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'''नृग''' प्राचीन काल के एक ख्याति प्राप्त राजा थे, जो [[इक्ष्वाकु]] के पुत्र थे। राजा नृग अपनी दानशीलता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। एक बार भूल से राजा नृग ने पहले दान की हुई [[गाय]] को फिर से दूसरे [[ब्राह्मण]] को दान दे दिया। यद्यपि इसका ज्ञान राजा नृग को दान देते समय नहीं था, किंतु इसके फलस्वरूप ब्राह्मणों के शाप के कारण राजा नृग को गिरगिट होकर एक सहस्र [[वर्ष]] तक कुएँ में रहना पड़ा। अंत में [[कृष्ण]] [[अवतार]] के समय नृग का उद्धार हुआ।<ref>भागवतपुराण 10.64.10-30; 43, 44(1); 10.37.17</ref> | '''नृग''' प्राचीन काल के एक ख्याति प्राप्त राजा थे, जो [[इक्ष्वाकु]] के पुत्र थे। राजा नृग अपनी दानशीलता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। एक बार भूल से राजा नृग ने पहले दान की हुई [[गाय]] को फिर से दूसरे [[ब्राह्मण]] को दान दे दिया। यद्यपि इसका ज्ञान राजा नृग को दान देते समय नहीं था, किंतु इसके फलस्वरूप ब्राह्मणों के शाप के कारण राजा नृग को गिरगिट होकर एक सहस्र [[वर्ष]] तक कुएँ में रहना पड़ा। अंत में [[कृष्ण]] [[अवतार]] के समय नृग का उद्धार हुआ।<ref>भागवतपुराण 10.64.10-30; 43, 44(1); 10.37.17</ref> | ||
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10:21, 11 मई 2016 के समय का अवतरण
नृग प्राचीन काल के एक ख्याति प्राप्त राजा थे, जो इक्ष्वाकु के पुत्र थे। राजा नृग अपनी दानशीलता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। एक बार भूल से राजा नृग ने पहले दान की हुई गाय को फिर से दूसरे ब्राह्मण को दान दे दिया। यद्यपि इसका ज्ञान राजा नृग को दान देते समय नहीं था, किंतु इसके फलस्वरूप ब्राह्मणों के शाप के कारण राजा नृग को गिरगिट होकर एक सहस्र वर्ष तक कुएँ में रहना पड़ा। अंत में कृष्ण अवतार के समय नृग का उद्धार हुआ।[1]
कथा
एक दिन लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा, "महाराज! आप राजकाज में इतने व्यस्त रहते हैं कि अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखते"।[2] यह सुनकर रामचन्द्रजी बोले, "लक्ष्मण! राजा को राजकाज में पूर्णतया लीन रहना ही चाहिये। तनिक सी असावधानी हो जाने पर उसे राजा नृग की भाँति भयंकर यातना भोगनी पड़ती है।" लक्ष्मण के जिज्ञासा करने पर उन्होंने राजा नृग की कथा सुनाते हुये कहा-
"पहले इस पृथ्वी पर महायशस्वी राजा नृग राज्य करते थे। वे बड़े धर्मात्मा और सत्यवादी थे। एक बार उन्होंने तीर्थराज पुष्कर में जाकर स्वर्ण विभूषित बछड़ों युक्त एक करोड़ गौओं का दान किया। उसी समय उन गौओं के साथ एक दरिद्र ब्राह्मण की गाय बछड़े सहित आकर मिल गई और राजा नृग ने संकल्पपूर्वक उसे किसी ब्राह्मण को दान कर दिया। उधर वह दरिद्र ब्राह्मण वर्षों तक स्थान-स्थान पर अपनी गाय को ढूँढता रहा। अन्त में उसने कनखल में एक ब्राह्मण के यहाँ अपनी गाय को पहचान लिया। गाय का नाम 'शवला' था। जब उसने गाय को नाम लेकर पुकारा तो वह गाय उस दरिद्र ब्राह्मण के पीछे-पीछी चली आई। इस पर दोनों ब्राह्मणों में विवाद हो गया।[2]
एक कहता था कि गाय मेरी है और दूसरा कहता कि मुझे यह राजा ने दान में दी है। दोनों झगड़ते हुये राजा नृग के यहाँ पहुँचे। राजकाज में व्यस्त रहने के कारण जब कई दिन तक नृग ने उनसे भेंट नहीं की तो उन्होंने शाप दे दिया कि विवाद का निर्णय कराने की इच्छा से आये प्रार्थियों को तुमने कई दिन तक दर्शन नहीं दिये, इसलिये तुम प्राणियों से छिपकर रहने वाले गिरगिट हो जाओगे और सहस्त्रों वर्ष तक गड्ढे में पड़े रहोगे। भगवान विष्णु जब कृष्ण के रूप में अवतार लेंगे, तब वे ही तुम्हारा उद्धार करेंगे। इस प्रकार राजा नृग आज भी अपनी उस भूल का दण्ड भुगत रहे हैं। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि जब भी कोई कार्यार्थी द्वार पर आये, उसे सदा मेरे सामने तत्काल उपस्थित किया करो।" राम का आदेश सुनकर लक्ष्मण बोले, "राघव! ब्राह्मणों का शाप सुनकर राजा नृग ने क्या किया?" इस प्रश्न के उत्तर में श्रीराम ने बताया, "जब दोनों ब्राह्मण शाप देकर चले गये तो राजा ने अपने मन्त्री को भेजकर उन्हें वापिस बुलाया और उनसे क्षमा याचना की। फिर एक सुन्दर सा गड्ढा बनवाकर और अपने पुत्र राजकुमार वसु को अपना राज्य सौंपकर उस गड्ढे में निवास करने लगे।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवतपुराण 10.64.10-30; 43, 44(1); 10.37.17
- ↑ 2.0 2.1 राजा नृग की कथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 सितम्बर, 2013।