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'''उपमन्यु'''
'''उपमन्यु''' [[धौम्य ऋषि|महर्षि आयोद धौम्य]] के शिष्यों में से एक थे। इनके गुरु धौम्य ने उपमन्यु को अपनी [[गाय|गाएं]] चराने का काम दे रखा थ। उपमन्यु दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते थे।
महर्षि [[धौम्य ऋषि|आयोद धौम्य]] के शिष्यों में से एक थे। गुरुदेव ने उपमन्यु को अपनी गाएं चराने का काम दे रखा थ। वे दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते। एक दिन गुरुदेव ने पूछा- ‘बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?’ उपमन्यु ने नम्रता से कहा- ‘भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना का चला लेता हूँ। ‘महर्षिबोले- ‘वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।‘ उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- 'उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?' तब उपमन्यु ने बताया कि 'मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।' महर्षि ने कहा- 'दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा। और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।'<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/article/other-festivals/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81-%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4-%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%81-107072900014_1.htm |title=गुरु भक्त उपमन्यु |accessmonthday=15 जनवरी |accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=webdunia|language=हिन्दी}}</ref>


'''उपमन्यु ने कहा'''- 'जो आज्ञा!' उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा तब उपमन्यु ने बताया कि 'मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।' महर्षि बोले- 'यह तो ठीक नहीं।' गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।'
एक दिन गुरुदेव ने पूछा- "बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?" उपमन्यु ने नम्रता से कहा- "भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।" उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?" तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।" महर्षि ने कहा- "दुबारा भिक्षा माँगना तो [[धर्म]] के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।"<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/article/other-festivals/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81-%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4-%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%81-107072900014_1.htm |title=गुरु भक्त उपमन्यु |accessmonthday=15 जनवरी |accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=webdunia|language=हिन्दी}}</ref>
उपामन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा-‘उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।‘ उपमन्यु ने कहा- भागवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।‘
महर्षि बोले- ‘बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।‘ अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए।  उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें  कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े। जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे-मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दुखी होकर वह भाग तो नहीं गया।‘ उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- ‘बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?
उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- ‘भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।‘ महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु ने नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा।


किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनी कुमारों ने कहा- ‘तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।‘
उपमन्यु ने कहा- "जो आज्ञा।" उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं [[गाय|गायों]] का [[दूध]] पी लेता हूँ।" महर्षि बोले- "यह तो ठीक नहीं।" गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।" उपमन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।" उपमन्यु ने कहा- "भगवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।" अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े। जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे- "मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दु:खी होकर वह भाग तो नहीं गया।" उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- "बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?"
उपमन्यु ने कहा- ‘वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।‘ इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनी कुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँसे बाहर निकले, महर्षि आयोद धौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को ह्रदय से लगा लिया।


उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- "भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।" महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर [[ऋग्वेद]] के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा। किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनीकुमारों ने कहा- "तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।" उपमन्यु ने कहा- "वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।" इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, [[धौम्य|महर्षि आयोद धौम्य]] ने अपने प्रिय शिष्य को [[हृदय]] से लगा लिया।


 
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11:33, 15 जनवरी 2016 के समय का अवतरण

उपमन्यु महर्षि आयोद धौम्य के शिष्यों में से एक थे। इनके गुरु धौम्य ने उपमन्यु को अपनी गाएं चराने का काम दे रखा थ। उपमन्यु दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते थे।

एक दिन गुरुदेव ने पूछा- "बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?" उपमन्यु ने नम्रता से कहा- "भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।" उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?" तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।" महर्षि ने कहा- "दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।"[1]

उपमन्यु ने कहा- "जो आज्ञा।" उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।" महर्षि बोले- "यह तो ठीक नहीं।" गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।" उपमन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।" उपमन्यु ने कहा- "भगवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।" अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े। जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे- "मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दु:खी होकर वह भाग तो नहीं गया।" उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- "बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?"

उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- "भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।" महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा। किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनीकुमारों ने कहा- "तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।" उपमन्यु ने कहा- "वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।" इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, महर्षि आयोद धौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गुरु भक्त उपमन्यु (हिन्दी) webdunia। अभिगमन तिथि: 15 जनवरी, 2016।

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