सनातन गोस्वामी का चैतन्य महाप्रभु से मिलन

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सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी कुछ दिनों में काशी पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु वृन्दावन से लौटकर कुछ दिनों से काशी में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके नृत्य-कीर्तन के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही। दूसरे ही क्षण दीन-हीन वेश में वे चन्द्रशेखर आचार्य के दरवाज़े पर उपस्थित हुए। उनके प्राण महाप्रभु के दर्शन के लिये छटपट कर रहे थे। पर वे अपने को दीन और अयोग्य जान भीतर जाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। विशाल गौड़ देश के मुख्यमन्त्री, जिनके दरवाज़े पर उनके कृपाकटाक्ष के लोभ से सैंकड़ों सामंत प्रतीक्षा में बैठे रहते।

भक्ति महारानी का अलौकिक प्रभाव

आज चन्द्रशेखर आचार्य के घर के बाहर बैठे अपने को अनधिकारी जान दरवाज़ा खटखटाने का भी साहस नहीं कर पा रहे! यही तो है भक्ति महारानी का अलौकिक प्रभाव! जो उनका आश्रय ग्रहण करता है, उसमें वे इतना दैन्य भर देती है कि वह महान् होते हुए भी अपने को दीन मानता है, पवित्र होते हुए भी अपने को अपवित्र मानता है, भक्ति धन का सर्वोच्च धनी होते हुए भी अपने को उसका कंगाल मानता है, प्रभु के इतना निकट आकर भी अपने को अपराधी जान उनसे मिलने के लिए उनका दरवाज़ा खटखटाने में भी संकोच करता है। पर उसे प्रभु का दरवाज़ा खटखटाने की आवश्यकता ही कब पड़ती है? उसके आगमन पर अन्तर्यामी प्रभु के प्राण बज उठते हैं और वे सिंहासन छोड़कर उसे अपने बाहुपाश में भर लेने को स्वयं भाग पड़ते हैं।
महाप्रभु को अपने प्राण-सनातन के आगमन की ख़बर पड़ गयी। प्राण-प्राण से मिलने को भाग पड़े। उच्च स्वर से 'हरे कृष्ण' हरे कृष्ण' कहते सनातन को उनका मधुर कण्ठस्वर पहचानने में देर न लगी। उन्होंने जैसे ही सिर ऊँचा किया तो देखा कि उनके प्राण धन श्रीगौरांग कनक-कान्ति सी दिव्य छटा विखरते, प्रेमाश्रुपूर्ण नेत्रों से उनकी ओर एकटक निहारते, भाव गदगद कण्ठ से मेरे सनातन! मेरे प्राण! कहते, दोनों भुजायें पसारे उन्हें आलिंगन करने उनकी ओर बढ़े आ रहे हैं! सनातन चिरअपराधी की तरह उनके चरणों में लोट गये। उन्होंने झट उठाकर हृदय से लगाना चाहा। पर सनातन छिटककर अलग जा खड़े हुये और हाथ जोड़कर कातर स्वर कहने लगे-'प्रभु, मैं नीच, पामर, विषयी, यवनसेवी आपके स्पर्श करने योग्य नहीं। मुझे न छुएँ।"

महाप्रभु का निमन्त्रण

"नहीं, नहीं, सनातन। दैन्य रहने दो। तुम्हारे दैन्य से मेरी छाती फटती है।[1] तुम अपने भक्ति बल से ब्रह्मांड तक को पवित्र करने की शक्ति रखते हो। मुझे भी अपना स्पर्श प्राप्त कर धन्य होने दो।" कहते-कहते महाप्रभु ने सनातन को अपनी भुजाओं में भर नेत्रों के प्रेमजल से अभिषिक्त कर दिया। चन्द्रशेखर से महाप्रभु ने कहा सनातन का क्षौर करा उनका दरवेश-वेश बदलने को। चन्द्रशेखर ने क्षौर और गंगा-स्नान करा उन्हें एक नूतन वस्त्र पहनने को दिया। सनातन ने उसे स्वीकार करते हुए कहा-" यदि मेरा वेश बदलना है तो मुझे अपना व्यवहार किया कोई पुराना वस्त्र देने की कृपा करें।"

तब मिश्रजी अपना व्यवहार किया एक पुराना वस्त्र ले आये। सनातन ने उसके दो टुकड़े कर डोर –कौपीन और वर्हिवास के रूप में उसे धारण किया। तभी से गौड़ीय-वैष्णवों में वैराग्य वेश की प्रथा प्रारम्भ हुई। जो अब तक चली आ रही है। उस दिन तपन मिश्र के घर महाप्रभु का निमन्त्रण था। महाप्रभु के वहाँ भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सनातन ने उनका प्रसाद सेवन किया। दूसरे दिन महाप्रभु के भक्त एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने सनातन से अनुरोध किया कि वे जब तक काशी में रहें, प्रसाद उनके घर ग्रहण किया करे। सनातन ने उसे स्वीकार नहीं किया वे भिक्षा का झोला हाथ में ले चले विभिन्न स्थानों से मधुकरी माँगने।

रामानन्द द्वारे कन्दपेर दर्पनाशे।

दामोदर द्वारे निरपेक्ष परकाशे॥ हरिदास द्वारे सहिष्णुता जानाइल।

सनातन रूप द्वारे दैन्य प्रकाशिल॥[2]

सनातन का गुण्-गान

महाप्रभु यह देख बहुत उल्लसित हुए। वे उच्छवसित कण्ठ से चन्द्रशेखर और तपन मिश्र से सनातन के वैराग्य की प्रशंसा करने लगे। वे सनातन का गुण्-गान करते जाते, पर बार-बार उनके कंधे पर रखे भोटे कम्बल की ओर देखते जाते। सनातन को उनकी तीक्ष्ण दृष्टि का अर्थ समझने में देर न लगी। वे गये गंगातट पर। देखा कि एक भिखारी अपनी पुरानी गूदड़ी धूप में सुखा रहा है। कातर स्वर से उससे बोले- "भाई, मेरा एक उपकार करो। मेरा यह कम्बल ले लो और यह बदले में यह गूदड़ी मुझे दे दो। मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूँगा।" भिखारी की भृकुटि चढ़ गयी। वह समझा कि यह बाबाजी स्वयं भिखारी होते हुए मेरी दरिद्रता का मज़ाक़ बना रहा है। पर सनातन के समझाने पर वह इस विनिमय के लिये तैयार हो गया। उसकी गूदड़ी प्रेम से कंधे पर डाल वे चन्द्रशेखर आचार्य के घर लौट आये। उन्हें देख महाप्रभु के मुखारविन्द पर छा गयी अपार आनन्द की दिप्ति। सब कुछ जानकर भी विस्मय का भाव दिखाते हुए उन्होंने कहा- "सनातन, कम्बल क्या हुआ?" सनातन के मुख से स्वेच्छा से कम्बल को गूदड़ी से बदल लेने की बात सुन महाप्रभु आनन्द से डगमग होते हुए बोले-हाँ, तभी तो मैं सोचता था कि कृष्ण जैसे सुवैद्य ने जब तुम्हें विषय-रोग से मुक्त किया है, तो उसका अंतिम चिह्न भी क्यों रखेगें?।[3]

भागवत-धर्म का प्रचार

इस प्रकार श्रीमन्महाप्रभु ने हुसैनशाह के प्रधानमन्त्री को सर्वत्यागी वैरागी का रूप देकर खड़ा किया वैराग्य और दैन्य के आदर्श का वह मानचित्र, जिसके सहारे वैष्णव-धर्म में नये प्राण फूंकने का उन्होंने संकल्प किया था। इसके पश्चात् आरम्भ हुआ प्रश्नोत्तर का वह क्रम, जिसके द्वारा महाप्रभु ने सनातन के माध्यम से जगत् में विशुद्ध भागवत-धर्म का प्रचार किया। सनातन एक के बाद एक प्रश्न करते जाते और महाप्रभु प्रसन्न मुख से उसका उत्तर देते जाते। कुछ दिन पूर्व गोदावरी के तीर पर रामानन्द राय से महाप्रभु के संलाप के माध्यम से उद्घाटित हुआ था भागवत-धर्म के निर्यास व्रज-रस तत्त्व का गूढ़ रहस्य। अब वाराणसी में गंगातट पर उनके सनातन के साथ संलाप से प्रकाशित हुआ वैष्णव साधना का क्रम और निगूढ़ तत्व। पहले महाप्रभु ने श्री कृष्ण की भगवत्ता और उनके विभिन्न अवतारों का वर्णन किया। फिर साधन-भक्ति और रागानुगा-भक्ति का विस्तार से निरूपण किया। दो महीने सनातन को अपने घनिष्ठ सान्निध्य में रख वैष्णव-सिद्धान्त में निष्णात करने के पश्चात् उन्होंने कहा- "सनातन, कुछ दिन पूर्व मैंने तुम्हारे भाई रूप को प्रयाग में कृष्ण रस का उपदेश कर और उसके प्रचार के लिए शक्ति संचार कर वृन्दावन भेजा है।

भक्ति सिद्धान्त की स्थापना

तुम भी वृन्दावन जाओ। तुम्हें मैं सौंप रहा हूँ चार दायित्वपूर्ण कार्यो का भार। तुम वहाँ जाकर मथुरा मण्डल के लुप्त तीर्थों और लीला स्थलियों का उद्धार करो, शुद्ध भक्ति सिद्धान्त की स्थापना करो, कृष्ण-विग्रह प्रकट करो। और वैष्णव-स्मृति ग्रन्थ का संकलन कर वैष्णव सदाचार का प्रचार करो।" इसके पश्चात् कंगालों के ठाकुर परम करुण गौरांग महाप्रभु ने दयाद्र चित्त से, करुणा विगलित स्वर में कहा- "इनके अतिरिक्त एक और भी महत्त्वपूर्ण दायित्व तुम्हें संभालना होगा। मेरे कथा-कंरगधारी कंगाल वैष्णव भक्त, जो वृन्दावन भजन करने जायेगें, उनकी देख-रेख भी तुम्हीं को करनी होगी।"[4] सनातन ने कहा- "प्रभु! यदि मेरे द्वारा यह कार्य कराने हैं, तो मेरे मस्तक पर चरण रख शक्ति संचार करने की कृपा करें।"

महाप्रभु ने सनातन के मस्तक पर अपना हस्त कमल रख उन्हें आर्शीवाद दिया। आज महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य कर सनातन वृज जाने के लिये महाप्रभु से विदा हो रहे हैं। पर उनके प्राण उनके चरणों से लिपटे हैं। वे उन्हें जाने कब दे रहे हैं? पैर आगे बढ़ते-बढ़ते पीछे लौट रहे हैं। जाते-जाते वे अश्रुपूर्ण नेत्रों से बार-बार महाप्रभु की ओर देख रहे हैं और मन ही मन कह रहे हैं न जाने कब फिर उनका भाग्योदय होगा। कब फिर करुणा और प्रेम की उस साक्षात मूर्ति के दर्शन कर वे विरहाग्नि से जर-जर अपने प्राणों को शीतल कर सकेगें।

साक्षात मूर्ति के दर्शन

सनातन जब वृन्दावन की ओर चले उसी समय रूप और बल्लभ उनसे मार्ग में मिलने के उद्देश्य से वृन्दावन से प्रयाग की ओर चले। पर दोनों का मिलन न हुआ, क्योंकि सनातन गये राजपथ से, रूप और वल्लभ आये दूसरे पथ से गंगा के किनारे-किनारे। महाप्रभु ने नीलाचल से वृन्दावन की यात्रा की सन् 1515 के शरद काल में[5] वृन्दावन से लौटते समय वे प्रयाग होते हुए काशी आये। सनातन का उनसे साक्षात हुआ, सन् 1516 के माघ फाल्गुन अर्थात् जनवरी-फ़रवरी में और उन्होंने वृन्दावन की यात्रा की दो महीने पीछे अप्रेल-में ब्रजधाम पहुँचते ही सनातन गोस्वामी ने पहले सुबुद्धिराय से साक्षात् किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भक्तिरत्नाकर का मत है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने विभिन्न परिवारों द्वारा विभिन्न भाव और शक्ति का प्रकाश किया है। सनातन और रूप द्वारा दैन्प्य का प्रकाश किया है-
  2. प्रथम तरंग 630, 631
  3. चैतन्य-चरितामृत 2।20।90॥
  4. चैतन्य-चरितामृत 2।25।176
  5. चैतन्य चरित 2।18।112

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