राम मनोहर लोहिया
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पूरा नाम | राम मनोहर लोहिया |
अन्य नाम | डॉ. लोहिया |
जन्म | 23 मार्च, 1910 |
जन्म भूमि | कस्बा अकबरपुर, फैजाबाद |
मृत्यु | 12 अक्टूबर, 1967 |
मृत्यु स्थान | नई दिल्ली |
अभिभावक | श्री हीरालाल और श्रीमती चन्दा देवी |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | राजनीतिज्ञ, स्वतन्त्रता सेनानी |
पार्टी | कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी |
शिक्षा | स्नातक, पी.एच.डी. (अर्थशास्त्र) |
विद्यालय | विश्वेश्वरनाथ हाई स्कूल, मारवाड़ी विद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, विद्यासागर महाविद्यालय, हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय |
भाषा | हिन्दी, जर्मनी, अंग्रेज़ी |
जेल यात्रा | 20 मई, 1944, गोवा मुक्ति आंदोलन |
आन्दोलन | भारत छोड़ो आन्दोलन |
अन्य जानकारी | डॉ. लोहिया की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में उनकी अनोखी व अद्वितीय दृष्टि थी। इसलिए उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। |
राम मनोहर लोहिया (अंग्रेज़ी: Ram Manohar Lohia, जन्म- 23 मार्च, 1910, क़स्बा अकबरपुर, फैजाबाद; मृत्यु- 12 अक्टूबर, 1967, नई दिल्ली) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, प्रखर चिन्तक तथा समाजवादी राजनेता थे। राम मनोहर लोहिया को भारत एक अजेय योद्धा और महान् विचारक के रूप में देखता है। देश की राजनीति में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्रता के बाद ऐसे कई नेता हुए जिन्होंने अपने दम पर शासन का रुख़ बदल दिया जिनमें एक थे राममनोहर लोहिया। अपनी प्रखर देशभक्ति और बेलौस तेजस्वी समाजवादी विचारों के कारण अपने समर्थकों के साथ ही डॉ. लोहिया ने अपने विरोधियों के मध्य भी अपार सम्मान हासिल किया। डॉ. लोहिया सहज परन्तु निडर अवधूत राजनीतिज्ञ थे। उनमें सन्त की सन्तता, फक्कड़पन, मस्ती, निर्लिप्तता और अपूर्व त्याग की भावना थी। डॉ. लोहिया मानव की स्थापना के पक्षधर समाजवादी थे। वे समाजवादी भी इस अर्थ में थे कि, समाज ही उनका कार्यक्षेत्र था और वे अपने कार्यक्षेत्र को जनमंगल की अनुभूतियों से महकाना चाहते थे। वे चाहते थे कि, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कोई भेद, कोई दुराव और कोई दीवार न रहे। सब जन समान हों। सब जन सबका मंगल चाहते हों। सबमें वे हों और उनमें सब हों। वे दार्शनिक व्यवहार के पक्ष में नहीं थे। उनकी दृष्टि में जन को यथार्थ और सत्य से परिचित कराया जाना चाहिए। प्रत्येक जन जाने की कौन उनका मित्र है? कौन शत्रु है? जनता को वे जनतंत्र का निर्णायक मानते थे।
जीवन परिचय
राम मनोहर लोहिया का जन्म कृष्ण चैत्र तृतीया, 23 मार्च 1910 की प्रात: तमसा नदी के किनारे स्थित क़स्बा अकबरपुर, फैजाबाद में हुआ था। उनके पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनके पिताजी गाँधी जी के अनुयायी थे। जब वे गाँधी जी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण गाँधी जी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। लोहिया जी अपने पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए।
शिक्षा
स्कूली शिक्षा
लोहिया जब पाँच वर्ष के हुए तो पास ही की टण्डन पाठशाला में उनका नाम लिखा दिया गया। चेतना की धारा को नया मोड़ मिला। नटखट लोहिया वानर सेना का नेतृत्व सम्भालने लगे। शैतानियाँ बढ़ने लगीं। धमाचौकड़ी-काल शुरू हुआ। कबड्डी खेलते, गुल्ली-डण्डा उड़ाते और दौड़ते-कूदते थे। वे बेहद चटुल और शरारती थे। शरीर दुर्बल, परन्तु मन से सुदृढ़ थे और बुद्धि से कुशाग्र थे।
तमसा पार स्थित विश्वेश्वरनाथ हाई स्कूल में लोहिया को पाँचवीं कक्षा में प्रवेश दिलाया गया। टण्डन पाठशाला की अपेक्षा यहाँ की दुनिया अधिक चमत्कार पूर्ण व आकर्षक थी। यहाँ उन्होंने अलगोजा बजाना सीखा था।
लोहिया को तीसरा स्कूल मिला- मारवाड़ी विद्यालय। डॉ. लोहिया शहरी परिवेश से अचानक जुड़ गए, क्योंकि बम्बई का मारवाड़ी स्कूल विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल से कई अर्थों में अति आधुनिक था और उसकी गणना अच्छे स्कूलों में की जाती थी। लोहिया शुरू से ही शरारती थे। इसके साथ ही वे प्रतिभा सम्पन्न तथा मेधावी भी थे। उसका फल यह हुआ कि वे सदैव ही अध्यापकों के चहेते रहे। मारवाड़ी विद्यालय में उन्होंने वक्तृत्व कला का अच्छा परिचय दिया। वाद-विवाद में वे उत्कृष्ट वक्ता सिद्ध हुए। अंग्रेज़ी भाषा पर उनका ख़ासा अधिकार हो चला था। वे अपने को मेधावी सिद्ध कर रहे थे तथा अपनी प्रतिभा से सबको आकृष्ट कर रहे थे।
उच्च शिक्षा
बम्बई से लोहिया वाराणसी लौट आए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इण्टर का अध्ययन शुरू कर दिया। काशी उस समय राष्ट्रीय शिक्षा का गढ़ समझा जाता था। सन् 1927 ई. में वहाँ से उन्होंने इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर पास करने के बाद सन् 1927 में लोहिया कलकत्ता आ गए। उन्होंने सेंट जेवियर्स तथा स्काटिश चर्च जैसे ख्यातिनामा महाविद्यालय को छोड़कर विद्यासागर महाविद्यालय में प्रवेश लिया था, जो उस समय "भेंड़ों की सराय" के नाम से जाना जाता था। लेकिन इस कॉलेज के प्राचार्य राष्ट्रीय विचारधारा से सम्बद्ध थे और लोहिया राष्ट्रीय विचारधारा के पूर्णत: समर्थक थे। लोहिया का अंग्रेज़ी भाषा पर ख़ासा अधिकार था। मित्रों पर ख़र्च करने के वे बड़े शौक़ीन थे। इससे उन्हें आन्तरिक प्रसन्नता की अनुभूति प्राप्त होती थी और उनका चित्त संतोष प्राप्त करता था। दूसरी तरफ़ उनके इतिहास प्रेम की परिणति सिनेमा देखना, पुस्तकें ख़रीदना और उपन्यास पढ़ने में हो गई थी।
डॉ. लोहिया के मन में स्वतंत्र देश का स्वाभिमान जाग उठा था। वे शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा सम्मान के प्रति ज़्यादा सजग हो उठे थे। उनमें इसके साथ अपने देश को आज़ाद कराने की बात गहरे पैठती गई थी। वे देश की आज़ादी के प्रतिबद्ध हो चुके थे। इन्हीं कारणों से लोहिया बर्लिन के लिए रवाना हो गए। वहाँ उन्होंने बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। विश्वविख्यात अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर बर्नर जोम्बार्ट उसी विश्वविद्यालय में थे। लोहिया ने उनको ही अपना निर्देशक तथा परीक्षक चुना।
मातृभाषा के प्रति प्रेम
लोहिया बर्लिन तो आ गए, परन्तु अभी बर्नर जोम्बार्ट के सामने साक्षात्कार हेतु प्रस्तुत होना शेष था। लोहिया बिना झिझक उनके सामने पहुँचे और प्रोफ़ेसर जोम्बार्ट के प्रश्नों के उत्तर अंग्रेज़ी में देने लगे। कुछ देर प्रोफ़ेसर मुस्कराए और जर्मन भाषा में बोले कि, ‘उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती है।’ वाह रे, मातृभाषा प्रेम! वाह! लोहिया प्रोफ़ेसर का अपनी मातृभाषा के प्रति ऐसा अनन्य प्रेम देखकर श्रद्धानत हो गए और उन्हें तीन माह बाद पुन: आने का आश्वासन देकर लौट पड़े। कहना ही होगा कि, यहीं से उनमें मातृभाषा प्रेम ज़ोर पकड़ गया था और वे आजीवन मातृभाषा के हिमायती रहे।
लोहिया के सामने यह खुली चुनौती थी और उन्होंने तीन माह, रात-दिन जुटकर जर्मन भाषा में ख़ासी सफलता प्राप्त कर ली। इसके साथ ही यह सुदृढ़ निश्चय भी हो गया कि ज्ञान तथा अभिव्यक्ति के लिए किसी ख़ास भाषा का ज्ञान होना ज़रूरी नहीं होता। मातृभाषा को छोड़कर ज्ञान व अभिव्यक्ति का दूसरा सशक्त माध्यम कोई नहीं हो सकता। मातृभाषा और हिन्दी के प्रति उनमें अटूट श्रद्धा व विश्वास होने का यही कारण था। वे कलकत्ता में, अध्ययन करते हुए भी हिन्दी में बातचीत करना अधिक पसन्द करते थे। अधकचरी भाषा के फ़ैशनपरस्त लोगों को वे खूब आड़े हाथों लेते थे। तीन माह बाद जब वे प्रोफ़ेसर जोम्बार्ट से मिले, तब वे लोहिया के जर्मन भाषा-ज्ञान का परिचय पाकर मुग्ध हो गए और लोहिया धरती का नमक शीर्षक से शोध प्रबन्ध लिखने में जुट गए।
विदेश से वापसी
चार साल के बाद लोहिया जर्मनी से डॉक्टर बनकर लौटे। वे अपनी मातृभूमि पर लौटे थे- हरित श्यामला भूमि पर और वह भी एक लम्बे अर्से के बाद। कितनी स्मृतियों ने उन्हें जकड़ लिया था और कितना कुछ सामने करने को था। वे मन-ही-मन अपनी प्यारी धरती माँ को नमस्कार करके जहाज़ से उतर आए। लोहिया जी अर्थशास्त्र से पी.एच.डी. करके लौटे थे। लोहिया कलम के धनी थे। प्रतिभा की धार और विद्धत्ता ही उनकी पूँजी थी। वे सीधे मद्रास से प्रकाशित होने वाली अंग्रेज़ी पत्र हिन्दू के कार्यालय पहुँचे। उन्हें सम्पादक तो नहीं मिले, लेकिन सह-सम्पादक मिले। लोहिया जी ने अपना परिचय दिया और लेख लिखकर देने का कारण बताया। उन्होंने वहाँ बैठकर लेख लिख डाला और उसके लिए पारिश्रमिक स्वरूप पच्चीस रुपये प्राप्त किए।
लोहिया कलकत्ता आ गए। वहाँ अपने पिता से मिले, अपने चाचा रामकुमार के घर गए। लोहिया को अपने चाचा से मालूम पड़ा कि, उनके पिता कारोबार बन्द कर सारा समय कांग्रेस को देने लगे हैं। लम्बी जेलयात्रा भी कर आए हैं। आजकल बड़ा बाज़ार को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बना रखा है। चरखा समिति बना डाली है। वे हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय में भी बैठते हैं। हिन्दू-मुसलमान के भेदभाव को दूर करने के लिए "कौमी बाल्टी" रख छोड़ी है। उनकी दृष्टि में वह बाल्टी हिन्दू-मुसलमान एकता का प्रतीक है, क्योंकि दोनों ही उससे पानी लेकर पीते थे। लोहिया ने पाया कि कलकत्ता पहले से भी अधिक ग़रीब हो गया है। बेकारी बढ़ी है। सब कुछ अन-बदला सा पथराकर ठहर गया है।
उनकी आँखों के सामने एकदम जवान होती भिखारिन के कंपित होठ-सा।
निखिल का वैभवमय अभाव उनके सामने ठिठुरता हुआ खुला पड़ा था, सन्नाटा ताने।
उधर समूचे देश में राजनीतिक अस्थिरता थी। सत्याग्रह में थकावट उतर आई थी। जंगल की सांय-सांय हवा तैर रही थी। गाँधी जी गोलमेज सम्मेलन के असफल होने पर लौटे ही थे कि, गिरफ़्तार कर लिये गए। नेहरू जी अन्दर थे। सरदार पटेल अन्दर थे। खान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ाँ बर्मा जेल में थे और तत्कालीन वाइसराय विलिंगडन ने संकल्प ले रखा था कि, वे कांग्रेस का आन्दोलन छह सप्ताह में खत्म करवा देंगे।
चिन्तन धारा
लोहिया की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में उनकी अनोखी व अद्वितीय दृष्टि थी। इसलिए उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक मानते थे। उनकी चाह थी कि एक से दूसरे देश में आने जाने के लिए किसी तरह की भी क़ानूनी रुकावट न हो और सम्पूर्ण पृथ्वी के किसी भी अंश को अपना मानकर कोई भी कहीं आ-जा सकने के लिए पूरी तरह आज़ाद हो।[1]
निर्माता
लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।[1]
मार्क्सवाद और गांधीवाद
लोहिया ने मार्क्सवाद और गांधीवाद को मूल रूप में समझा और दोनों को अधूरा पाया, क्योंकि इतिहास की गति ने दोनों को छोड़ दिया है। दोनों का महत्त्व मात्र-युगीन है। लोहिया की दृष्टि में मार्क्स पश्चिम के तथा गांधी पूर्व के प्रतीक हैं और लोहिया पश्चिम-पूर्व की खाई पाटना चाहते थे। मानवता के दृष्टिकोण से वे पूर्व-पश्चिम, काले-गोरे, अमीर-ग़रीब, छोटे-बड़े राष्ट्र नर-नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे।[1]
विचार पद्धति
लोहिया की विचार-पद्धति रचनात्मक है। वे पूर्णता व समग्रता के लिए प्रयास करते थे। लोहिया ने लिखा है- जैसे ही मनुष्य अपने प्रति सचेत होता है, चाहे जिस स्तर पर यह चेतना आए और पूर्ण से अपने अलगाव के प्रति संताप व दु:ख की भावना जागे, साथ ही अपने अस्तित्व के प्रति संतोष का अनुभव हो, तब यह विचार-प्रक्रिया होती है कि वह पूर्ण के साथ अपने को कैसे मिलाए, उसी समय उद्देश्य की खोज शुरू होती है।[1]
क्रान्तियाँ
लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमों और क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियाँ थी।
- नर-नारी की समानता के लिए।
- चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के ख़िलाफ़।
- संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के ख़िलाफ़ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए।
- परदेसी ग़ुलामी के ख़िलाफ़ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए।
- निजी पूँजी की विषमताओं के ख़िलाफ़ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए।
- निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ और लोकतंत्री पद्धति के लिए।
- अस्त्र-शस्त्र के ख़िलाफ़ और सत्याग्रह के लिये।
इन सात क्रांतियों के सम्बन्ध में लोहिया ने कहा-मोटे तौर से ये हैं सात क्रांन्तियाँ। सातों क्रांतियाँ संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के ख़िलाफ़ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये।[1]
डॉ. लोहिया और सुभाष चन्द्र बोस
1942 में महात्मा गाँधी ने जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की तब कांग्रेस के सभी दिग्गज नेताओं ने उन्हें कहा कि इस समय दूसरे महायुद्ध के दौरान हमने अंग्रेज़ों की शक्ति बढ़ाने की कोशिश की तो इतिहास हमें फ़ाँसीवाद का पक्षधार मानेगा। लेकिन गांधी जी नहीं माने। डॉ. लोहिया को गांधी जी का यह फैसला पसंद आया और वे भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। 'अगस्त क्रान्ति' का चक्रप्रवर्तन हो चला। डॉ. लोहिया अंग्रेज़ों को चकमा देकर गिरफ़्तारी से बच निकले। अपनी समाजवादी मित्र मण्डली के साथ वे भूमिगत हो गये। भूमिगत रहते हुए भी उन्होंने बुलेटिनों, पुस्तिकाओं, विविध प्रचार सामग्रियों के अलावा समान्तर रेडियो 'कांग्रेस रेडियो' का संचालन करते हुए देशवासियों को अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए प्रेरित किया। लेकिन जब अगस्त क्रान्ति का जन उबाल ठण्डा पड़ने लगा तब डॉ. लोहिया का ध्यान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अगुआई में आज़ाद हिन्द फ़ौज द्वारा छेड़े गये सशस्त्र मुक्ति संग्राम की ओर गया। उस समय भारत के पूर्वोत्तर भाग में नेताजी का विजय अभियान जारी था। डॉ. लोहिया नेताजी से मिलने की योजना बना ही रहे थे कि अचानक 20 मई, 1944 को उन्हें मुम्बई में गिरफ़्तार कर लिया गया। देश के दुर्भाग्य से अगस्त क्रान्ति के वीर सेनानी डॉ. लोहिया और आज़ाद हिन्द फ़ौज के सेनानायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का मिलन न हो सका।
डॉ. लोहिया और महात्मा गाँधी
अगस्त क्रान्ति के दौरान डॉ. लोहिया के कौशल और साहस से महात्मा गांधी अत्यंत प्रभावित हुए थे। उसके पहले बापू डॉ. लोहिया के कई विचारोत्तेजक लेख, बेबाक टिप्पणियाँ आदि अपने पत्र 'हरिजन' में प्रकाशित भी कर चुके थे। भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य का सूरज डूब रहा था। राष्ट्रीय नेताओं का यह मानना था कि अंग्रेज़ों के जाते ही पुर्तग़ाली भी गोवा से स्वयं कूच कर जायेंगे इसलिए वहाँ शक्ति झोंकने की ज़रूरत नहीं। लेकिन डॉ. लोहिया ने वहाँ जाकर आज़ादी की लड़ाई का बिगुल बजा ही दिया। उनका साथ महात्मा गांधी को छोड़कर और किसी बड़े नेता ने नहीं दिया। इससे भी पता चलता है कि गांधी लोहिया का कितना सम्मान करते थे।
स्वतंत्रता के बाद नेहरू सरकार की नीतियां गांधी के विचारों से प्रतिकूल थीं। डॉ. लोहिया का समाजवाद गांधी की विचारधारा के अत्यन्त निकट था। नेहरू सरकार की दशा-दिशा के कारण महात्मा गांधी का नेहरू से मोहभंग हो रहा था और लोहिया की तरफ रुझान बढ़ रहा था। आज़ादी के बाद देश साम्प्रदायिकता के संकट में फंस गया तो शांति और सद्भाव क़ायम करने में डॉ. लोहिया ने गांधी का सहयोग किया। इस प्रकार वे बापू के बेहद क़रीब आ गये थे। इतने क़रीब की गांधी ने जब लोहिया से कहा कि जो चीज़ आम आदमी के लिए उपलब्ध नहीं उसका उपभोग तुम्हें भी नहीं करना चाहिए और सिगरेट त्याग देना चाहिए तो लोहिया ने तुरन्त उनकी बात मान ली।
28 जनवरी, 1948 को गांधी ने लोहिया से कहा, मुझे तुमसे कुछ विषयों पर विस्तार में बात करनी है। इसलिये आज तुम मेरे शयनकक्ष में सो जाओ। सुबह तड़के हम लोग बातचीत करेंगे। लोहिया गांधी के बगल में सो गये। उन्होंने सोचा कि जब बापू जागेंगे, तब वे जगा लेंगे और बातचीत हो जाएगी। लेकिन जब लोहिया की आँख खुली तो गाँधी जी बिस्तर पर नहीं थे। बाद में जब डॉ. लोहिया गांधी से मिले तब गांधी ने कहा, "तुम गहरी नींद में थे। मैंने तुम्हें जगाना ठीक नहीं समझा। खैर कोई बात नहीं। कल शाम तुम मुझसे मिलो। कल निश्चित रूप से मैं कांग्रेस और तुम्हारी पार्टी के बारे में बात करूँगा। कल आख़िरी फैसला होगा।"
लोहिया 30 जनवरी, 1948 को गांधी से बातचीत करने के लिए टैक्सी से बिड़ला भवन की तरफ बढ़े ही थे कि तभी उन्हें गांधी की शहादत की खबर मिली। एक ठोस योजना की भ्रूण हत्या हो गयी। बापू अपनी शहादत से पहले अपने आख़िरी वसीयतनामे में कांग्रेस को भंग करने की अनिवार्यता सिद्ध कर चुके थे। उस समय उन्होंनें ऐसा स्पष्ट संकेत दिया था कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान अनेकानेक उद्देश्यों के निमित्त गठित विविध रचनात्मक कार्य संस्थाओं को एकसूत्र में पिरोकर शीघ्र ही एक नया राष्ट्रव्यापी लोक संगठन खड़ा किया जायेगा। डॉ. लोहिया की उसमें विशेष भूमिका होगी। इस प्रकार बनने वाले शक्तिपुंज से बापू आज़ादी की अधूरी जंग के निर्णायक बिन्दु तक पहुंचाना चाहते थे।
डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर
1956 में डॉ. लोहिया और डॉ. भीमराव अम्बेडकर के बीच निकटता बढ़ने लगी थी। कांग्रेस को सत्ताच्युत करने के लिये वे दोनों एक मंच पर आने के लिये राजी हो रहे थे। देश के सर्वांगीण विकास के लिये यह नितान्त आवश्यक समझा गया कि सोशलिस्ट पार्टी और ऑल इण्डिया बैकवर्ड क्लास एसोसिएशन का आपस में विलय हो जाए। इस प्रकार जो नवगठित पार्टी बने, डॉ. अम्बेडकर उसका अधयक्ष पद स्वीकार करें। दोनों पार्टियों के बीच सिद्धान्तों, नीतियों, कार्यक्रमों और लक्ष्यों की दृष्टि से काफ़ी हद तक समानता होने के कारण विलय के आसार नज़र आने लगे थे कि तभी 6 दिसम्बर, 1956 को डॉ. अम्बेडकर का निधन हो गया। दुर्भाग्य ने यहाँ भी अपना रंग दिखा दिया।
डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण
डॉ. राम मनोहर लोहिया लोगों को आगाह करते आ रहे थे कि देश की हालत को सुधारने में कांग्रेस नाकाम रही है। कांग्रेस शासन नये समाज की रचना में सबसे बड़ा रोड़ा है। उसका सत्ता में बने रहना देश के लिए हितकर नहीं है। इसलिए डॉ. लोहिया ने नारा दिया, कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ। 1967 के आम चुनाव में एक बड़ा परिवर्तन हुआ। देश के 9 राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकारें गठित हो गईं। डॉ. लोहिया इस परिवर्तन के प्रणेता और सूत्राधार बने। राजनीतिक बदलाव के इस दौर में डॉ. लोहिया को स्वतंत्रता संग्राम के अपने पुराने सहयोगी और प्रिय सखा जयप्रकाश नारायण की सुधि हो आयी। जेपी उस समय सर्वोदय आन्दोलन की अग्रणी हस्ती थे। सितम्बर, 1967 में डॉ. लोहिया पटना पहुंचे। दोनों आत्मीय जनों ने अतिशय अंतरंगता से गहन विचार-विमर्श किया। डॉ. लोहिया ने जयप्रकाश को राजनीति की मुख्यधारा में दुबारा आने का स्नेहपूर्ण आमंत्रण दिया। लोहिया के मनाने पर जेपी राजी भी हो गये। लेकिन इस बार कालचक्र ने डॉ. लोहिया को ही अपना ग्रास बना लिया और 12 अक्टूबर, 1967 को उनके निधन के समाचार से देश उदास हो गया।
भारतीय संस्कृति से प्रेम
लोहिया को भारतीय संस्कृति से न केवल अगाध प्रेम था बल्कि देश की आत्मा को उन जैसा हृदयंगम करने का दूसरा नमूना भी न मिलेगा। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व-दृष्टि विकसित की। उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म का असली व सच्चा मेल तभी हो सकता है जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाय कि वे एक-दूसरे के पूरक बनने में समर्थ हो सकें। भारतमाता से लोहिया की माँग थी-‘‘हे भारतमाता ! हमें शिव का मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’’ वास्तव में यह एक साथ एक विश्व-व्यक्तित्व की माँग है। इससे ही उनके मस्तिष्क और हृदय को टटोला जा सकता है।[1]
निधन
30 सितम्बर, 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है, में पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहाँ 12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हो गया। कश्मीर समस्या हो, ग़रीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर राम मनोहर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी। कई लोग राम मनोहर लोहिया को राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता मानते है। डॉ. लोहिया की विरासत और विचारधारा अत्यंत प्रखर और प्रभावशाली होने के बावजूद आज के राजनीतिक दौर में देश के जनजीवन पर अपना अपेक्षित प्रभाव क़ायम रखने में नाकाम साबित हुई। उनके अनुयायी उनकी तरह विचार और आचरण के अद्वैत को कदापि क़ायम नहीं रख सके।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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