभु उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं व कहते हैं कि देवी को सम्भवतः उनके भाई बलभद्र के साथ बैठना शोभा नहीं देता। पुजारी व देवदासियाँ इसे लोकगीतों में प्रस्तुत करते हैं। क्रुद्ध देवी मन्दिर को अन्दर से बन्द कर लेती हैं। परन्तु शीघ्र ही पंडितों का गीत उन्हें प्रसन्न कर देता है। जब मन्दिर के द्वार खोल दिए जाते हैं तथा सभी लोग अन्दर प्रवेश करते हैं। इसी के साथ इस दिन की भगवान जगन्नाथ की यह अत्यन्त अदभुत व अनूठी यात्रा हर्षोल्लास से सम्पन्न हो जाती है।
महाप्रसाद
मन्दिर की रसोई में एक विशेष कक्ष रखा जाता है, जहाँ पर महाप्रसाद तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चावल, साग, दही व खीर जैसे व्यंजन होते हैं। इसका एक भाग प्रभु का समर्पित करने के लिए रखा जाता है तथा इसे कदली पत्रों पर रखकर भक्तगणों को बहुत कम दाम में बेच दिया जाता है। जगन्नाथ मन्दिर को प्रेम से संसार का सबसे बड़ा होटल कहा जाता है। मन्दिर की रसोई में प्रतिदिन बहत्तर क्विंटल चावल पकाने का स्थान है। इतने चावल एक लाख लोगों के लिए पर्याप्त हैं। चार सौ रसोइए इस कार्य के लिए रखे जाते हैं।
पुरी के जगन्नाथ मंदिर की एक विशेषता यह है कि मंदिर के बाहर स्थित रसोई में 25000 भक्त प्रसाद ग्रहण करते हैं। भगवान को नित्य पकाए हुए भोजन का भोग लगाया जाता है। परंतु रथयात्रा के दिन एक लाख चौदह हज़ार लोग रसोई कार्यक्रम में तथा अन्य व्यवस्था में लगे होते हैं। जबकि 6000 पुजारी पूजाविधि में कार्यरत होते हैं। उड़ीसा में दस दिनों तक चलने वाले एक राष्ट्रीय उत्सव में भाग लेने के लिए दुनिया के कोने-कोने से लोग उत्साहपूर्वक उमड़ पड़ते हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रसोई में ब्राह्मण एक ही थाली में अन्य जाति के लोगों के साथ भोजन करते हैं, यहाँ जात-पाँत का कोई भेदभाव नहीं रखा जाता।[11]
जगन्नाथ संप्रदाय
जगन्नाथ संप्रदाय कितना पुराना है तथा यह कब उत्पन्न हुआ था, इस बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। वैदिक साहित्य और पौराणिक कथाओं में भगवान जगन्नाथ या पुरुषोत्तम का विष्णु के अवतार के रूप में उनकी महिमा का गुणगान किया गया है। अन्य अनुसंधान स्रोतों से इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि यह संप्रदाय वैदिक काल से भी पुराना है।
इन स्रोतों के अनुसार भगवान जगन्नाथ 'शबर' जनजातीय समुदाय से संबंधित हैं और वे लोग इनकी पूजा गोपनीय रूप से करते थे। बाद में उनको पुरी लाया गया। वे सारे ब्रह्मांड के देव है तथा वे सबसे संबंधित है। अनेक संप्रदायों, जैसे- वैष्णव, शैव, शाक्त, गणपति, बौद्ध तथा जैन ने अपने धार्मिक सिंध्दातों में समानता पाई है। जगन्नाथ जी के भक्तों में सालबेग भी है, जो जन्म से मुस्लिम था। भगवान जगन्नथ और उनके मंदिर ने अनेक संप्रदायों तथा धार्मिक समुदायों के धर्म गुरुओं को आकर्षित किया है। आदि शंकराचार्य ने इसे गोवर्धन पीठ स्थापित करने के लिए चुना। उन्होंने जगन्नाथाष्टक का भी संकलन किया। अन्य धार्मिक संत या धर्म गुरु जो यहां आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की, उनमें माध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, सायणाचार्य, रामानुज, रामानंद, तुलसीदास, नानक, कबीर, तथा चैतन्य हैं और स्थानीय संत, जैसे- जगन्नाथ दास, बलराम दास, अच्युतानंद, यशवंत, शिशु अनंत और जयदेव भी यहां आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की। पुरी में इन संतों द्वारा मठ या आश्रम स्थापित किये गये जो अभी भी मौजूद हैं तथा किसी न किसी रूप में जगन्नाथ मंदिर से संबंधित हैं।[12]
अन्य क्षेत्रों में रथयात्रा महोत्सव
- ब्रिटिश व मुग़ल काल से पूर्व पुरी के राजा के अधीन उड़ीसा के कई अन्य ज़मींदार भी थे। इन सभी ज़मींदारों ने अपने–अपने अधिकार क्षेत्रों में भी कई जगन्नाथ मन्दिर बनवाए। लेकिन पुरी मन्दिर सभी मन्दिरों के लिए उदाहरण ही रहा। सभी मन्दिरों में रथयात्राएँ छोटे स्तर पर होती थीं। इस प्रकार उड़ीसा व इसकी सीमा से बाहर भी कई रथयात्राओं का आयोजन किया जाता है।
- रथ का मेला वृन्दावन, उत्तर प्रदेश में भी आयोजित किया जाता है।
इन्हें भी देखें: रथ का मेला वृन्दावन एवं जगन्नाथ मंदिर पुरी
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टीका टिप्पणी
- ↑ जगन्नाथ रथयात्रा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 मई, 2011।
- ↑ यात्रा का विराट वैभव जगन्नाथ रथयात्रा (हिन्दी)। ।
- ↑ ब्रह्मपुराण, अध्याय 56.72-73
- ↑ ब्रह्मपुराण, अध्याय 57.17
- ↑ ब्रह्मपुराण, अध्याय 57.42-50
- ↑ ब्रह्मपुराण, अध्याय 66
- ↑ ब्रह्मपुराण, अध्याय 70.3-4
- ↑ 8.0 8.1 उड़ीसा में भगवान जगन्नाथ का महोत्सव शुरू (हिन्दी) (एचटीएमएल) स्वतंत्र आवाज़। अभिगमन तिथि: 10 मई, 2011।
- ↑ अवन्ती
- ↑ मैत्रायणी उपनिषद, अध्याय 1,4
- ↑ रथयात्रा – मोक्ष की ओर प्रयाण (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 मई, 2011।
- ↑ रथ यात्रा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 11 मई, 2011।
बाहरी कड़ियाँ
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