वाराणसी आलेख
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विवरण | वाराणसी, बनारस या काशी भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी-मध्य भारत में गंगा नदी के बाएँ तट पर स्थित है और हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक है। |
राज्य | उत्तर प्रदेश |
ज़िला | वाराणसी ज़िला |
भौगोलिक स्थिति | उत्तर- 25.282°, पूर्व- 82.9563° |
मार्ग स्थिति | वाराणसी, इलाहाबाद से 125 किलोमीटर पश्चिम, लखनऊ से 281 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व तथा दिल्ली से लगभग 780 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में है। |
कब जाएँ | अक्टूबर से मार्च |
कैसे पहुँचें | हवाई जहाज़, रेल, बस, टैक्सी |
लाल बहादुर शास्त्री हवाई अड्डा | |
वाराणसी जंक्शन, मुग़लसराय जंक्शन | |
अंतर्राज्यीय बस अड्डा आनन्द विहार | |
ऑटो रिक्शा, रिक्शा, बस, मिनी बस, नाव, स्टीमर | |
क्या देखें | विश्वनाथ मंदिर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी की नदियाँ, वाराणसी के घाट |
कहाँ ठहरें | होटल, धर्मशाला, अतिथि-ग्रह |
क्या खायें | पान, कचौड़ी-सब्ज़ी, चाट, ठंडाई |
क्या ख़रीदें | बनारसी साड़ी |
एस.टी.डी. कोड | 0542 |
ए.टी.एम | लगभग सभी |
गूगल मानचित्र, वाराणसी हवाई अड्डा | |
संबंधित लेख | गंगा नदी, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ
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बाहरी कड़ियाँ | आधिकारिक वेबसाइट |
अद्यतन | 19:09, 15 मार्च 2013 (IST)
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वाराणसी, बनारस या काशी भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी-मध्य भारत में गंगा नदी के बाएँ तट पर स्थित है और हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक है। इसे मन्दिरों एवं घाटों का नगर भी कहा जाता है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। वेदों में भी काशी का उल्लेख है। संस्कृत पढ़ने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है।
स्थिति
वाराणसी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलेम, एथेंस तथा पेइकिंग (बीजिंग) से की जाती है।[1] वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 250 18’ उत्तरी अक्षांश एवं 830 1’ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।
विद्वानों के मतानुसार
शेरिंग,[2] मरडाक,[3] ग्रीब्ज,[4] और पारकर[5] जैसे विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में सारनाथ के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है। पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है।
गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान शिव ने पृथ्वी पर अपना स्थायी निवास बनाया था। यह भी माना जाता है कि वाराणसी का निर्माण सृष्टि रचना के प्रारम्भिक चरण में ही हुआ था। यह शहर प्रथम ज्योर्तिलिंग का भी शहर है। पुराणों में वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र बताया गया है तथा यह भी कहा गया है यहाँ के कण-कण में शिव निवास करते हैं। वाराणसी के लोगों के अनुसार, काशी के कण-कण में शिवशंकर हैं। इनके कहने का अर्थ यह है कि यहाँ के प्रत्येक पत्थर में शिव का निवास है। कहते हैं कि काशी शंकर भगवान के त्रिशूल पर टिकी है।
हेवेल की दृष्टि में
हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था।[6] हेवेल के मतानुसार बुद्ध पूर्व युग में आधुनिक सारनाथ एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था। भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व बुद्ध से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए।[7] हाल के अकथा के उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये हैं।
नामकरण
‘वाराणसी’ शब्द ‘वरुणा’ और ‘असी’ दो नदीवाचक शब्दों के योग से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार वरुणा और असि नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।
- 'पद्मपुराण' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरना’ और पूर्व में ‘असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।[8]
- 'अथर्ववेद'[9] में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थक है।
- 'अग्निपुराण' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।
पौराणिक उल्लेख
वाराणसी के संदर्भ में इस तरह के अनेक पौराणिक और लोकमिथक प्रचलित हैं। इन मिथकों की व्याख्या का प्रयास विद्वानों ने किया है। कनिंघम[10] ने ‘बरना’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी की स्थिति स्वीकार की है। एम. जूलियन महोदय ने कनिंघम के मत पर संदेह व्यक्त करते हुए ‘बरना’ नदी का ही प्राचीन नाम ‘वाराणसी’ माना है।[11] यद्यपि वे अपने मत की पुष्टि में कोई प्रमाण नहीं देते, परंतु इतना तो निश्चित है कि वैदिक पौराणिक उल्लेखों में ‘असि’ का नदी के रूप में कहीं भी वर्णन नहीं मिलता।
वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम 'वाराणसी' पड़ा।
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महाभारत[12] में उल्लेख आया है कि वरना का प्राचीन नाम वाराणसी था और इसमें दो नदियों के नाम निकालने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत बाद की है। पद्मपुराण[13] में ‘वरणासि’ का एक नदी के रूप में उल्लेख है। विभिन्न पुराणों के इन प्रसंगों से किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने में कठिनाई होती है। मोतीचंद्र ने वाराणसी में ‘वरुणा’ और ‘असी’ की संगति की अवधारणा को काल्पनिक प्रक्रिया माना है। संभव है कि असी पर बसने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा हो। ‘वरुणा’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और कालांतर में यह कल्पना स्थिर हो गई।[14] इस तथ्य से प्राय: सभी विद्वान सहमत हैं कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊँचे मैदान पर बसा था, और इसका प्राचीन विस्तार [15] वरना (वरुणा) के उस पार [16] भी था। वरना से असी की ओर का विस्तार परवर्ती है। उल्लेखनीय है कि प्राचीन वाराणसी सदैव वरना पर ही स्थित नहीं थी, बल्कि गंगा तक उसका प्रसार था। कम से कम पतंजलि के काल में (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में) उसका बसाव गंगा के किनारे-किनारे था जैसा कि अष्टाध्यायी के एक सूत्र[17] पर पतंजलि के भाष्य[18] से स्पष्ट है।
वृक्ष के नाम के आधार पर
वाराणसी के नामकरण के संबंध में एक दूसरी संभावना भी है। वरणा शब्द एक वृक्ष विशेष का द्योतक है। प्राचीन काल में वृक्षों के नाम के आधार पर नगरों का नामकरण किया गया था। कोसंब से कोशांबी, रोहीत से रोहतक इत्यादि। अत: बहुत संभव है कि उसी परम्परा में वाराणसी और वरणावती दोनों का नाम यहाँ पर अधिक उत्पन्न होने वाले वरणा वृक्ष के कारण पड़ा हो।
दूसरा नाम ‘काशी’
वाराणसी का दूसरा नाम ‘काशी’ प्राचीन काल में एक जनपद के रूप में प्रख्यात था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। इसकी पुष्टि पाँचवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री फ़ाह्यान के यात्रा विवरण से भी होती है।[19] हरिवंशपुराण में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। अत: उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए।[20] संभव है इसके आधार पर ही इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ा हो। काशी नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक भी उपलब्ध है। उल्लेख है कि विष्णु ने पार्वती के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया।[21]
महाश्मशान
काशी को 'महाश्मशान' के नाम से भी जाना जाता है। इसे पृथ्वी की सबसे बड़ी शमशान भूमि माना जाता था। यहाँ के मणिकर्णिका घाट तथा हरिश्चंद्र घाट को सबसे पवित्र घाट माना जाता है। प्राचीन काल में विश्वास किया जाता था कि यहाँ जिनका क्रिया कर्म किया जाता है उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। वाराणसी का एक अन्य नाम 'अभिमुक्ता' था। माना जाता है कि इस नगरी को भगवान शिव अपने त्रिशूल पर उठाए हुए हैं।
इतिहास
ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्त्वपूर्ण राज्य था। मध्य युग में यह कन्नौज राज्य का अंग था और बाद में बंगाल के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था। सन् 1194 में शहाबुद्दीन ग़ोरी ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुँचायी। मुग़ल काल में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया। बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया। सन् 1911 में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया। सन् 1950 में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया। वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है। विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आये।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में भी वाराणसी सदैव अग्रणी रही है। राष्ट्रीय आंदोलन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान स्मरणीय है। इस नगरी को क्रांतिकारी सुशील कुमार लाहिड़ी, अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद तथा जितेद्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है।
वैदिक साहित्य में वाराणसी
वाराणसी (काशी) की प्राचीनता का इतिहास वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य के तीनों स्तरों (संहिता, ब्राह्मण एवं उपनिषद) में वाराणसी का विवरण मिलता है।
वैदिक साहित्य[22] में कहा है कि आर्यों का एक क़ाफ़िला विदेध माथव के नेतृत्व में आधुनिक उत्तर प्रदेश के मध्य से सदानीरा अथवा गंडक के किनारे जा पहुँचा और वहाँ कोशल जनपद की नींव पड़ी। जब आर्यों ने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया तो आर्यों की एक जाति कास्सी ने वाराणसी के समीप 1400 से 1000 ई. पू. के मध्य अपने को स्थापित किया।[23]
महाकाव्यों में वर्णित वाराणसी
महाकाव्यों में वाराणसी के संदर्भ में कई उल्लेख मिलते हैं।
- महाभारत
महाभारत में वाराणसी का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। महाभारत से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वरना का ही प्राचीन नाम वाराणसी था।[24] आदिपर्व में काशिराज की पुत्री सार्वसेनी का विवाह दुष्यंत के पुत्र भरत के साथ होने का विवरण मिलता है।[25] एक अन्य स्थल पर भीष्म द्वारा काशिराज की तीन पुत्रियों- अंबा, अंबिका और अम्बालिका के स्वयंवर में जीते जाने का उल्लेख है।[26] काशी के शासक प्रतर्दन तथा मिथिला के शासक जनक के मध्य युद्ध की चर्चा भी महाभारत में मिलती है।[27]
- वाल्मीकि रामायण
वाल्मीकि रामायण में वाराणसी से संबंधित प्रकरण अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। उत्तरकांड में काशिराज पुरुरवा का नाम आया है।[28] इसी कांड में यह भी आया है कि ययाति का पुत्र पुरु प्रतिष्ठान के साथ ही वाराणसी का भी शासक था।[29] रामायण के एक अन्य स्थल पर काशी-कोशल जनपद का एक साथ उल्लेख मिलता है।[30]
भौगोलिक स्थिति
वाराणसी नगर की रचना गंगा के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचले इलाक़े प्रभावित होते हैं।
नगर का आकार
नगर के आकार की धार्मिक मान्यताओं के आधार पर व्याख्या करने के अनेक प्रयास किए गये हैं। इन मान्यताओं की भौगोलिक व्याख्या को कमोवेश स्वीकारा गया है। ऐसे सामान्यत: प्रचलित विश्वासों की सूची इस प्रकार बनाई है-
- कृत त्रिशूल
इस त्रिशूल के तीन शूल हैं- उत्तर में ओंकारेश्वर, मध्य में विश्वेश्वर तथा दक्षिण में केदारेश्वर। यह तीनों गंगा तट पर स्थित हैं। मांन्यता है कि यह नगरी भगवान शिव को समर्पित है और उनके त्रिशूल पर स्थित है।
- त्रेतायुग चक्र
चौरासी कोस यात्रा के तदनुरूप है और मध्यमेश्वर इसका केन्द्र है जो गंगा के निकट अवस्थित है।
- द्वापर रथ
सात प्रकार के शिव मंदिर, रथ का समरूप बनाते हैं। ये हैं- गोकर्णेश्वर, सुलतानकेश्वर, मणिकर्णेश्वर, भारभूतेश्वर, विश्वेश्वर, मध्यमेश्वर तथा ओंकारेश्वर। इस आकार में भी गंगा नदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
- शंखाकार
यहाँ भी मंदिरों की स्थिति के समरूप आकार माना गया है और गंगा नदी यह आकार निर्धारित करती है। इस आकार को बनाने वाले मंदिर हैं- उत्तर पश्चिम में विध्नराज और विनायक, उत्तर में शैलेश्वर, दक्षिण पूर्व में केदारेश्वर और दक्षिण में लोलार्क।
धरातल की संरचना
वाराणसी के धरातल की संरचना ठोस कंकड़ों से हुई हैं। आधुनिक राजघाट का चौरस मैदान जहाँ नदी-नालों के कटाव नहीं मिलते, शहर बसाने के लिए उपयुक्त था। वाराणसी शहर के उत्तर में वरुणा और दक्षिण में अस्सी नाला है, उत्तर-पश्चिम की ओर यद्यपि ऐसा कोई प्राकृतिक साधन (पहाड़ियाँ, झील, नदी इत्यादि) नहीं है जिससे नगर की सुरक्षा हो सके, तथापि यह निश्चित है कि काशी के समीपवर्ती गहन वन, जिनका उल्लेख जातकों, जैन एवं पौराणिक ग्रंथों में आया है, काशी की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे होंगे।[31]
वाराणसी की नदियाँ
वाराणसी का विस्तार गंगा नदी के दो संगमों वरुणा और असी नदी से संगम के बीच बताया जाता है। इन संगमों के बीच की दूरी लगभग 2.5 मील है। इस दूरी की परिक्रमा हिन्दुओं में पंचकोसी यात्रा या पंचकोसी परिक्रमा कहलाती है। वाराणसी ज़िले की नदियों के विस्तार से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि वाराणसी में तो प्रस्रावक नदियाँ है लेकिन चंदौली में नहीं है जिससे उस ज़िले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गाँव पानी से भर जाते हैं तथा फ़सल को काफ़ी नुक़सान पहुँचता है।
गंगा
गंगा का वाराणसी की प्राकृतिक रचना में मुख्य स्थान है। गंगा वाराणसी में गंगापुर के बेतवर गाँव से पहले घुसती है। यहाँ पर इससे सुबहा नाला आ मिला है। वाराणसी को वहाँ से प्राय: सात मील तक गंगा मिर्ज़ापुर ज़िले से अलग करती है और इसके बाद वाराणसी ज़िले में वाराणसी और चन्दौली को विभाजित करती है। गंगा की धारा अर्ध-वृत्ताकार रूप में वर्ष भर बहती है। इसके बाहरी भाग के ऊपर करारे पड़ते हैं और भीतरी भाग में बालू अथवा बाढ़ की मिट्टी मिलती है। गंगा का रुख़ पहले उत्तर की तरफ़ होता हुआ रामनगर के कुछ आगे तक देहात अमानत को राल्हूपुर से अलग करता है। यहाँ पर किनारा कंकरीला है और नदी उसके ठीक नीचे बहती है। यहाँ तूफ़ान में नावों को काफ़ी ख़तरा रहता है। देहात अमानत में गंगा का बांया किनारा मुंडादेव तक चला गया है। इसके नीचे की ओर वह रेत में परिणत हो जाता है और बाढ़ में पानी से भर जाता है। रामनगर छोड़ने के बाद गंगा की उत्तर-पूर्व की ओर झुकती दूसरी केहुनी (कमान, तरफ़) शुरू होती है। धारा यहाँ बायें किनारे से लगकर बहती है।
बानगंगा
रामगढ़ में बानगंगा के तट पर वैरांट नामक स्थल के प्राचीन खंडहरों की स्थिति है, जो महत्त्वपूर्ण है। लोक कथाओं के अनुसार यहाँ एक समय प्राचीन वाराणसी बसी थी। सबसे पहले बैरांट के खंडहरों की जांच पड़ताल कार्लाईल 2 ने की। वैरांट की स्थिति गंगा के दक्षिण में सैदपुर से दक्षिण-पूर्व में और वाराणसी के उत्तर-पूर्व में क़रीब 16 मील और ग़ाज़ीपुर के दक्षिण-पश्चिम क़रीब 12 मील है। वैरांट के खंडहर बानगंगा के वर्तुलाकार दक्षिण-पूर्वी किनारे पर हैं।
अर्थव्यवस्था
उद्योग और व्यापार
वाराणसी कला, हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी केन्द्र है। यह शहर रेशम, सोने व चाँदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, काँच की चूड़ियों, हाथी दाँत और पीतल के काम के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रमुख उद्योगों में रेल इंजन निर्माण इकाई शामिल है।
काशी को 'महाश्मशान' के नाम से भी जाना जाता है। इसे पृथ्वी की सबसे बड़ी शमशान भूमि माना जाता था। यहाँ के मणिकर्णिका घाट तथा हरिश्चंद्र घाट को सबसे पवित्र घाट माना जाता है।
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वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी किमखाब तथा ज़री के वस्त्रों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा ज़री के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात (झांझ मझीरा) उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं ।
वाणिज्य और व्यापार का प्रमुख केंद्र
वाराणसी नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग राजगृह को जाता था।[32] काशी से वेरंजा जाने के लिए दो रास्ते थे-
दूसरा मार्ग बनारस से वैशाली को चला जाता था।[33] वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से चंदन लाया था।[34]
मनोरंजन
फ़िल्में
भारतीय सिनेमा में वाराणसी की संस्कृति और उसकी पृष्ठभूमि पर आधारित कई फ़िल्मों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जिनमें से कुछ प्रमुख फ़िल्में निम्नलिखित हैं-
- बनारस – ए मिस्टिक लव स्टोरी
बनारस – ए मिस्टिक लव स्टोरी बनारस शहर में बनी एक हिन्दी फ़िल्म है। इस फ़िल्म में बनारस की गलियों, घाटों और मंदिरों को एक प्रेम कहानी में पिरोया गया है। आठ करोड़ की लागत वाली इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह, डिंपल कपाड़िया, उर्मिला मातोंडकर, अस्मित पटेल और आकाश खुराना ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं।
- जोइ बाबा फेलुनाथ
जोइ बाबा फेलुनाथ (1979) भारत रत्न सम्मानित निर्देशक सत्यजीत रे द्वारा निर्देशित एक बांग्ला फ़िल्म है। इस फ़िल्म के अभिनेता सौमित्र चटर्जी, संतोष दत्ता, सिद्दार्थ चटर्जी, उत्पल दत्त आदि हैं। यह फ़िल्म सत्यजीत राय के प्रसिद्ध उपन्यास फ़ेलुदा पर आधारित है।
- डॉन (1978)
1978 की सुपरहिट हिन्दी फ़िल्म डॉन का गाना खई के पान बनारस वाला अमिताभ बच्चन के साथ बनारसी पान की प्रशंसा में गाया गया था और बहुत लोकप्रिय हुआ था।
खानपान
वाराणसी में बहुत से भोजनालय हैं जहाँ पर स्वादिष्ट भोजन मिलता है।
- जयपुरिया होटल
जयपुरिया होटल वाराणसी में गोदौलिया चौक के पास स्थित है। इस होटल में बहुत स्वादिष्ट भोजन मिलता है। यहाँ पर ख़ास थाली मिलती है। इसमें तीन सब्जी, दाल, कढ़ी, रोटी, चावल, सलाद तथा पापड़ होता है। इस भोजनालय की ख़ास बात है कि यहाँ भोजन लकड़ी के आग पर बनाया जाता है। इस भोजन को बनाने में प्याज और लहसुन का भी उपयोग नहीं होता है।
- कचौड़ी-सब्जी
वाराणसी के लोग नाश्ते में बहुधा कचौड़ी-सब्जी खाना पसंद करते हैं। यहाँ के लोग कचौड़ी-सब्जी के साथ जलेबी खाते हैं।
- विश्वनाथ साहब होटल
विश्वनाथ साहब होटल गोदौलिया चौक के पास स्थित है। यहाँ देशी घी की कचौड़ी-सब्जी प्रसिद्ध है। इस होटल के पास 'काशी चाट भंडार' है। काशी चाट भंडार की चाट बहुत स्वादिष्ट होती है।
- बनारसी पान
बनारसी पान दुनिया भर में मशहूर है। बनारसी पान चबाना नहीं पड़ता। यह मुँह में जाकर धीरे-धीरे घुलता है और मन को भी सुवासित कर देता है। वाराणसी आने वालों में पान खाने का शौक़ रखने वाले को बनारसी पान ज़रुर खाना चाहिए। हिन्दी की सुपरहिट फ़िल्म डॉन का गाना खई के पान बनारस वाला जो अमिताभ बच्चन पर चित्रांकित किया गया था, बनारसी पान की प्रशंसा में गाया गया था और बहुत लोकप्रिय हुआ था।
बनारसी साड़ी
- बनारसी साड़ियों दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। लाल, हरी और अन्य गहरे रंगों की ये साड़ियां हिंदू परिवारों में किसी भी शुभ अवसर के लिए आवश्यक मानी जाती हैं।
- उत्तर भारत में अधिकांश बेटियाँ बनारसी साड़ी में ही विदा की जाती हैं।
- बनारसी साड़ियों की कारीगरी सदियों पुरानी है।
कृषि और खनिज
कपास की खेती
वाराणसी नगर को वाणिज्य के क्षेत्र में भी ख्याति प्राप्त था। जातकों से भी विदित होता है कि वाराणसी के बहुमूल्य, रंगीन, सुगंधित, सुवासित, पतले एवं चिकने कपड़े विक्रय के लिए सुदूर देशों में भेजे जाते थे। काशी में बने वस्त्रों को ‘काशी कुत्तम,[35] और ‘कासीय’[36] भी कहते थे। संभवत: इन शब्दों का प्रयोग गुणवाचक संदर्भ में किया गया है। ऐसा समझा जाता है कि एक समय वाराणसी के आसपास कपास की अच्छी खेती होती थी। तुंडिल जातक में[37] वाराणसी के आसपास कपास के खेतों का वर्णन मिलता है। एक जातक में वैराग्य लेने वाले पति के मन को आकर्षित करने के लिए उसकी पत्नी चंदन से सुवासित बनारसी रेशमी साड़ी पहनने की प्रतिज्ञा करती है।[38] महाहंस जातक में काशिराज के घर में विद्यमान बहुमूल्य सामग्रियों में रत्न, सोना, चाँदी, मोती, बिल्लौर, मणि, शंख, वस्त्र, हाथीदाँत, बर्तन और ताँबा इत्यादि प्रमुख थे।
यातायात और परिवहन
किसी नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफ़ी ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों में (जा. 175) एक जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था जिसके पानी तक पहुँचने के लिए कोई साधन न था।
उस रास्ते से जो लोग जाते थे वे पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे जिससे जानवर पानी पी सकें।
वाराणसी हवाई, रेल तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है।
- हवाई मार्ग
वाराणसी का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा बाबतपुर में है। यह वाराणसी से 22 किलोमीटर तथा सारनाथ से 30 किलोमीटर दूर है। दिल्ली, आगरा, खजुराहो, कोलकाता, मुंबई, लखनऊ, भुवनेश्वर तथा काठमांडू से यहाँ के लिए सीधी हवाई सेवा है।
- रेल मार्ग
वाराणसी कैंट तथा मुग़लसराय (वाराणसी के मुख्य रेलवे स्टेशन से 16 किलोमीटर दूर) यहाँ का मुख्य रेल जंक्शन है। ये दोनों जंक्शन वाराणसी को देश के अन्य प्रमुख नगरों से जोड़ते हैं।
- सड़क मार्ग
वाराणसी सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली से वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है। यहाँ के आई.एस.बी.टी. तथा आनन्द विहार बस अड्डे से वाराणसी के लिए बसें चलती हैं। लखनऊ तथा इलाहाबाद से भी वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है।
- सार्वजनिक यातायात
वाराणसी शहर के स्थानीय प्रचलित यातायात साधन ऑटो रिक्शा एवं साइकिल रिक्शा हैं। बाहरी क्षेत्रों में नगर-बस सेवा में मिनी-बसें चलती हैं। छोटी नावें और छोटे स्टीमर गंगा नदी पार करने हेतु उपलब्ध रहते हैं।
- जल मार्ग
वाराणसी के धार्मिक और व्यापारिक प्रभाव का मुख्य कारण इसकी गंगा पर स्थिति होना है। गंगा में बहुत प्राचीन काल से नावें चलती थीं जिनसे काफ़ी व्यापार होता था। वाराणसी से कौशांबी तक जलमार्ग से दूरी 30 योजन दी हुई है। वाराणसी से समुद्र यात्रा भी होती थी।
एक जातक [40] में कहा गया है कि वाराणसी के कुछ व्यापारियों ने दिसाकाक लेकर समुद्र यात्रा की। यह दिशा काक समुद्र यात्रा के समय किनारे का पता लगाने के लिए छोड़ा जाता था। कभी-कभी काशी के राजा भी नावों के बेड़ों में यात्रा करते थे।[41]
अलबरूनी के समय में [42] बारी [43] से एक सड़क गंगा के पूर्वी किनारे अयोध्या पहुँचती थी। बारी से अयोध्या 25 फरसंग तथा वहां से वाराणसी 20 फरसंग था। यहाँ से गोरखपुर, पटना, मुंगेर होती हुई यह सड़क गंगासागर को चली जाती थी। एक यही वैशाली वाली प्राचीन सड़क है और इसका उपयोग सल्तनत युग में बहुत होता था।
ग्रैण्ड ट्रंक रोड
सड़क-ए-आजम जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड कहते हैं, बहुत प्राचीन सड़क है जो मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सराय बनवाईं और डाक का प्रबंध किया। कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई 1500 कोस थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। इस सड़क की अकबर के समय में काफ़ी उन्नति हुई और शायद उसी काल में मिर्ज़ामुरात और सैयदराज में सरायें बनी। आगरा से पटना तक इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने 1632 ईं. में किया है। एक सड़क दिल्ली- मुरादाबाद, बनारस होकर पटना जाती थी और दूसरी आगरा - इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, ग़ाज़ीपुर और मिर्ज़ापुर से मिलाते थे।
चौराहों पर सभाएँ
यात्रियों के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएँ बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक। भीतर ज़मीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की क़तारें लगी होती थी।
शिक्षण संस्थान
वाराणसी पूर्व से ही विद्या और शिक्षा के क्षेत्र में एक अहम प्रचारक और केन्द्रीय संस्था के रूप में स्थापित था। मध्यकाल के दौरान उत्तर प्रदेश में उदार परम्परा का संचालन था। वाराणसी 'हिन्दू शिक्षा केन्द्र' के रूप में विश्वव्यापक हुआ। वाराणसी के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 'इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ़ सैकेंडरी एजुकेशन' [44], 'केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड' [45] या 'उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद' [46] से सहबद्ध हैं। प्राचीन काल से ही लोग यहाँ दर्शन शास्त्र, संस्कृत, खगोल शास्त्र, सामाजिक ज्ञान एवं धार्मिक शिक्षा आदि के ज्ञान के लिये आते रहे हैं। भारतीय परंपरा में प्रायः वाराणसी को सर्वविद्या की राजधानी कहा गया है। वाराणसी में एक जामिया सलाफ़िया भी है, जो सलाफ़ी इस्लामी शिक्षा का केन्द्र है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में स्थित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना [47] के अंतर्गत हुई थी। पण्डित मदनमोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारम्भ 1904 ई. में किया, जब काशी नरेश 'महाराज प्रभुनारायण सिंह' की अध्यक्षता में संस्थापकों की प्रथम बैठक हुई। 1905 ई. में विश्वविद्यालय का प्रथम पाठ्यक्रम प्रकाशित हुआ।
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना 1791 ई. में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने की थी। वाराणसी का यह प्रथम महाविद्यालय था। जे म्योर, आई.सी.एस इस महाविद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य, संस्कृत प्राध्यापक थे।
महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ
वाराणसी का यह एक मानित राजपत्रित विश्वविद्यालय है। इस विद्यापीठ का नाम भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नाम पर है। इस विद्यापीठ में गाँधी जी के सिद्धांतों का पालन किया जाता है।
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान
यह इंस्टीट्यूट सारनाथ में स्थित है। यहाँ पर परंपरागत तिब्बती पठन-पाठन को आधुनिक शिक्षा के साथ वरीयता दी जाती है। 'उदय प्रताप महाविद्यालय' एक स्वायत्त महाविद्यालय है जहाँ आधुनिक बनारस के उपनगरीय छात्रों हेतु क्रीड़ा एवं विज्ञान का केन्द्र है। वाराणसी में बहुत से निजी एवं सार्वजनिक संस्थान है, जहाँ हिन्दू धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था है। इन विश्वविद्यालयों के अलावा शहर में कई स्नातकोत्तर एवं स्नातक महाविद्यालय भी हैं, जैसे - अग्रसेन डिग्री कॉलेज, हरिशचंद्र डिग्री कॉलेज, आर्य महिला डिग्री कॉलेज एवं स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट।
कला
संगीत
- वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही विद्याओं का केंद्र रहा है।
- सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की विशेष देन है।
- इसमें धीरेंद्र बाबू, बड़ी मोती, छोती मोती, सिध्देश्वर देवी, रसूलन बाई, काशी बाई, अनवरी बेगम, शांता देवी तथा इस समय गिरिजा देवी आदि का नाम समस्त भारत में बड़े गौरव एवं सम्मान के साथ लिया जाता है।
साहित्य
वाराणसी संस्कृत साहित्य का केंद्र तो रही ही है, लेकिन इसके साथ ही इस नगर ने हिन्दी तथा उर्दू में अनेक साहित्यकारों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने साहित्य सेवा की तथा देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया। इनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, श्यामसुन्दर दास, राय कृष्णदास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र', विनोदशंकर व्यास, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ तथा डॉ. संपूर्णानंद उल्लेखनीय हैं।
इनके अतिरिक्त उर्दू साहित्य में भी यहाँ अनेक जाने- माने लेखक एवं शायर हुए हैं। जिनमें मुख्यतः श्री विश्वनाथ प्रसाद शाद, मौलवी महेश प्रसाद, महाराज चेतसिंह, शेखअली हाजी, आग़ा हश्र कश्मीरी, हुकुम चंद्र नैयर, प्रो. हफीज बनारसी, श्री हक़ बनारसी तथा नज़ीर बनारसी का नाम आता है।
उत्सवप्रियता
वाराणसी के निवासियों की उत्सवप्रियता का उल्लेख जातकों में सविस्तार मिलता है। महाजनपद युग में दीपावली का उल्लेख मुख्य त्योहारों में हुआ है। एक जातक में उल्लेखित है कि काशी की दीपमालिका कार्तिक मास में मनायी जाती थी। इस अवसर पर स्थियाँ केशरिया रंग के वस्त्र पहनकर निकलती थीं।[48]
हस्तिमंगलोत्सव
हस्तिमंगलोत्सव भी वाराणसी का एक प्रमुख उत्सव था,[49] जिसका उल्लेख जातकों एवं बौद्ध साहित्य में मिलता है। इसके अतिरिक्त मंदिरोत्सव भी मनाया जाता था, जिसमें सुरापान किया जाता था।[50] एक जातक में उल्लेख आया है कि काशीराज ने एक बार इस अवसर पर तपस्वियों को खूब सुरापान कराया था।[51]
वाराणसी के मन्दिर
वाराणसी में कई प्रमुख मंदिर स्थित हैं। वाराणसी कई प्रमुख मंदिरों का नगर है। वाराणसी में लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर स्थित है। दैनिक स्थानीय अर्चना के लिये ऐसे छोटे मंदिर सहायक होते हैं। इन छोटे मंदिरों के साथ ही वाराणसी में ढेरों बड़े मंदिर भी हैं, जो समय-समय पर वाराणसी के इतिहास में बनवाये गये थे।
वाराणसी में स्थित इन मंदिरों में काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, दुर्गा जी का मंदिर, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा देवी मंदिर व विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर
मूल काशी विश्वनाथ मंदिर बहुत छोटा था। 18वीं शताब्दी में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने इसे भव्य रूप प्रदान किया। पंजाब के शासक राजा रंजीत सिंह ने 1835 ई. में इस मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वाया था। इस कारण इस मंदिर का एक अन्य नाम गोल्डेन टेम्पल भी पड़ा। यह मंदिर कई बार ध्वस्त किया गया। वर्तमान में जो मंदिर है उसका निर्माण चौथी बार में हुआ है। क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने सर्वप्रथम इसे 1194 ई. में ध्वस्त किया था। रज़िया सुल्तान (1236-1240) ने इसके ध्वंसावशेष पर रज़िया मस्जिद का निर्माण करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का निर्माण अभिमुक्तेश्वर मंदिर के नज़दीक बनवाया गया। बाद में इस मंदिर को जौनपुर के शर्की राजाओं ने तुड़वा दिया। 1490 ई. में इस मंदिर को सिकन्दर लोदी ने ध्वंस करवाया था। 1585 ई. में बनारस के एक प्रसिद्ध व्यापारी टोडरमल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। 1669 ई. में इस मंदिर को औरंगज़ेब ने पुन: तुड़वा दिया। औरंगज़ेब ने भी इस मंदिर के ध्वंसावशेष पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया था।
वाराणसी के घाट
वाराणसी (काशी) में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, ये सभी घाट किसी न किसी पौराणिक या धार्मिक कथा से संबंधित हैं। वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक सौ से अधिक घाट हैं। वाराणसी में अस्सीघाट से लेकर वरुणा घाट तक सभी की क्रमवार सूची निम्न है:-
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राजघाट उत्खनन
राजघाट की प्राचीनता और उसका सतत इतिहास किसी पुरातात्विक उत्खनन से 1940 ई. तक निश्चित नहीं था। इसकी प्राचीन स्थिति वर्तमान काशी स्टेशन के उत्तर-पूर्वी में गंगा और वरुणा के मध्य थी, जिसे 'राजघाट टीले' के नाम से जाना जाता है। इसकी आकस्मिक खोज 1939 ई. में वर्तमान काशी स्टेशन के विस्तार के समय रेलवे ठेकेदारों द्वारा खुदाई कराते समय हुई।[52] खुदाई में इन ठेकेदारों को बहुत-सी प्राचीन वस्तुएँ मिलीं जिनमें मिट्टी की मुहरें एवं मुद्रायें भी थीं। इन वस्तुओं को अब 'भारत कला भवन' और 'इलाहाबाद म्यूनिसिपल म्यूज़ियम' में रखा गया है। इन मुद्राओं में मुख्यत: यूनानी देवी-देवताओं की आकृतियाँ तथा कुछ यूनानी राजाओं के सिर का अंकन है। यहाँ से मिली वस्तुओं से आकृष्ट होकर श्री कृष्णदेव के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्त्व विभाग के एक दल ने यहाँ उत्खनन प्रारंभ किया। इस दल ने ऊपरी जमाव से 20 फुट नीचे तक खुदाई की।
पर्यटन
वाराणसी, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यहाँ अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सुंदर दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें देखने के लिए देश के ही नहीं, संसार भर से पर्यटक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की संस्कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। कला, संस्कृति, साहित्य और राजनीति के विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य नगरों की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी की जननी संस्कृत की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
भारत कला भवन
भारत कला भवन, उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थित एक संग्रहालय है। भारत में प्रचलित लगभग समस्त शैलियों के चित्रों का विशाल संग्रह इस संग्रहालय में है। यहाँ का चित्र संग्रह विश्व में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। भारतीय चित्रकला के विषय में यदि कोई भी विद्वान, शोधकर्ता या कलाविद गहन अध्ययन करना चाहे तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि उसे वाराणसी में स्थित 'भारत कला भवन' के चित्र संग्रह का अवलोकन करना ही होगा।
विभूतियाँ
वाराणसी में प्राचीन काल से समय-समय पर अनेक महान् विभूतियों का प्रादुर्भाव या वास होता रहा हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
नाम | विवरण | चित्र |
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भारत रत्न सम्मानित बिस्मिल्ला ख़ाँ (जन्म- 21 मार्च 1916 - मृत्यु- 21 अगस्त, 2006 ) एक प्रख्यात शहनाई वादक थे। 1969 में एशियाई संगीत सम्मेलन के रोस्टम पुरस्कार तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक पहचान प्रदान किया है। .... और पढ़ें | ||
पंडित रविशंकर (जन्म- 7 अप्रॅल, 1920 बनारस) विश्व में भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्कृष्टता के सबसे बड़े उदघोषक हैं। एक सितार वादक के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की है। रवि शंकर और सितार मानों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। वह इस सदी के सबसे महान संगीतज्ञों में गिने जाते हैं। .... और पढ़ें | ||
पंडित मदन मोहन मालवीय (जन्म- 25 दिसम्बर, 1861, इलाहाबाद; मृत्यु- 12 नवम्बर, 1946) महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद ही नहीं, बल्कि एक बड़े समाज सुधारक भी थे। इतिहासकार वीसी साहू के अनुसार हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक मदन मोहन मालवीय देश से जातिगत बेड़ियों को तोड़ना चाहते थे। उन्होंने दलितों के मन्दिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के ख़िलाफ़ देशभर में आंदोलन चलाया। .... और पढ़ें | ||
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी (जन्म- 19 अगस्त, 1907 ई., गाँव 'आरत दुबे का छपरा', बलिया ज़िला, भारत; मृत्यु- सन 1978 ई.) हिन्दी के शीर्षस्थानीय साहित्यकारों में से हैं। वे उच्चकोटि के निबन्धकार, उपन्यास लेखक, आलोचक, चिन्तक तथा शोधकर्ता हैं। साहित्य के इन सभी क्षेत्रों में द्विवेदी जी अपनी प्रतिभा और विशिष्ट कर्तव्य के कारण विशेष यश के भागी हुए हैं। द्विवेदी जी का व्यक्तित्व गरिमामय, चित्तवृत्ति उदार और दृष्टिकोण व्यापक है। द्विवेदी जी की प्रत्येक रचना पर उनके इस व्यक्तित्व की छाप देखी जा सकती है। .... और पढ़ें | ||
महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांन्धता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ हिन्दू धर्म के कर्मकांड, विधान और पाखंड से धर्म का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति- भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का प्रार्दुभाव हुआ। .... और पढ़ें | ||
गोस्वामी तुलसीदास 1497(1532?) - 1623 एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर, (वर्तमान बाँदा ज़िला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। .... और पढ़ें | ||
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में 9 सितम्बर सन 1850 को हुआ। इनके पिता 'बाबू गोपाल चन्द्र' भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र 5 वर्ष की थी, इनकी माता चल बसी और दस वर्ष की आयु में पिता जी भी चल बसे। भारतेन्दु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गम्भीर प्रेरणा ली। इनके मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे, जिनकी बातों से ये प्रभावित थे। इनके पास विपुल धनराशि थी, जिसे इन्होंने साहित्यकारों की सहायता हेतु मुक्त हस्त से दान किया। .... और पढ़ें | ||
महाकवि जयशंकर प्रसाद (जन्म- 30 जनवरी, 1889 ई.,वाराणसी, उत्तर प्रदेश, मृत्यु- 15 नवम्बर, सन 1937) हिन्दी नाट्य जगत और कथा साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में जयशंकर प्रसाद अनुपम थे। .... और पढ़ें | ||
भारत के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद (जन्म- 31 जुलाई, 1880 - मृत्यु- 8 अक्टूबर, 1936) के युग का विस्तार सन 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व का है। इस युग में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम नई मंज़िलों से गुज़रा। .... और पढ़ें | ||
खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले कवियों में अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (जन्म- 15 अप्रैल, 1865, मृत्यु- 16 मार्च, 1947) का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में 1890 ई. के आस-पास अयोध्यासिंह उपाध्याय ने साहित्य सेवा के क्षेत्र में पदार्पण किया। .... और पढ़ें | ||
रामचन्द्र शुक्ल जी का जन्म बस्ती ज़िले के अगोना नामक गाँव में सन 1884 ई. में हुआ था। सन 1888 ई. में वे अपने पिता के साथ राठ हमीरपुर गये तथा वहीं पर विद्याध्ययन प्रारम्भ किया। सन 1892 ई. में उनके पिता की नियुक्ति मिर्ज़ापुर में सदर क़ानूनगो के रूप में हो गई और वे पिता के साथ मिर्ज़ापुर आ गये। .... और पढ़ें | ||
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। .... और पढ़ें | ||
ईसा की सातवी शताब्दी में शंकर के रूप में स्वयं भगवान शिव का अवतार हुआ था। आदि शंकराचार्य जिन्हें 'शंकर भगवद्पादाचार्य' के नाम से भी जाना जाता है, वेदांत के अद्वैत मत के प्रणेता थे। अवतारवाद के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में हुआ था । .... और पढ़ें |
जनसंख्या
2001 की जनगणना के अनुसार नगर निगम क्षेत्र की जनसंख्या 11,22,748 है, छावनी क्षेत्र की जनसंख्या 17,246 और ज़िले की जनसंख्या 31,3867 है।[53]
वाराणसी पर कविता
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्रीकृष्ण सरल की चन्द्रशेखर आज़ाद पर लिखी गई अनुपम कविता हैं -
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चित्र वीथिका
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बनारस का दृश्य
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साधु, वाराणसी
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मणिकर्णिका घाट, वाराणसी
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गंगा नदी, वाराणसी
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गंगा नदी, वाराणसी
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वाराणसी का एक दृश्य
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प्रयाग घाट, वाराणसी
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गंगा नदी, वाराणसी
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वाराणसी घाट पर आनंद उठाते बच्चे
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नाव की सवारी करते पर्यटक, वाराणसी
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बंदर, वाराणसी
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बनारसी साड़ी में विदेशी महिला, वाराणसी
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एक महिला श्रमिक, वाराणसी
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दूध उबालता एक व्यक्ति, वाराणसी
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बच्चे, वाराणसी
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पंडित जी, वाराणसी
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गंगा नदी मे भैंसें
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वाराणसी के घाट पर बच्चे को स्नान कराती महिला
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वाराणसी के घाट पर स्नान करते बच्चे
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ डायना एल इक, बनारस सिटी ऑफ़ लाइट (न्यूयार्क, 1982), प्रथम संस्करण, पृष्ठ 4
- ↑ एम. ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटीज ऑफ़ दि हिन्दूज, (लंदन, 1968) पृष्ठ 19-34
- ↑ जे. मरडाक, काशी और बनारस (1894) पृष्ठ 5
- ↑ ई. ग्रीब्ज, काशी, इलाहाबाद, 1909, पृष्ठ 3-4
- ↑ ए. पारकर, ए हैंडबुक ऑफ़ बनारस, पृष्ठ 2
- ↑ ई.वी. हैवेल, बनारस दि सेक्रेड सिटी पृष्ठ 41-50
- ↑ रामलोचन सिंह, बनारस, एक सिटी इन अर्बन ज्योग्राफी, पृष्ठ 31
- ↑ वाराणसीति यत् ख्यातं तम्मानं निगदामिव। दक्षिणातरयौ नयौ परणासिश्चपूर्णत:॥- पद्मपुराण, काशी माहात्म्य 5/58
- ↑ अथर्ववेद, 4/7/1
- ↑ ऐंश्येंट ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया, (वाराणसी, 1963), पृष्ठ 367
- ↑ एम. जूलियन, लाइफ एंड पिलग्रिमेज ऑफ़ युवॉन्-च्वाङ्ग, 1/133,2/354
- ↑ महाभारत, 6/10/30
- ↑ शेरिंग, दि सेक्रेड सिटी ऑफ़ बनारस, (लंदन, 1968), पृष्ठ 19
- ↑ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, (बंबई, प्रथम संस्करण, 1962 ई.) पृष्ठ 4
- ↑ भग्नावशेषो के आधार पर
- ↑ बाएँ तट पर
- ↑ यस्य आयाम:। 2/1/16, अष्टाध्यायी पाणिनि
- ↑ ‘‘अनुगंगं वाराणसी अनुशोणं पाटलिपुत्रं’’ कीलहार्न, 1/380
- ↑ जेम्स लेग्गे, ट्रेवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान, (दिल्ली, 1972, द्वितीय संस्करण), पृष्ठ 94
- ↑ ‘‘काशस्य काशयो राजन् पुत्रोदीर्घतपस्तथा।’’ – हरिवंशपुराण, अध्याय 29
- ↑ ‘‘काशते त्रयतो ज्योतिस्तदनख्येमपोश्वर:। अतोनापरं चास्तुकाशीति प्रथितांविभो।’ ॥68॥ काशी खंड, अध्याय 26
- ↑ शतपथ ब्राह्मण, 1/4/1/10-17: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 19
- ↑ ई.बी.हैवेल, बनारस, दि सेक्रेड सिटी, (कलकत्ता पुनर्मुदित, 1968 ई.),पृष्ठ 2
- ↑ महाभारत, 6/10/30
- ↑ तत्रेव, आदिपर्व, अध्याय 95
- ↑ तत्रेव, उद्योगपर्व, 72/74
- ↑ तत्रैव, 12/99/1-2
- ↑ वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 56/25
- ↑ तत्रैव, 59/19
- ↑ महीकाल मही चापि शैल कानन शोभिताम्। ब्रह्ममालांविदेहाश्च मालवान काशि कोशलान्॥ बाल्मीकिरामायण, किष्किंधाकांड, 20,22
- ↑ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 2
- ↑ विनयपिटक, जिल्द 1, पृष्ठ 262
- ↑ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
- ↑ सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृष्ठ 523
- ↑ जातक, खंड 6 सं. 539 (महाजनक जातक
- ↑ तत्रैव, खंड 6, संख्या 547 (महावेसत्त जातक
- ↑ तत्रैव भाग 3 पृष्ठ 286 मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 47
- ↑ जातक संख्या 457 देखें, उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृष्ठ 126
- ↑ यं किंविरतनं अत्थि कासिराज निवेसने।
रजतं जातरूपन्चं मुक्ता बेलुरिया बहु।
मणयो संखमुत्तन्य वत्थकं हरिचंदनं।
अजिनं दत्त भंडन्य लोहं, कालायनं बहु॥ जातक, भाग 5 (सं. 534) पृष्ठ 462 - ↑ जातक 384
- ↑ जातक 3/326
- ↑ 11वीं सदी का आरंभ
- ↑ आगरा की एक तहसील
- ↑ आई.सी.एस.ई
- ↑ सी.बी.एस.ई
- ↑ यू.पी.बोर्ड
- ↑ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एक्ट, एक्ट क्रमांक 16, सन् 1915
- ↑ जातक, भाग 2, पृष्ठ 145 (संख्या 147) मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 45
- ↑ जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 215
- ↑ जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 132
- ↑ 139- जातक, भाग 1, पृष्ठ 208
- ↑ विद्या प्रकाश एवं टी.एन. राय, बुलेटिन ऑफ़ द यू.पी. हिस्टारिकल सोसाइटी, संख्या 4 (साइट्स एंड मानुमेंट्स ऑफ़ यू.पी.) लखनऊ, 1965 पृष्ठ 33
- ↑ वाराणसी (अंग्रेज़ी) (एच.टी.एम.एल) वाराणसी की आधिकारिक वेबसाइट। अभिगमन तिथि: 23 फ़रवरी, 2011।
- ↑ चन्द्रशेखर आज़ाद (हिन्दी) कविता कोश। अभिगमन तिथि: 30 मार्च, 2011।
बाहरी कड़ियाँ
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