"ब्रजभाषा": अवतरणों में अंतर
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'''ब्रजभाषा''' मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक [[भारत]] में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। शुद्ध रूप में यह आज भी [[मथुरा]], [[आगरा]], [[धौलपुर]] और [[अलीगढ़]] ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही काव्य रचना हुई। [[भक्तिकाल]] के कवियों ने अपनी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखी हैं, जिनमें [[सूरदास]], [[रहीम]], [[रसखान]], [[बिहारी लाल]], [[केशवदास|केशव]], [[घनानन्द कवि|घनानन्द]] आदि कवि प्रमुख हैं। हिन्दी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है। | {{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय | ||
|चित्र=Raskhan-2.jpg | |||
|चित्र का नाम=रसखान के दोहे | |||
|विवरण='''ब्रजभाषा''' मूलत: [[ब्रज|ब्रजक्षेत्र]] की बोली है। 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक [[भारत]] में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। | |||
|शीर्षक 1=ब्रजक्षेत्र | |||
|पाठ 1=[[मथुरा]], [[अलीगढ़]], [[आगरा]], [[भरतपुर]] और [[धौलपुर]] में बोली जाती है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रूप [[जयपुर]] के पूर्वी भाग तथा [[बुलंदशहर]], [[मैनपुरी]], [[एटा]], [[बरेली]] और [[बदायूँ]] तक बोला जाता है। | |||
|शीर्षक 2=स्वरूप | |||
|पाठ 2='ब्रजभाषा' में अपना रूपगत प्रकृति औकारांत है यानि कि इसकी एकवचनीय [[पुल्लिंग]] [[संज्ञा]] और [[विशेषण]] प्राय: औकारांत होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। | |||
|शीर्षक 3=क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व | |||
|पाठ 3=ब्रजभाषा में [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]], [[अवधी भाषा|अवधी]], [[बुन्देली बोली|बुन्देली]], [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]], [[पहाड़ी बोली|पहाड़ी]], [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] प्रभावों की झाँई पड़ी और उससे ब्रजभाषा में दीप्ति और अर्थवत्ता आई। | |||
|शीर्षक 4= | |||
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|शीर्षक 10=विशेष | |||
|पाठ 10= [[भक्तिकाल]] के कवियों ने अपनी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखी हैं, जिनमें [[सूरदास]], [[रहीम]], [[रसखान]], [[बिहारी लाल]], [[केशवदास|केशव]], [[घनानन्द कवि|घनानन्द]] आदि कवि प्रमुख हैं। | |||
|संबंधित लेख= | |||
|अन्य जानकारी=आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है। | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
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'''ब्रजभाषा''' मूलत: [[ब्रज|ब्रजक्षेत्र]] की बोली है। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक [[भारत]] में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। शुद्ध रूप में यह आज भी [[मथुरा]], [[आगरा]], [[धौलपुर]] और [[अलीगढ़]] ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही काव्य रचना हुई। [[भक्तिकाल]] के कवियों ने अपनी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखी हैं, जिनमें [[सूरदास]], [[रहीम]], [[रसखान]], [[बिहारी लाल]], [[केशवदास|केशव]], [[घनानन्द कवि|घनानन्द]] आदि कवि प्रमुख हैं। हिन्दी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है। | |||
==संक्षिप्त परिचय== | |||
*'''केन्द्र'''— [[मथुरा]] | |||
*'''बोलने वालों की संख्या'''— 3 करोड़ | |||
*देश के बाहर ताज्जुबेकिस्तान में ब्रजभाषा बोली जाती है, जिसे 'ताज्जुबेकी ब्रजभाषा' कहा जाता है। | |||
*'''साहित्य'''— कृष्ण भक्ति काव्य की एकमात्र भाषा, लगभग सारा [[रीतिकाल|रीतिकाल साहित्य]]। साहित्यिक दृष्टि से हिंदी भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण बोली। साहित्यिक महत्त्व के कारण ही इसे ब्रजबोली नहीं ब्रजभाषा की संज्ञा दी जाती है। मध्यकाल में इस भाषा ने अखिल भारतीय विस्तार पाया। बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम 'ब्रज बुलि' पड़ा। आधुनिक काल तक इस भाषा में साहित्य सृजन होता रहा। पर परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि ब्रजभाषा साहित्यिक सिंहासन से उतार दी गई और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया। | |||
*'''रचनाकार'''— भक्तिकालीन– [[सूरदास]], [[नन्ददास]] आदि। | |||
'''रीतिकाल'''— [[बिहारी लाल|बिहारी]], [[मतिराम]], [[भूषण]], [[देव (कवि)|देव]] आदि। | |||
'''आधुनिक कालीन'''— [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]], जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' आदि। | |||
*'''नमूना'''— एक मथुरा जी के चौबे हे (थे), जो डिल्ली सैहर कौ चलै। गाड़ी वारे बनिया से चौबेजी की भेंट है गई। तो वे चौबे बोले, अर भइया सेठ, कहाँ जायगो। वौ बोलो, महराजा डिल्ली जाऊँगो। तो चौबे बोले, भइया हमऊँ बैठाल्लेय। बनिया बोलो, चार रूपा चलिंगे भाड़े के। चौबे बोले, अच्छा भइया चारी दिंगे। | |||
==ब्रजभाषा का विस्तार== | ==ब्रजभाषा का विस्तार== | ||
'''शुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी''' | {{Main|ब्रजभाषा का विस्तार}} | ||
'''शुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी''' [[मथुरा]], [[अलीगढ़]], [[आगरा]], [[भरतपुर]] और धौलपुर ज़िलों में बोली जाती है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रूप [[जयपुर]] राज्य के पूर्वी भाग तथा [[बुलंदशहर]], [[मैनपुरी]], [[एटा]], [[बरेली]] और [[बदायूँ]] तक बोला जाता है। [[जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन |ग्रियर्सन]] ने अपने भाषा सर्वे में पीलीभीत, [[शाहजहाँपुर]], फ़र्रूख़ाबाद, [[हरदोई]], [[इटावा]] तथा [[कानपुर]] की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूँ की बोली से भिन्न नहीं हैं। अधिक से अधिक हम इन सब ज़िलों की बोली को 'पूर्वी ब्रज' कह सकते हैं। सच तो यह है कि, [[बुन्देलखंड]] की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली 'दक्षिणी ब्रज' कहला सकती है।<ref>ब्रजभाषा व्याकरण, (प्रथम संस्करण 1937 ई.) पृ. 13</ref> डॉ. गुलाबराय के अनुसार- "ब्रजभाषा का क्षेत्र निम्न प्रकार है- मथुरा, आगरा, अलीगढ़ ज़िलों को केन्द्र मानकर उत्तर में यह अल्मोड़ा, [[नैनीताल]] और [[बिजनौर]] ज़िलों तक फैली है। दक्षिण में धौलपुर, [[ग्वालियर]] तक, पूर्व में [[कन्नौज]] और [[कानपुर]] ज़िलों तक, पश्चिम में भरतपुर और गुडगाँव ज़िलों तक इसकी सीमा है। | |||
==साहित्य यात्रा== | |||
{{Main|ब्रजभाषा की साहित्य यात्रा}} | |||
'''बोलचाल की भाषा और साहित्यिक ब्रजभाषा''' में अन्तर करने की आवश्यकता दो कारणों से पड़ती है, बोलचाल की ब्रजभाषा ब्रज के भौगोलिक क्षेत्र के बाहर उपयोग में नहीं लाई जाती, जबकि साहित्यिक ब्रजभाषा का उपयोग ब्रजक्षेत्र के बाहर के कवियों ने भी उसी कुशलता के साथ किया है, जिस कुशलता के साथ ब्रजक्षेत्र के कवियों ने किया है। दूसरा अन्तर यह है कि बोलचाल की [[ब्रज]] और साहित्यिक ब्रज के बीच में एक मानक ब्रज है, जिसमें ब्रजभाषा के उपबोलियों के सभी रूप स्वीकार्य नहीं है, दूसरे शब्दों में ब्रजक्षेत्र के विभिन्न रूप-विकल्पों में से कुछ ही विकल्प मानक रूप में स्वीकृत हैं और इस मानक रूप को ब्रज के किसी क्षेत्र विशेष से पूर्ण रूप से जोड़ना सम्भव नहीं है। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि, ब्रज प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र की [[भाषा]] मानक ब्रज का आधार बनती है। जिस तरह [[मेरठ]] के आस-पास बोली जाने वाली बोली (जिसे कौरवी नाम दिया गया है) मानक [[हिन्दी]] से भिन्न है, किन्तु उसका व्याकरणिक ढाँचा मानक हिन्दी का आधार है, उसी तरह मध्यवर्ती ब्रज का ढाँचा मानक ब्रज का आधार है। मानक ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच भी उसी प्रकार का अन्तर है, यह भेद वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास और उक्ति-भंगिमा के स्तरों पर भी रेखांकित होता है। यह तो भाषा विज्ञान का माना हुआ सिद्धान्त है कि, साहित्यिक भाषा और सामान्य भाषा में अन्तर प्रयोजनवश आता है और चूँकि साहित्यिक भाषा अपने सन्देश से कम महत्व नहीं रखती और उसमें बार-बार दुहराये जाने की, नया अर्थ उदभावित करने की क्षमता अपेक्षित होती है, उसमें मानक भाषा की यान्त्रिकता अपने आप टूट जाती है, उसमें एक-दिशीयता के स्थान पर बहुदिशीयता आ जाती है और शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास सब इस प्रयोजन को चरितार्थ करने के लिए कुछ न कुछ बदल जाते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि व्याकरण बदल जाता है या [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]] कोश बदल जाता है, केवल व्याकरण और शब्द के कार्य बदल जाते हैं, क्योंकि दोनों अतिरिक्त सोद्देश्यता से विद्युत चालित कर दिये जाते हैं। | '''बोलचाल की भाषा और साहित्यिक ब्रजभाषा''' में अन्तर करने की आवश्यकता दो कारणों से पड़ती है, बोलचाल की ब्रजभाषा ब्रज के भौगोलिक क्षेत्र के बाहर उपयोग में नहीं लाई जाती, जबकि साहित्यिक ब्रजभाषा का उपयोग ब्रजक्षेत्र के बाहर के कवियों ने भी उसी कुशलता के साथ किया है, जिस कुशलता के साथ ब्रजक्षेत्र के कवियों ने किया है। दूसरा अन्तर यह है कि बोलचाल की [[ब्रज]] और साहित्यिक ब्रज के बीच में एक मानक ब्रज है, जिसमें ब्रजभाषा के उपबोलियों के सभी रूप स्वीकार्य नहीं है, दूसरे शब्दों में ब्रजक्षेत्र के विभिन्न रूप-विकल्पों में से कुछ ही विकल्प मानक रूप में स्वीकृत हैं और इस मानक रूप को ब्रज के किसी क्षेत्र विशेष से पूर्ण रूप से जोड़ना सम्भव नहीं है। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि, ब्रज प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र की [[भाषा]] मानक ब्रज का आधार बनती है। जिस तरह [[मेरठ]] के आस-पास बोली जाने वाली बोली (जिसे कौरवी नाम दिया गया है) मानक [[हिन्दी]] से भिन्न है, किन्तु उसका व्याकरणिक ढाँचा मानक हिन्दी का आधार है, उसी तरह मध्यवर्ती ब्रज का ढाँचा मानक ब्रज का आधार है। मानक ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच भी उसी प्रकार का अन्तर है, यह भेद वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास और उक्ति-भंगिमा के स्तरों पर भी रेखांकित होता है। यह तो भाषा विज्ञान का माना हुआ सिद्धान्त है कि, साहित्यिक भाषा और सामान्य भाषा में अन्तर प्रयोजनवश आता है और चूँकि साहित्यिक भाषा अपने सन्देश से कम महत्व नहीं रखती और उसमें बार-बार दुहराये जाने की, नया अर्थ उदभावित करने की क्षमता अपेक्षित होती है, उसमें मानक भाषा की यान्त्रिकता अपने आप टूट जाती है, उसमें एक-दिशीयता के स्थान पर बहुदिशीयता आ जाती है और शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास सब इस प्रयोजन को चरितार्थ करने के लिए कुछ न कुछ बदल जाते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि व्याकरण बदल जाता है या [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]] कोश बदल जाता है, केवल व्याकरण और शब्द के कार्य बदल जाते हैं, क्योंकि दोनों अतिरिक्त सोद्देश्यता से विद्युत चालित कर दिये जाते हैं। | ||
==ब्रजभाषा का स्वरूप== | |||
{{Main|ब्रजभाषा का स्वरूप}} | |||
'''ब्रजभाषा में अपना रूपगत प्रकृति''' औकारांत है यानि कि इसकी एकवचनीय [[पुल्लिंग]] [[संज्ञा]] और [[विशेषण]] प्राय: औकारांत होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। क्रिया का सामान्य भूतकाल का एकवचन पुंलिंग रूप भी ब्रजभाषा में प्रमुख रूप से औकारांत ही रहता है। कुछ क्षेत्रों में "य्" श्रुति का आगम भी मिलता है। अलीगढ़ की तहसील कोल की बोली में सामान्य भूतकालीन रूप "य्" श्रुति से रहित मिलता है, लेकिन ज़िला मथुरा तथा दक्षिणी बुलंदशहर की तहसीलों में "य्" श्रुति अवश्य पाई जाती है। कन्नौजी की अपनी प्रकृति ओकारांत है। संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के रूपों में ब्रजभाषा जहाँ औकारांतता लेकर चलती है वहाँ कन्नौजी ओकारांत है।[[चित्र:Guru Gobind Singh.jpg|left|thumb|[[गुरु गोविन्दसिंह]]]] | |||
==ब्रजभाषा का प्रयोग== | ==ब्रजभाषा का प्रयोग== | ||
{{Main|ब्रजभाषा का प्रयोग}} | |||
'''साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग''' ब्रज के अतिरिक्त बोली-क्षेत्रों में होने के कारण उन-उन क्षेत्रों की बोलियों के [[रंग]] भी जुड़े हैं। आज की साहित्यिक हिन्दी में भी इस प्रकार का प्रभाव दिखाई पड़ता है। वह एक किसी एक मुहावरे एक चाल में बँधी हुई भाषा नहीं है, उसमें क्षेत्रीय रंगतों को अपनाने की और उन्हें अपने रंग में डालने की क्षमता है। ब्रजभाषा में भी [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]], [[अवधी भाषा|अवधी]], बुन्देली, [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]], पहाड़ी, राजस्थानी प्रभावों की झाँई पड़ी और उससे ब्रजभाषा में दीप्ति और अर्थवत्ता आई। कुछ शब्दकोश भी बढ़ा, मुहावरे तो निश्चित रूप से नये-नये उसमें सन्निविष्ट हुए। [[बुन्देलखण्ड]] के कवियों में पद्माकर, ठाकुर बोधा और बख्शी हंसराज का प्रभाव उल्लेखनीय है। भोजपुरी क्षेत्र के कवियों में इतने बड़े नाम तो नहीं लिए जा सकते, लेकिन रंगपाल, छुटकन जैसे कवियों के द्वारा रचे गए फागों में भोजपुरी से भावित ब्रजभाषा की छटा एक अलग ही मिलती है। ग्वाल कवि, [[गुरु गोविन्दसिंह]] जैसे पंजाब क्षेत्र के कवियों ने पंजाबी प्रभाव दिया है। [[दादू दयाल|दादू]], सुन्दरदास और रज्जब जैसे सन्तकवियों की भाषा में (जो प्रमुख रूप से ब्रजभाषा ही है) राजस्थानी का पुट गहरा है। | '''साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग''' ब्रज के अतिरिक्त बोली-क्षेत्रों में होने के कारण उन-उन क्षेत्रों की बोलियों के [[रंग]] भी जुड़े हैं। आज की साहित्यिक हिन्दी में भी इस प्रकार का प्रभाव दिखाई पड़ता है। वह एक किसी एक मुहावरे एक चाल में बँधी हुई भाषा नहीं है, उसमें क्षेत्रीय रंगतों को अपनाने की और उन्हें अपने रंग में डालने की क्षमता है। ब्रजभाषा में भी [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]], [[अवधी भाषा|अवधी]], [[बुन्देली बोली|बुन्देली]], [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]], [[पहाड़ी बोली|पहाड़ी]], [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] प्रभावों की झाँई पड़ी और उससे ब्रजभाषा में दीप्ति और अर्थवत्ता आई। कुछ शब्दकोश भी बढ़ा, मुहावरे तो निश्चित रूप से नये-नये उसमें सन्निविष्ट हुए। [[बुन्देलखण्ड]] के कवियों में पद्माकर, ठाकुर बोधा और बख्शी हंसराज का प्रभाव उल्लेखनीय है। भोजपुरी क्षेत्र के कवियों में इतने बड़े नाम तो नहीं लिए जा सकते, लेकिन रंगपाल, छुटकन जैसे कवियों के द्वारा रचे गए फागों में भोजपुरी से भावित ब्रजभाषा की छटा एक अलग ही मिलती है। ग्वाल कवि, [[गुरु गोविन्दसिंह]] जैसे पंजाब क्षेत्र के कवियों ने पंजाबी प्रभाव दिया है। [[दादू दयाल|दादू]], सुन्दरदास और रज्जब जैसे सन्तकवियों की भाषा में (जो प्रमुख रूप से ब्रजभाषा ही है) राजस्थानी का पुट गहरा है। | ||
==रसों का प्रयोग== | ==रसों का प्रयोग== | ||
{{Main|ब्रजभाषा में रस}} | {{Main|ब्रजभाषा में रस}} | ||
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आतिसबाजी गई छिन में छूटि देकि अजौ उठिके अँखि फूटे। | आतिसबाजी गई छिन में छूटि देकि अजौ उठिके अँखि फूटे। | ||
‘देव’ दिखैयनु दाग़ बने रहे, बाग़ बने ते बरोठहिं लूटे।</poem></blockquote> | ‘देव’ दिखैयनु दाग़ बने रहे, बाग़ बने ते बरोठहिं लूटे।</poem></blockquote> | ||
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|सूरदास, सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb]] | [[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|सूरदास, सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb|left]] | ||
==विद्वानों व कवियों द्वारा प्रयोग== | ==विद्वानों व कवियों द्वारा प्रयोग== | ||
{{Main|कवियों की ब्रजभाषा}} | {{Main|कवियों की ब्रजभाषा}} | ||
'''यह बात अनदेखी करने योग्य''' नहीं है कि, ब्रजभाषा के कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन को ही केन्द्र में रखा है, चाहे वे कवि संत हो, दरबारी हो, राजा हो या फ़कीर हो। [[रहीम]] के निम्नलिखित शब्द-चित्रों में श्रमजीवी की सहधर्मिता अंकित है- | '''यह बात अनदेखी करने योग्य''' नहीं है कि, ब्रजभाषा के कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन को ही केन्द्र में रखा है, चाहे वे कवि संत हो, दरबारी हो, राजा हो या फ़कीर हो। [[रहीम]] के निम्नलिखित शब्द-चित्रों में श्रमजीवी की सहधर्मिता अंकित है- | ||
[[चित्र:Amir-Khusro.jpg|thumb|[[अमीर ख़ुसरो]] और | [[चित्र:Amir-Khusro.jpg|thumb|[[अमीर ख़ुसरो]] और [[हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया]]]] | ||
<blockquote><poem>लइके सुघर खुरपिया पिय के साथ। | <blockquote><poem>लइके सुघर खुरपिया पिय के साथ। | ||
छइबे एक छतरिया बरसत पाथ।।</poem></blockquote> | छइबे एक छतरिया बरसत पाथ।।</poem></blockquote> | ||
==ब्रजभाषा साहित्य सर्वेक्षण== | ==ब्रजभाषा साहित्य सर्वेक्षण== | ||
'''साहित्यिक ब्रजभाषा कोश''' तैयार करने के पीछे उद्देश्य यह नहीं है कि, साहित्यिक ब्रजभाषा को साहित्यिक हिन्दी से अलग करके देखा जाए, बल्कि उद्देश्य यह है कि, इस साहित्यिक ब्रजभाषा को पढ़ने-पढ़ाने में जो कठिनाई हो रही है, विशेष रूप से उन प्रान्तों में, जहाँ क्षेत्रीय भाषाएँ प्रथम भाषा के रूप में स्वीकृत हैं। उसके मार्ग दर्शन के लिए एक ऐसा कोश होना चाहिए, जो ब्रजभाषा साहित्य के अध्ययन-अध्यापन, ठीक रूप से कहें हिन्दी साहित्य के समूचे अध्ययन-अध्यापन को एक आवश्यक अवलम्ब दे सके। साहित्यिक ब्रजभाषा के ऐतिहासिक स्वरूप को समझने के लिए आवश्यक है कि, ब्रजभाषा साहित्य का सर्वेक्षण इस रूप में कराया जाए कि इस साहित्य की प्रकृति सार्वदेशिक सार्वभौमिक एकात्मता लाने वाली रही है। | '''साहित्यिक ब्रजभाषा कोश''' तैयार करने के पीछे उद्देश्य यह नहीं है कि, साहित्यिक ब्रजभाषा को साहित्यिक हिन्दी से अलग करके देखा जाए, बल्कि उद्देश्य यह है कि, इस साहित्यिक ब्रजभाषा को पढ़ने-पढ़ाने में जो कठिनाई हो रही है, विशेष रूप से उन प्रान्तों में, जहाँ क्षेत्रीय भाषाएँ प्रथम भाषा के रूप में स्वीकृत हैं। उसके मार्ग दर्शन के लिए एक ऐसा कोश होना चाहिए, जो ब्रजभाषा साहित्य के अध्ययन-अध्यापन, ठीक रूप से कहें हिन्दी साहित्य के समूचे अध्ययन-अध्यापन को एक आवश्यक अवलम्ब दे सके। साहित्यिक ब्रजभाषा के ऐतिहासिक स्वरूप को समझने के लिए आवश्यक है कि, ब्रजभाषा साहित्य का सर्वेक्षण इस रूप में कराया जाए कि इस साहित्य की प्रकृति सार्वदेशिक सार्वभौमिक एकात्मता लाने वाली रही है। | ||
==ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग== | ==ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग== | ||
{{Main|ब्रजभाषा के गद्य}} | {{Main|ब्रजभाषा के गद्य}} | ||
'''जब हम ब्रजभाषा साहित्य कहते हैं तो''', उसमें गद्य का समावेश नहीं करते। इसका कारण यह नहीं है कि, ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। [[वैष्णव|वैष्णवों]] के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, परन्तु गद्य का प्रसार दो ही स्थितियों में होता है, या तो वह शास्त्र हो या गद्यगन्धी हो, क्योंकि इन्हीं दोनों दिशाओं में उसमें पुनरावर्तमानता होती है। छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व अपने आप बढ़ा, क्योंकि तब कंठगत करने की अपरिहार्यता नहीं रही। लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित ऐसे गद्य की रचना की और वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना, किन्तु ब्रजभाषा का स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से जो [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]] को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व तो था ही, सबसे बड़ा कारण था, [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के द्वारा उत्तर [[भारत]] में कचहरी भाषा के रूप में [[उर्दू]] को मान्यता देना। | '''जब हम ब्रजभाषा साहित्य कहते हैं तो''', उसमें गद्य का समावेश नहीं करते। इसका कारण यह नहीं है कि, ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। [[वैष्णव|वैष्णवों]] के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, परन्तु गद्य का प्रसार दो ही स्थितियों में होता है, या तो वह शास्त्र हो या गद्यगन्धी हो, क्योंकि इन्हीं दोनों दिशाओं में उसमें पुनरावर्तमानता होती है। छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व अपने आप बढ़ा, क्योंकि तब कंठगत करने की अपरिहार्यता नहीं रही। लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित ऐसे गद्य की रचना की और वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना, किन्तु ब्रजभाषा का स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से जो [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]] को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व तो था ही, सबसे बड़ा कारण था, [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के द्वारा उत्तर [[भारत]] में कचहरी भाषा के रूप में [[उर्दू]] को मान्यता देना। | ||
==काल विभाजन== | ==काल विभाजन== | ||
{{Main|ब्रजभाषा साहित्य का इतिहास (काल विभाजन)}} | |||
'''ब्रजभाषा साहित्य के इतिहास''' को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। इसका उदयकाल जिसके ऊपर 'नागर' अपभ्रंश काव्य की छाप है। इसी कारण उसमें दिखने वाले हिन्दी के मध्य देश में पैदा हुए [[अमीर ख़ुसरो]] से लेकर [[महाराष्ट्र]] में पैदा हुए महानुभाव और [[ज्ञानेश्वर]] के साथी नामदेव हैं। दूसरी ओर [[पंजाब]] से लेकर [[बिहार]] तक के सन्त कवि हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का व्यवहार करते हैं, परन्तु गेय प्रयोजन के लिए प्राय: ब्रजभाषा का ही व्यवहार करते हैं। इनकी सूची बड़ी लम्बी है और पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के अधिकांश सन्त-कवि साहित्यिक ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते हैं। मुख्य नाम ये हैं-[[कबीर]], [[रैदास]], [[धर्मदास]] और [[गुरु नानक]], [[दादू दयाल]] और सत्रहवीं शताब्दी के [[सुन्दरदास खण्डेलवाल|सुन्दरदास]], [[मलूकदास]] और [[अक्षरअनन्य]] हैं। | '''ब्रजभाषा साहित्य के इतिहास''' को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। इसका उदयकाल जिसके ऊपर 'नागर' अपभ्रंश काव्य की छाप है। इसी कारण उसमें दिखने वाले हिन्दी के मध्य देश में पैदा हुए [[अमीर ख़ुसरो]] से लेकर [[महाराष्ट्र]] में पैदा हुए महानुभाव और [[ज्ञानेश्वर]] के साथी नामदेव हैं। दूसरी ओर [[पंजाब]] से लेकर [[बिहार]] तक के सन्त कवि हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का व्यवहार करते हैं, परन्तु गेय प्रयोजन के लिए प्राय: ब्रजभाषा का ही व्यवहार करते हैं। इनकी सूची बड़ी लम्बी है और पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के अधिकांश सन्त-कवि साहित्यिक ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते हैं। मुख्य नाम ये हैं-[[कबीर]], [[रैदास]], [[धर्मदास]] और [[गुरु नानक]], [[दादू दयाल]] और सत्रहवीं शताब्दी के [[सुन्दरदास खण्डेलवाल|सुन्दरदास]], [[मलूकदास]] और [[अक्षरअनन्य]] हैं। | ||
==क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व== | ==क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व== | ||
'''यह मान लेना की प्रारम्भ के कवि''' भाषा के प्रति उदासीन थे और उनका ध्यान भाषा के सँवार पर नहीं था, सही नहीं है। कम से कम बहुत दूर तक नहीं ही सही है। उपदेश की भाषा या फटकार की भाषा में एक जानबूझकर बाज़ार-भाषा का रूप मिलता है, अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व मिलते हैं, किन्तु जहाँ रागात्मक संवेदना तीव्र है, वहाँ भाषा परिनिष्ठित है और यह परिनिष्ठित भाषा ब्रज है। ऐसा लगता है, जैसे उस युग में भाषा के प्रयोग की कुछ रूढ़ियाँ उसी तरह से स्वीकृत हो चुकी थीं, जिस तरह [[संस्कृत]] के नाटकों में संस्कृत और विभिन्न प्राकृतों के संन्दर्भ में कुछ रूढ़ियाँ बन गई थीं। इसीलिए एक ही कवि भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में भिन्न-भिन्न भाषाओं का प्रयोग करता है। [[अमीर खुसरो]] से ही यह बात दृष्टिगोचर होने लगती है। गेय पदों में चूँकि रागात्मकता का सन्निवेश अपरिहार्य है, इसलिए उनकी भाषा में तो ब्रजभाषा प्राय: निरपवाद रूप में है। जिन दोहों, सोरठों, झूलने, सवैयों और कवित्तों में कोरी उपदेशपरकता नहीं है, सुन्दर तरीके से कहने का भाव है या किसी लालित्य की अभिव्यंजना है या कोई गहरी संवेदना व्यक्त करने का भाव है, उनमें प्राय: ब्रजभाषा का ही प्रयोग मिलेगा। इसके विपरीत युद्ध वर्णन में डिंगल या [[राजस्थानी भाषा]] का प्रयोग मिलेगा। कहीं-कहीं इस डिंगल में प्राचीन अपभ्रंश के भी अवशेष दिखाई देते हैं। जहाँ कहीं एक ख़ास किस्म का शहरीपन है, वहाँ पर खड़ी बोली का प्रयोग है और जहाँ सधुक्कड़ी ठाठ है, वहाँ पर मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार से प्रबन्ध योजना में [[अवधी भाषा]] का प्रयोग अधिकतर देखने को मिलता है। उसका कारण है कि अवधी ने जिस अपभ्रंश का उत्तराधिकार लिया है, उस अपभ्रंश में प्रबन्ध काव्य बहुत लिये गए थे। स्वयंभू जैसे कवियों ने अनेक प्रबन्ध काव्य लिखे थे। | '''यह मान लेना की प्रारम्भ के कवि''' भाषा के प्रति उदासीन थे और उनका ध्यान भाषा के सँवार पर नहीं था, सही नहीं है। कम से कम बहुत दूर तक नहीं ही सही है। उपदेश की भाषा या फटकार की भाषा में एक जानबूझकर बाज़ार-भाषा का रूप मिलता है, अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व मिलते हैं, किन्तु जहाँ रागात्मक संवेदना तीव्र है, वहाँ भाषा परिनिष्ठित है और यह परिनिष्ठित भाषा ब्रज है। ऐसा लगता है, जैसे उस युग में भाषा के प्रयोग की कुछ रूढ़ियाँ उसी तरह से स्वीकृत हो चुकी थीं, जिस तरह [[संस्कृत]] के नाटकों में संस्कृत और विभिन्न प्राकृतों के संन्दर्भ में कुछ रूढ़ियाँ बन गई थीं। इसीलिए एक ही कवि भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में भिन्न-भिन्न भाषाओं का प्रयोग करता है। [[अमीर खुसरो]] से ही यह बात दृष्टिगोचर होने लगती है। गेय पदों में चूँकि रागात्मकता का सन्निवेश अपरिहार्य है, इसलिए उनकी भाषा में तो ब्रजभाषा प्राय: निरपवाद रूप में है। जिन दोहों, सोरठों, झूलने, सवैयों और कवित्तों में कोरी उपदेशपरकता नहीं है, सुन्दर तरीके से कहने का भाव है या किसी लालित्य की अभिव्यंजना है या कोई गहरी संवेदना व्यक्त करने का भाव है, उनमें प्राय: ब्रजभाषा का ही प्रयोग मिलेगा। इसके विपरीत युद्ध वर्णन में डिंगल या [[राजस्थानी भाषा]] का प्रयोग मिलेगा। कहीं-कहीं इस डिंगल में प्राचीन अपभ्रंश के भी अवशेष दिखाई देते हैं। जहाँ कहीं एक ख़ास किस्म का शहरीपन है, वहाँ पर खड़ी बोली का प्रयोग है और जहाँ सधुक्कड़ी ठाठ है, वहाँ पर मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार से प्रबन्ध योजना में [[अवधी भाषा]] का प्रयोग अधिकतर देखने को मिलता है। उसका कारण है कि अवधी ने जिस अपभ्रंश का उत्तराधिकार लिया है, उस अपभ्रंश में प्रबन्ध काव्य बहुत लिये गए थे। स्वयंभू जैसे कवियों ने अनेक प्रबन्ध काव्य लिखे थे। [[चित्र:Dadu-Dayal.gif|thumb|left|[[दादू दयाल]]]] | ||
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==तदभव और तत्सम शब्दों का प्रयोग== | ==तदभव और तत्सम शब्दों का प्रयोग== | ||
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'''द्वितीय चरण के ब्रजभाषा साहित्य के''' पाँच बिन्दु अत्यन्त संलक्ष्य रूप से दिखाई देते पड़ते हैं।<br /> | '''द्वितीय चरण के ब्रजभाषा साहित्य के''' पाँच बिन्दु अत्यन्त संलक्ष्य रूप से दिखाई देते पड़ते हैं।<br /> | ||
*तदभव और तत्सम शब्दों का एक ऐसा सहज सन्तुलन मिलता है, जिसमें तत्सम शब्द भी ब्रजभाषा की प्रकृति में ढले दिखते हैं, अधिकतर तो वे अर्द्ध-तत्सम रूप में। ‘प्रतीत’ के लिए ‘परतीति’ जबकि इसके साथ-साथ | *तदभव और तत्सम शब्दों का एक ऐसा सहज सन्तुलन मिलता है, जिसमें तत्सम शब्द भी ब्रजभाषा की प्रकृति में ढले दिखते हैं, अधिकतर तो वे अर्द्ध-तत्सम रूप में। ‘प्रतीत’ के लिए ‘परतीति’ जबकि इसके साथ-साथ तद्भव रूप ‘पतियाबो’ भी मिलता है, जैसे तत्सम प्रतिपादकों में नई नाम धातुएँ बनाकर ‘अभिलाष’ से ‘अभिलाखत’ या ‘अनुराग’ से ‘अनुरागत’। इस अवधि में समानान्तर तत्सम और तद्भव शब्दों के अर्थक्षेत्र भी कुछ न कुछ स्पष्टत: व्यतिरेकी हो गए हैं। जब नख-शिख की बात करेंगे, तब ‘नह’ का प्रयोग नहीं करेंगे और जब दसों नह का प्रयोग करेंगे, तब ‘नख’ वहाँ प्रयुक्त नहीं होगा।<br /> | ||
==भाषा के प्रति असजगता== | ==भाषा के प्रति असजगता== | ||
'''एक प्राचीन कविसमय के अभिप्राय''' की नई उदभावना की गई है कि, प्रभु के चरणों के नखों में [[सूर्य]] की ज्योति का प्रकाश है, वहाँ रात की कोई सम्भावना नहीं, वहाँ समस्त द्वन्द्वों की विश्रान्ति है। भक्ति के द्वारा जहाँ एक ओर सामान्य व्यक्ति की भाषा को असामान्य महत्व दिया गया और सामान्य भाषा का संगीतात्मक उपयोग न केवल भगवद भक्ति का साधन हुआ, वह भगवद भक्ति की सिद्धि भी बना। इस कारण से प्रत्येक भक्त गायक और पद रचनाकार होने लगा। दूसरी ओर जो भक्त कवि कुशल नहीं थे, वे भाषा के प्रति सजग नहीं रहे, वे सम्प्रेषण के प्रति उदासीन रहे, उनके मन में यह भ्रम रहा कि भाव मुख्य है, भाषा नहीं। वे यह समझ नहीं सकते थे कि भाव और भाषा का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अचेत कवि-कर्म की बहुलता का प्रभाव भाषा पर पड़ा, उसमें कुछ जड़ता आने लगी। | '''एक प्राचीन कविसमय के अभिप्राय''' की नई उदभावना की गई है कि, प्रभु के चरणों के नखों में [[सूर्य]] की ज्योति का प्रकाश है, वहाँ रात की कोई सम्भावना नहीं, वहाँ समस्त द्वन्द्वों की विश्रान्ति है। भक्ति के द्वारा जहाँ एक ओर सामान्य व्यक्ति की भाषा को असामान्य महत्व दिया गया और सामान्य भाषा का संगीतात्मक उपयोग न केवल भगवद भक्ति का साधन हुआ, वह भगवद भक्ति की सिद्धि भी बना। इस कारण से प्रत्येक भक्त गायक और पद रचनाकार होने लगा। दूसरी ओर जो भक्त कवि कुशल नहीं थे, वे भाषा के प्रति सजग नहीं रहे, वे सम्प्रेषण के प्रति उदासीन रहे, उनके मन में यह भ्रम रहा कि भाव मुख्य है, भाषा नहीं। वे यह समझ नहीं सकते थे कि भाव और भाषा का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अचेत कवि-कर्म की बहुलता का प्रभाव भाषा पर पड़ा, उसमें कुछ जड़ता आने लगी। | ||
==भक्ति आन्दोलन== | ==भक्ति आन्दोलन== | ||
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-12.jpg|thumb|[[सूरदास]], सूरसरोवर, [[आगरा]]]] | |||
{{मुख्य|भक्ति आन्दोलन}} | {{मुख्य|भक्ति आन्दोलन}} | ||
भक्ति आन्दोलन तो चलता रहा और उसका व्यापक प्रभाव भी जनजीवन पर बना रहा, पर कवि-कर्म के प्रति सजग कवियों ने भाषा और भाव के ऐक्य पर ध्यान देना शुरू किया। रीतिकाल भक्तिहीन नहीं है, उस काल में भी सांसारिक प्रपंच में रहते हुए विश्व और विश्वात्मा को उद्वेलित करने वाले प्रेम-व्यापार की चिन्ता थी। वे दरबारों में आश्रय पाते थे, पर दरबारदारी से सभी कवि बँधे नहीं थे, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि उनका संसार नायक-नायिका तक सीमित नहीं था और न नायक-नायिकाएँ ही उच्च वर्ग या सम्पन्न वर्ग तक ही सीमित थीं, वे साधारण जीवन में अभिव्याप्त राग संवेदना की पहचान कराना चाहते थे। उन्हें श्रीराधा-कृष्ण की प्रेमानुगा-भक्ति का एक चौखटा मिल गया, जिससे उन्हें अपनी बात कहने में थोड़ी आसानी रही। भिखारीदास की पंक्ति में- | भक्ति आन्दोलन तो चलता रहा और उसका व्यापक प्रभाव भी जनजीवन पर बना रहा, पर कवि-कर्म के प्रति सजग कवियों ने भाषा और भाव के ऐक्य पर ध्यान देना शुरू किया। रीतिकाल भक्तिहीन नहीं है, उस काल में भी सांसारिक प्रपंच में रहते हुए विश्व और विश्वात्मा को उद्वेलित करने वाले प्रेम-व्यापार की चिन्ता थी। वे दरबारों में आश्रय पाते थे, पर दरबारदारी से सभी कवि बँधे नहीं थे, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि उनका संसार नायक-नायिका तक सीमित नहीं था और न नायक-नायिकाएँ ही उच्च वर्ग या सम्पन्न वर्ग तक ही सीमित थीं, वे साधारण जीवन में अभिव्याप्त राग संवेदना की पहचान कराना चाहते थे। उन्हें श्रीराधा-कृष्ण की प्रेमानुगा-भक्ति का एक चौखटा मिल गया, जिससे उन्हें अपनी बात कहने में थोड़ी आसानी रही। भिखारीदास की पंक्ति में- | ||
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का अर्थ यह नहीं है कि सचमुच में उनके लिए ‘राधिका कन्हाई’ का स्मरण बहाना था। उसका अर्थ केवल यही है कि वे विनम्रतापूर्वक अपने को लौकिक रखना चाहते थे, परन्तु आलौकिक [[श्रीकृष्ण]] की लौकिक लीला से वे किसी भी प्रकार अप्रभावित नहीं थे। यदि इन कवियों के समानान्तर दरबारी [[उर्दू]] कवियों के साथ तुलना की जाए तो यह बात और अच्छी तरह समझ में आती है कि उर्दू कविता में उक्ति चमत्कार के स्तर पर कवि-कर्म की वैसी ही सजगता है, परन्तु उसके अनुभव का संसार सीमित है। इस कारण उनकी भाषा में एक जड़ाऊपन तो है, विभिन्न प्रकार के जीवन क्षेत्रों से आने वाली ताज़गी नहीं है। उनमें ग्राम्य जीवन के चित्र नहीं के बराबर हैं। रीतिकाल में अभिव्यक्ति को निस्संदेह महत्त्व मिला, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उनका काव्य अनुभव उनके भक्त न होने के कारण अपरिहार्य रूप से हेय या भक्त कवियों की अपेक्षा कम उपादेय अनुभव है। अतिरेक प्रत्येक युग में होता है और वह उस युग की प्रवृत्ति नहीं है। उसके आधार पर उस युग की कविता का मूल्यांकन करना समीचीन नहीं है। | का अर्थ यह नहीं है कि सचमुच में उनके लिए ‘राधिका कन्हाई’ का स्मरण बहाना था। उसका अर्थ केवल यही है कि वे विनम्रतापूर्वक अपने को लौकिक रखना चाहते थे, परन्तु आलौकिक [[श्रीकृष्ण]] की लौकिक लीला से वे किसी भी प्रकार अप्रभावित नहीं थे। यदि इन कवियों के समानान्तर दरबारी [[उर्दू]] कवियों के साथ तुलना की जाए तो यह बात और अच्छी तरह समझ में आती है कि उर्दू कविता में उक्ति चमत्कार के स्तर पर कवि-कर्म की वैसी ही सजगता है, परन्तु उसके अनुभव का संसार सीमित है। इस कारण उनकी भाषा में एक जड़ाऊपन तो है, विभिन्न प्रकार के जीवन क्षेत्रों से आने वाली ताज़गी नहीं है। उनमें ग्राम्य जीवन के चित्र नहीं के बराबर हैं। रीतिकाल में अभिव्यक्ति को निस्संदेह महत्त्व मिला, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उनका काव्य अनुभव उनके भक्त न होने के कारण अपरिहार्य रूप से हेय या भक्त कवियों की अपेक्षा कम उपादेय अनुभव है। अतिरेक प्रत्येक युग में होता है और वह उस युग की प्रवृत्ति नहीं है। उसके आधार पर उस युग की कविता का मूल्यांकन करना समीचीन नहीं है। | ||
==ब्रजभाषा की समृद्धता== | ==ब्रजभाषा की समृद्धता== | ||
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'''रीतिकाल पुनर्मूल्यांकन की अपेक्षा''' रखता है। वह व्यक्तित्वों के आधार पर किया जाता रहा है। अथवा उन्नीसवीं शताब्दी की विक्टोरियन, खोखली नैतिकता के मानदण्डों से किया जाता रहा है। यह सही है कि [[सूरदास]] या [[तुलसीदास]] की ऊँचाई का कवि या उनके व्यापक काव्य संसार जैसा संसार इस युग के कवियों में नहीं प्राप्त है, पर साधारण जन के कंठ में तुलसी, सूर, [[कबीर]] की ही तरह [[रहीम]], [[रसखान]], पद्माकर, ठाकुर, देव, [[बिहारीलाल]] ही नहीं बहुत अपेक्षाकृत कम विख्यात कवि भी चढ़े। उसका कारण उनकी कविता की सह्रदता और सम्प्रेषणीयता ही थी। इन कवियों से ब्रजभाषा समृद्ध हुई है, उसने एक ऐसे जीवन में प्रवेश किया है, जो सबका हो सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस युग के जो कवि राजदरबारों में हैं, वे भी केवल कसीदा या बधाई लिखकर सन्तोष नहीं पाते थे। वे अपना काव्य राजा को समर्पित कर दें, पर उस काव्य में राजा या राजदरबार का जीवन बहुत कम रहता था। वे प्रकृति के मुक्त वितान के कवि थे, सँकरी और अँधेरी गली के कवि नहीं थे। इसलिए इस युग के उत्कृष्ट काव्य में सेनापति जैसे कवि के स्वच्छ प्रकृति चित्रण मिलते हैं और विभिन्न व्यवसायों, विशेष करके [[कृषि]] व्यवसाय के मनोरम चित्र कहीं विम्ब के रूप में, कहीं वर्ण्य विषय के रूप में, कहीं सादृश्य के रूप में मिलते हैं। [[संस्कृत]] की मुक्तक काव्य परम्परा और संस्कृत की काव्यशिखा परम्परा का दाय इस काल में प्रसृत दिखता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पूर्ववर्ती काल में उसकी छाप न हो, अपभ्रंश काव्य में वीर गाथाओं, [[वैष्णव]] पदावली साहित्य इन सबमें उसकी छाप है। अत: इसको रीतिकाल का अभिलक्षण बताना उचित नहीं। रीतिकाल के कवियों में देश की चेतना न हो, ऐसी बात भी नहीं है। भूषण, लाल, सूदन, पद्माकर जैसे प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त भी अनेक कवि हुए, जिनके काव्य में स्वदेश का अनुराग व्यक्त होता है और वह परम्परा [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]], श्रीधर पाठक और सत्य नारायण कविरत्न तक अक्षुण्ण चली आई है। | '''रीतिकाल पुनर्मूल्यांकन की अपेक्षा''' रखता है। वह व्यक्तित्वों के आधार पर किया जाता रहा है। अथवा उन्नीसवीं शताब्दी की विक्टोरियन, खोखली नैतिकता के मानदण्डों से किया जाता रहा है। यह सही है कि [[सूरदास]] या [[तुलसीदास]] की ऊँचाई का कवि या उनके व्यापक काव्य संसार जैसा संसार इस युग के कवियों में नहीं प्राप्त है, पर साधारण जन के कंठ में तुलसी, सूर, [[कबीर]] की ही तरह [[रहीम]], [[रसखान]], पद्माकर, ठाकुर, देव, [[बिहारीलाल]] ही नहीं बहुत अपेक्षाकृत कम विख्यात कवि भी चढ़े। उसका कारण उनकी कविता की सह्रदता और सम्प्रेषणीयता ही थी। इन कवियों से ब्रजभाषा समृद्ध हुई है, उसने एक ऐसे जीवन में प्रवेश किया है, जो सबका हो सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस युग के जो कवि राजदरबारों में हैं, वे भी केवल कसीदा या बधाई लिखकर सन्तोष नहीं पाते थे। वे अपना काव्य राजा को समर्पित कर दें, पर उस काव्य में राजा या राजदरबार का जीवन बहुत कम रहता था। वे प्रकृति के मुक्त वितान के कवि थे, सँकरी और अँधेरी गली के कवि नहीं थे। इसलिए इस युग के उत्कृष्ट काव्य में सेनापति जैसे कवि के स्वच्छ प्रकृति चित्रण मिलते हैं और विभिन्न व्यवसायों, विशेष करके [[कृषि]] व्यवसाय के मनोरम चित्र कहीं विम्ब के रूप में, कहीं वर्ण्य विषय के रूप में, कहीं सादृश्य के रूप में मिलते हैं। [[संस्कृत]] की मुक्तक काव्य परम्परा और संस्कृत की काव्यशिखा परम्परा का दाय इस काल में प्रसृत दिखता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पूर्ववर्ती काल में उसकी छाप न हो, अपभ्रंश काव्य में वीर गाथाओं, [[वैष्णव]] पदावली साहित्य इन सबमें उसकी छाप है। अत: इसको रीतिकाल का अभिलक्षण बताना उचित नहीं। रीतिकाल के कवियों में देश की चेतना न हो, ऐसी बात भी नहीं है। भूषण, लाल, सूदन, पद्माकर जैसे प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त भी अनेक कवि हुए, जिनके काव्य में स्वदेश का अनुराग व्यक्त होता है और वह परम्परा [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]], श्रीधर पाठक और सत्य नारायण कविरत्न तक अक्षुण्ण चली आई है। | ||
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07:57, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
ब्रजभाषा
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विवरण | ब्रजभाषा मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। |
ब्रजक्षेत्र | मथुरा, अलीगढ़, आगरा, भरतपुर और धौलपुर में बोली जाती है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रूप जयपुर के पूर्वी भाग तथा बुलंदशहर, मैनपुरी, एटा, बरेली और बदायूँ तक बोला जाता है। |
स्वरूप | 'ब्रजभाषा' में अपना रूपगत प्रकृति औकारांत है यानि कि इसकी एकवचनीय पुल्लिंग संज्ञा और विशेषण प्राय: औकारांत होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। |
क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व | ब्रजभाषा में भोजपुरी, अवधी, बुन्देली, पंजाबी, पहाड़ी, राजस्थानी प्रभावों की झाँई पड़ी और उससे ब्रजभाषा में दीप्ति और अर्थवत्ता आई। |
विशेष | भक्तिकाल के कवियों ने अपनी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखी हैं, जिनमें सूरदास, रहीम, रसखान, बिहारी लाल, केशव, घनानन्द आदि कवि प्रमुख हैं। |
अन्य जानकारी | आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है। |
ब्रजभाषा मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। शुद्ध रूप में यह आज भी मथुरा, आगरा, धौलपुर और अलीगढ़ ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही काव्य रचना हुई। भक्तिकाल के कवियों ने अपनी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखी हैं, जिनमें सूरदास, रहीम, रसखान, बिहारी लाल, केशव, घनानन्द आदि कवि प्रमुख हैं। हिन्दी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है।
संक्षिप्त परिचय
- केन्द्र— मथुरा
- बोलने वालों की संख्या— 3 करोड़
- देश के बाहर ताज्जुबेकिस्तान में ब्रजभाषा बोली जाती है, जिसे 'ताज्जुबेकी ब्रजभाषा' कहा जाता है।
- साहित्य— कृष्ण भक्ति काव्य की एकमात्र भाषा, लगभग सारा रीतिकाल साहित्य। साहित्यिक दृष्टि से हिंदी भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण बोली। साहित्यिक महत्त्व के कारण ही इसे ब्रजबोली नहीं ब्रजभाषा की संज्ञा दी जाती है। मध्यकाल में इस भाषा ने अखिल भारतीय विस्तार पाया। बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम 'ब्रज बुलि' पड़ा। आधुनिक काल तक इस भाषा में साहित्य सृजन होता रहा। पर परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि ब्रजभाषा साहित्यिक सिंहासन से उतार दी गई और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया।
- रचनाकार— भक्तिकालीन– सूरदास, नन्ददास आदि।
रीतिकाल— बिहारी, मतिराम, भूषण, देव आदि। आधुनिक कालीन— भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' आदि।
- नमूना— एक मथुरा जी के चौबे हे (थे), जो डिल्ली सैहर कौ चलै। गाड़ी वारे बनिया से चौबेजी की भेंट है गई। तो वे चौबे बोले, अर भइया सेठ, कहाँ जायगो। वौ बोलो, महराजा डिल्ली जाऊँगो। तो चौबे बोले, भइया हमऊँ बैठाल्लेय। बनिया बोलो, चार रूपा चलिंगे भाड़े के। चौबे बोले, अच्छा भइया चारी दिंगे।
ब्रजभाषा का विस्तार
शुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी मथुरा, अलीगढ़, आगरा, भरतपुर और धौलपुर ज़िलों में बोली जाती है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रूप जयपुर राज्य के पूर्वी भाग तथा बुलंदशहर, मैनपुरी, एटा, बरेली और बदायूँ तक बोला जाता है। ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वे में पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फ़र्रूख़ाबाद, हरदोई, इटावा तथा कानपुर की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूँ की बोली से भिन्न नहीं हैं। अधिक से अधिक हम इन सब ज़िलों की बोली को 'पूर्वी ब्रज' कह सकते हैं। सच तो यह है कि, बुन्देलखंड की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली 'दक्षिणी ब्रज' कहला सकती है।[1] डॉ. गुलाबराय के अनुसार- "ब्रजभाषा का क्षेत्र निम्न प्रकार है- मथुरा, आगरा, अलीगढ़ ज़िलों को केन्द्र मानकर उत्तर में यह अल्मोड़ा, नैनीताल और बिजनौर ज़िलों तक फैली है। दक्षिण में धौलपुर, ग्वालियर तक, पूर्व में कन्नौज और कानपुर ज़िलों तक, पश्चिम में भरतपुर और गुडगाँव ज़िलों तक इसकी सीमा है।
साहित्य यात्रा
बोलचाल की भाषा और साहित्यिक ब्रजभाषा में अन्तर करने की आवश्यकता दो कारणों से पड़ती है, बोलचाल की ब्रजभाषा ब्रज के भौगोलिक क्षेत्र के बाहर उपयोग में नहीं लाई जाती, जबकि साहित्यिक ब्रजभाषा का उपयोग ब्रजक्षेत्र के बाहर के कवियों ने भी उसी कुशलता के साथ किया है, जिस कुशलता के साथ ब्रजक्षेत्र के कवियों ने किया है। दूसरा अन्तर यह है कि बोलचाल की ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच में एक मानक ब्रज है, जिसमें ब्रजभाषा के उपबोलियों के सभी रूप स्वीकार्य नहीं है, दूसरे शब्दों में ब्रजक्षेत्र के विभिन्न रूप-विकल्पों में से कुछ ही विकल्प मानक रूप में स्वीकृत हैं और इस मानक रूप को ब्रज के किसी क्षेत्र विशेष से पूर्ण रूप से जोड़ना सम्भव नहीं है। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि, ब्रज प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र की भाषा मानक ब्रज का आधार बनती है। जिस तरह मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली बोली (जिसे कौरवी नाम दिया गया है) मानक हिन्दी से भिन्न है, किन्तु उसका व्याकरणिक ढाँचा मानक हिन्दी का आधार है, उसी तरह मध्यवर्ती ब्रज का ढाँचा मानक ब्रज का आधार है। मानक ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच भी उसी प्रकार का अन्तर है, यह भेद वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास और उक्ति-भंगिमा के स्तरों पर भी रेखांकित होता है। यह तो भाषा विज्ञान का माना हुआ सिद्धान्त है कि, साहित्यिक भाषा और सामान्य भाषा में अन्तर प्रयोजनवश आता है और चूँकि साहित्यिक भाषा अपने सन्देश से कम महत्व नहीं रखती और उसमें बार-बार दुहराये जाने की, नया अर्थ उदभावित करने की क्षमता अपेक्षित होती है, उसमें मानक भाषा की यान्त्रिकता अपने आप टूट जाती है, उसमें एक-दिशीयता के स्थान पर बहुदिशीयता आ जाती है और शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास सब इस प्रयोजन को चरितार्थ करने के लिए कुछ न कुछ बदल जाते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि व्याकरण बदल जाता है या शब्द कोश बदल जाता है, केवल व्याकरण और शब्द के कार्य बदल जाते हैं, क्योंकि दोनों अतिरिक्त सोद्देश्यता से विद्युत चालित कर दिये जाते हैं।
ब्रजभाषा का स्वरूप
ब्रजभाषा में अपना रूपगत प्रकृति औकारांत है यानि कि इसकी एकवचनीय पुल्लिंग संज्ञा और विशेषण प्राय: औकारांत होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। क्रिया का सामान्य भूतकाल का एकवचन पुंलिंग रूप भी ब्रजभाषा में प्रमुख रूप से औकारांत ही रहता है। कुछ क्षेत्रों में "य्" श्रुति का आगम भी मिलता है। अलीगढ़ की तहसील कोल की बोली में सामान्य भूतकालीन रूप "य्" श्रुति से रहित मिलता है, लेकिन ज़िला मथुरा तथा दक्षिणी बुलंदशहर की तहसीलों में "य्" श्रुति अवश्य पाई जाती है। कन्नौजी की अपनी प्रकृति ओकारांत है। संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के रूपों में ब्रजभाषा जहाँ औकारांतता लेकर चलती है वहाँ कन्नौजी ओकारांत है।
ब्रजभाषा का प्रयोग
साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग ब्रज के अतिरिक्त बोली-क्षेत्रों में होने के कारण उन-उन क्षेत्रों की बोलियों के रंग भी जुड़े हैं। आज की साहित्यिक हिन्दी में भी इस प्रकार का प्रभाव दिखाई पड़ता है। वह एक किसी एक मुहावरे एक चाल में बँधी हुई भाषा नहीं है, उसमें क्षेत्रीय रंगतों को अपनाने की और उन्हें अपने रंग में डालने की क्षमता है। ब्रजभाषा में भी भोजपुरी, अवधी, बुन्देली, पंजाबी, पहाड़ी, राजस्थानी प्रभावों की झाँई पड़ी और उससे ब्रजभाषा में दीप्ति और अर्थवत्ता आई। कुछ शब्दकोश भी बढ़ा, मुहावरे तो निश्चित रूप से नये-नये उसमें सन्निविष्ट हुए। बुन्देलखण्ड के कवियों में पद्माकर, ठाकुर बोधा और बख्शी हंसराज का प्रभाव उल्लेखनीय है। भोजपुरी क्षेत्र के कवियों में इतने बड़े नाम तो नहीं लिए जा सकते, लेकिन रंगपाल, छुटकन जैसे कवियों के द्वारा रचे गए फागों में भोजपुरी से भावित ब्रजभाषा की छटा एक अलग ही मिलती है। ग्वाल कवि, गुरु गोविन्दसिंह जैसे पंजाब क्षेत्र के कवियों ने पंजाबी प्रभाव दिया है। दादू, सुन्दरदास और रज्जब जैसे सन्तकवियों की भाषा में (जो प्रमुख रूप से ब्रजभाषा ही है) राजस्थानी का पुट गहरा है।
रसों का प्रयोग
रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह मान लिया जाता है कि, ब्रजभाषा काव्य का विषय रूप-वर्णन, शोभा-वर्णन, श्रृंगारी चेष्टा-वर्णन, श्रृंगारी हाव-भाव-वर्णन, प्रकृति के श्रृंगारोद्दीपक रूप का वर्णन विविध प्रकार की कामिनियों की विलासचर्या का वर्णन, ललित कला-विनोदों का वर्णन और नागर-नागरियों के पहिराव, सजाव, सिंगार का वर्णन तक ही सीमित है। इसमें साधारण मनुष्य के दु:ख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है, न कुछ अपवादों को छोड़कर जीवन में उत्साह वृद्धि जगाने के लिए विशेष चाव है। इसमें जो आलौकिक, आध्यात्मिक भाव है भी, वह भी या तो अलक्षित और सुकुमार भावों की परिधि के भीतर ही समाये हुए हैं या मनुष्य के दैन्य या उदास भाव के अतिरेक से ग्रस्त हैं। ब्रजभाषा काव्य का संसार इस प्रकार बड़ा ही संकुचित संसार है। पर जब हम ब्यौरे में जाते हैं और भक्ति-कालीन काव्य की ज़मीन का सर्वेक्षण करते हैं और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में या आक्षेप प्रधान रचनाओं का पर्यवेक्षण करते हैं, तो यह संसार बहुत विस्तुत दिखाई पड़ता है। इसमें जिन्हें दरबारी कवि कहकर छोटा मानते हैं, उनकी कविता में गाँव के बड़े अनूठे चित्र हैं और लोक-व्यवहार के तो तरह-तरह के आयाम मिलते हैं। ये आयाम श्रृंगारी ही नहीं हैं अदभुत, हास्य, शान्त रसों के सैंकड़ों उदाहरण उस उत्तर मध्यकाल में भी मिलते हैं, जिसे श्रृंगार-काल कहा जाता है। यही नहीं, पद्माकर जैसे कवि की रचना में सूक्ष्म रूप में अंग्रेज़ों के आने के ख़तरे की चिन्ता भी मिलती है। भूषण की बात छोड़ भी दे, तो भी अनेक अनाम कवियों के भीतर धरती का लगाव, जो जन-जन के अराध्य आलंबनों से जुड़े हुए हैं, बहुत सरल ढंग से अंकित मिलता है। देव का एक प्रसिद्ध छन्द है, जिसमें बारात के आकर विदा होने में और उसके बाद की उदासी का चित्र मिलता है।
काम परयौ दुलही अरु दुलह, चाकर यार ते द्वार ही छूटे।
माया के बाजने बाजि गये परभात ही भात खवा उठि बूटे।
आतिसबाजी गई छिन में छूटि देकि अजौ उठिके अँखि फूटे।
‘देव’ दिखैयनु दाग़ बने रहे, बाग़ बने ते बरोठहिं लूटे।
विद्वानों व कवियों द्वारा प्रयोग
यह बात अनदेखी करने योग्य नहीं है कि, ब्रजभाषा के कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन को ही केन्द्र में रखा है, चाहे वे कवि संत हो, दरबारी हो, राजा हो या फ़कीर हो। रहीम के निम्नलिखित शब्द-चित्रों में श्रमजीवी की सहधर्मिता अंकित है-
लइके सुघर खुरपिया पिय के साथ।
छइबे एक छतरिया बरसत पाथ।।
ब्रजभाषा साहित्य सर्वेक्षण
साहित्यिक ब्रजभाषा कोश तैयार करने के पीछे उद्देश्य यह नहीं है कि, साहित्यिक ब्रजभाषा को साहित्यिक हिन्दी से अलग करके देखा जाए, बल्कि उद्देश्य यह है कि, इस साहित्यिक ब्रजभाषा को पढ़ने-पढ़ाने में जो कठिनाई हो रही है, विशेष रूप से उन प्रान्तों में, जहाँ क्षेत्रीय भाषाएँ प्रथम भाषा के रूप में स्वीकृत हैं। उसके मार्ग दर्शन के लिए एक ऐसा कोश होना चाहिए, जो ब्रजभाषा साहित्य के अध्ययन-अध्यापन, ठीक रूप से कहें हिन्दी साहित्य के समूचे अध्ययन-अध्यापन को एक आवश्यक अवलम्ब दे सके। साहित्यिक ब्रजभाषा के ऐतिहासिक स्वरूप को समझने के लिए आवश्यक है कि, ब्रजभाषा साहित्य का सर्वेक्षण इस रूप में कराया जाए कि इस साहित्य की प्रकृति सार्वदेशिक सार्वभौमिक एकात्मता लाने वाली रही है।
ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग
जब हम ब्रजभाषा साहित्य कहते हैं तो, उसमें गद्य का समावेश नहीं करते। इसका कारण यह नहीं है कि, ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। वैष्णवों के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, परन्तु गद्य का प्रसार दो ही स्थितियों में होता है, या तो वह शास्त्र हो या गद्यगन्धी हो, क्योंकि इन्हीं दोनों दिशाओं में उसमें पुनरावर्तमानता होती है। छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व अपने आप बढ़ा, क्योंकि तब कंठगत करने की अपरिहार्यता नहीं रही। लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित ऐसे गद्य की रचना की और वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना, किन्तु ब्रजभाषा का स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से जो हिन्दी को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व तो था ही, सबसे बड़ा कारण था, अंग्रेज़ों के द्वारा उत्तर भारत में कचहरी भाषा के रूप में उर्दू को मान्यता देना।
काल विभाजन
ब्रजभाषा साहित्य के इतिहास को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। इसका उदयकाल जिसके ऊपर 'नागर' अपभ्रंश काव्य की छाप है। इसी कारण उसमें दिखने वाले हिन्दी के मध्य देश में पैदा हुए अमीर ख़ुसरो से लेकर महाराष्ट्र में पैदा हुए महानुभाव और ज्ञानेश्वर के साथी नामदेव हैं। दूसरी ओर पंजाब से लेकर बिहार तक के सन्त कवि हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का व्यवहार करते हैं, परन्तु गेय प्रयोजन के लिए प्राय: ब्रजभाषा का ही व्यवहार करते हैं। इनकी सूची बड़ी लम्बी है और पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के अधिकांश सन्त-कवि साहित्यिक ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते हैं। मुख्य नाम ये हैं-कबीर, रैदास, धर्मदास और गुरु नानक, दादू दयाल और सत्रहवीं शताब्दी के सुन्दरदास, मलूकदास और अक्षरअनन्य हैं।
क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व
यह मान लेना की प्रारम्भ के कवि भाषा के प्रति उदासीन थे और उनका ध्यान भाषा के सँवार पर नहीं था, सही नहीं है। कम से कम बहुत दूर तक नहीं ही सही है। उपदेश की भाषा या फटकार की भाषा में एक जानबूझकर बाज़ार-भाषा का रूप मिलता है, अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व मिलते हैं, किन्तु जहाँ रागात्मक संवेदना तीव्र है, वहाँ भाषा परिनिष्ठित है और यह परिनिष्ठित भाषा ब्रज है। ऐसा लगता है, जैसे उस युग में भाषा के प्रयोग की कुछ रूढ़ियाँ उसी तरह से स्वीकृत हो चुकी थीं, जिस तरह संस्कृत के नाटकों में संस्कृत और विभिन्न प्राकृतों के संन्दर्भ में कुछ रूढ़ियाँ बन गई थीं। इसीलिए एक ही कवि भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में भिन्न-भिन्न भाषाओं का प्रयोग करता है। अमीर खुसरो से ही यह बात दृष्टिगोचर होने लगती है। गेय पदों में चूँकि रागात्मकता का सन्निवेश अपरिहार्य है, इसलिए उनकी भाषा में तो ब्रजभाषा प्राय: निरपवाद रूप में है। जिन दोहों, सोरठों, झूलने, सवैयों और कवित्तों में कोरी उपदेशपरकता नहीं है, सुन्दर तरीके से कहने का भाव है या किसी लालित्य की अभिव्यंजना है या कोई गहरी संवेदना व्यक्त करने का भाव है, उनमें प्राय: ब्रजभाषा का ही प्रयोग मिलेगा। इसके विपरीत युद्ध वर्णन में डिंगल या राजस्थानी भाषा का प्रयोग मिलेगा। कहीं-कहीं इस डिंगल में प्राचीन अपभ्रंश के भी अवशेष दिखाई देते हैं। जहाँ कहीं एक ख़ास किस्म का शहरीपन है, वहाँ पर खड़ी बोली का प्रयोग है और जहाँ सधुक्कड़ी ठाठ है, वहाँ पर मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार से प्रबन्ध योजना में अवधी भाषा का प्रयोग अधिकतर देखने को मिलता है। उसका कारण है कि अवधी ने जिस अपभ्रंश का उत्तराधिकार लिया है, उस अपभ्रंश में प्रबन्ध काव्य बहुत लिये गए थे। स्वयंभू जैसे कवियों ने अनेक प्रबन्ध काव्य लिखे थे।
तदभव और तत्सम शब्दों का प्रयोग
द्वितीय चरण के ब्रजभाषा साहित्य के पाँच बिन्दु अत्यन्त संलक्ष्य रूप से दिखाई देते पड़ते हैं।
- तदभव और तत्सम शब्दों का एक ऐसा सहज सन्तुलन मिलता है, जिसमें तत्सम शब्द भी ब्रजभाषा की प्रकृति में ढले दिखते हैं, अधिकतर तो वे अर्द्ध-तत्सम रूप में। ‘प्रतीत’ के लिए ‘परतीति’ जबकि इसके साथ-साथ तद्भव रूप ‘पतियाबो’ भी मिलता है, जैसे तत्सम प्रतिपादकों में नई नाम धातुएँ बनाकर ‘अभिलाष’ से ‘अभिलाखत’ या ‘अनुराग’ से ‘अनुरागत’। इस अवधि में समानान्तर तत्सम और तद्भव शब्दों के अर्थक्षेत्र भी कुछ न कुछ स्पष्टत: व्यतिरेकी हो गए हैं। जब नख-शिख की बात करेंगे, तब ‘नह’ का प्रयोग नहीं करेंगे और जब दसों नह का प्रयोग करेंगे, तब ‘नख’ वहाँ प्रयुक्त नहीं होगा।
भाषा के प्रति असजगता
एक प्राचीन कविसमय के अभिप्राय की नई उदभावना की गई है कि, प्रभु के चरणों के नखों में सूर्य की ज्योति का प्रकाश है, वहाँ रात की कोई सम्भावना नहीं, वहाँ समस्त द्वन्द्वों की विश्रान्ति है। भक्ति के द्वारा जहाँ एक ओर सामान्य व्यक्ति की भाषा को असामान्य महत्व दिया गया और सामान्य भाषा का संगीतात्मक उपयोग न केवल भगवद भक्ति का साधन हुआ, वह भगवद भक्ति की सिद्धि भी बना। इस कारण से प्रत्येक भक्त गायक और पद रचनाकार होने लगा। दूसरी ओर जो भक्त कवि कुशल नहीं थे, वे भाषा के प्रति सजग नहीं रहे, वे सम्प्रेषण के प्रति उदासीन रहे, उनके मन में यह भ्रम रहा कि भाव मुख्य है, भाषा नहीं। वे यह समझ नहीं सकते थे कि भाव और भाषा का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अचेत कवि-कर्म की बहुलता का प्रभाव भाषा पर पड़ा, उसमें कुछ जड़ता आने लगी।
भक्ति आन्दोलन
भक्ति आन्दोलन तो चलता रहा और उसका व्यापक प्रभाव भी जनजीवन पर बना रहा, पर कवि-कर्म के प्रति सजग कवियों ने भाषा और भाव के ऐक्य पर ध्यान देना शुरू किया। रीतिकाल भक्तिहीन नहीं है, उस काल में भी सांसारिक प्रपंच में रहते हुए विश्व और विश्वात्मा को उद्वेलित करने वाले प्रेम-व्यापार की चिन्ता थी। वे दरबारों में आश्रय पाते थे, पर दरबारदारी से सभी कवि बँधे नहीं थे, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि उनका संसार नायक-नायिका तक सीमित नहीं था और न नायक-नायिकाएँ ही उच्च वर्ग या सम्पन्न वर्ग तक ही सीमित थीं, वे साधारण जीवन में अभिव्याप्त राग संवेदना की पहचान कराना चाहते थे। उन्हें श्रीराधा-कृष्ण की प्रेमानुगा-भक्ति का एक चौखटा मिल गया, जिससे उन्हें अपनी बात कहने में थोड़ी आसानी रही। भिखारीदास की पंक्ति में-
आगे के सुकवि रीझि है तो कविताई
न तौ राधिका कन्हाई के सुमिरन को बहानौ है।
का अर्थ यह नहीं है कि सचमुच में उनके लिए ‘राधिका कन्हाई’ का स्मरण बहाना था। उसका अर्थ केवल यही है कि वे विनम्रतापूर्वक अपने को लौकिक रखना चाहते थे, परन्तु आलौकिक श्रीकृष्ण की लौकिक लीला से वे किसी भी प्रकार अप्रभावित नहीं थे। यदि इन कवियों के समानान्तर दरबारी उर्दू कवियों के साथ तुलना की जाए तो यह बात और अच्छी तरह समझ में आती है कि उर्दू कविता में उक्ति चमत्कार के स्तर पर कवि-कर्म की वैसी ही सजगता है, परन्तु उसके अनुभव का संसार सीमित है। इस कारण उनकी भाषा में एक जड़ाऊपन तो है, विभिन्न प्रकार के जीवन क्षेत्रों से आने वाली ताज़गी नहीं है। उनमें ग्राम्य जीवन के चित्र नहीं के बराबर हैं। रीतिकाल में अभिव्यक्ति को निस्संदेह महत्त्व मिला, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उनका काव्य अनुभव उनके भक्त न होने के कारण अपरिहार्य रूप से हेय या भक्त कवियों की अपेक्षा कम उपादेय अनुभव है। अतिरेक प्रत्येक युग में होता है और वह उस युग की प्रवृत्ति नहीं है। उसके आधार पर उस युग की कविता का मूल्यांकन करना समीचीन नहीं है।
ब्रजभाषा की समृद्धता
रीतिकाल पुनर्मूल्यांकन की अपेक्षा रखता है। वह व्यक्तित्वों के आधार पर किया जाता रहा है। अथवा उन्नीसवीं शताब्दी की विक्टोरियन, खोखली नैतिकता के मानदण्डों से किया जाता रहा है। यह सही है कि सूरदास या तुलसीदास की ऊँचाई का कवि या उनके व्यापक काव्य संसार जैसा संसार इस युग के कवियों में नहीं प्राप्त है, पर साधारण जन के कंठ में तुलसी, सूर, कबीर की ही तरह रहीम, रसखान, पद्माकर, ठाकुर, देव, बिहारीलाल ही नहीं बहुत अपेक्षाकृत कम विख्यात कवि भी चढ़े। उसका कारण उनकी कविता की सह्रदता और सम्प्रेषणीयता ही थी। इन कवियों से ब्रजभाषा समृद्ध हुई है, उसने एक ऐसे जीवन में प्रवेश किया है, जो सबका हो सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस युग के जो कवि राजदरबारों में हैं, वे भी केवल कसीदा या बधाई लिखकर सन्तोष नहीं पाते थे। वे अपना काव्य राजा को समर्पित कर दें, पर उस काव्य में राजा या राजदरबार का जीवन बहुत कम रहता था। वे प्रकृति के मुक्त वितान के कवि थे, सँकरी और अँधेरी गली के कवि नहीं थे। इसलिए इस युग के उत्कृष्ट काव्य में सेनापति जैसे कवि के स्वच्छ प्रकृति चित्रण मिलते हैं और विभिन्न व्यवसायों, विशेष करके कृषि व्यवसाय के मनोरम चित्र कहीं विम्ब के रूप में, कहीं वर्ण्य विषय के रूप में, कहीं सादृश्य के रूप में मिलते हैं। संस्कृत की मुक्तक काव्य परम्परा और संस्कृत की काव्यशिखा परम्परा का दाय इस काल में प्रसृत दिखता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पूर्ववर्ती काल में उसकी छाप न हो, अपभ्रंश काव्य में वीर गाथाओं, वैष्णव पदावली साहित्य इन सबमें उसकी छाप है। अत: इसको रीतिकाल का अभिलक्षण बताना उचित नहीं। रीतिकाल के कवियों में देश की चेतना न हो, ऐसी बात भी नहीं है। भूषण, लाल, सूदन, पद्माकर जैसे प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त भी अनेक कवि हुए, जिनके काव्य में स्वदेश का अनुराग व्यक्त होता है और वह परम्परा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीधर पाठक और सत्य नारायण कविरत्न तक अक्षुण्ण चली आई है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रजभाषा व्याकरण, (प्रथम संस्करण 1937 ई.) पृ. 13
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