बीदर शहर, पूर्वोत्तर कर्नाटक (भूतपूर्व मैसूर) राज्य, दक्षिण भारत में स्थित है। यह हैदराबाद के पश्चिमोत्तर में 109 कि.मी. की दूरी पर समुद्र तल से 700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ दक्कन की मुस्लिम स्थापत्य कला के कुछ शानदार नमूने उपस्थित हैं। बीदर प्राचीन हिन्दू राज्य वारंगल के अन्तर्गत आता था। यह नगर दक्षिण भारत के तीन मुख्य भागों- अर्थात् कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना से समान रूप से निकट था तथा इसकी स्थिति 200 फुट ऊँचे पठार पर होने से प्रतिरक्षा का प्रबंध भी सरलतापूर्वक हो सकता था।
इतिहास
अलग-अलग मध्यकालीन हिन्दू राजवंशों के समय बीदर का काफ़ी महत्त्व रहा। 12वीं शती में चालुक्य राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसके पश्चात् बीदर के इलाक़े में यादवों तथा ककातीय राजाओं का शासन स्थापित हो गया। इसी शती के अंतिम भाग में विज्जल ने जो कलचुरी वंश का एक सैनिक था, अपनी शक्ति बढ़ाकर चालुक्यों की राजधानी कल्याणी में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। विक्रमादित्य चालुक्य के राजकवि विल्हण ने अपने 'विक्रमांक देवचरित' में कल्याणी की प्रशंसा के गीत गाए हैं और उसे संसार की सर्वश्रेष्ठ नगरी बताया है।
मुस्लिमों का अधिकार
1324 में इस पर मुस्लिम शहज़ादे मुहम्मद बिन तुग़लक ने अधिकार कर लिया, जो अगले वर्ष दिल्ली के सुल्तान बने। 1387 ई0 में मुहम्मद तुग़लक का दक्षिण का राज्य छिन्न-भिन्न हो जाने पर 'हसन गंगू' (अलाउद्दीन बहमन शाह प्रथम) नामक सरदार ने दौलताबाद और बीदर पर अधिकार करके 'बहमनी राजवंश' की नींव डाली। 1423 ई. में बहमनी राज्य की राजधानी बीदर में बनाई गई, जिसका कारण इसकी सुरक्षित स्थिति तथा स्वास्थ्यकारी जलवायु थी। बाद में, 1531 में बीदर बरीदशाही राजवंश के अंतर्गत एक स्वतंत्र सल्तनत बन गया। 1565 ई. में विजय नगर के विरुद्ध बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा के सम्मिलित अभियान में यह भी शामिल था और तालीकोट की लड़ाई में इन सब ने सम्मिलित रूप से विजय प्राप्त की। 1619-1620 में इस नगर पर बीजापुर कि सल्तनत का क़ब्ज़ा हो गया, लेकिन 1657 में इसे मुग़ल सूबेदार औरंगज़ेब ने इसे छीन लिया और 1686 में औपचारिक रूप से इसे मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया गया।
मुग़ल साम्राज्य के विघटन के समय, बीदर 1724 में हैदराबाद के निज़ाम के हाथ आ गया। 1956 में जब हैदराबाद प्रांत का विभाजन हुआ, उस समय बीदर शहर और मैसूर ज़िले (वर्तमान कर्नाटक) को स्थानांतरित कर दिए गए। बीदर के 68 कि.मी. पश्चिम में स्थित कल्याणी द्वितीय चालुक्य राजवंश[1] की राजधानी थी। बरीदशाही सुल्तनों द्वारा निर्मित कुछ उल्लेखनीय इमारतों के अवशेष बीदर में आज भी मौजूद हैं।[2] बरीदशाही वंश का संस्थापक कासिम बरीद जार्जिया का तुर्क था। यह सुंदर हस्तलेख लिखता था तथा कुशल संगीतज्ञ था। अली बरीद जो बीदर का तीसरा शासक था, अपने चातुर्य के कारण रूव-ए-दकन[3] कहलाता था। बीदर के इतिहास में अनेक किवदंतियाँ तथा पीर, जिनों तथा परियों की कहानियों का मिश्रण है। यहाँ सुल्तानों के मक़बरों के अतिरिक्त मुसलमान संतों की अनेक समाधियाँ भी हैं। बीदर के महल की तारीफ़ में दो क़सीदे लिखने के लिए ख़ुरासान से नवें बहमनी सुल्तान अहमद ने अज़ारी शेख नामक शायर को बहुत-सा धन दिया था।
ग्रंथों के अनुसार
महाभारत तथा प्राचीन संस्कृत साहित्य के अन्य ग्रंथों में विदर्भ का अनेक बार वर्णन आया है। विदर्भ में आधुनिक बरार तथा खानदेश (महाराष्ट्र) सम्मिलित थे। किंतु विदर्भ का नाम अब बीदर नामक नगर के नाम में ही अवशिष्ट रह गया है। बीदर के इतिहास में अनेक किवदंतियाँ तथा पीर, जिनों तथा पिरयों की कहानियों का मिश्रण है। यहाँ सुल्तानों के मकबरों के अतिरिक्त मुसलमान संतों की अनेक समाधियाँ भी हैं। बीदर नगर मंजीरा नदी के तट पर स्थित है। यहाँ के ऐतिहासिक स्मारकों में सबसे अधिक सुंदर अहमदशाह बली का मक़बरा है। इसमें दीवारों और छतों पर सुंदर फ़ारसी शैली की नक़्क़ाशी की हुई है तथा नीली और सिंदूरी रंग की पार्श्वभूमि पर सूफ़ी दर्शन के अनेक लेख अंकित हैं। इन लेखों पर तत्कालीन हिन्दू भक्ति तथा वेदांत की भी छाप है। इसी मकबरे के दक्षिण की ओर की भित्ती पर "मुहम्मद" और "अहमद" ये दो नाम हिन्दू वास्वविक चिह्न के रूप में लिखे हुए हैं।
यातायात और परिवहन
हैदराबाद-मुंबई सड़क और रेल के उत्तरी सहायक मार्गो से बीदर पहुँचा जा सकता है।
कृषि और खनिज
करंजा नदी द्वारा अपवाहित आसपास के निम्नभूमि क्षेत्र में बाजरा, गेहूँ और तिलहन की पैदावार होती है। इसके अतिरिक्त नगर में स्वच्छ पानी के सोते थे तथा फलों के उद्यान भी थे।
उद्योग और व्यापार
बीदर बर्तन निर्माण का व्यावसायिक केंद्र हैं।
बीदर के बर्तन
एक प्रकार की भारतीय पच्चीकारी से अलंकृत धातु की सजावटी वस्तुऐं बनती है। इन बर्तनों का नाम कर्नाटक में बीदर शहर से लिया गया है। यद्यपि इन्हें केवल इसी शहर में नहीं बनाया जाता, बल्कि लखनऊ और मुर्शिदाबाद भी बीदर बर्तन निर्माण के महत्त्वपूर्ण केंद्र हैं। प्राय: इसमें प्रयुक्त धातु एक मिश्रण होती है, जिसे अधिकांशत: जस्ते के साथ अल्पमात्रा में तांबा मिलाकर बनाया जाता है और पक्का काला रंग प्राप्त करने के लिए इसे गहरा किया जाता है। बीदर काम के दो मुख्य प्रकार हैं:-
- पहले प्रकार में आकृति गहराई से उकेरी जाती है और उसके ठीक नाप में काटा गया चाँदी या सोना उसमें जड़ दिया जाता है और अंत में सतह चिकनी और चमकदार बनाई जाती है।
- दूसरे अलंकृत प्रकार में ढांचे की बाहरी रूपरेखा उकेरी जाती है और गुहिकाओं के सीसे से भरे जाने के बाद उसी आकार के सोने और चाँदी के वरक उसमें जड़े जाते हैं।
बीदर के बर्तनों में प्राय- हुक्के के आधार भाग, थालियाँ, प्याले, फूलदान, मर्तदान और मसाले के डिब्बे होते हैं। सबसे आम नमूनों में शतरंजी (समस्त सतह पर हीरक आकृतियाँ) और बिखरे पुष्पों वाली आकृतियाँ, पत्तियाँ, मछलियाँ और समचतुर्भुज हैं। भव्य तथा विस्तृत कार्य अब नहीं किए जाते, आधुनिक उत्पादन मुख्यत: सिगरेट केस, ऐशट्रे और आभूषणों का है।
शिक्षण संस्थान
यहाँ के कई महाविद्यालय और वाणिज्य व विधि विद्यालय 1980 में स्थापित गुलबर्गा विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं।
जनसंख्या
बीदर शहर की जनसंख्या (2001) 1,72,298 है। और बीदर ज़िले की कुल जनसंख्या 15,01,374 है।
पर्यटन
बीदर के दो पुराने मक़बरे, जो मुग़ल बादशाह हुमायूँ और मुहम्मदशाह तृतीय के स्मारक थे, बिजली गिरने से भूमिसात हो गए थे। बीदर के क़िले का निर्माण अहमदशाह वली ने 1429-1432 ई. में करवाया था। पहले इसके स्थान पर हिन्दू कालीन दुर्ग था। मालवा के सुल्तान महमूद ख़िलजी के आक्रमण के पश्चात् इस क़िले का जीर्णोंद्वार निज़ामशाह बहमनी ने 1461-1463 करवाया था। क़िले के दक्षिण में तीन, उत्तर में दो और शेष दिशाओं में केवल एक खाई है। दीवारों में सात फाटक हैं। क़िले के अन्दर कई भवन हैं।
- रंगीन महल - इसमें ईंट, पत्थर और लकड़ी का सुंदर काम दिखाई देता है। गढ़े हुए चिकने पत्थरों में सीपियाँ जड़ी हुईं हैं। वास्तुकर्म बहमनी और बरीदी काल का है।
- तुर्काशमहल - किसी बहमनी सुल्तान की बेग़म के लिए बनवाया गया था। इसमें भी बरीदकला की छाप है।
- गगन महल - इसे बहमनी सुल्तानों ने बनवाया और बरीदी शासकों ने विस्तृत करवाया था।
- जाली महल - यह सभागृह था। इसमें पत्थर की सुंदर जाली लगी है।
- तख्त महल - इसका निर्माता अहमदशाह वली था। यह महल अपने भव्य सौदर्य के लिए प्रसिद्ध था।
- हज़ार कोठरी - यह तहख़ानों के रूप में बनी है।
- सोलहखंभा मसजिद - यह मसजिद सोलह खंभों पर टिकी है। 1656 ई. में दक्षिण के सूबेदार शाहज़ादा औरंगज़ेब ने इसी मसजिद में शाहजहाँ के नाम ख़ुतबा पढ़ा था। यह भारत की विशाल मसजिदों में से एक है। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे कुबली सुल्तानों ने सुल्तान मुहम्मद बहमनी के शासन काल में बनवाया था।
- वीर संगैया का प्राचीन शिवमंदिर - यह क़िले के अंदर 'हिन्दू कालीन स्मारक' है।
एक अन्य प्रमुख बहमनी इमारत वहाँ का मदरसा है, जिसका निर्माण 1472-1481 में किया गया था, इसके अब विशाल भग्नावशेष ही बचे हैं। शहर के पूर्वी हिस्से में, जहाँ एक तरफ़ आठ बहमनी शासकों के गुंबदनुमा मक़बरे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ पश्चिम में बरार के सुल्तानों की शाही क़ब्रगाह है। 14वीं शाताब्दी से ही बीदर को, बीदरी पात्रों, धातु की दमिश्की वस्तुओं[4], जिन पर चाँदी के तारों से फूल-पत्तों की और ज्यामितीय आकृतियाँ बनी होती हैं, के लिए जाना जाता है।
अहमदशाह बली का मक़बरा
बीदर नगर मंजीरा नदी के तट पर स्थित है। यहाँ के ऐतिहासिक स्मारकों में सबसे अधिक सुंदर अहमदशाह बली का मक़बरा है। इसमें दीवारों और छतों पर सुंदर फ़ारसी शैली की नक़्क़ाशी की हुई है तथा नीली और सिंदूरी रंग की पार्श्वभूमि पर सूफ़ी दर्शन के अनेक लेख अंकित हैं। इन लेखों पर तत्कालीन हिन्दू भक्ति तथा वेदांत की भी छाप है। इसी मक़बरे के दक्षिण की ओर की भित्ती पर 'मुहम्मद' और 'अहमद' ये दो नाम हिन्दू वास्वविक चिह्न के रूप में लिखे हुए हैं। बीदर के दो पुराने मक़बरे जो अत्याचारी शासक हुमायूँ और मुहम्मद शाह तृतीय के स्मारक थे, बिजली गिरने से भूमिसात हो गए थे। बीदर के क़िले का निर्माण अहमद शाह वली ने 1429-1432 ई. में करवाया था। पहले इसके स्थान पर हिन्दू कालीन दुर्ग था।
क़िला
मालवा के सुल्तान महमूद ख़िलजी के आक्रमण के पश्चात् इस क़िले का जीर्णोंद्वार निज़ाम शाह बहमनी ने करवाया था (1461-1463)। क़िले के दक्षिण में तीन, उत्तर में दो और शेष दिशाओं में केवल एक खाई है। दीवारों में सात फाटक हैं। क़िले के अन्दर कई भवन हैं:-
- रंगीन महल इसमें ईंट, पत्थर और लकड़ी का सुंदर काम दिखाई देता है। गढ़े हुए चिकने पत्थरों में सीपियाँ जड़ी हुईं हैं। वास्तुकर्म बहमनी और बरीदी काल का है।
- तुर्काशमहल किसी बहमनी सुल्तान की बेगम के लिए बनवाया गया था। इसमें भी बरीदकला की छाप है।
- गगन महल इसे बहमनी सुल्तानों ने बनवाया और बरीदी शासकों ने विस्तृत करवाया था।
- जाली महल यह सभागृह था। इसमें पत्थर की सुंदर जाली है।
- तख्त महल इसका निर्माता अहमदशाह वली था। यह महल अपने भव्य सौदर्य के लिए प्रसिद्ध था,
- हज़ार कोठरी यह तहख़ानों के रूप में बनी है।
- सोलहखंभा मसजिद यह सोलह खंभों पर टिकी है। 1656 ई. में दक्षिण के सूबेदार शाहज़ादा औरंगज़ेब ने इसी मसजिद में शाहजहाँ के नाम ख़ुतबा पढ़ा था। यह भारत की विशाल मसजिदों में से एक है। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे कुबली सुल्तानों ने सुल्तान मुहम्मद बहमनी के शासन काल में बनवाया था।
- वीर संगैया का प्राचीन शिवमंदिर यह क़िले के अंदर 'हिन्दूकालीन स्मारक' है।
किंवदंती के अनुसार विजयनगर की लूट में लाई हुई अपार धन राशि इस क़िले में कहीं छिपा दी गई थी किंतु इसका रहस्य अभी तक प्रकट न हो सका है।
अन्य स्मारक
बीदर के अन्य महत्त्वपूर्ण स्मारक निम्नलिखित ये हैं-
- चौबारा - यह किसी प्राचीन मंदिर का दीपस्तम्भ है। किंतु इसकी कला मुस्लिम कालीन मालूम पड़ती है।
- महमूद गवाँ का मदरसा - यह बहमनी काल की सबसे अधिक प्रभावशाली इमारत है और वास्तव में स्थापत्य तथा नक्शे की सुंदरता की दृष्टि से भारत की ऐतिहासिक इमारतों में अद्वितीय है। इस मदरसे को बनाने वाला स्वयं महमूद गवाँ था, जो बहमनी राज्य का परम बुद्धिमान मंत्री था। यह विद्यानुरागी तथा कलाप्रेमी था। यह मदरसा तत्कालीन समरकंद के उलुग बेग के मदरसे की अनुकृति में बनवाया गया था। इस भवन की मीनारें गोल तथा बहुत भव्य जान पड़ती हैं। प्रवेशद्वार भी बहुत विशाल तथा शानदार थे, किंतु अब नष्ट हो गए हैं।
- महमूद गवाँ का मक़बरा - यह बीदर से ढाई मील दूर नीम के पेड़ों की छाया में स्थित है। प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण यह मक़बरा महमूद गवाँ के प्रभावशाली व्यक्तित्व के अनुरूप न बन सका था। पर मध्य युग के इस महापुरुष की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए क़ाफी है। गवाँ के मदरसे के कुछ दूर एक प्रवेशद्वार है, जिसके अंदर एक भवन दिखाई देता है। इसको 'तख्त-ए-किरमानी' कहा जाता है, क्योंकि इसका संम्बन्ध संत ख़लीलुल्लाह से बताया जाता है। इसके स्तंभ हिन्दू मंदिरों के स्तंभों की शैली में बने हैं।
- काली मस्जिद - 1604 ई. में औरंगज़ेब के शासलकाल में अब्दुल रहमान रहीम की बनाई हुई काली मसजिद काले पत्थर की बनी शानदार इमारत है। यहाँ फ़ख़रुल मुल्क़ ज़िलानी का मक़बरा एक विशाल, ऊँचे चबूतरे पर बना है।
- नाई का मक़बरा - यह मक़बरा दिल्ली के सुल्तानों के मक़बरों की शैली पर बना है।
- कुत्ते का मक़बरा - उदगीर मार्ग पर स्थित 'कुत्ते का मक़बरा' उसी से सम्बन्धित है, जिसका उल्लेख इतिहास लेखक फ़रिश्ता ने अहमदशाह वली के साथ किया है।
स्तंभ
उदगीर जाने वाली प्राचीन सड़क पर चार स्तंभ हैं जिन्हें रन खंभ कहा जाता है। दो खंभे एक स्थान पर और दो 591 गज़ की दूरी पर स्थित हैं। कहा जाता है कि ये स्तंभ बरीदी सुल्तानों के मक़बरोंं की पूर्वी ओर पश्चिमी सीमाएँ निर्धारित करते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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