"छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-3 खण्ड-13 से 19": अवतरणों में अंतर

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*आदित्य (ब्रह्म) दर्शन अन्त:हृदय में किया जा सकता है। इन खण्डों में 'आदित्य' को ही 'ब्रह्म' स्वीकार किया गया है और उसकी परमज्योति को ही ब्रह्म-दर्शन माना गया है। इस ज्योति-दर्शन के पांच विभाग भी बताये गये हैं। यह ब्रह्म-दर्शन मनुष्य अपने हृदय में ही कर पाता है। उस अन्त:हृदय के पांच देवों से सम्बन्धित पांच विभाग हैं-
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*जो साधक इस प्रकार जानकर इनकी उपासना करता है, वह ओजस्वी और महान तेजस्वी होता है। स्वर्गलोक के ऊपर जो ज्योति प्रकाशित होती है, वही सम्पूर्ण विश्व में सबके ऊपर प्रकाशित होती है वही पुरुष की अन्त:ज्योति है, अन्तश्चेतना है।  
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*यह सम्पूर्ण जगत निश्चय ही ब्रह्मस्वरूप है। यह उसी से उत्पन्न होता है और उसी में लय हो जाता है तथा उसी के द्वारा संचालित होता है। राग-द्वेष से रहित होकर ही शान्त भाव से इसकी उपासना करनी चाहिए।  
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[[छान्दोग्य उपनिषद]] के [[छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-3|अध्याय तीसरे]] का यह तेरह से उन्नीसवाँ खण्ड है।
==पांच विभाग==
इन खण्डों में '[[आदित्य देवता|आदित्य]]' को ही 'ब्रह्म' स्वीकार किया गया है और उसकी परमज्योति को ही ब्रह्म-दर्शन माना गया है। इस ज्योति-दर्शन के पांच विभाग भी बताये गये हैं। यह ब्रह्म-दर्शन मनुष्य अपने हृदय में ही कर पाता है। उस अन्त:हृदय के पांच देवों से सम्बन्धित पांच विभाग हैं-
#'''पूर्ववर्ती विभाग''' - प्राण, चक्षु, आदित्य, तेजस् और अन्न।  
#'''दक्षिणावर्ती विभाग''' - व्यान, श्रोत्र, चन्द्रमा, श्रीसम्पदा और यश।  
#'''पश्चिमी विभाग''' - अपान, वाणी, [[अग्नि]], ब्रह्मतेज और अन्न।  
#'''उत्तरी विभाग''' - समान, मन, पर्जन्य, कीर्ति और व्युष्टि (शारीरिक आकर्षण)।
#'''ऊर्ध्व विभाग''' - उदान, वायु, आकाश, ओज और मह: (आनन्द तेज)।
 
*जो साधक इस प्रकार जानकर इनकी उपासना करता है, वह ओजस्वी और महान् तेजस्वी होता है। स्वर्गलोक के ऊपर जो ज्योति प्रकाशित होती है, वही सम्पूर्ण विश्व में सबके ऊपर प्रकाशित होती है, वही पुरुष की अन्त:ज्योति है, अन्तश्चेतना है।  
*यह सम्पूर्ण जगत् निश्चय ही ब्रह्मस्वरूप है। यह उसी से उत्पन्न होता है और उसी में लय हो जाता है तथा उसी के द्वारा संचालित होता है। राग-द्वेष से रहित होकर ही शान्त भाव से इसकी उपासना करनी चाहिए।  
*यह पुरुष् ही यज्ञ है और प्राण ही वायु हैं। ये सभी को आवास देने वाले हैं। जो भोगों में लिप्त नहीं होता, वही उसकी दीक्षा है।  
*यह पुरुष् ही यज्ञ है और प्राण ही वायु हैं। ये सभी को आवास देने वाले हैं। जो भोगों में लिप्त नहीं होता, वही उसकी दीक्षा है।  


*'''[[अंगिरस]] ऋषि ने [[देवकी]]-पुत्र श्री[[कृष्ण]] को तत्त्वदर्शन का उपदेश दिया थां उससे वे सभी तरह की पिपासाओं से मुक्त हो गये थे। साधक को मृत्युकाल में तीन मन्त्रों का स्मरण करना चाहिए-'''
*[[अंगिरस|अंगिरस ऋषि]] ने [[देवकी]]-पुत्र श्री[[कृष्ण]] को तत्त्वदर्शन का उपदेश दिया थां उससे वे सभी तरह की पिपासाओं से मुक्त हो गये थे। साधक को मृत्युकाल में तीन मन्त्रों का स्मरण करना चाहिए-
'''(तध्दैत्दघोर आगिंरस कृष्ण्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स बभूव सोऽन्तवेलायामेतत्त्रय प्रतिपद्ये ताक्षितमस्यच्युतमसि प्राण्सँशितमसीति तत्रैते द्वे ॠचौ भवत: ॥)'''


*मृत्युकाल के तीन मन्त्र
"तध्दैत्दघोर आगिंरस कृष्ण्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स बभूव सोऽन्तवेलायामेतत्त्रय प्रतिपद्ये ताक्षितमस्यच्युतमसि प्राण्सँशितमसीति तत्रैते द्वे ॠचौ भवत: ॥"
#तुम अक्षय, अनश्वर-स्वरूप हो,
==मृत्युकाल के तीन मन्त्र==
#तुम अच्युत-अटल, पतित न होने वाले हो तथा
#तुम अक्षय, अनश्वर-स्वरूप हो
#तुम अतिसूक्ष्म प्राणस्वरूप हो।
#तुम अच्युत-अटल, पतित न होने वाले हो
*ब्रह्मज्ञानी अन्धकार (अज्ञान) से निकलकर परब्रह्म के प्रकाश को देखते हुए और आत्म-ज्योति में ही देदीप्यमान सूर्य की सर्वोत्तम ज्योति को प्राप्त करता है। यह मन ही ब्रह्म-स्वरूप है। हमें इसी की उपासना करनी चाहिए।
#तुम अतिसूक्ष्म प्राणस्वरूप हो
*मनोमय ब्रह्म के चार पाद (चरण)। मनोमय ब्रह्म के चार पाद हैं- वाणी, प्राण, चक्षु और श्रोत्र। इनके द्वारा ही साधक मनोमय ब्रह्म की दिव्य ज्योति का दर्शन कर पाता है, उसके आनन्दमय स्वरूप को अनुभव कर पाता है तथा उसकी आदित्य-रूप ज्योति से दीप्तिमान होकर तेजस्वी हो पाता है।
*'आदित्य' ही ब्रह्म है। जो यह जानकर उपासना करता है, उसके समीप सुखप्रद 'नाद' सुनाई देता है और वह नाद ही उसे सुख तथा सन्तोष प्रदान करता है।
*आदिकाल में यह आदित्य अदृश्य रूप में था। बाद में यह सतरूप (प्रत्यक्ष) में प्रकट हुआ।
*वह विकसित होकर अण्डे के रूप में परिवर्तित हुआ। कालान्तर में वह अण्डा विकसित हुआ और फूटा।
*उसके दो खण्ड हुए- एक रजत और एक स्वर्ण। रजत खण्ड पृथ्वी है और स्वर्ण खण्ड द्युलोक (अन्तरिक्ष) है। उस अण्डे से जो उत्पन्न हुआ, वह आदित्य ही है। यही आदित्य 'ब्रह्म' है।


*ब्रह्मज्ञानी अन्धकार (अज्ञान) से निकलकर परब्रह्म के प्रकाश को देखते हुए और आत्म-ज्योति में ही देदीप्यमान [[सूर्य]] की सर्वोत्तम ज्योति को प्राप्त करता है। यह मन ही ब्रह्म-स्वरूप है। हमें इसी की उपासना करनी चाहिए।
*मनोमय ब्रह्म के चार पाद (चरण)। मनोमय ब्रह्म के चार पाद हैं- वाणी, प्राण, चक्षु और श्रोत्र। इनके द्वारा ही साधक मनोमय ब्रह्म की दिव्य ज्योति का दर्शन कर पाता है, उसके आनन्दमय स्वरूप को अनुभव कर पाता है तथा उसकी आदित्य-रूप ज्योति से दीप्तिमान होकर तेजस्वी हो पाता है।
*'आदित्य' ही ब्रह्म है। जो यह जानकर उपासना करता है, उसके समीप सुखप्रद 'नाद' सुनाई देता है और वह नाद ही उसे सुख तथा सन्तोष प्रदान करता है।
*आदिकाल में यह आदित्य अदृश्य रूप में था। बाद में यह सतरूप (प्रत्यक्ष) में प्रकट हुआ। वह विकसित होकर अण्डे के रूप में परिवर्तित हुआ। कालान्तर में वह अण्डा विकसित हुआ और फूटा। उसके दो खण्ड हुए- एक रजत और एक स्वर्ण। रजत खण्ड [[पृथ्वी]] है और स्वर्ण खण्ड द्युलोक (अन्तरिक्ष) है। उस अण्डे से जो उत्पन्न हुआ, वह आदित्य ही है। यही आदित्य 'ब्रह्म' है।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-3 खण्ड-13 से 19
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
विवरण 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है।
अध्याय तीसरा
कुल खण्ड 19 (उन्नीस)
सम्बंधित वेद सामवेद
संबंधित लेख उपनिषद, वेद, वेदांग, वैदिक काल, संस्कृत साहित्य
अन्य जानकारी सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं।

छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय तीसरे का यह तेरह से उन्नीसवाँ खण्ड है।

पांच विभाग

इन खण्डों में 'आदित्य' को ही 'ब्रह्म' स्वीकार किया गया है और उसकी परमज्योति को ही ब्रह्म-दर्शन माना गया है। इस ज्योति-दर्शन के पांच विभाग भी बताये गये हैं। यह ब्रह्म-दर्शन मनुष्य अपने हृदय में ही कर पाता है। उस अन्त:हृदय के पांच देवों से सम्बन्धित पांच विभाग हैं-

  1. पूर्ववर्ती विभाग - प्राण, चक्षु, आदित्य, तेजस् और अन्न।
  2. दक्षिणावर्ती विभाग - व्यान, श्रोत्र, चन्द्रमा, श्रीसम्पदा और यश।
  3. पश्चिमी विभाग - अपान, वाणी, अग्नि, ब्रह्मतेज और अन्न।
  4. उत्तरी विभाग - समान, मन, पर्जन्य, कीर्ति और व्युष्टि (शारीरिक आकर्षण)।
  5. ऊर्ध्व विभाग - उदान, वायु, आकाश, ओज और मह: (आनन्द तेज)।
  • जो साधक इस प्रकार जानकर इनकी उपासना करता है, वह ओजस्वी और महान् तेजस्वी होता है। स्वर्गलोक के ऊपर जो ज्योति प्रकाशित होती है, वही सम्पूर्ण विश्व में सबके ऊपर प्रकाशित होती है, वही पुरुष की अन्त:ज्योति है, अन्तश्चेतना है।
  • यह सम्पूर्ण जगत् निश्चय ही ब्रह्मस्वरूप है। यह उसी से उत्पन्न होता है और उसी में लय हो जाता है तथा उसी के द्वारा संचालित होता है। राग-द्वेष से रहित होकर ही शान्त भाव से इसकी उपासना करनी चाहिए।
  • यह पुरुष् ही यज्ञ है और प्राण ही वायु हैं। ये सभी को आवास देने वाले हैं। जो भोगों में लिप्त नहीं होता, वही उसकी दीक्षा है।
  • अंगिरस ऋषि ने देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण को तत्त्वदर्शन का उपदेश दिया थां उससे वे सभी तरह की पिपासाओं से मुक्त हो गये थे। साधक को मृत्युकाल में तीन मन्त्रों का स्मरण करना चाहिए-

"तध्दैत्दघोर आगिंरस कृष्ण्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स बभूव सोऽन्तवेलायामेतत्त्रय प्रतिपद्ये ताक्षितमस्यच्युतमसि प्राण्सँशितमसीति तत्रैते द्वे ॠचौ भवत: ॥"

मृत्युकाल के तीन मन्त्र

  1. तुम अक्षय, अनश्वर-स्वरूप हो
  2. तुम अच्युत-अटल, पतित न होने वाले हो
  3. तुम अतिसूक्ष्म प्राणस्वरूप हो
  • ब्रह्मज्ञानी अन्धकार (अज्ञान) से निकलकर परब्रह्म के प्रकाश को देखते हुए और आत्म-ज्योति में ही देदीप्यमान सूर्य की सर्वोत्तम ज्योति को प्राप्त करता है। यह मन ही ब्रह्म-स्वरूप है। हमें इसी की उपासना करनी चाहिए।
  • मनोमय ब्रह्म के चार पाद (चरण)। मनोमय ब्रह्म के चार पाद हैं- वाणी, प्राण, चक्षु और श्रोत्र। इनके द्वारा ही साधक मनोमय ब्रह्म की दिव्य ज्योति का दर्शन कर पाता है, उसके आनन्दमय स्वरूप को अनुभव कर पाता है तथा उसकी आदित्य-रूप ज्योति से दीप्तिमान होकर तेजस्वी हो पाता है।
  • 'आदित्य' ही ब्रह्म है। जो यह जानकर उपासना करता है, उसके समीप सुखप्रद 'नाद' सुनाई देता है और वह नाद ही उसे सुख तथा सन्तोष प्रदान करता है।
  • आदिकाल में यह आदित्य अदृश्य रूप में था। बाद में यह सतरूप (प्रत्यक्ष) में प्रकट हुआ। वह विकसित होकर अण्डे के रूप में परिवर्तित हुआ। कालान्तर में वह अण्डा विकसित हुआ और फूटा। उसके दो खण्ड हुए- एक रजत और एक स्वर्ण। रजत खण्ड पृथ्वी है और स्वर्ण खण्ड द्युलोक (अन्तरिक्ष) है। उस अण्डे से जो उत्पन्न हुआ, वह आदित्य ही है। यही आदित्य 'ब्रह्म' है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-1

खण्ड-1 | खण्ड-2 | खण्ड-3 | खण्ड-4 | खण्ड-5 | खण्ड-6 | खण्ड-7 | खण्ड-8 | खण्ड-9 | खण्ड-10 | खण्ड-11 | खण्ड-12 | खण्ड-13

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-2

खण्ड-1 | खण्ड-2 | खण्ड-3 | खण्ड-4 | खण्ड-5 | खण्ड-6 | खण्ड-7 | खण्ड-8 | खण्ड-9 | खण्ड-10 | खण्ड-11 | खण्ड-12 | खण्ड-13 | खण्ड-14 | खण्ड-15 | खण्ड-16 | खण्ड-17 | खण्ड-18 | खण्ड-19 | खण्ड-20 | खण्ड-21 | खण्ड-22 | खण्ड-23 | खण्ड-24

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-3

खण्ड-1 से 5 | खण्ड-6 से 10 | खण्ड-11 | खण्ड-12 | खण्ड-13 से 19

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-4

खण्ड-1 से 3 | खण्ड-4 से 9 | खण्ड-10 से 17

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-5

खण्ड-1 | खण्ड-2 | खण्ड-3 से 10 | खण्ड-11 से 24

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6

खण्ड-1 से 2 | खण्ड-3 से 4 | खण्ड-5 से 6 | खण्ड-7 | खण्ड-8 | खण्ड-9 से 13 | खण्ड-14 से 16

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-7

खण्ड-1 से 15 | खण्ड-16 से 26

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-8

खण्ड-1 से 6 | खण्ड-7 से 15