"पाँचरात्र मत": अवतरणों में अंतर
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पाँचरात्र मतानुसार [[वासुदेव]], [[संकर्षण]], [[प्रद्युम्न|प्रद्यम्न]] और [[अनिरुद्ध]] का श्री कृष्ण के चरित्र से अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी आधार पर पाँचरात्र का चातुर्व्यूह सिद्धान्त गठित हुआ है। 'व्यूह' का शाब्दिक अर्थ है 'विस्तार', जिसके अनुसार विष्णु का विस्तार होता है। वासुदेव स्वयं विष्णु हैं, जो परम तत्त्व हैं। वासुदेव से संकर्षण (महत्तत्त्व, प्रकृति), संकर्षण से प्रद्युम्न (मनस्, विश्वजनीन), प्रद्युम्न से अनिरुद्ध (अहंकार, विश्वजनीन आत्मचेतना) और अनिरुद्ध से [[ब्रह्मा]] (स्रष्टा, दृश्य | पाँचरात्र मतानुसार [[वासुदेव]], [[संकर्षण]], [[प्रद्युम्न|प्रद्यम्न]] और [[अनिरुद्ध]] का श्री कृष्ण के चरित्र से अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी आधार पर पाँचरात्र का चातुर्व्यूह सिद्धान्त गठित हुआ है। 'व्यूह' का शाब्दिक अर्थ है 'विस्तार', जिसके अनुसार विष्णु का विस्तार होता है। वासुदेव स्वयं विष्णु हैं, जो परम तत्त्व हैं। वासुदेव से संकर्षण (महत्तत्त्व, प्रकृति), संकर्षण से प्रद्युम्न (मनस्, विश्वजनीन), प्रद्युम्न से अनिरुद्ध (अहंकार, विश्वजनीन आत्मचेतना) और अनिरुद्ध से [[ब्रह्मा]] (स्रष्टा, दृश्य जगत् के) की उत्पत्ति होती है। | ||
पाँचरात्र मत में वेदों को पूरा-पूरा महत्व तो दिया ही गया है, साथ ही वैदिक यज्ञ क्रियाएँ भी इसी तरह मान्य की गई हैं। हाँ, [[यज्ञ]] का अर्थ, अहिंसायुक्त वैष्णव यज्ञ है। | पाँचरात्र मत में वेदों को पूरा-पूरा महत्व तो दिया ही गया है, साथ ही वैदिक यज्ञ क्रियाएँ भी इसी तरह मान्य की गई हैं। हाँ, [[यज्ञ]] का अर्थ, अहिंसायुक्त वैष्णव यज्ञ है। | ||
कहा जाता है कि यह निष्काम भक्ति का मार्ग है, इसी से इसे 'ऐकान्तिक' भी कहते हैं। | कहा जाता है कि यह निष्काम भक्ति का मार्ग है, इसी से इसे 'ऐकान्तिक' भी कहते हैं। | ||
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13:59, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
पाँचरात्र मत वैष्णव सम्प्रदाय का ही एक रूप है। इस मत के सिद्धान्तानुसार सृष्टि की सब वस्तुएँ पुरुष, प्रकृति, स्वभाव, कर्म और देव'-इन पाँच कारणों से उत्पन्न होती हैं[1]। पाँचरात्र मत को पाँच प्रकार की ज्ञानभूमि पर विचारित होने के कारण 'पाँचरात्र' कहा गया है-
'रात्रं च ज्ञानवचनं ज्ञानं पंचविधं स्मृतम्'।
विकास तथा विष्णु मान्यता
महाभारत काल तक इस मत का विकास हो चुका था। ईश्वर की सगुण उपासना करने की परिपाटी शिव और विष्णु की उपासना से प्रचलित हुई। फिर भी वैदिक काल में ही यह बात मान्य हो गई थी कि देवताओं में विष्णु का श्रेष्ठ स्थान है। इसी आधार पर वैष्णव धर्म का मार्ग धीरे-धीरे प्रशस्त होता गया और महाभारत काल में उसे 'पाँचरात्र' सत्ता मिली। इस मत की वास्तविक नींव भगवदगीता में प्रतिष्ठित है, जिससे यह बात सर्वमान्य हुई की श्री कृष्ण विष्णु के अवतार हैं। अतएव पाँचरात्र मत की मुख्य शिक्षा कृष्ण की भक्ति ही है। परमेश्वर के रूप में कृष्ण की भक्ति करने वाले उनके समय में भी थे, जिनमें गोपियाँ मुख्य थीं। उनके अतिरिक्त और भी बहुत से लोग थे।
आध्यात्मिक विवेचन
इस मत के मूल आधार नारायण हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर में "सनातन विश्वात्मा से नर, नारायण, हरि और कृष्ण चार मूर्तियाँ उत्पन्न हुईं। नर-नारायण ऋषियों ने बदरिकाश्रम में तप किया। नारद ने वहाँ जाकर उनसे प्रश्न किया। इस पर उन्होंने नारद को पाँचरात्र धर्म सुनाया।" इस धर्म का पहला अनुयायी राजा उपरिचर वसु हुआ। इसी ने पाँचरात्र विधि से पहले नारायण की पूजा की। चित्रशिखण्डी उपनामक सप्त ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाँत्ररात्र शास्त्र तैयार किया। स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ हैं। इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों का विवेचन है। यह ग्रन्थ पहले एक लाख श्लोकों का था, ऐसा विश्वास किया जाता है। इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग हैं। दोनों मार्गों का यह आधार स्तम्भ है।
सिद्धान्त संगठन
पाँचरात्र मतानुसार वासुदेव, संकर्षण, प्रद्यम्न और अनिरुद्ध का श्री कृष्ण के चरित्र से अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी आधार पर पाँचरात्र का चातुर्व्यूह सिद्धान्त गठित हुआ है। 'व्यूह' का शाब्दिक अर्थ है 'विस्तार', जिसके अनुसार विष्णु का विस्तार होता है। वासुदेव स्वयं विष्णु हैं, जो परम तत्त्व हैं। वासुदेव से संकर्षण (महत्तत्त्व, प्रकृति), संकर्षण से प्रद्युम्न (मनस्, विश्वजनीन), प्रद्युम्न से अनिरुद्ध (अहंकार, विश्वजनीन आत्मचेतना) और अनिरुद्ध से ब्रह्मा (स्रष्टा, दृश्य जगत् के) की उत्पत्ति होती है। पाँचरात्र मत में वेदों को पूरा-पूरा महत्व तो दिया ही गया है, साथ ही वैदिक यज्ञ क्रियाएँ भी इसी तरह मान्य की गई हैं। हाँ, यज्ञ का अर्थ, अहिंसायुक्त वैष्णव यज्ञ है। कहा जाता है कि यह निष्काम भक्ति का मार्ग है, इसी से इसे 'ऐकान्तिक' भी कहते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 394 |
- ↑ (गीता, 18.14)
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