सनातन गोस्वामी का परिचय

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
सनातन गोस्वामी विषय सूची
मदन मोहन जी का मंदिर, वृन्दावन
Madan Mohan temple, Vrindavan

सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। जब भी इस भूमि पर भगवान अवतार लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं, श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही संत रहे जिनके साथ हमेशा श्री कृष्ण एवं श्री राधा रानी हैं। श्री सनातन गोस्वामी जी का जन्म सन 1466 के लगभग के हुआ था। सन 1514 अक्टूबर का महीना। चैतन्य महाप्रभु सन्न्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण-प्रेम-रस से परिपूर्ण उनके हृदय सरोवर में उठी एक भाव तरंग श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर वृन्दावन के दर्शन की। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी भक्तों के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली वृन्दावन के पथ पर। साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ नृत्य और कीर्तन करती। गौड़ देश होते हुए उन्होंने झाड़खण्ड के रास्ते वृन्दावन जाना था। पर आश्चर्य! झाड़खण्ड न जाकर वे मुड़ चले गौड़ देश के राजा अलाउद्दीन हुसैनशाह की राजधानी गौड़ की ओर। ऐसा कौन-सा प्रबल आकर्षण था, जो वृन्दावन की ओर बहती हुई उस भाव और प्रेम की सोतस्विनी के वेग को थामकर अपनी ओर मोड़ने में समर्थ हुआ, किसी की समझमें न आया।

जन्मतिथि मतभेद

सनातन गोस्वामी की जन्मतिथि के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं जान पड़ता। डॉ. दीनेशचन्द्र सेन ने उनका जन्म सन 1492 में बताया है।[1] जबकि और भी कई विद्वानों ने डॉ. सेन का अनुसरण करते हुए उनका जन्म सन 1492 या उसके आस-पास बताया है; किन्तु डॉ. सतीशचन्द्र मित्र ने उनका जन्म सन 1465 (सं. 1522) में लिखा है, यही ठीक जान पड़ता है, क्योंकि महाप्रभु जब रामकेलि गये, उस समय सनातन गोस्वामी हुसैनशाह के प्रधानमन्त्री थे। महाप्रभु की आयु उस समय 28/29 वर्ष की थी।

महाप्रभु का आविर्भाव

महाप्रभु का आविर्भाव 1486 में हुआ। वे रामकेलि गये सन्न्यास के पंचम वर्ष सन् 1514 या 1515 में। इस हिसाब से सनातन गोस्वामी की आयु डॉ. सेन के मत के अनुसार उस समय 23 वर्ष की होती। रामकेलि में महाप्रभु से मिलने के कई वर्ष पूर्व वे प्रधानमन्त्री हुए होंगे।[2] उस समय उनकी आयु केवल 18/19 वर्ष की या उससे कम होगी और रूप गोस्वामी की उससे भी कम, जो विश्वास करने योग्य नहीं। यदि उनका जन्म मित्र महाशय के अनुसार सन् 1465 में माना जाय, तो उनकी उम्र रामकेलि में महाप्रभु से उनके मिलने के समय 49।50 की होती है, जो प्रधानमन्त्री पद के लिए ठीक लगती है।

एक और प्रकार से भी मित्र महाशय के मत की पुष्टि होती है। श्रीरूप गोस्वामी ने गोविन्द-विरूदावली में लिखा है—

"हे प्रभो, इस समय मैं वृद्वप्राय और अन्धप्राय हो गया हूँ, फिर भी इस शरणागत के प्रति आपकी कृपादृष्टि नहीं हुई।"[3] गोविन्द-विरूदावली रूपगोस्वामी के 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में उद्वत है। भक्तिरसामृतसिन्धु का रचना-काल सन् 1541 है। इस आधार पर गोविन्द-विरूदावली का रचनाकाल 1540 माना जाय और उस समय रूपगोस्वामी का आविर्भाव सन् 1470 के लगभग मानना होगा। सनातन गोस्वामी को रूपगोस्वामी से 4।5 साल बड़ा माना जाय, तो उनका जन्म 1465।66 के लगभग ही मानना होगा।

धर्मनिष्ठ और सदाचारी

अमरदेव और संतोषदेव नाम के दो भाइयों का आकर्षण था, जो गौड़ देश के बादशाह हुसैनशाह के मन्त्री थे, अमरदेव प्रधानमन्त्री थे, संतोषदेव राजस्व-मन्त्री। दोनों भाई संस्कृत, फारसी और अरबी के महान् विद्वान थे। दोनों मुसलमान राजा के अधीन होते हुए भी बड़े धर्मनिष्ठ और सदाचारी थे। दोनों का मान-सम्मान जैसा राज-दरबार में था, वैसा ही प्रजा और हिन्दू समाज में भी। दोनों का कृष्ण-प्रेम भी अतुलनीय था। दोनों महाप्रभु और उनके प्रेम-धर्म से आकृष्ट हो संसार त्यागकर उनके अनुगत्य में कृष्ण-प्राप्ति के पथपर चल पड़ने का संकल्प कर चुके थे। दोनों ने पहले ही महाप्रभु को कई पत्र लिखकर उनकी कृपा से उद्धार पाने की प्रार्थना की थी।

महाप्रभु को उत्तर में लिखा था- "कृष्ण तुम्हारा उद्धार शीघ्र करेंगे। पर कुछ दिन प्रतीक्षा करो। जिस प्रकार परपुरुष से प्रेम करने वाली कुल-रमणी घर के कार्य में व्यस्त रहते हुए भी चिंतन द्वारा उसके नव-संगम रस का आस्वादन करती है, उसी प्रकार प्रभु की प्रेम-सेवा का मन से चिन्तन करते हुए संसार का कार्य करते रहो"-[4]

आगमन का संवाद

महाप्रभु हुसैनशाह की राजधानी के निकट पहुँचकर वहाँ विश्राम कर रहे थे। दोनों भ्राताओं को जब उनके आगमन का संवाद मिला, उनके आनन्द का ओर-छोर न रहा। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि स्वयं महाप्रभु इतना मार्ग चलकर उनतक आने की अयाचित और अहैतु की कृपा करेंगे। उन्होंने उसी राज दीन वेश में वहाँ जाकर उन्हें दण्डवत् की। उनके चरणों में गिर कर पुलकाश्रु विसर्जन करते हुए उनसे प्रार्थना की- "प्रभु जब आपने इतनी कृपा की है तो हमारे उद्धार का भी उपाय करें। हमें अपने चरणों का सेवक बना लें। विषय-विष से अब हमारा जीवन दु:सह हो चला है" महाप्रभु ने दोनों को उठाकर आलिंगन किया। मृदु-मधुर कण्ठ से आशीर्वाद देते हुए कहा-"चिन्ता न करो। कृष्ण तुम्हारे ऊपर कृपा करेंगे। तुम दोनों उनके चिह्नित दास हो। तुम्हें वे अपने सेवा-कार्य में नियुक्त कर शीघ्र कृतार्थ करेंगे। आज से कृष्णदास के रूप में तुम्हारा नाम अमर औ सन्तोष की जगह हुआ सनातन और रूप। [5] महाप्रभु ने उन्हें पूर्ण रूप से आश्वस्त करने के लिए आगे कहा-

"यहाँ आने का मेरा उद्देश्य ही है तुम दोनों को देखना और तुम्हें आश्वस्त करना कि तुम्हारा उद्धार निश्चित है। मेरा और कोई प्रयोजन नहीं हैं"- [6]

असाधारण प्रतिभा और शक्ति का उपयोग

यह देख-सुनकर सब अवाक्! लोग एक बार महाप्रभु की ओर देखते, एक बार रूप और सनातन की ओर। अब उनकी समझ में आया महाप्रभु के इतना रास्ता कटकर इधर आने का कारण। पर कौन हैं यह दोनों भाई, जिनके लिए महाप्रभु ने इतना कष्ट किया? ऐसा कौन-सा गुण है इनमें जिससे ये इतना लुब्ध हैं? यह उनकी अब भी समझ में नहीं आ रहा। महाप्रभु को उन्होंने यह कहते अवश्य सुना है कि "तुम मेरे चिह्नित दास हो।" पर दास के पास ये स्वयं इतना कष्ट उठाकर क्यों आये? दास कष्ट उठाता है स्वामी से मिलने के लिए, न कि स्वामी दास से मिलने के लिए। दास की गरज होती है स्वामी से, न कि स्वामी की दास से। पर वे क्या जाने कि भगवान् और उनके भक्त के बीच सम्बन्ध जगत् के स्वामी और दास जैसा नहीं होता। यहाँ गरज दोनों की दोनों से होती है। भक्त जितना भगवान् से मिलने को उत्सुक रहता हैं, उतना ही भगवान् भक्त से मिलने को। भक्त की जितनी भगवान् से अटकी होती है, उतनी ही भगवान् की भक्त से। सच तो यह है कि भगवान् ही सदा भक्त के पास आते हैं, भक्त भगवान् के पास नहीं जाते। भक्त विचारे की सामर्थ्य ही कहाँ जो उन तक पहुँच सके। वे केवल उस पर कृपा करने और उसे दर्शन देने ही उसके पास खींच ले जाता है। तभी न ध्रुव पास गये, उसे दर्शन देने के उद्देश्य से नहीं उसके दर्शन करने के उद्देश्य से- "मधोर्वनं भृत्यदि दृक्षया गत:"[7] महाप्रभु इन दोनों भाइयों के भक्ति भाव से आकृष्ट होकर तो रामकेलि आये थे ही, उनका एक और भी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था। वे इनकी असाधारण प्रतिभा और शक्ति का उपयोग वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए करना चाहते थे, इनसे वैष्णव-शास्त्र लिखवाना और व्रज के लुप्त तीर्थों का उद्धार करवाना चाहते थे।


पीछे जाएँ
पीछे जाएँ
सनातन गोस्वामी का परिचय
आगे जाएँ
आगे जाएँ


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. D.C. Sen: The Vaisnava Literature of Medieval Bengal P.29.
  2. भक्तिरत्नाकर में उल्लेख है कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने सन्न्यास के पूर्व ही (अर्थात् सन् 1510 के पूर्व) रूप-सनातन की मन्त्री रूप में ख्याति सुनी थी (भक्ति रत्नाकर 1/364-383)।
  3. "पालितंकरणीदशा प्रमो मुहुरन्धंकरणी चमां गता।
    शुभंकरणी कृपा शुभैर्ण तवाद्-यंकरणी च मय्यभूत॥"(स्तवमाला)-
  4. "पर व्यसनिनी नारी व्यग्रापि गृहकर्मसु।
    तदेवास्वादयत्यन्तर्नवसंग रसायनम्॥"
  5. प्रभु चिनि दुइ भाइर विमोचन।
    शेषे नाम थुइलेन रूप-सनातन॥ (चैतन्य चरित 1/1-153)
    आज हैते दोंहार नाम रूप-सनातन। (चैतन्य चरित 2/1/195)
    ` डॉ. नरेश चन्द्र जाना ने अपनी पुस्तक 'वृन्दावनेर छय गोस्वामी' (पृ0 39-41) में इस सम्बन्ध में शंका की है। उनकी धारणा है कि दोनों भाई के रूप-सनातन नाम पहले से ही थे, क्योंकि महाप्रभु जब दक्षिण में भ्रमण कर रहे थे तभी उन्होंने गोपाल भट्ट से कहा था-वृन्दावन शीघ्र जाना। तुम्हारी वहाँ रूप-सनातन से भेंट होगी-
    पुन: कहे अचिरे जाइवा वृन्दावन।
    मिलिब दुर्लभ रत्न रूप-सनातन॥ (भक्ति रत्नाकर 1/121)
    इस आधार पर डॉ. जाना की यह धारणा उचित नहीं लगती, क्योंकि यह तो लेखक का अपना वर्णन है। उसने महाप्रभु के ठीक शब्दों को तो उद्धत किया नहीं है। ग्रन्थ लिखने के समय दोनों भाईयों का नाम रूप-सनातन नाम ही प्रचलित था। यह भी संभव है कि महाप्रभु ने पहले ही उनके नाम रूप-सनातन रखने का निश्चय कर लिया हो और वे अपनी गोष्ठी में इसी नाम से दोनों को पुकारते रहे हों, क्योंकि उन्होंने पत्रों द्वारा महाप्रभु को पूर्ण आत्म-समर्पण कर दिया था और महाप्रभु ने अपने सेवकों के रूप में उन्हें स्वीकार भी कर लिया था। ऐसी अवस्था में उनके द्वारा उनका नाम रखा जाना स्वाभाविक नहीं था।
  6. गौड़ निकट आसिते मोर नाहि प्रयोजन।
    तोमा दोंहा देखिते मोर इहाँ आगमन॥"
    (चैतन्य चरित 2/1/198
  7. भागवत 4/9/1

संबंधित लेख