बी. आर. चोपड़ा

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बी. आर. चोपड़ा
बी. आर. चोपड़ा
बी. आर. चोपड़ा
पूरा नाम बल्देव राज चोपड़ा
जन्म 22 अप्रैल, 1914
जन्म भूमि लुधियाना, पंजाब
मृत्यु 5 नवम्बर, 2008
मृत्यु स्थान मुंबई, महाराष्ट्र
कर्म भूमि मुंबई
कर्म-क्षेत्र फ़िल्म निर्माता-निर्देशक
मुख्य फ़िल्में 'नया दौर' (1957), साधना (1958), 'धूल का फूल' (1959), 'क़ानून' (1960), 'गुमराह' (1963), 'हमराज' (1967), 'इंसाफ का तराजू' (1980), 'निकाह' (1928)
शिक्षा अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर
विद्यालय गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर
विशेष योगदान सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका आशा भोंसले को भी कामयाबी के शिखर पर ले जाने में बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों का अहम योगदान था।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी अपने कैरियर की शुरूआत बतौर फ़िल्म पत्रकार के रूप में की थी। फ़िल्मी पत्रिका 'सिने हेराल्ड' में आप फ़िल्मों की समीक्षा लिखा करते थे।

बल्देव राज चोपड़ा (अंग्रेज़ी: Baldev Raj Chopra, जन्म- 22 अप्रैल, 1914, लुधियाना, पंजाब; मृत्यु- 5 नवम्बर, 2008, मुंबई, महाराष्ट्र) भारतीय सिनेमा जगत् में 'बी. आर. चोपड़ा' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें एक ऐसे फ़िल्मकार के रूप में याद किया जाता रहेगा, जिन्होंने पारिवारिक, सामाजिक और साफ-सुथरी फ़िल्में बनाकर लगभग पाँच दशक तक सिने प्रेमियों के दिलों में अपनी ख़ास पहचान बनाई। 'नया दौर', 'वक़्त', 'हमराज', 'बाबुल' और 'बागवान' जैसी जीवन में रची-बसी कहानियों को दर्शाती बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्में आज भी सिने प्रेमियों के दिल और दिमाग पर अमिट छाप छोड़ती हैं। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक समस्या को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया। उनकी ज़्यादातर फ़िल्में किसी न किसी सामाजिक मुद्दे पर आधारित रहती थीं। फ़िल्म जगत् में दिए गए उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें फ़िल्मों के सबसे बड़े सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' देकर सम्मानित किया।

जन्म तथा शिक्षा

बी. आर. चोपड़ा का जन्म 22 अप्रैल, 1914 को तत्कालीन पंजाब राज्य के लुधियाना शहर में हुआ था। उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य में अपनी स्नातकोत्तर की शिक्षा लाहौर के मशहूर 'गवर्नमेंट कॉलेज' में पूरी की थी। इस कॉलेज ने फ़िल्म और साहित्य जगत् को 'बलराज साहनी', 'देवानंद', 'चेतन आनंद' और 'खुशवंत सिंह' जैसी शख्सियतें दी हैं। बी. आर. चोपड़ा बचपन के दिनों से ही फ़िल्म में काम कर शोहरत की बुलंदियों पर पहुँचना चाहते थे। देश के विभाजन के पश्चात् उनका परिवार दिल्ली आ गया, लेकिन कुछ दिन के बाद बी. आर. चोपड़ा का मन वहाँ नहीं लगा और वह अपने सपनों को साकार करने के लिए दिल्ली से मुम्बई आ गए।

व्यवसाय की शुरुआत

बी. आर. चोपड़ा ने अपने कैरियर की शुरूआत फ़िल्म पत्रकार के रूप में की थी। फ़िल्मी पत्रिका 'सिने हेराल्ड' में वह फ़िल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। कुछ ही समय में बी. आर. चोपड़ा ने इस पत्रिका का सारा भार स्वयं उठा लिया और 1947 तक इसे निरंतर चलाया। इसी वर्ष उन्होंने आई. एस. जौहर के साथ मिलकर फ़िल्म 'चांदनी चौक' का निर्माण शुरू किया, लेकिन लाहौर में दंगे भड़कने के कारण उन्हें इस फ़िल्म को बीच में ही बंद करना पड़ा।[1]

फ़िल्म निर्माण

वर्ष 1949 में फ़िल्म 'करवट' से उन्होंने फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा, लेकिन दुर्भाग्य से यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल हुई। 1951 में अशोक कुमार अभिनीत फ़िल्म 'अफ़साना' को बी. आर. चोपड़ा ने निर्देशित किया। फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अपने पच्चीस सप्ताह पूरे किए और 'रजत जयंती' (सिल्वर जुबली) मनाई। इस फ़िल्म की सफलता के बाद बी. आर. चोपड़ा फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। वर्ष 1955 में उन्होंने 'बी. आर. फ़िल्मस बैनर' का निर्माण किया। इस बैनर तले उन्होंने सबसे पहले फ़िल्म 'नया दौर' का निर्माण किया। फ़िल्म नया दौर के माध्यम से बी. आर. चोपड़ा ने आधुनिक युग और ग्रामीण संस्कृति के बीच टकराव को रूपहले पर्दे पर पेश किया, जो दर्शकों को काफ़ी पसंद आया। फ़िल्म 'नया दौर' ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए और बी. आर. चोपड़ा को आकाश की बुलन्दियों पर पहुँचा दिया।

सामाजिक फ़िल्में

अपनी इस सफलता के बाद बी. आर. चोपड़ा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक से बढ़कर एक फ़िल्मों का निर्माण कर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। इन फ़िल्मों में 'साधना' (1958), 'क़ानून' (1960), 'गुमराह' (1963) और 'हमराज़' (1967) जैसी सुपरहिट फ़िल्में शामिल हैं। बी. आर. चोपड़ा के बैनर तले निर्मित फ़िल्में समाज को संदेश देने वाली होती थीं। साठ के दशक के दौर में निर्मित फ़िल्में संगीत प्रधान हुआ करती थीं। लेकिन बी. आर. चोपड़ा अपने दर्शकों को हर बार कुछ नया देना चाहते थे। इसी बात का ध्यान रखते 1960 में उन्होंने 'क़ानून' जैसी प्रयोगात्मक फ़िल्म का निर्माण किया था। यह फ़िल्म इंडस्ट्री में किया गया एक नया प्रयोग था। जब फ़िल्म का निर्माण बगैर गानों के भी किया गया।[1]

योगदान

बी. आर. चोपड़ा ने अपने भाई और जाने माने फ़िल्म निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा को भी शोहरत की बुलंदियों पर पहुँचाने में अहम योगदान दिया था। 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म 'धूल का फूल', 'वक़्त' और 'इत्तफ़ाक' जैसी फ़िल्मों की सफलता के बाद ही यश चोपड़ा फ़िल्म इंडस्ट्री में एक निर्देशक के रूप में स्थापित हुए थे। सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका आशा भोंसले को भी कामयाबी के शिखर पर ले जाने में निर्माता और निर्देशक बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों का अहम योगदान था। पचास के दशक में जब आशा भोंसले को केवल बी और सी ग्रेड की फ़िल्मों मे ही गाने का मौका मिला करता था, उस समय बी. आर. चोपड़ा ने ही आशा भोंसले की प्रतिभा को पहचाना और अपनी फ़िल्म 'नया दौर' में गाने का मौका दिया। यह फ़िल्म आशा भोंसले के सिने कैरियर की पहली सुपरहिट फ़िल्म साबित हुई।

इस फ़िल्म में मोहम्मद रफी और आशा भोंसले के गाए युगल गीत बहुत लोकप्रिय हुए, जिनमें 'मांग के साथ तुम्हारा', 'उड़े जब जब जुल्फे तेरी' आदि गीत शामिल हैं। फ़िल्म 'नया दौर' की कामयाबी के बाद ही आशा जी को अपनी मंज़िल प्राप्त हुई थी। इसके बाद बी. आर. चोपड़ा ने आशा जी को अपनी और भी कई फ़िल्मों में गाने का मौका दिया। इन फ़िल्मों में 'वक़्त' 'गुमराह', 'हमराज', 'आदमी और इंसान', और 'धुंध' प्रमुख हैं। आशा भोंसले के अलावा पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर को भी हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने में बी. आर.चोपड़ा की अहम भूमिका रही है।[1]

महाभारत सीरियल का निर्माण

स्वास्थ्य खराब रहने के कारण अस्सी के दशक में बी. आर. चोपड़ा ने फ़िल्मों का निर्माण करना कुछ कम कर दिया। इस दौरान 1980 में उन्होंने 'इंसाफ का तराजू' और 'निकाह' 1982 का निर्माण किया। वर्ष 1985 में बी. आर .चोपड़ा ने दर्शकों की रग को पहचानते हुए छोटे पर्दे की ओर भी रुख़कर लिया। दूरदर्शन के इतिहास में अब तक सबसे ज़्यादा कामयाब रहे सीरियल 'महाभारत' के निर्माण का श्रेय भी बी. आर. चोपड़ा को ही जाता है। 96 प्रतिशत दर्शकों तक पहुँचने के साथ ही इस सीरियल ने अपना नाम 'गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड' में भी दर्ज कराया। बी. आर. चोपड़ा के लिए यह एक महान् उपलब्धि थी।

पुरस्कार व सम्मान

बी. आर. चोपड़ा को प्राप्त हुए सम्मान पर यदि गौर किया जाए तो उन्हें 1998 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। इसके अलावा 1960 में प्रदर्शित फ़िल्म 'क़ानून' के लिए वह सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के रूप में 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' से सम्मानित किए गए थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बी. आर. चोपड़ा ने फ़िल्म निर्माण के अलावा 'बागवान' और 'बाबुल' की कहानी भी लिखी।[1]

निधन

अपनी निर्मित फ़िल्मों से दर्शको के बीच विशिष्ट पहचान बनाने वाले फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा ने 5 नवम्बर, 2008 को इस दुनिया को अलविदा कर दिया।

फ़िल्म 'नया दौर'

नया दौर

फ़िल्म 'नया दौर' के निर्माण की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। इस फ़िल्म की कहानी अख़्तर मिर्ज़ा जी ने लिखी थी। इस बेहद हट के कहानी को महबूब ख़ान, एस. मुख़र्जी और एस. एस. वासन जैसे निर्देशकों ने सिरे से नकार दिया था। इस विषय में उनकी राय थी कि यह एक बढ़िया डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म तो बन सकती है, पर एक फ़ीचर फ़िल्म कभी नहीं बन सकती। तब बी. आर. चोपड़ा ने इसी कहानी पर काम करने का फैसला किया। लेकिन जब उन्होंने दिलीप कुमार के साथ इस फ़िल्म की चर्चा की तो उन्होंने कहानी सुनने से ही इन्कार कर दिया। बी. आर. चोपड़ा की अगली पसंद अशोक कुमार थे। वे उनके पास पहुँचे। अशोक कुमार का मानना था कि उनका छवि शहरी है और वे इस गाँव के किरदार के लिए नहीं जमेंगें, लेकिन उन्होंने बी. आर. चोपड़ा की ओर से दिलीप कुमार से एक बार फिर बात की। इस बार दिलीप कुमार राजी हो गए। आधुनिकता की दौड़ में पिसने वाले एक आम ग्रामीण की कहानी को फ़िल्म के परदे पर लेकर आना आसान नहीं था। कुछ हफ्तों तक कारदार स्टूडियो में शूट करने के बाद लगभग 100 लोगों की टीम को कूच करना था। आउटडोर लोकेशन के लिए, जो की भोपाल के आस-पास था, वहीं शूटिंग होनी थी। उन दिनों मधुबाला और दिलीप कुमार के प्रेम के चर्चे इंडस्ट्री में मशहूर थे, तो फ़िल्म की नायिका मधुबाला के पिता ने मधुबाला को शूट पर भेजने से इन्कार कर दिया। बी. आर. चोपड़ा ने कोर्ट में मुकदमा लड़ा, अपील में तर्क दिया कि फ़िल्म की कहानी के लिए यह आउट डोर बहुत ज़रूरी है। दिलीप कुमार ने बी. आर. के पक्ष में गवाही दी।[2]

मुकदमा तो उन्होंने जीत लिया, पर मधुबाला को क़ानूनी दांव पेचों से बचने के लिए केस वापस लेना पड़ा, और इस तरह फ़िल्म में मधुबाला के स्थान पर वैजयंती माला का आगमन हुआ। महबूब ख़ान की 'मदर इंडिया' के लिए लिबर्टी सिनेमा 10 हफ्तों के लिए बुक था। पर फ़िल्म तैयार न हो पाने के कारण उन्होंने बी. आर. चोपड़ा की 'नया दौर' को अपने बुक किए हुए 10 हफ्ते दे दिए, साथ में हिदायत भी दी कि चाहो तो 5 हफ्तों के लिए ले लो, तुम्हारी इस 'ताँगे वाले की कहानी' को पता नहीं दर्शक मिलें भी या नहीं। बाद में यही महबूब ख़ान थे, जिन्होंने जब फ़िल्म 'नया दौर' ने अपनी रजत जयंती मनाई तो बी. आर. चोपड़ा को उनकी फ़िल्म के प्रीमियर के लिए मुख्य अतिथि होने का आग्रह किया। बी. आर. चोपड़ा उन निर्देशकों में थे, जिन्हें अपने चुनाव और अपने फैसलों पर हमेशा पूरा विश्वास था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 युगपुरुष बी.आर. चोपड़ा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 29 सितम्बर, 2012।
  2. बी. आर. चोपड़ा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 29 सितम्बर, 2012।

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