"नरकासुर": अवतरणों में अंतर

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*एक बार नरकासुर ने घोर तपस्या कीं वह [[इन्द्र]]-पद प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। इन्द्र ने घबराकर [[विष्णु]] का स्मरण किया। विष्णु ने इन्द्र के प्रेम के वशीभूत होकर नरकासुर का हनन कर दिया।<ref> [[महाभारत]], [[वन पर्व महाभारत|वनपर्व]], अध्याय 142, श्लोक 15 से 28 तक</ref>
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कुछ दिनों तक तो नरकासुर ठीक से राज्य करता रहा, किन्तु [[बाणासुर]] की संगति में पड़कर यह दुष्ट हो गया। अब वसिष्ठ ने इसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दे दिया। किंतु नरकासुर ने तपोबल से [[ब्रह्मा]] को प्रसन्न करके यह वर पाया कि उसे [[देवता]], असुर, राक्षस आदि कोई भी नहीं मार सकेगा और उसका राज्य सदा ही बना रहेगा। नरकासुर द्विविद नामक एक वानर का भी मित्र था।<ref>भागवत 10.67.2; 69(3) 1.</ref> नरकासुर ने हयग्रीव, सुंद आदि की सहायता से देवराज [[इन्द्र]] को जीता, [[वरुण देवता|वरुण]] का छाता और [[अदिति]] के [[कुंडल]] ले भागा तथा घोर अत्याचार करने लगा।
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नरकासुर के अत्याचारों से ग्रस्त इन्द्र ने [[कृष्ण]] से कहा- "भौमासुर (नरकासुर) अनेक देवताओं का वध कर चुका है, कन्याओं का बलात्कार करता है। उसने अदिति के अमृतस्त्रावी दोनों दिव्य कुण्डल ले लिये हैं, अब मेरा '[[ऐरावत]]' भी लेना चाहता है। उससे उद्धार करो।" कृष्ण ने आश्वासन देकर नरकासुर पर आक्रमण किया। उन्होंने [[सुदर्शन चक्र]] से उसके दो टुकड़े कर दिए, अनेक दैत्यों को मार डाला। भूमि ने प्रकट होकर कृष्ण से कहा- "जिस समय वराह रूप में आपने मेरा उद्धार किया था, तब आप ही के स्पर्श से यह पुत्र मुझे प्राप्त हुआ था। अब आपने स्वयं ही उसे मार डाला हैं। आप अदिति के कुण्डल ले लीजिए, किंतु नरकासुर के वंश की रक्षा कीजिए।" कृष्ण ने युद्ध समाप्त कर दिया तथा कुण्डल अदिति को लौटा दिये।<ref>[[ब्रह्म पुराण]], 202 ।-[[विष्णु पुराण]], 5।29</ref> नरकासुर के भंडार में [[कुबेर]] की सम्पत्ति से भी अधिक धन था और अनेक राजकुमारियाँ उसके बंदीगृह में बन्द थीं। इन राजकुमारियों को श्रीकृष्ण [[द्वारिका]] ले आये थे।<ref>भागबत 8.10.33</ref> अहंकार के कारण ही नरकासुर अपनी शक्ति, अधिकार तथा सारा राज्य खो बैठा था।<ref>भागवत 10.59.14-22; 37.16;1.10.29</ref> 


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==टीका-टिप्पणी==
*पुस्तक 'पौराणिक कोश', लेखक- राणा प्रसाद शर्मा, पृष्ठ संख्या 262
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==संबंधित लेख==
 
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13:52, 3 जून 2014 के समय का अवतरण

संक्षिप्त परिचय
नरकासुर
नरकासुर का वध करते श्रीकृष्ण
नरकासुर का वध करते श्रीकृष्ण
पिता विष्णु
माता पृथ्वी
जन्म विवरण नरकासुर वराह अवतार के समय पैदा हुआ था, जब विष्णु ने पृथ्वी का उद्धार किया था।
विवाह माया (विदर्भ की राजकुमारी)
शासन-राज्य प्राग्ज्योतिषपुर
अपकीर्ति बाणासुर की संगति में पड़कर नरकासुर दुष्ट हो गया, जिस कारण वसिष्ठ ने इसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दिया।
संबंधित लेख विष्णु, श्रीकृष्ण, वसिष्ठ, बाणासुर
विशेष जब लंका का राजा रावण मारा गया, उस समय पृथ्वी के गर्भ से उसी स्थान पर नरकासुर का जन्म हुआ, जहाँ जानकी (सीता) का जन्म हुआ था।
अन्य जानकारी नरकासुर ने हयग्रीव, सुंद आदि की सहायता से देवराज इन्द्र को जीता, वरुण का छाता और अदिति के कुंडल ले भागा तथा घोर अत्याचार करने लगा।

नरकासुर पुराणानुसार एक प्रसिद्ध असुर था, जिसे पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न विष्णुपुत्र कहा जाता है। यह वराह अवतार के समय पैदा हुआ था, जब विष्णु ने पृथ्वी का उद्धार किया था।[1] अत: यह पृथ्वी का पुत्र था। नरकासुर बाणासुर की संगति में पड़कर दुष्ट हो गया था, जिस कारण वसिष्ठ ने इसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दे दिया।

परिचय

जब लंका का राजा रावण मारा गया, उस समय पृथ्वी के गर्भ से उसी स्थान पर नरकासुर का जन्म हुआ, जहाँ जानकी (सीता) का जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु तक राजा जनक ने इसे पाला था। बाद में पृथ्वी इसे ले गई और विष्णु ने इसे प्राग्ज्योतिषपुर का राजा बना दिया। नरकासुर मथुरा के राजा कंस का असुर मित्र था।[2] विदर्भ की राजकुमारी माया से इसका विवाह हुआ और विवाह के समय भगवान विष्णु ने इसे एक दुर्भेथ रथ दिया।

बाणासुर की संगति

कुछ दिनों तक तो नरकासुर ठीक से राज्य करता रहा, किन्तु बाणासुर की संगति में पड़कर यह दुष्ट हो गया। अब वसिष्ठ ने इसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दे दिया। किंतु नरकासुर ने तपोबल से ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वर पाया कि उसे देवता, असुर, राक्षस आदि कोई भी नहीं मार सकेगा और उसका राज्य सदा ही बना रहेगा। नरकासुर द्विविद नामक एक वानर का भी मित्र था।[3] नरकासुर ने हयग्रीव, सुंद आदि की सहायता से देवराज इन्द्र को जीता, वरुण का छाता और अदिति के कुंडल ले भागा तथा घोर अत्याचार करने लगा।

वध

नरकासुर के अत्याचारों से ग्रस्त इन्द्र ने कृष्ण से कहा- "भौमासुर (नरकासुर) अनेक देवताओं का वध कर चुका है, कन्याओं का बलात्कार करता है। उसने अदिति के अमृतस्त्रावी दोनों दिव्य कुण्डल ले लिये हैं, अब मेरा 'ऐरावत' भी लेना चाहता है। उससे उद्धार करो।" कृष्ण ने आश्वासन देकर नरकासुर पर आक्रमण किया। उन्होंने सुदर्शन चक्र से उसके दो टुकड़े कर दिए, अनेक दैत्यों को मार डाला। भूमि ने प्रकट होकर कृष्ण से कहा- "जिस समय वराह रूप में आपने मेरा उद्धार किया था, तब आप ही के स्पर्श से यह पुत्र मुझे प्राप्त हुआ था। अब आपने स्वयं ही उसे मार डाला हैं। आप अदिति के कुण्डल ले लीजिए, किंतु नरकासुर के वंश की रक्षा कीजिए।" कृष्ण ने युद्ध समाप्त कर दिया तथा कुण्डल अदिति को लौटा दिये।[4] नरकासुर के भंडार में कुबेर की सम्पत्ति से भी अधिक धन था और अनेक राजकुमारियाँ उसके बंदीगृह में बन्द थीं। इन राजकुमारियों को श्रीकृष्ण द्वारिका ले आये थे।[5] अहंकार के कारण ही नरकासुर अपनी शक्ति, अधिकार तथा सारा राज्य खो बैठा था।[6]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 262 |


  • पुस्तक 'पौराणिक कोश', लेखक- राणा प्रसाद शर्मा, पृष्ठ संख्या 262
  1. भागवत 10.59.14-30; 65(5) 1.
  2. भागवत 10.2.2; 36.63
  3. भागवत 10.67.2; 69(3) 1.
  4. ब्रह्म पुराण, 202 ।-विष्णु पुराण, 5।29
  5. भागबत 8.10.33
  6. भागवत 10.59.14-22; 37.16;1.10.29

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