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==सांझी / Sanjhi==
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*[[ब्रज]] में पितृ पक्ष में गृहस्थ अपने पितृगण का [[श्राद्ध]] करते हैं, मन्दिरों में इन दिनों सांझी सजाई जाती है । गांवों की बालिकायें सांझी का खेल खेलती हैं । यह एक लोकोत्सव है । टेसू और झांझी भी इसी से जुड़े हैं ।
*[[ब्रज]] में [[पितृ पक्ष]] में गृहस्थ अपने पितृगण का [[श्राद्ध]] करते हैं, मन्दिरों में इन दिनों सांझी सजाई जाती है । गांवों की बालिकायें सांझी का खेल खेलती हैं । यह एक लोकोत्सव है । [[टेसू]] और [[झांझी]] भी इसी से जुड़े हैं ।
*सांझी अर्थात सायं (सांझ) [[ब्रज]] की अधिष्ठात्रि [[राधा|राधारानी]] और भगवान [[कृष्ण]] का सायं को मिलन लीला।  
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*[[द्वापर युग]] से चली आ रही यह अनूठी परंपरा समय अन्तराल के साथ विलुप्त होने के कगार पर है।  
*[[द्वापर युग]] से चली आ रही यह अनूठी परंपरा समय अन्तराल के साथ विलुप्त होने के कगार पर है।  
*नगर के कुछ ही मंदिर में जीवित ब्रज की धार्मिक [[संस्कृति]] की द्योतक इस कला को समय और लोगों में कला के प्रति उत्साह की कमी ने धुधंला कर दिया है।
*नगर के कुछ ही मंदिर में जीवित ब्रज की धार्मिक [[संस्कृति]] की द्योतक इस कला को समय और लोगों में कला के प्रति उत्साह की कमी ने धुधंला कर दिया है।
==ब्रज में सांझी की अनूठी परंपरा==  
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सांझी [[ब्रजमंडल]] के हर घर के आंगन और तिवारे में ब्रजवासी राधारानी के स्वागत के लिए सजाते रहे हैं। राधारानी अपने पिता [[वृषभान]] जी के आंगन में सांझी क्वार के पितृ पक्ष में प्रतिदिन सजाती थीं कि उनके भाई श्रीदामा का मंगल हो। इसके लिए वे फूल एकत्रित करने के लिए वन और बाग बगीचों में जाती थी। इस बहाने राधाकृष्ण (प्रिया प्रियतम) का मिलन होता था। उसी मर्यादा को जीवित रखते हुए ब्रज की अविवाहित कन्याएं आज भी क्वार मास के कृष्ण पक्ष (पितृ पक्ष) में अपने घरों में गाय के गोबर से सांझियां सजाती हैं। इसमें राधाकृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संप्रदाय के ग्रंथों में मिलता है ताकि राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आएगें। राधा जी के धाम [[वृन्दावन]] और [[बरसाना]] के आसपास के क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा जीवित है। शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगनों को सांझी से सजाया जाता था लेकिन समय के साथ सांझी सिर्फ सांकेतिक रह गई।  
सांझी [[ब्रजमंडल]] के हर घर के आंगन और तिवारे में ब्रजवासी राधारानी के स्वागत के लिए सजाते रहे हैं। राधारानी अपने पिता [[वृषभानु]] जी के आंगन में सांझी क्वार के पितृ पक्ष में प्रतिदिन सजाती थीं कि उनके भाई श्रीदामा का मंगल हो। इसके लिए वे फूल एकत्रित करने के लिए वन और बाग़ बगीचों में जाती थी। इस बहाने राधाकृष्ण (प्रिया प्रियतम) का मिलन होता था। उसी मर्यादा को जीवित रखते हुए ब्रज की अविवाहित कन्याएं आज भी क्वार मास के कृष्ण पक्ष (पितृ पक्ष) में अपने घरों में गाय के गोबर से सांझियां सजाती हैं। इसमें राधाकृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संप्रदाय के ग्रंथों में मिलता है ताकि राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आएगें। राधा जी के धाम [[वृन्दावन]] और [[बरसाना]] के आसपास के क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा जीवित है। शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगनों को सांझी से सजाया जाता था लेकिन समय के साथ सांझी सिर्फ़ सांकेतिक रह गई।  
*सरसमाधुरी काव्य में सांझी का कुछ इस तरह उल्लेख किया गया है कि सलोनी सांझी आज बनाई  
*सरसमाधुरी काव्य में सांझी का कुछ इस तरह उल्लेख किया गया है कि सलोनी सांझी आज बनाई  
'श्यामा संग रंग सों राधे, रचना रची सुहाई।<br />  
'श्यामा संग रंग सों राधे, रचना रची सुहाई।<br />  
सेवाकुंज सुहावन कीनी, लता पता छवि छाई। <br />
[[सेवाकुंज वृन्दावन|सेवाकुंज]] सुहावन कीनी, लता पता छवि छाई। <br />
मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत परम सुखराई। <br />
मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत परम सुखराई। <br />
*कविवर [[सूरदास]] ने सांझी पर पद प्रस्तुत किया कि  
*कविवर [[सूरदास]] ने सांझी पर पद प्रस्तुत किया कि  
'प्यारी, तुम कौन हौ री फुलवा बीनन हारीं नेह लगन कौ बन्यौ बगीचा फूलि हरी फुलवारी। <br />
'प्यारी, तुम कौन हौ री फुलवा बीनन हारीं नेह लगन कौ बन्यौ बगीचा फूलि हरी फुलवारी। <br />
आपु कृष्ण बनमाली आये तुम बोलौ कयों न पियारीं। <br />
आपु कृष्ण बनमाली आये तुम बोलौ कयों न पियारीं। <br />
हंसि ललिता जब कह्यौ स्याम सौं ये वृषभान दुलारी। तुम्हारों कहा लगै या वन में रोकत गैल हमारी।'<br />  
हंसि [[ललिता सखी|ललिता]] जब कह्यौ स्याम सौं ये वृषभान दुलारी। तुम्हारों कहा लगै या वन में रोकत गैल हमारी।'<br />  
*[[निम्बार्क संप्रदाय]] की महावाणी में भी हरिप्रिया दास ने सांझी का दोहा के रूप में उल्लेखित किया है कि'  
*[[निम्बार्क संप्रदाय]] की महावाणी में भी हरिप्रिया दास ने सांझी का दोहा के रूप में उल्लेखित किया है कि'  
चित्र विचित्र बनाव के, चुनिचुनि फूले फूल। <br />
चित्र विचित्र बनाव के, चुनिचुनि फूले फूल। <br />
सांझी खेलहिं दोऊ मिल, नवजीवन समतूल।'<br />
सांझी खेलहिं दोऊ मिल, नवजीवन समतूल।'<br />
*राधाकृष्ण लीला में मिलन पक्ष को प्रकट करने वाली सांझी लीला ठाकुर [[श्रीराधागोविन्द मंदिर]], [[राधावल्लभ जी का मन्दिर|राधावल्लभ]], [[श्रीजी मंदिर]] में सीमित हो गयी है ।  
*राधाकृष्ण लीला में मिलन पक्ष को प्रकट करने वाली सांझी लीला ठाकुर [[श्रीराधागोविन्द मंदिर]], राधावल्लभ, [[श्रीजी मंदिर]] में सीमित हो गयी है ।  
*राधागोविन्द मंदिर के सेवायत गोस्वामी आचार्य रूप किशोर ने बताया कि हिन्दी माह क्वार की एकादशी से प्रतिप्रदा तिथि तक पांच दिन सांझी महोत्सव के तौर पर मंदिर में राधारानी का आह्वान किया जाता है। इसमें मंदिर के चौक में सूखे रंगों, पुष्पों से सांझी बना कर मंदिर में विराजमान ठाकुर जी के श्रीविग्रह के समक्ष उसकी पूजा, भोगराग और गोस्वामियों द्वारा सामुहिक समाज गायन किया जाता है। यह परंपरा मंदिर में क़रीब 250 वर्षों से चली आ रही है।  
*राधागोविन्द मंदिर के सेवायत गोस्वामी आचार्य रूप किशोर ने बताया कि हिन्दी माह क्वार की एकादशी से प्रतिप्रदा तिथि तक पांच दिन सांझी महोत्सव के तौर पर मंदिर में राधारानी का आह्वान किया जाता है। इसमें मंदिर के चौक में सूखे रंगों, पुष्पों से सांझी बना कर मंदिर में विराजमान ठाकुर जी के श्रीविग्रह के समक्ष उसकी पूजा, भोगराग और गोस्वामियों द्वारा सामुहिक [[समाज गायन]] किया जाता है। यह परंपरा मंदिर में क़रीब 250 वर्षों से चली आ रही है।  
*आचार्य ललित किशोर गोस्वामी ने बताया कि सांझी की शुरूआत राधारानी द्वारा की गई थी। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के साथ वनों में उन्होंने ही अपनी सहचरियों के साथ सांझी बनायी। वन में आराध्य देव कृष्ण के साथ सांझी बनाना राधारानी को सर्वप्रिय था। तभी से यह परंपरा ब्रजवासियों ने अपना ली और राधाकृष्ण को रिझाने के लिए अपने घरों के आंगन में सांझी बनाने लगे।   
*आचार्य ललित किशोर गोस्वामी ने बताया कि सांझी की शुरुआत राधारानी द्वारा की गई थी। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के साथ वनों में उन्होंने ही अपनी सहचरियों के साथ सांझी बनायी। वन में आराध्य देव कृष्ण के साथ सांझी बनाना राधारानी को सर्वप्रिय था। तभी से यह परंपरा ब्रजवासियों ने अपना ली और राधाकृष्ण को रिझाने के लिए अपने घरों के आंगन में सांझी बनाने लगे।   


*बरसाना के लाडलीजी मंदिर में यह पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की सांझी बनाई जाती है। जहां प्रतिदिन रात्रि को बरसाना के गोस्वामी सांझी के पद और दोहा गाते हैं।
*बरसाना के लाडलीजी मंदिर में यह पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की सांझी बनाई जाती है। जहां प्रतिदिन रात्रि को बरसाना के गोस्वामी सांझी के पद और दोहा गाते हैं।
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*[[बरसाना]] और [[वृन्दावन]] में आज भी सांझी का चित्रांकन होता है
*[[बरसाना]] और [[वृन्दावन]] में आज भी सांझी का चित्रांकन होता है
*ब्रज के अधिकांश हिस्से में यह कला विलुप्त हो गई है।
*ब्रज के अधिकांश हिस्से में यह कला विलुप्त हो गई है।
 
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==संबंधित लेख==
 
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06:42, 9 मार्च 2016 के समय का अवतरण

  • ब्रज में पितृ पक्ष में गृहस्थ अपने पितृगण का श्राद्ध करते हैं, मन्दिरों में इन दिनों सांझी सजाई जाती है । गांवों की बालिकायें सांझी का खेल खेलती हैं । यह एक लोकोत्सव है । टेसू और झांझी भी इसी से जुड़े हैं ।
  • सांझी अर्थात सायं (सांझ) ब्रज की अधिष्ठात्रि राधारानी और भगवान कृष्ण का सायं को मिलन लीला।
  • द्वापर युग से चली आ रही यह अनूठी परंपरा समय अन्तराल के साथ विलुप्त होने के कगार पर है।
  • नगर के कुछ ही मंदिर में जीवित ब्रज की धार्मिक संस्कृति की द्योतक इस कला को समय और लोगों में कला के प्रति उत्साह की कमी ने धुधंला कर दिया है।

ब्रज में सांझी की अनूठी परंपरा

सांझी ब्रजमंडल के हर घर के आंगन और तिवारे में ब्रजवासी राधारानी के स्वागत के लिए सजाते रहे हैं। राधारानी अपने पिता वृषभानु जी के आंगन में सांझी क्वार के पितृ पक्ष में प्रतिदिन सजाती थीं कि उनके भाई श्रीदामा का मंगल हो। इसके लिए वे फूल एकत्रित करने के लिए वन और बाग़ बगीचों में जाती थी। इस बहाने राधाकृष्ण (प्रिया प्रियतम) का मिलन होता था। उसी मर्यादा को जीवित रखते हुए ब्रज की अविवाहित कन्याएं आज भी क्वार मास के कृष्ण पक्ष (पितृ पक्ष) में अपने घरों में गाय के गोबर से सांझियां सजाती हैं। इसमें राधाकृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संप्रदाय के ग्रंथों में मिलता है ताकि राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आएगें। राधा जी के धाम वृन्दावन और बरसाना के आसपास के क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा जीवित है। शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगनों को सांझी से सजाया जाता था लेकिन समय के साथ सांझी सिर्फ़ सांकेतिक रह गई।

  • सरसमाधुरी काव्य में सांझी का कुछ इस तरह उल्लेख किया गया है कि सलोनी सांझी आज बनाई

'श्यामा संग रंग सों राधे, रचना रची सुहाई।
सेवाकुंज सुहावन कीनी, लता पता छवि छाई।
मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत परम सुखराई।

  • कविवर सूरदास ने सांझी पर पद प्रस्तुत किया कि

'प्यारी, तुम कौन हौ री फुलवा बीनन हारीं नेह लगन कौ बन्यौ बगीचा फूलि हरी फुलवारी।
आपु कृष्ण बनमाली आये तुम बोलौ कयों न पियारीं।
हंसि ललिता जब कह्यौ स्याम सौं ये वृषभान दुलारी। तुम्हारों कहा लगै या वन में रोकत गैल हमारी।'

चित्र विचित्र बनाव के, चुनिचुनि फूले फूल।
सांझी खेलहिं दोऊ मिल, नवजीवन समतूल।'

  • राधाकृष्ण लीला में मिलन पक्ष को प्रकट करने वाली सांझी लीला ठाकुर श्रीराधागोविन्द मंदिर, राधावल्लभ, श्रीजी मंदिर में सीमित हो गयी है ।
  • राधागोविन्द मंदिर के सेवायत गोस्वामी आचार्य रूप किशोर ने बताया कि हिन्दी माह क्वार की एकादशी से प्रतिप्रदा तिथि तक पांच दिन सांझी महोत्सव के तौर पर मंदिर में राधारानी का आह्वान किया जाता है। इसमें मंदिर के चौक में सूखे रंगों, पुष्पों से सांझी बना कर मंदिर में विराजमान ठाकुर जी के श्रीविग्रह के समक्ष उसकी पूजा, भोगराग और गोस्वामियों द्वारा सामुहिक समाज गायन किया जाता है। यह परंपरा मंदिर में क़रीब 250 वर्षों से चली आ रही है।
  • आचार्य ललित किशोर गोस्वामी ने बताया कि सांझी की शुरुआत राधारानी द्वारा की गई थी। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के साथ वनों में उन्होंने ही अपनी सहचरियों के साथ सांझी बनायी। वन में आराध्य देव कृष्ण के साथ सांझी बनाना राधारानी को सर्वप्रिय था। तभी से यह परंपरा ब्रजवासियों ने अपना ली और राधाकृष्ण को रिझाने के लिए अपने घरों के आंगन में सांझी बनाने लगे।
  • बरसाना के लाडलीजी मंदिर में यह पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की सांझी बनाई जाती है। जहां प्रतिदिन रात्रि को बरसाना के गोस्वामी सांझी के पद और दोहा गाते हैं।

सांझी के प्रकार

  1. फूलों की सांझी
  2. रंगों की सांझी
  3. गाय के गोबर की सांझी
  4. पानी पर तैरती सांझी

तथ्य

  • बरसाना और वृन्दावन में आज भी सांझी का चित्रांकन होता है
  • ब्रज के अधिकांश हिस्से में यह कला विलुप्त हो गई है।

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