"छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-4 खण्ड-1 से 3": अवतरणों में अंतर

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*राजा ने हंसों की बातें सुनी, तो रैक्व की तलाश करायी गयी। बड़ी कठिनाई से रैक्व मिला।  
*राजा अनेक उपहार लेकर उसके पास गया, पर उसने 'ब्रह्मज्ञान' देने से मना कर दिया। राजा दूसरी बार अपनी राजकुमारी को लेकर रैक्व के पास गया। रैक्व ने राजकन्या का आदर रखने के लिए राजा को 'ब्रह्मज्ञान' दिया।  
*राजा अनेक उपहार लेकर उसके पास गया, पर उसने 'ब्रह्मज्ञान' देने से मना कर दिया। राजा दूसरी बार अपनी राजकुमारी को लेकर रैक्व के पास गया। रैक्व ने राजकन्या का आदर रखने के लिए राजा को 'ब्रह्मज्ञान' दिया।  
*'हे राजन! देवताओं में 'वायु' और इन्द्रियों में 'प्राण' ये दो ही संवर्ग (अपनी ओर खींचकर भक्षण करना) हैं। इन्हें ही 'ब्रह्मरूप' समझकर इनकी उपासना करना उत्तम है; क्योंकि अग्नि जब शान्त होती है, तो वह वायु में विलीन हो जाती है।  
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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-4 खण्ड-1 से 3
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
विवरण 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है।
अध्याय चौथा
कुल खण्ड 17 (सत्रह)
सम्बंधित वेद सामवेद
संबंधित लेख उपनिषद, वेद, वेदांग, वैदिक काल, संस्कृत साहित्य
अन्य जानकारी सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं।

छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय चौथे का यह प्रथम से तीसरा खण्ड है।

  • एक बार प्रसिद्ध राजा जनश्रुति के महल के ऊपर से दो हंस बातें करते हुए उड़े जा रहे थे। यद्यपि राजा के महल से 'ब्रह्मज्ञान' का तेज प्रकट हो रहा था, तथापि हंसों की दृष्टि में वह तेज इतना तीव्र नहीं था, जितना कि गाड़ीवान रैक्व का था।
  • राजा ने हंसों की बातें सुनी, तो रैक्व की तलाश करायी गयी। बड़ी कठिनाई से रैक्व मिला।
  • राजा अनेक उपहार लेकर उसके पास गया, पर उसने 'ब्रह्मज्ञान' देने से मना कर दिया। राजा दूसरी बार अपनी राजकुमारी को लेकर रैक्व के पास गया। रैक्व ने राजकन्या का आदर रखने के लिए राजा को 'ब्रह्मज्ञान' दिया।
  • 'हे राजन! देवताओं में 'वायु' और इन्द्रियों में 'प्राण' ये दो ही संवर्ग (अपनी ओर खींचकर भक्षण करना) हैं। इन्हें ही 'ब्रह्मरूप' समझकर इनकी उपासना करना उत्तम है; क्योंकि अग्नि जब शान्त होती है, तो वह वायु में विलीन हो जाती है। उसी प्रकार जल जब सूखता है, तो वायु में समाहित हो जाता है। यही वायु मनुष्य के शरीर में 'प्राण' रूप में स्थित है। इसे आधिदैविक उपासना कहते हैं। साधक के सोने पर मनुष्य के शरीर में 'प्राण' उसकी समस्त वागेन्द्रियों को अपने भीतर समेट लेता है। प्राण में ही चक्षु, श्रोत्र और मन समाहित हो जाते हैं। इस प्रकार प्राणवायु ही सबको अपने भीतर समाहित करने वाला है। यही सत्यरूप आध्यात्मिक तत्त्व है।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-1

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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-2

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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-3

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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6

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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-7

खण्ड-1 से 15 | खण्ड-16 से 26

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-8

खण्ड-1 से 6 | खण्ड-7 से 15