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'''गोकर्ण''' [[कर्नाटक]] के पास बसा एक पवित्र [[हिन्दू]] धार्मिक क्षेत्र है। इस पावन धार्मिक स्थल से लोगों की गहरी आस्थाएँ जुड़ी हैं। इसके साथ ही यहाँ का रमणीक और मनोरम वातावरण तथा खूबसूरत समुद्र के किनारे सभी को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। कर्नाटक का छोटा-सा स्थल गोकर्ण अपने ऐतिहासिक मंदिरों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। गोकर्ण का अर्थ है- 'गाय का कान। यह माना जाता है कि भगवान [[शिव]] का जन्म [[गाय]] के कान से हुआ, जिस कारण लोग इस स्थल को 'गोकर्ण' के नाम से पुकारते हैं।
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'''गोकर्ण''' [[कर्नाटक]] के पास बसा एक पवित्र [[हिन्दू]] धार्मिक क्षेत्र है। इस पावन धार्मिक स्थल से लोगों की गहरी आस्थाएँ जुड़ी हैं। इसके साथ ही यहाँ का रमणीक और मनोरम वातावरण तथा ख़ूबसूरत समुद्र के किनारे सभी को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। कर्नाटक का छोटा-सा स्थल गोकर्ण अपने ऐतिहासिक मंदिरों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। गोकर्ण का अर्थ है- 'गाय का कान। यह माना जाता है कि भगवान [[शिव]] का जन्म [[गाय]] के कान से हुआ, जिस कारण लोग इस स्थल को 'गोकर्ण' के नाम से पुकारते हैं।
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==आस्था का केन्द्र==
==आस्था का केन्द्र==
यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि नदियों के संगम पर बसे इस गाँव का आकार भी एक कान जैसा ही प्रतीत होता है। यहाँ अनेक खूबसूरत मंदिर हैं, जो लोगों की आस्था का केन्द्र हैं। यहाँ दो महत्वपूर्ण नदियों, 'गंगावली' और 'अघनाशिनी' का संगम भी देखने को मिलता है। गोकर्ण में स्थित महाबलेश्वर मंदिर इस जगह का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। भगवान शिव का यह मंदिर पश्चिमी घाट पर बसा है तथा कर्नाटक के सात मुख्य मुक्ति स्थलों में से एक माना जाता है।
यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि नदियों के संगम पर बसे इस गाँव का आकार भी एक कान जैसा ही प्रतीत होता है। यहाँ अनेक ख़ूबसूरत मंदिर हैं, जो लोगों की आस्था का केन्द्र हैं। यहाँ दो महत्त्वपूर्ण नदियों, 'गंगावली' और 'अघनाशिनी' का संगम भी देखने को मिलता है। गोकर्ण में स्थित महाबलेश्वर मंदिर इस जगह का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। भगवान शिव का यह मंदिर पश्चिमी घाट पर बसा है तथा कर्नाटक के सात मुख्य मुक्ति स्थलों में से एक माना जाता है।
====पौराणिक कथा====
==पौराणिक उल्लेख==
[[महाभारत]] [[आदिपर्व महाभारत|आदिपर्व]]<ref>[[आदिपर्व महाभारत|आदिपर्व]] 216, 34-35</ref> में गोकर्ण का उल्लेख [[अर्जुन]] की वनवास यात्रा के प्रसंग में इस प्रकार है-
 
<blockquote>'आद्यं पशुपते: स्थानं दर्शनादेव मुक्तिदम्, यत्र पापोऽपि मनुज: प्राप्नोत्यभयं पदम्।'</blockquote>
 
*[[पांडव|पांडवों]] की तीर्थयात्रा के प्रसंग में पुन: [[गोकर्ण]] का वर्णन [[महाभारत वनपर्व]]<ref>[[वनपर्व महाभारत|वनपर्व]] 85, 24-29</ref> में है-
<blockquote>'अथ गोकर्णमासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्, समुद्र मध्ये राजेन्द्र सर्वलोक नमस्कृतम्।'</blockquote>
*वनपर्व<ref>वनपर्व 88, 14-15</ref> में गोकर्ण का पुन: उल्लेख है और इसे [[ताम्रपर्णी नदी]] के पास माना गया है-
<blockquote>'ताम्रपर्णी तु कैन्तेय कीर्तयिष्यामि तां श्रुणु यत्र देवैस्तपस्तप्तं महदिच्छदिभराश्रमे गाकर्ण इति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु भारत।'</blockquote>
*गोकण स्थान पर ही [[अगस्त्य]] के शिष्य 'तृणसोमाग्नि' का [[आश्रम]] था।<ref>वनपर्व 88, 17.</ref>
*[[कालिदास|महाकवि कालिदास]] ने 'रघुवंश'<ref>रघुवंश 8, 33</ref> में भी कोकर्ण को दक्षिण [[समुद्र]] तट पर स्थित लिखा है-
<blockquote>'अयरोधसि दक्षिणोदधे: श्रितगोकर्ण निकेतमीश्वरम्, उपवीणयितुं ययौ रवेरुदयावृतिपथेन नारद:।'</blockquote>
*उपर्युक्त उल्लेख में गोकर्ण को [[शिव|भगवान शिव]] का 'निकेत' अथवा 'गृह' बताया गया है।
====कथा====
इस स्थल के बारे में एक मान्यता प्रचलित है, जिसके अनुसार-
इस स्थल के बारे में एक मान्यता प्रचलित है, जिसके अनुसार-


[[लंका]] का राजा [[रावण]] जो भगवान [[शिव]] का परम [[भक्त]] था, उसने एक बार कठोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया। इस तप से प्रसन्न होकर शिव ने रावण को वर मांगने को कहा। वरदान स्वरूप रावण ने शिव जी से अत्मलिंग की मांग रखी। इस पर भगवान शिव ने उसे वह [[शिवलिंग]] दे दिया, परंतु साथ ही एक निर्देश देते हुए कहा की यदि वह इस शिवलिंग को जहाँ भी जमीन मे रखेगा, यह वहीं स्थापित हो जाएगा और फिर वहाँ से इसे कोई डिगा नहीं सकेगा। अत: इसे जमीन पर मत रखना। रावण अत्मलिंग को हाथ में लेकर लंका के लिए निकल पड़ा। इस लिंग की प्राप्ति से वह और भी ज़्यादा ताकतवर एवं अमर हो सकता था। [[नारद मुनि]] को इस बात का पता चला तो उन्होंने भगवान [[गणेश]] से इस दुविधा को हल करने की मदद मांगी। इस पर भगवान गणेश को एक तरकीब सूझी, जिसके तहत उन्होंने [[सूर्य]] को ढँक कर संध्या का भ्रम निर्मित किया।
[[लंका]] का राजा [[रावण]] जो भगवान [[शिव]] का परम [[भक्त]] था, उसने एक बार कठोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया। इस तप से प्रसन्न होकर शिव ने रावण को वर मांगने को कहा। वरदान स्वरूप रावण ने शिव जी से अत्मलिंग की मांग रखी। इस पर भगवान शिव ने उसे वह [[शिवलिंग]] दे दिया, परंतु साथ ही एक निर्देश देते हुए कहा की यदि वह इस शिवलिंग को जहाँ भी जमीन मे रखेगा, यह वहीं स्थापित हो जाएगा और फिर वहाँ से इसे कोई डिगा नहीं सकेगा। अत: इसे जमीन पर मत रखना। रावण अत्मलिंग को हाथ में लेकर लंका के लिए निकल पड़ा। इस लिंग की प्राप्ति से वह और भी ज़्यादा ताकतवर एवं अमर हो सकता था। [[नारद मुनि]] को इस बात का पता चला तो उन्होंने भगवान [[गणेश]] से इस दुविधा को हल करने की मदद मांगी। इस पर भगवान गणेश को एक तरकीब सूझी, जिसके तहत उन्होंने [[सूर्य]] को ढँक कर संध्या का भ्रम निर्मित किया।


रावण जो नियमित रूप से सांध्य [[पूजा]] किया करता था, इस शिवलिंग के कारण धर्म संकट में पड़ गया। इस बीच गणेश जी [[ब्राह्मण]] के वेश में वहाँ प्रकट हुए। रावण ने उस ब्राह्मण स्वरूप गणेश से आग्रह किया कि वह उस अत्मलिंग को कुछ समय के लिए पकड़ ले ताकि वह पूजा कर सके। गणेश भगवान को इसी बात का इंतजार था। अत: उन्होंने शिवलिंग को ले लिया, परंतु रावण के समक्ष यह बात रखी कि यदि उसे देर होती है तो वह आवश्यकता पड़ने पर तीन बार ही रावण को पुकारेगा और यदि वह नहीं आया तो फिर उस शिवलिंग को धरती पर रख देगा। रावण ने बात मान ली। अब वह पूजा करने लगा। रावण के पूजा में ध्यान लगाते ही गणेश जी ने उस लिंग को वहीं भूमि पर जो गोकर्ण क्षेत्र था, रख दिया और अंतर्ध्यान हो गए। जब रावण ने पूजा समाप्त की तो उसने शिवलिंग को भूमि रखा पाया। उसने बहुत प्रयत्न किये, किंतु अब वह लिंग को जमीन से उठा नहीं पाया। तभी से गोकर्ण को भगवान शिव का वास माना जाता है और यह स्थल एक धार्मिक स्थल के रूप में महत्वपूर्ण हो गया।
रावण जो नियमित रूप से सांध्य [[पूजा]] किया करता था, इस शिवलिंग के कारण धर्म संकट में पड़ गया। इस बीच गणेश जी [[ब्राह्मण]] के वेश में वहाँ प्रकट हुए। रावण ने उस ब्राह्मण स्वरूप गणेश से आग्रह किया कि वह उस अत्मलिंग को कुछ समय के लिए पकड़ ले ताकि वह पूजा कर सके। गणेश भगवान को इसी बात का इंतज़ार था। अत: उन्होंने शिवलिंग को ले लिया, परंतु रावण के समक्ष यह बात रखी कि यदि उसे देर होती है तो वह आवश्यकता पड़ने पर तीन बार ही रावण को पुकारेगा और यदि वह नहीं आया तो फिर उस शिवलिंग को धरती पर रख देगा। रावण ने बात मान ली। अब वह पूजा करने लगा। रावण के पूजा में ध्यान लगाते ही गणेश जी ने उस लिंग को वहीं भूमि पर जो गोकर्ण क्षेत्र था, रख दिया और अंतर्ध्यान हो गए। जब रावण ने पूजा समाप्त की तो उसने शिवलिंग को भूमि रखा पाया। उसने बहुत प्रयत्न किये, किंतु अब वह लिंग को जमीन से उठा नहीं पाया। तभी से गोकर्ण को भगवान शिव का वास माना जाता है और यह स्थल एक धार्मिक स्थल के रूप में महत्त्वपूर्ण हो गया।
==मुख्य मंदिर==
==मुख्य मंदिर==
गोकर्ण में वैसे तो कई मंदिर हैं, किंतु यहाँ का मुरुदेश्वर मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है। इसके साथ ही महागणपति मंदिर भी है, जो भगवान गणेश को समर्पित है। गणेश ने ही यहाँ [[शिवलिंग]] की स्थापना करवाई थी, अत: उनके नाम पर इस मंदिर का निर्माण हुआ। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रमुख मंदिर, जैसे- भद्रकाली मंदिर, उमा महेश्वरी मंदिर, वरदराज मंदिर, ताम्रगौरी मंदिर, सेजेश्वर, गुणवंतेश्वर और धारेश्वर मंदिर भी स्थापित हैं।
गोकर्ण में वैसे तो कई मंदिर हैं, किंतु यहाँ का मुरुदेश्वर मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है। इसके साथ ही महागणपति मंदिर भी है, जो भगवान गणेश को समर्पित है। गणेश ने ही यहाँ [[शिवलिंग]] की स्थापना करवाई थी, अत: उनके नाम पर इस मंदिर का निर्माण हुआ। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रमुख मंदिर, जैसे- भद्रकाली मंदिर, उमा महेश्वरी मंदिर, वरदराज मंदिर, ताम्रगौरी मंदिर, सेजेश्वर, गुणवंतेश्वर और धारेश्वर मंदिर भी स्थापित हैं।

10:50, 10 मई 2016 के समय का अवतरण

गोकर्ण एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- गोकर्ण (बहुविकल्पी)

गोकर्ण कर्नाटक के पास बसा एक पवित्र हिन्दू धार्मिक क्षेत्र है। इस पावन धार्मिक स्थल से लोगों की गहरी आस्थाएँ जुड़ी हैं। इसके साथ ही यहाँ का रमणीक और मनोरम वातावरण तथा ख़ूबसूरत समुद्र के किनारे सभी को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। कर्नाटक का छोटा-सा स्थल गोकर्ण अपने ऐतिहासिक मंदिरों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। गोकर्ण का अर्थ है- 'गाय का कान। यह माना जाता है कि भगवान शिव का जन्म गाय के कान से हुआ, जिस कारण लोग इस स्थल को 'गोकर्ण' के नाम से पुकारते हैं।

आस्था का केन्द्र

यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि नदियों के संगम पर बसे इस गाँव का आकार भी एक कान जैसा ही प्रतीत होता है। यहाँ अनेक ख़ूबसूरत मंदिर हैं, जो लोगों की आस्था का केन्द्र हैं। यहाँ दो महत्त्वपूर्ण नदियों, 'गंगावली' और 'अघनाशिनी' का संगम भी देखने को मिलता है। गोकर्ण में स्थित महाबलेश्वर मंदिर इस जगह का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। भगवान शिव का यह मंदिर पश्चिमी घाट पर बसा है तथा कर्नाटक के सात मुख्य मुक्ति स्थलों में से एक माना जाता है।

पौराणिक उल्लेख

महाभारत आदिपर्व[1] में गोकर्ण का उल्लेख अर्जुन की वनवास यात्रा के प्रसंग में इस प्रकार है-

'आद्यं पशुपते: स्थानं दर्शनादेव मुक्तिदम्, यत्र पापोऽपि मनुज: प्राप्नोत्यभयं पदम्।'

'अथ गोकर्णमासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्, समुद्र मध्ये राजेन्द्र सर्वलोक नमस्कृतम्।'

'ताम्रपर्णी तु कैन्तेय कीर्तयिष्यामि तां श्रुणु यत्र देवैस्तपस्तप्तं महदिच्छदिभराश्रमे गाकर्ण इति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु भारत।'

'अयरोधसि दक्षिणोदधे: श्रितगोकर्ण निकेतमीश्वरम्, उपवीणयितुं ययौ रवेरुदयावृतिपथेन नारद:।'

  • उपर्युक्त उल्लेख में गोकर्ण को भगवान शिव का 'निकेत' अथवा 'गृह' बताया गया है।

कथा

इस स्थल के बारे में एक मान्यता प्रचलित है, जिसके अनुसार-

लंका का राजा रावण जो भगवान शिव का परम भक्त था, उसने एक बार कठोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया। इस तप से प्रसन्न होकर शिव ने रावण को वर मांगने को कहा। वरदान स्वरूप रावण ने शिव जी से अत्मलिंग की मांग रखी। इस पर भगवान शिव ने उसे वह शिवलिंग दे दिया, परंतु साथ ही एक निर्देश देते हुए कहा की यदि वह इस शिवलिंग को जहाँ भी जमीन मे रखेगा, यह वहीं स्थापित हो जाएगा और फिर वहाँ से इसे कोई डिगा नहीं सकेगा। अत: इसे जमीन पर मत रखना। रावण अत्मलिंग को हाथ में लेकर लंका के लिए निकल पड़ा। इस लिंग की प्राप्ति से वह और भी ज़्यादा ताकतवर एवं अमर हो सकता था। नारद मुनि को इस बात का पता चला तो उन्होंने भगवान गणेश से इस दुविधा को हल करने की मदद मांगी। इस पर भगवान गणेश को एक तरकीब सूझी, जिसके तहत उन्होंने सूर्य को ढँक कर संध्या का भ्रम निर्मित किया।

रावण जो नियमित रूप से सांध्य पूजा किया करता था, इस शिवलिंग के कारण धर्म संकट में पड़ गया। इस बीच गणेश जी ब्राह्मण के वेश में वहाँ प्रकट हुए। रावण ने उस ब्राह्मण स्वरूप गणेश से आग्रह किया कि वह उस अत्मलिंग को कुछ समय के लिए पकड़ ले ताकि वह पूजा कर सके। गणेश भगवान को इसी बात का इंतज़ार था। अत: उन्होंने शिवलिंग को ले लिया, परंतु रावण के समक्ष यह बात रखी कि यदि उसे देर होती है तो वह आवश्यकता पड़ने पर तीन बार ही रावण को पुकारेगा और यदि वह नहीं आया तो फिर उस शिवलिंग को धरती पर रख देगा। रावण ने बात मान ली। अब वह पूजा करने लगा। रावण के पूजा में ध्यान लगाते ही गणेश जी ने उस लिंग को वहीं भूमि पर जो गोकर्ण क्षेत्र था, रख दिया और अंतर्ध्यान हो गए। जब रावण ने पूजा समाप्त की तो उसने शिवलिंग को भूमि रखा पाया। उसने बहुत प्रयत्न किये, किंतु अब वह लिंग को जमीन से उठा नहीं पाया। तभी से गोकर्ण को भगवान शिव का वास माना जाता है और यह स्थल एक धार्मिक स्थल के रूप में महत्त्वपूर्ण हो गया।

मुख्य मंदिर

गोकर्ण में वैसे तो कई मंदिर हैं, किंतु यहाँ का मुरुदेश्वर मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है। इसके साथ ही महागणपति मंदिर भी है, जो भगवान गणेश को समर्पित है। गणेश ने ही यहाँ शिवलिंग की स्थापना करवाई थी, अत: उनके नाम पर इस मंदिर का निर्माण हुआ। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रमुख मंदिर, जैसे- भद्रकाली मंदिर, उमा महेश्वरी मंदिर, वरदराज मंदिर, ताम्रगौरी मंदिर, सेजेश्वर, गुणवंतेश्वर और धारेश्वर मंदिर भी स्थापित हैं।

पंच महाक्षेत्र

गोकर्ण को 'पंच महाक्षेत्र' के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ के मंदिरों की बनावट, शिल्प कला बहुत ही सुंदर प्रतीत होती है, जिनमे चालुक्य एवं कदम्ब शैलियों का मिश्रित प्रभाव भी देखने को मिलता है़। मन्दिर के अन्दर के शिल्प और कलात्मकता लुभावनी है।


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संबंधित लेख

  1. आदिपर्व 216, 34-35
  2. वनपर्व 85, 24-29
  3. वनपर्व 88, 14-15
  4. वनपर्व 88, 17.
  5. रघुवंश 8, 33