"चैतन्य महाप्रभु का जन्म काल": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
छो (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ")
 
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
<br />[[चित्र:Chetanya-Mahaprabhu-1.jpg|thumb|चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
{{चैतन्य महाप्रभु विषय सूची}}
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
|चित्र=Chaitanya-Mahaprabhu-2.jpg
|चित्र का नाम=चैतन्य महाप्रभु
|पूरा नाम=चैतन्य महाप्रभु
|अन्य नाम=विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर
|जन्म= [[18 फ़रवरी]] सन् 1486 ([[फाल्गुन]] [[शुक्लपक्ष|शुक्ल]] [[पूर्णिमा]])
|जन्म भूमि=[[नवद्वीप]] ([[नादिया ज़िला|नादिया]]), [[पश्चिम बंगाल]]
|मृत्यु=सन् 1534
|मृत्यु स्थान=[[पुरी]], [[ओड़िशा|उड़ीसा]]
|अभिभावक=जगन्नाथ मिश्र और शचि देवी
|पालक माता-पिता=
|पति/पत्नी=लक्ष्मी देवी और [[विष्णुप्रिया]]
|संतान=
|कर्म भूमि=[[वृन्दावन]], [[मथुरा]]
|कर्म-क्षेत्र=
|मुख्य रचनाएँ=
|विषय=
|भाषा=
|विद्यालय=
|शिक्षा=
|पुरस्कार-उपाधि=
|प्रसिद्धि=
|विशेष योगदान=
|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=महाप्रभु चैतन्य के विषय में [[वृन्दावनदास ठाकुर|वृन्दावनदास]] द्वारा रचित '[[चैतन्य भागवत]]' नामक [[ग्रन्थ]] में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण [[कृष्णदास कविराज|कृष्णदास]] ने 1590 में '[[चैतन्य चरितामृत]]' शीर्षक से लिखा था।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
[[चैतन्य महाप्रभु|चैतन्य]] के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय [[गौड़]] के शासक थे। उनके यहाँ [[अलाउद्दीन हुसैनशाह|हुसैन ख़ाँ]] नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैन ख़ाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैन ख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैन ख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धि राय उसका कैदी। हुसैन ख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैन ख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती [[मुसलमान]] के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई [[हिन्दू]] सुबुद्धि राय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धि राय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैन ख़ाँ हुसैनशाह बन गया।
[[चैतन्य महाप्रभु|चैतन्य]] के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय [[गौड़]] के शासक थे। उनके यहाँ [[अलाउद्दीन हुसैनशाह|हुसैन ख़ाँ]] नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैन ख़ाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैन ख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैन ख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धि राय उसका कैदी। हुसैन ख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैन ख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती [[मुसलमान]] के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई [[हिन्दू]] सुबुद्धि राय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धि राय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैन ख़ाँ हुसैनशाह बन गया।
[[चित्र:Chetanya-Mahaprabhu-1.jpg|thumb|left|चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]




इसके बाद तो फिर किसी [[हिन्दू]] राज-रजवाड़े में चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप गया। सन 1480 के लगभग [[नदिया]] ([[नवद्वीप]]) के दुर्भाग्य से [[अलाउद्दीन हुसैनशाह|हुसैनशाह]] के कानों में बार-बार यह भनक पड़ी कि नदिया के [[ब्राह्मण]] अपने जन्तर-मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय अत्याचार किये। उनके मन्दिर, पुस्तकालय और सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया। हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण [[परिवार|परिवारों]] को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ न रखा। नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान समय रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था। तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं रहा। पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे। नकटा जीये बुरे हवाल। पाठशालाएँ चलती थीं, नदिया के नाम में अब भी कुछ असर बाक़ी था, मगर सब कुछ फीका पड़ चुका था। लोग सहमी खिसियाई हुई ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर संजीवनी सिद्ध हो रही थी।
इसके बाद तो फिर किसी [[हिन्दू]] राज-रजवाड़े में चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप गया। सन 1480 के लगभग [[नदिया]] ([[नवद्वीप]]) के दुर्भाग्य से [[अलाउद्दीन हुसैनशाह|हुसैनशाह]] के कानों में बार-बार यह भनक पड़ी कि नदिया के [[ब्राह्मण]] अपने जन्तर-मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय अत्याचार किये। उनके मन्दिर, पुस्तकालय और सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया। हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण [[परिवार|परिवारों]] को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ न रखा। नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान् समय रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था। तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं रहा। पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे। नकटा जीये बुरे हवाल। पाठशालाएँ चलती थीं, नदिया के नाम में अब भी कुछ असर बाक़ी था, मगर सब कुछ फीका पड़ चुका था। लोग सहमी खिसियाई हुई ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर संजीवनी सिद्ध हो रही थी।


नदिया में कुछ इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे जो ईश्वर और उसकी बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे। खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-गिने [[वैष्णव]] लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर मनुष्य के लिए हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्ति थे। यह संयोग की बात है कि श्री गौरांग ([[चैतन्य महाप्रभु]]) का जन्म पूर्ण [[चन्द्रग्रहण]] के समय हुआ था। उस समय नदी में [[स्नान]], करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते, आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो चुका है, जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने [[धर्म]] को धर्म और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानी अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाता है। श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-आस्था को मुक्त किया।<ref name="भारतीय साहित्य संग्रह">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=8200 |title=जीवनी/आत्मकथा >> चैतन्य महाप्रभु |accessmonthday= 16 मई|accessyear=2015 |last=नागर |first=अमृतलाल |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिन्दी }} </ref>
नदिया में कुछ इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे जो ईश्वर और उसकी बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे। खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-गिने [[वैष्णव]] लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर मनुष्य के लिए हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्ति थे। यह संयोग की बात है कि श्री गौरांग ([[चैतन्य महाप्रभु]]) का जन्म पूर्ण [[चन्द्रग्रहण]] के समय हुआ था। उस समय नदी में [[स्नान]], करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते, आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो चुका है, जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने [[धर्म]] को धर्म और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानी अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाता है। श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-आस्था को मुक्त किया।<ref name="भारतीय साहित्य संग्रह">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=8200 |title=जीवनी/आत्मकथा >> चैतन्य महाप्रभु |accessmonthday= 16 मई|accessyear=2015 |last=नागर |first=अमृतलाल |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिन्दी }} </ref>
पंक्ति 28: पंक्ति 62:
*[https://www.youtube.com/watch?v=9p99dnKpTVA Shri Chaitanya Mahaprabhu -Hindi movie (youtube)]
*[https://www.youtube.com/watch?v=9p99dnKpTVA Shri Chaitanya Mahaprabhu -Hindi movie (youtube)]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{चैतन्य महाप्रभु}}{{भारत के संत}}{{दार्शनिक}}
{{चैतन्य महाप्रभु}}
[[Category:दार्शनिक]][[Category:हिन्दू धर्म प्रवर्तक और संत]][[Category:हिन्दू धर्म]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:सगुण भक्ति]][[Category:चैतन्य महाप्रभु]][[Category:कवि]][[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:हिन्दू धर्म]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:सगुण भक्ति]][[Category:चैतन्य महाप्रभु]][[Category:साहित्य कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

14:41, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

चैतन्य महाप्रभु विषय सूची
चैतन्य महाप्रभु का जन्म काल
चैतन्य महाप्रभु
चैतन्य महाप्रभु
पूरा नाम चैतन्य महाप्रभु
अन्य नाम विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर
जन्म 18 फ़रवरी सन् 1486 (फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा)
जन्म भूमि नवद्वीप (नादिया), पश्चिम बंगाल
मृत्यु सन् 1534
मृत्यु स्थान पुरी, उड़ीसा
अभिभावक जगन्नाथ मिश्र और शचि देवी
पति/पत्नी लक्ष्मी देवी और विष्णुप्रिया
कर्म भूमि वृन्दावन, मथुरा
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी महाप्रभु चैतन्य के विषय में वृन्दावनदास द्वारा रचित 'चैतन्य भागवत' नामक ग्रन्थ में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण कृष्णदास ने 1590 में 'चैतन्य चरितामृत' शीर्षक से लिखा था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़ के शासक थे। उनके यहाँ हुसैन ख़ाँ नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैन ख़ाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैन ख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैन ख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धि राय उसका कैदी। हुसैन ख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैन ख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई हिन्दू सुबुद्धि राय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धि राय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैन ख़ाँ हुसैनशाह बन गया।

चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, गोवर्धन, मथुरा


इसके बाद तो फिर किसी हिन्दू राज-रजवाड़े में चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप गया। सन 1480 के लगभग नदिया (नवद्वीप) के दुर्भाग्य से हुसैनशाह के कानों में बार-बार यह भनक पड़ी कि नदिया के ब्राह्मण अपने जन्तर-मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय अत्याचार किये। उनके मन्दिर, पुस्तकालय और सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया। हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण परिवारों को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ न रखा। नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान् समय रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था। तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं रहा। पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे। नकटा जीये बुरे हवाल। पाठशालाएँ चलती थीं, नदिया के नाम में अब भी कुछ असर बाक़ी था, मगर सब कुछ फीका पड़ चुका था। लोग सहमी खिसियाई हुई ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर संजीवनी सिद्ध हो रही थी।

नदिया में कुछ इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे जो ईश्वर और उसकी बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे। खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-गिने वैष्णव लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर मनुष्य के लिए हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्ति थे। यह संयोग की बात है कि श्री गौरांग (चैतन्य महाप्रभु) का जन्म पूर्ण चन्द्रग्रहण के समय हुआ था। उस समय नदी में स्नान, करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते, आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो चुका है, जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने धर्म को धर्म और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानी अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाता है। श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-आस्था को मुक्त किया।[1]



पीछे जाएँ
पीछे जाएँ
चैतन्य महाप्रभु का जन्म काल
आगे जाएँ
आगे जाएँ


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नागर, अमृतलाल। जीवनी/आत्मकथा >> चैतन्य महाप्रभु (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 16 मई, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख