जलवायु (अंग्रेज़ी: Climate) कृत्रिम किसी स्थान की 30 वर्ष या इससे भी अधिक समय के ऋतु वैज्ञानिक तत्वों की सामान्य अवस्थाओं का नाम जलवायु है। यह समय जितना ही अधिक होगा, उस स्थान के जलवायु के संबंध में, ये सामान्य मान भी उतने ही अधिक निरूपक होंगे। इस संबंध में विचारणीय ऋतु वैज्ञानिक तत्व दाब, ताप, आर्द्रता, बदली, अवक्षेपण, पवन, धूप और दृश्यता हैं। जलवायु का निश्चय करने के लिये कुछ तत्वों के चरम मान तथा महीने या साल में इन तत्वों के कुछ विशिष्ट परासों[1] की आवृत्ति का भी ध्यान रखा जाता है।
- उदाहरणार्थ
किसी स्थान का उच्चतम और निम्नतम ताप तथा अलग-अलग महीनों में वर्षा के दिनों की आवृत्ति महत्व की बातें हैं। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि किसी स्थान की जलवायु में कृत्रिम परिवर्तन का देना यदि असंभव नहीं, तो अत्यंत कठिन अवश्य है, यद्यपि धरती पर जलवायु के नैसर्गिक परिवर्तन के उदाहरण कम नहीं है।[2]
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
विज्ञान और प्रौद्योगिकी [3] के विकास के साथ ही विश्व के भिन्न-भिन्न स्थानों पर जलवायु के कृत्रिम परिवर्तन के लिये मनुष्य प्रयत्नशील हुआ है, कहीं मरुभूमि को अपेक्षाकृत उपजाऊ खंड में परिणत किया जा रहा है और कहीं नम धरती को शुष्क बनाया जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि जलवायु को गठित करने वाली नैसर्गिक वायुमंडलीय घटनाओं का नियंत्रण किस प्रकार हो सके। यह बात तो सुविदित है कि किसी क्षेत्र की ऋतु वैज्ञानिक घटना और वायुमंडल के प्रधान तथा गौण परिसंचरण में बहुत निकट का संबंध है। ये परिसंचरण भिन्न मौसम में भिन्नता प्रदर्शित करते हैं, जिसके कारण एक स्थान और दूसरे स्थान की घटनाओं में भिन्नता होती है। जब तक इन परिसंचरणों को सामान्य बनावट में काई परिवर्तन न किया जाय, मौसम की घटना में कोई मुख्य परिवर्तन संभव नहीं है। लेकिन इस प्रकार के परिवर्तन के लिये लाखों परमाणु बमों की सम्मिलित ऊर्जा की आवश्यकता है, अत: इस समस्या के समाधान के संबंध में वैज्ञानिकों ने कोई गंभीर प्रयत्न नहीं किया है। बादलों के कृत्रिम वपन [4] द्वारा किसी स्थान की आर्द्रता और वर्षा में कृत्रिम वृद्धि करने का प्रयत्न वैज्ञानिकों ने किया है।[2]
वर्षा में वृद्धि
किसी स्थान पर बादलों का बीज वपन अधिक समय तक करने पर वहाँ वर्षा की मात्रा में वृद्धि होती है। शुष्क कटिबंध में वर्षा की वृद्धि होने पर पौधे और वृक्ष बढ़ने लगते हैं और इस प्रकार वन संवर्धन होने पर वर्षा में और वृद्धि हो सकती है। इसके विपरीत मनुष्यकृत वनकटाई के कारण वर्षा और आर्द्रता में ह्रास हुआ है। भारत जैसे देश में देश के ऊपर से गुजरने वाले तूफ़ानों और हवा में दबाव के ह्रास के प्रभाव से वर्षा हुआ करती है। बड़े बड़े वन गतिमान तूफ़ान और हवा में दबाव के ह्रास का गतिरोध करते हैं, जिससे वहाँ और निकट के क्षेत्रों में बदली और वर्षा में वृद्धि होती है।
कृत्रिम वर्षा
कृत्रिम वर्षा रोचक प्रक्रिया है, जिसने हाल ही में संसार के बहुत से भागों की जनता का ध्यान आकर्षित किया है। बहुत ऊँचे ठंढे बादलों का वपन करने के लिये शुष्कहिम की क्षुद्र गुटिकाओं या सिल्वर आयोडाइड के मणिभों का उपयोग किया जाता है, जो बादलों को उद्दीप्त करके वर्षा उत्पन्न करते हैं। शुष्क हिम उन ऊँचाइयों पर कारगर होता पाया गया है, जहाँ ताप 0°c से लेकर 15°c तक होता है और सिल्वर आयोडाइड का कार्यक्षेत्र 10°c से लेकर 15°c के बीच सीमित है।[2]
अवक्षेपण का हिममणिभ सिद्धांत
उष्ण कटिबंध में गरम बादलों का वपन महत्व की बात है, क्योंकि वहाँ बादलों के हिमस्तर तक न पहुँचने के उदाहरण ही अधिक हैं, हिमस्तर से नीचे उतरने के बहुत कम, गरम बादलों का वपन उनके आधार पर जल बिंदु के छिड़काव से होता है। कहीं-कहीं बादलों में हिम शीतजल की फुहार से तापांतर के कारण उत्पन्न सततजामन के कारण सम्मिलन[5] द्वारा जल बिंदुओं की वृद्धि सुव्यक्त की जाती है। गरम बादलों का वपन करके वर्षा उत्पन्न करना जल बिंदुओं के सम्मिलन की प्रक्रिया है, जबकि पूर्ववर्णित ठंडे बादलों के वपन द्वारा वर्षा होना प्रसिद्ध 'अवक्षेपण के हिममणिभ सिद्धांत' को सिद्ध करता है। अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, भारत आदि देशों में कृत्रिम वर्षा के प्रयत्न हुए हैं और अधिकतर प्रयत्न सफल रहे हैं। यह देखना रह गया है कि इस दिशा में अनवरत क्रिया करके किसी स्थान के जलवायु का कृत्रिम परिवर्तन हो सकता है या नहीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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