समाज गायन

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समाज गायन में दर्जनभर और उससे अधिक लोग भाग लेते हैं। प्रमुख गायक को 'मुखिया' कहा जाता है जबकि उसका अनुसरण करने वाले 'सेला' कहलाते हैं। गायन के समय आसपास बैठे भक्तों का समूह समाज शब्द से जाना जाता है। प्राचीन मंदिरों में उनके अलग-अलग 'समाजी' अर्थात 'समाज गायन करने वाले' होते हैं। ये लोग अपनी-अपनी आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार गायन करते हैं। संगीत के लिए हारमोनियम और ढोलक का प्रयोग किया जाता है।

ऐतिहासिकता

पांच सौ सालों से वृंदावन के मंदिर और देवालयों में 'समाज गायन' किया जा रहा है। संगीत सम्राट स्वामी हरिदास और चैतन्य महाप्रभु के शिष्य षटगोस्वामियों के काल से विशेष पर्वों पर पदों का गायन किया जाता है। यही कारण है कि मंदिर संस्कृति में आज भी समाज गायन प्रचलित है। शहर के 'राधाबल्लभ', 'प्रिया बल्लभ', 'राधिका बल्लभ', 'भट्टजी मंदिर', 'गोरेलाल', 'रसिक बिहारी' और 'गोपी बल्लभ मंदिरों' समेत तमाम प्राचीन मंदिरों में समाज गायन की परंपरा है। स्थानीय 'ब्रज संस्कृति शोध संस्थान' और 'वृंदावन शोध संस्थान' में समाज गायन से संबंधित पांडुलिपियां संग्रहीत हैं।[1]

शब्द, भाव और अंतर्नाद

विशेष बात यह कि सैकड़ों साल पुराने पदों में उस काल के शब्द, भाव और अंतर्नाद होता है। इन पदों का 'जन्माष्टमी', 'राधाष्टमी', 'होली', 'खिचड़ी उत्सव', आचार्यों के जन्म दिन के अलावा ब्याहुला पर गायन किया जाता है।

बरसाना में लट्ठमार होली के अवसर पर कान्हा के घर नन्दगाँव से उनके सखा स्वरूप आते हैं। बरसानावासी राधा जी के पक्ष वाले 'समाज गायन' में भक्तिरस के साथ चुनौती पूर्ण पंक्तियां प्रस्तुत करके विपक्ष को मुक़ाबले के लिए ललकारते हैं। लट्ठमार होली से पूर्व नन्दगाँव व बरसाना के गोस्वामी समाज के बीच ज़ोरदार मुक़ाबला होता है। नन्दगाँव के हुरियारे सर्वप्रथम पीली पोखर पर जाते हैं। यहाँ स्थानीय गोस्वामी समाज अगवानी करता है। मेहमान-नवाजी के बाद मन्दिर परिसर में दोनों पक्षों द्वारा 'समाज गायन' का मुक़ाबला होता है।


इन्हें भी देखें: होली, लट्ठमार होली एवं बरसाना


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देवालयी संस्कृति की देन है समाज गायन (हिन्दी) रफ्तार। अभिगमन तिथि: 9 मार्च, 2016।

बाहरी कड़ियाँ

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