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1593-94 में शेख़ अहमद [[भारत]] की सबसे महत्त्वपूर्ण [[सूफ़ी मत|सूफ़ी]] अध्यात्मवादी '[[नक़्शबंदिया]]' में शामिल हो गए। उन्होंने अपना जीवन अकबर और उनके उत्तराधिकारी [[जहाँगीर]] के 'सर्वेश्वरवाद' और [[इस्लाम]] की [[शिया]] शाखा के प्रति झुकाव के ख़िलाफ़ उपदेश देते हुए बिताया। उनकी कई रचनाओं में सबसे प्रख्यात 'मक्तूबात', भारत और ऑक्सस नदी के उत्तर में अपने मित्रों को [[फ़ारसी भाषा]] में लिखे गए पत्रों का संग्रह है। इन पत्रों के माध्यम से इस्लामी चिंतन में शेख़ अहमद के योगदान का पता चलता है। उन्होंने अति [[एकेश्वरवाद|एकेश्वरवादी]] स्थिति 'वहदत-उल-वजूद'<ref>ईश्वर, संसार तथा मनुष्य की दैवीय अस्तित्वात्मक एकता का सिद्धांत</ref> का विरोध करते हुए 'वहदत अश-शहूद'<ref>दृष्टि की एकता का सिद्धांत</ref> के विचार का प्रतिपादन किया। इस मत के अनुसार सिर्फ एकता का विषयनिष्ठ अनुभव ही अस्तित्व में है, जो केवल विश्वास करने वाले के [[मस्तिष्क]] में पैदा होता है; वास्तविक विश्व में इसके समकक्ष कुछ भी नहीं है।
1593-94 में शेख़ अहमद [[भारत]] की सबसे महत्त्वपूर्ण [[सूफ़ी मत|सूफ़ी]] अध्यात्मवादी '[[नक़्शबंदिया]]' में शामिल हो गए। उन्होंने अपना जीवन अकबर और उनके उत्तराधिकारी [[जहाँगीर]] के 'सर्वेश्वरवाद' और [[इस्लाम]] की [[शिया]] शाखा के प्रति झुकाव के ख़िलाफ़ उपदेश देते हुए बिताया। उनकी कई रचनाओं में सबसे प्रख्यात 'मक्तूबात', भारत और ऑक्सस नदी के उत्तर में अपने मित्रों को [[फ़ारसी भाषा]] में लिखे गए पत्रों का संग्रह है। इन पत्रों के माध्यम से इस्लामी चिंतन में शेख़ अहमद के योगदान का पता चलता है। उन्होंने अति [[एकेश्वरवाद|एकेश्वरवादी]] स्थिति 'वहदत-उल-वजूद'<ref>ईश्वर, संसार तथा मनुष्य की दैवीय अस्तित्वात्मक एकता का सिद्धांत</ref> का विरोध करते हुए 'वहदत अश-शहूद'<ref>दृष्टि की एकता का सिद्धांत</ref> के विचार का प्रतिपादन किया। इस मत के अनुसार सिर्फ एकता का विषयनिष्ठ अनुभव ही अस्तित्व में है, जो केवल विश्वास करने वाले के [[मस्तिष्क]] में पैदा होता है; वास्तविक विश्व में इसके समकक्ष कुछ भी नहीं है।
==उपाधि==
==उपाधि==
शेख़ अहमद सरहिन्दी के मतानुसार, पहला मत 'सर्वेश्वरवादी' है, जो इस्लाम की सुन्नी परंपरा के सिद्धांत के विरूद्ध है। उन्हें मरणोपरांत दी गई उपाधि 'मुजाहिद-ए-अल्फ़-ए-सानी'<ref>दूसरी सहस्राब्दी के सुधारक</ref> से [[भारत]] में इस्लामी रूढ़िवाद के विकास में उनके महत्व का पता चलता है। इससे [[हिजरी संवत|मुस्लिम कैलेंडर]] के अनुसार दूसरी सहस्राब्दी के आरंभ में उनके होने के तथ्य का भी संदर्भ मिलता है।<ref name="aa"/>
शेख़ अहमद सरहिन्दी के मतानुसार, पहला मत 'सर्वेश्वरवादी' है, जो इस्लाम की सुन्नी परंपरा के सिद्धांत के विरुद्ध है। उन्हें मरणोपरांत दी गई उपाधि 'मुजाहिद-ए-अल्फ़-ए-सानी'<ref>दूसरी सहस्राब्दी के सुधारक</ref> से [[भारत]] में इस्लामी रूढ़िवाद के विकास में उनके महत्व का पता चलता है। इससे [[हिजरी संवत|मुस्लिम कैलेंडर]] के अनुसार दूसरी सहस्राब्दी के आरंभ में उनके होने के तथ्य का भी संदर्भ मिलता है।<ref name="aa"/>
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सरकारी हलक़ों में उनके उपदेश बहुत लोकप्रिय नहीं थे। उनके द्वारा [[शिया]] विचारों के आक्रामक विरोध से नाराज़ होकर [[जहाँगीर|बादशाह जहाँगीर]] ने उन्हें 1619 ई. में कुछ समय के लिए [[ग्वालियर का क़िला|ग्वालियर के क़िले]] में बंद करवा दिया था। शेख़ अहमद सरहिन्दी का निधन 1624 ई. में सरहिन्द में हुआ। सरहिन्द में स्थित शेख़ अहमद का मक़बरा अब भी एक [[तीर्थ स्थल]] है।
सरकारी हलक़ों में उनके उपदेश बहुत लोकप्रिय नहीं थे। उनके द्वारा [[शिया]] विचारों के आक्रामक विरोध से नाराज़ होकर [[जहाँगीर|बादशाह जहाँगीर]] ने उन्हें 1619 ई. में कुछ समय के लिए [[ग्वालियर का क़िला|ग्वालियर के क़िले]] में बंद करवा दिया था। शेख़ अहमद सरहिन्दी का निधन 1624 ई. में सरहिन्द में हुआ। सरहिन्द में स्थित शेख़ अहमद का मक़बरा अब भी एक [[तीर्थ स्थल]] है।

15:26, 17 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

शेख़ अहमद सरहिन्दी (जन्म- 1564, सरहिन्द, पटियाला; मृत्यु- 1624, सरहिन्द) भारतीय अध्यात्मवादी और धर्मशास्त्री, जो मुग़ल बादशाह अकबर के शासन काल में प्रचलित समन्वयवादी धार्मिक प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया स्वरूप भारत में रूढ़िवादी सुन्नी इस्लाम को पुनर्जीवित और सशक्त बनाने के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार थे।

परिचय

शेख़ अहमद ने, जो अपने पैतृक पक्ष की ओर से ख़लीफ़ा उमर प्रथम[1] के वंशज थे, पहले घर में और बाद में सियालकोट में (वर्तमान पाकिस्तान में) पारंपरिक इस्लामी शिक्षा ग्रहण की थी। जब शेख़ अहमद पूरी तरह परिपक्व हुए, तब प्रख्यात मुग़ल बादशाह अकबर ने नई समन्वयवादी आस्था (दीन-ए-इलाही), जिसमें उनके साम्राज्य के विभिन्न संप्रदायों के आध्यात्मिक विश्वासों के विविध रूपों और धार्मिक क्रियाकलापों के एकीकरण का प्रयास था, के ज़रिये अपने साम्राज्य को संगठित करने की कोशिश की।[2]

योगदान

1593-94 में शेख़ अहमद भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण सूफ़ी अध्यात्मवादी 'नक़्शबंदिया' में शामिल हो गए। उन्होंने अपना जीवन अकबर और उनके उत्तराधिकारी जहाँगीर के 'सर्वेश्वरवाद' और इस्लाम की शिया शाखा के प्रति झुकाव के ख़िलाफ़ उपदेश देते हुए बिताया। उनकी कई रचनाओं में सबसे प्रख्यात 'मक्तूबात', भारत और ऑक्सस नदी के उत्तर में अपने मित्रों को फ़ारसी भाषा में लिखे गए पत्रों का संग्रह है। इन पत्रों के माध्यम से इस्लामी चिंतन में शेख़ अहमद के योगदान का पता चलता है। उन्होंने अति एकेश्वरवादी स्थिति 'वहदत-उल-वजूद'[3] का विरोध करते हुए 'वहदत अश-शहूद'[4] के विचार का प्रतिपादन किया। इस मत के अनुसार सिर्फ एकता का विषयनिष्ठ अनुभव ही अस्तित्व में है, जो केवल विश्वास करने वाले के मस्तिष्क में पैदा होता है; वास्तविक विश्व में इसके समकक्ष कुछ भी नहीं है।

उपाधि

शेख़ अहमद सरहिन्दी के मतानुसार, पहला मत 'सर्वेश्वरवादी' है, जो इस्लाम की सुन्नी परंपरा के सिद्धांत के विरुद्ध है। उन्हें मरणोपरांत दी गई उपाधि 'मुजाहिद-ए-अल्फ़-ए-सानी'[5] से भारत में इस्लामी रूढ़िवाद के विकास में उनके महत्व का पता चलता है। इससे मुस्लिम कैलेंडर के अनुसार दूसरी सहस्राब्दी के आरंभ में उनके होने के तथ्य का भी संदर्भ मिलता है।[2]

निधन

सरकारी हलक़ों में उनके उपदेश बहुत लोकप्रिय नहीं थे। उनके द्वारा शिया विचारों के आक्रामक विरोध से नाराज़ होकर बादशाह जहाँगीर ने उन्हें 1619 ई. में कुछ समय के लिए ग्वालियर के क़िले में बंद करवा दिया था। शेख़ अहमद सरहिन्दी का निधन 1624 ई. में सरहिन्द में हुआ। सरहिन्द में स्थित शेख़ अहमद का मक़बरा अब भी एक तीर्थ स्थल है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा
  2. 2.0 2.1 भारत ज्ञानकोश, खण्ड-5 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 308 |
  3. ईश्वर, संसार तथा मनुष्य की दैवीय अस्तित्वात्मक एकता का सिद्धांत
  4. दृष्टि की एकता का सिद्धांत
  5. दूसरी सहस्राब्दी के सुधारक

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