प्रजापति दक्ष महाभारत के अनुसार जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के अंगूठे से हुई थी। उसी अंगूठे से यज्ञ-पत्नी भी पैदा हुई। दक्ष की गणना उन प्रजातियों में होती है, जिनमें देवता उत्पन्न हुए थे। दक्ष, आदित्यवर्ग के देवताओं में से एक माने जाते हैं। कहा जाता है कि अदिति ने दक्ष को तथा दक्ष ने अदिति को जन्म दिया। यहाँ अदिति सृष्टि के स्त्रीतत्त्व एवं दक्ष पुरुषतत्त्व का प्रतीक दिया है। दक्ष को बलशाली, बुद्धिशाली, अन्तर्दृष्टि-युक्त एवं इच्छाशक्ति सम्पन्न कहा गया है। उसकी तुलना वरुण के उत्पादनकार्य, शक्ति एवं कला से हो सकती है। स्कन्द पुराण में दक्ष प्रजापति की विस्तुत पौराणिक कथा दी हुई है। दक्ष की पुत्री सती शिव से ब्याही गयी थी। दक्ष ने एक यज्ञ किया, जिसमें अन्य देवताओं को निमन्त्रण दिया किंतु शिव को नहीं बुलाया। सती अनिमंत्रित पिता के यहाँ गयी और यज्ञ में पति का भाग न देखकर उसने अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना से कुद्ध हो-कर शिव ने अपने गणों को भेजा जिन्होंने यज्ञ का विध्वंस कर दिया। शिव सती के शव को कंधे पर लेकर विक्षिप्त घूमते रहे। जहाँ-जहाँ सती के शरीर के अंग गिरे वहाँ-वहाँ विविध तीर्थ बन गये।[1]
पौराणिक उल्लेख
दक्ष एक सृष्टि निर्माणकर्ता देवता एवं ऋषि थे। ऋग्वेद में, सृष्टि की उत्पत्ति भू, वृक्ष, आशा, अदिति, दक्श, अदिति इस क्रम से हुई।[2] अदिति से दक्ष उत्पन्न हुआ एवं दक्ष से अदिति उत्पन्न हुई, यों परस्पर विरोधी निर्देश ऋग्वेद में है। इस विरोध परिहार, ‘ये सारी देवों की कथा हैं (देवधर्म), यों कह कर निरुक्त में किया गया है[3]। पुराणों में दी गयी ‘दक्षकथा’ का उद्भम उपरिनिर्दिष्ट ऋग्वेदीय कथा से ही हुआ है। पुराणों में, दक्ष प्रजापति ब्रह्मदेव के दक्षिण अंगूठे से उत्पन्न हुआ।[4] स्वायंभुव मन्वंतर में यह पैदा हुआ था। स्वायंभुव मनु की कन्या प्रसूति इसकी पत्नी थी। इससे दक्ष को सोलह कन्याएँ हुई। उनमें से श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, तथा मूर्ति ये तेरह कन्याएँ इसने प्रजापति को भार्यारूप में दी। स्वाहा अग्नि को, स्वधा अग्निष्वात्तों को तथा सोलहवी सती शंकर को दी गयीं।[5] ब्रह्मदेव के दाहिने अंगूठे से जन्मी हुई स्त्री दक्ष की पत्नी थी। उसे कुल 500 कन्याएँ हुई।[6]एक बार सृष्टि निर्माण करने वाले प्रजापति यज्ञ कर रहे थे। दक्ष प्रजापति वहाँ आया। उस समय शंकर तथा ब्रह्मदेव को छोड़, अन्य सब देव खड़े हो गये। इससे यह क्रोधित हुआ, एवं इसने शंकर को शाप दिया। नंदिकेश्वर ने भी इसे शाप दिया। दक्ष के शाप को अनुमति देने के कारण, ऋषियों को शाप मिला, ‘जन्म मरणों का दु:ख अनुभव करते हुए तुम्हें गृहस्थी के कष्ट उठाने पडेंगे’। इसी समय भृगु ऋषि ने भी शंकर के शिष्यों को दुर्धर शाप दिया।[7]इस प्रकार दक्ष तथा शंकर इन श्वसुर-दामाद में शत्रुत्व बढने लगा। ब्रह्मदेव ने दक्ष को प्रजापतियों के अध्यक्ष पद का अभिषेक किया। उससे गर्वांध होकर, शंकर आदि सब ब्रह्मनिष्ठों को निमंत्रित न करते हुए, यज्ञ प्रारंभ किया। प्रथम वाजपेय यज्ञ कर, बाद में बृहसप्तिसव प्रारंभ किया। इस यज्ञ में दक्ष ने सारे ब्रह्मर्षि देवर्षि तथा पितरों का उनकी पत्नियों सहित सम्मान किया एवं उन्हें दक्षिणा देकर संतुष्ट किया। दक्ष के घर में हो रहे यज्ञ की वार्ता, दक्षकन्या सती ने सुनी। तब वहाँ चलने की प्रार्थना उसने शंकर से की। किंतु उन्होंने वह प्रार्थना अमान्य की। मजबूरन सती को अकेले जाना पड़ा। इसके साथ नंदिकेश्वर, यक्ष, तथा शिवगण भी भेजे गये। यज्ञमंडप में माता तथा भगिनियों के सिवा, अन्यु किसी ने सती का स्वागत नहीं किया। स्वयं दक्ष ने उसका अनादर किया। इस कारण सती ने पिता की खूब निर्भत्सना की, तथा क्रोधवश वह स्वयं आग में दग्ध हो गयी। यह सब सुनकर, शंकर ने वीरभद्र का निर्माण किया एवं उसे दक्ष वध करने की आज्ञा दी। महाभारत के अनुसार, वीरभद्र शंकराज्ञा के अनुसार दक्ष यज्ञ में गया। उसने दक्ष से कहा कि मैं तुम्हारे यज्ञ का नाश करने आया हूँ। तत्काल दक्ष शंकर की शरण में आया। फिर भी उन्होंने दक्ष वध किया। दक्ष वध के बाद ब्रह्मदेव ने शंकर का स्तवन किया। तब दक्ष को बकरे का सिर लगा कर जीवित किया गया। तत्काल दक्ष ने शंकर से क्षमा माँगी।[8] वायु पुराण में दक्ष का अर्थ ‘प्राण’ दिया है। [9] दक्ष का यज्ञ दो बार हुआ। तथा ऋषि दो बार मारे गये। प्रथम यज्ञ, स्वायंभुव मन्वंतर में हुआ। दूसरा यज्ञ चाक्षुष मन्वंन्तर में संपन्न हुआ।[10][11]
दक्ष की 84 पुत्रियों और उनके पतियों के नाम
पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे जो उनके दाहिने पैर के अंगूठे से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियाँ थी- प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की चौबीस कन्याएँ थीं और वीरणी से साठ कन्याएँ। उन सभी का वर्णन नीचे दिया है और साथ हीं साथ उनके पतियों का नाम भी दिया गया है-
- प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियाँ और उनके पति
- श्रद्धा (धर्म)
- लक्ष्मी (धर्म)
- धृति (धर्म)
- तुष्टि (धर्म)
- पुष्टि (धर्म)
- मेधा (धर्म)
- क्रिया (धर्म)
- बुद्धि (धर्म)
- लज्जा (धर्म)
- वपु (धर्म)
- शांति (धर्म)
- सिद्धि (धर्म)
- कीर्ति (धर्म)
- ख्याति (महर्षि भृगु)
- सती (रूद्र)
- सम्भूति (महर्षि मरीचि)
- स्मृति (महर्षि अंगिरस)
- प्रीति (महर्षि पुलस्त्य)
- क्षमा (महर्षि पुलह)
- सन्नति (कृतु)
- अनुसूया (महर्षि अत्रि)
- उर्जा (महर्षि वशिष्ठ)
- स्वाहा (अग्नि)
- स्वधा (पितृस)
- वीरणी से दक्ष की 60 पुत्रियाँ और उनके पति
- मरुवती (धर्म)
- वसु (धर्म)
- जामी (धर्म)
- लंबा (धर्म)
- भानु (धर्म)
- अरुंधती (धर्म)
- संकल्प (धर्म)
- महूर्त (धर्म)
- संध्या (धर्म)
- विश्वा (धर्म)
- अदिति (महर्षि कश्यप)
- दिति (महर्षि कश्यप)
- दनु (महर्षि कश्यप)
- काष्ठा (महर्षि कश्यप)
- अरिष्टा (महर्षि कश्यप)
- सुरसा (महर्षि कश्यप)
- इला (महर्षि कश्यप)
- मुनि (महर्षि कश्यप)
- क्रोधवषा (महर्षि कश्यप)
- तामरा (महर्षि कश्यप)
- सुरभि (महर्षि कश्यप)
- सरमा (महर्षि कश्यप)
- तिमि (महर्षि कश्यप)
- कृतिका (चंद्रमा)
- रोहिणी (चंद्रमा)
- मृगशिरा (चंद्रमा)
- आद्रा (चंद्रमा)
- पुनर्वसु (चंद्रमा)
- सुन्रिता (चंद्रमा)
- पुष्य (चंद्रमा)
- अश्लेषा (चंद्रमा)
- मेघा (चंद्रमा)
- स्वाति (चंद्रमा)
- चित्रा (चंद्रमा)
- फाल्गुनी (चंद्रमा)
- हस्ता (चंद्रमा)
- राधा (चंद्रमा)
- विशाखा (चंद्रमा)
- अनुराधा (चंद्रमा)
- ज्येष्ठा (चंद्रमा)
- मुला (चंद्रमा)
- अषाढ़ (चंद्रमा)
- अभिजीत (चंद्रमा)
- श्रावण (चंद्रमा)
- सर्विष्ठ (चंद्रमा)
- सताभिषक (चंद्रमा)
- प्रोष्ठपदस (चंद्रमा)
- रेवती (चंद्रमा)
- अश्वयुज (चंद्रमा)
- भरणी (चंद्रमा)
- रति (कामदेव)
- स्वरूपा (भूत)
- भूता (भूत)
- स्वधा (अंगिरा)
- अर्चि (कृशाश्वा)
- दिशाना (कृशाश्वा)
- विनीता (तार्क्ष्य कश्यप)
- कद्रू (तार्क्ष्य कश्यप)
- पतंगी (तार्क्ष्य कश्यप)
- यामिनी (तार्क्ष्य कश्यप)[12]
दक्ष की पुत्री सती का विवाह
दक्ष की पुत्री सती का विवाह शिव के साथ हुआ था। शिव सदा भभूत लगाए, सर्प लपेटे और मुंडमाला पहने रहते थे। उनका यह विचित्र वेश देखकर दक्ष उनसे असंतुष्ट रहते थे। उसने एक बार यज्ञ का आयोजन किया। उनमें अपने अन्य सभी जामाताओं को आमंत्रित किया, किंतु शिव को नहीं बुलाया। शिव की पत्नी सती बिना बुलाए ही वहाँ पहुंच गई। उसने देखा कि अन्य सब देवताओं का प्राप्तांश यज्ञ में रखा गया है, पर शिव का अंश नहीं रखा गया। वह अपने पति का यह अपमान न सह सकी और उसने यज्ञकुंड में कूदकर अपनी जान दे दी। इस पर शिव के गणों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला। शिव सती का शव लेकर उन्मत की भांति भ्रमण करने लगे। उनका मोह भंग करने के लिए विष्णु ने अपने चक्र से सती की मृत देह को काट-काट कर गिराना आरम्भ किया वे अंग 51 स्थानों पर गिरे जो देवी के शक्तिपीठ कहलाते हैं।[13]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुस्तक- हिंदू धर्मकोश |लेखक- डॉ. राजबली पाण्डेय| प्रकाशन- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान | पृष्ठ- 309
- ↑ ऋग्वेद 10.72.4-5
- ↑ निरुक्त. 11.23
- ↑ विष्णु पुराण 1.15; हरिवंश पुराण 1.2; भागवत पुराण 3.12.23
- ↑ भागवत 4.1
- ↑ महाभारत आदि पर्व 60.8-10
- ↑ भागवत पुराण 4.2; ब्रह्माण्ड पुराण 1.1.64
- ↑ भागवत 4.3-7
- ↑ वायु पुराण 10.18
- ↑ ब्रह्माण्ड पुराण 2.13.45,65-72
- ↑ दक्ष प्रजापति (हिन्दी) transliteral.org। अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2016।
- ↑ दक्ष प्रजापति की पुत्रियों और उनके पतियों के नाम (हिन्दी) धर्मसंसार। अभिगमन तिथि: 09 अक्टूबर, 2016।
- ↑ पुस्तक- भारतीय संस्कृति कोश | प्रकाशन- यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन नई दिल्ली | पृष्ठ- 404
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