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{{श्राद्ध विषय सूची}}
{{सूचना बक्सा त्योहार
|चित्र=Pitra-Paksha.jpg
|चित्र का नाम=पितृ पक्ष में पितरों को तिलांजली देना
|अन्य नाम =
|अनुयायी = [[हिन्दू धर्म|हिन्दू धर्मावलम्बी]]
|उद्देश्य =पितृ पक्ष में किया जाने वाला [[श्राद्ध]] पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। विधिपूर्वक श्राद्ध करने से [[पितर]] तृप्त होते हैं और प्रसन्न होकर सुख-समृद्धि तथा संतान सुख आदि प्रदान करते हैं।
|प्रारम्भ = वैदिक-पौराणिक
|तिथि=[[भाद्रपद]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[पूर्णिमा]] से [[सर्वपितृ अमावस्या]] अर्थात् [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष]] [[अमावस्या]] तक
|उत्सव =
|अनुष्ठान =
|धार्मिक मान्यता ='ब्रह्मपुराण' ने [[श्राद्ध]] की परिभाषा यूँ दी है- "जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है"।
|प्रसिद्धि =
|संबंधित लेख=[[श्राद्ध के नियम]], [[अन्वष्टका कृत्य (श्राद्ध)|अन्वष्टका कृत्य]], [[अष्टका कृत्य (श्राद्ध)|अष्टका कृत्य]], [[अन्वाहार्य श्राद्ध]], [[विसर्जन (श्राद्ध)|श्राद्ध विसर्जन]], [[पितृ विसर्जन अमावस्या]], [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]], [[माध्यावर्ष कृत्य (श्राद्ध)|माध्यावर्ष कृत्य]], [[मातामह श्राद्ध]], [[पितर]], [[श्राद्ध और ग्रहण]], [[श्राद्ध करने का स्थान]], [[श्राद्ध की आहुति]], [[श्राद्ध की कोटियाँ]], [[श्राद्ध की महत्ता]], [[श्राद्ध प्रपौत्र द्वारा]], [[श्राद्ध फलसूची]], [[श्राद्ध वर्जना]], [[श्राद्ध विधि (संक्षिप्त)|श्राद्ध विधि]], [[पिण्ड (श्राद्ध)|पिण्डदान]], [[गया]], [[नासिक]], [[आदित्य देवता]] और [[रुद्र|रुद्र देवता]]
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=विशेष
|पाठ 2=पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध [[वर्ष]] के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें व्यक्ति [[श्राद्ध]] प्रक्रिया में शामिल होकर 'देव ऋण', 'ऋषि ऋण' तथा 'पितृ ऋण', तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है।
|अन्य जानकारी=पितृ पक्ष में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर उन्हें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं और सुख-समृद्धि आदि देते हैं।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
[[भाद्रपद मास]] के [[कृष्ण पक्ष]] के पंद्रह दिन '''पितृ पक्ष''' ('पितृ' अथवा 'पिता') के नाम से जाने जाते है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने [[पितर|पितरों]] (पूर्वजों) को [[जल]] देते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर [[श्राद्ध]] आदि सम्पन करते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा 'पितृ पक्ष' में। जिस [[मास]] और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस [[तिथि]] को उनका [[दाह संस्कार]] हुआ है, [[वर्ष]] में उस तिथि को 'एकोदिष्ट श्राद्ध' किया जाता है। [[पिता]]-[[माता]] आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को 'पितृ श्राद्ध' कहते हैं।
[[भाद्रपद मास]] के [[कृष्ण पक्ष]] के पंद्रह दिन '''पितृ पक्ष''' ('पितृ' अथवा 'पिता') के नाम से जाने जाते है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने [[पितर|पितरों]] (पूर्वजों) को [[जल]] देते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर [[श्राद्ध]] आदि सम्पन करते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा 'पितृ पक्ष' में। जिस [[मास]] और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस [[तिथि]] को उनका [[दाह संस्कार]] हुआ है, [[वर्ष]] में उस तिथि को 'एकोदिष्ट श्राद्ध' किया जाता है। [[पिता]]-[[माता]] आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को 'पितृ श्राद्ध' कहते हैं।
{{tocright}}
==महत्त्व==
==महत्त्व==
'पितृ पक्ष' अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर [[सूर्य देव]] जब कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब हमारे [[पितर]] अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]] की कामना करते हैं। [[श्राद्ध]] से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion-occasion-shradh/%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%83%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7-%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-1110912038_1.htm|title=पूर्वजों के प्रति श्रृद्धा का महापर्व|accessmonthday=02 अगस्त|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> पितृ पक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी [[आत्मा]] के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।<ref>{{cite web |url=http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/aasthaaurchintan/entry/potradosh-and-shradh-5|title=पितृदोष निवारण के लिए पितृपक्ष के श्राद्ध|accessmonthday=02 अगस्त|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
'पितृ पक्ष' अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर [[सूर्य देव]] जब कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब हमारे [[पितर]] अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]] की कामना करते हैं। [[श्राद्ध]] से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion-occasion-shradh/%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%83%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7-%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-1110912038_1.htm|title=पूर्वजों के प्रति श्रृद्धा का महापर्व|accessmonthday=02 अगस्त|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> पितृ पक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार '[[ब्रह्मवैवर्तपुराण]]' में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष के दौरान [[पिंडदान]], तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी [[आत्मा]] के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।<ref name="bb">{{cite web |url=http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/aasthaaurchintan/entry/potradosh-and-shradh-5|title=पितृदोष निवारण के लिए पितृपक्ष के श्राद्ध|accessmonthday=02 अगस्त|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
==तीन ऋण==
भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य पर इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात् तीन प्रकार के ऋण होते हैं-
#देव ऋण
#ऋषि ऋण
#पितृ ऋण
[[चित्र:Shradha.jpg|thumb|left|250px|[[श्राद्ध]] में [[पिण्डदान]] करते लोग]]
पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें व्यक्ति [[श्राद्ध]] प्रक्रिया में शामिल होकर उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है। [[महाभारत]] के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत [[कर्ण]] को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि- "मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि- "राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा।" इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः [[पृथ्वी]] पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध-तर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी।
==प्रमुख श्राद्ध स्थल==
जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, [[माता]]-[[पिता]] और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृगण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दु:खी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं। अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है। [[भारत]] की पावन भूमि में ऐसे कई स्थान हैं, जहाँ ऐसे भूले-भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते हैं। जैसे कि [[बिहार]] में [[गया]] के घाट पर, [[गंगासागर]] तथा [[महाराष्ट्र]] में [[त्र्यम्बकेश्वर]], [[हरियाणा]] में पिहोवा, [[उत्तर प्रदेश]] में गडगंगा, [[उत्तराखंड]] में [[हरिद्वार]] भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्धकर्म को आरंभ करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं। इन स्थलों में जाकर वे श्रद्धालु भी पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ कर सकते हैं, जिन्होंने पहले कभी भी श्राद्घ न किया हो। वैसे तो पितृ पक्ष के श्राद्ध की महिमा अपार है, लेकिन जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत पिता, माता दादा, परदादा, नाना, नानी आदि का इन 16 श्राद्धों में व्रत उपवास रखकर [[ब्राह्मण]] को भोजन कराकर दक्षिणा आदि देते हैं, उनके घर [[लक्ष्मी]] और [[विष्णु]] भगवान सदैव ही बने रहते हैं। अर्थात् वे सदैव ही धन धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।<ref name="bb"/>
==श्राद्ध तिथियाँ==
[[श्राद्ध]] करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिकजनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है, जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात् [[पितर]] [[प्रतिपदा]] को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि [[पिता]] का श्राद्ध [[अष्टमी]] के दिन और [[माता]] का [[नवमी]] के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी [[पितर]] होते हैं, जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध [[चतुर्दशी]] के दिन किया जाता है। [[साधु]] और सन्न्यासियों का श्राद्ध [[द्वादशी]] के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध [[अमावस्या]] के दिन किया जाता है। जीवन मे यदि कभी भूले-भटके माता-पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृ पक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर [[दूब घास|दूब]], [[तिल]], कुशा, [[तुलसी|तुलसीदल]], [[फल]], मेवा, [[दाल]]-[[चावल]], पूरी व पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा-ताऊ, चाचा, परदादा, नाना-नानी आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएँ। यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृ पक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की [[आत्मा]] की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन भी प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। '[[मनुस्मृति]]' में इसका ख़ास प्रावधान है।
 
पितृ पक्ष की सभी पंद्रह तिथियाँ श्राद्ध को समर्पित हैं। अतः [[वर्ष]] के किसी भी माह एवं तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों का श्राद्ध उसी तिथि को किया जाना चाहिए। पितृ पक्ष में 'कुतप वेला' अर्थात् मध्याह्न के समय (दोपहर साढे़ बारह से एक बजे तक) श्राद्ध करना चाहिए। प्रत्येक [[माह]] की [[अमावस्या]] पितरों की पुण्य तिथि मानी जाती है, किंतु [[आश्विन मास|आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष]] की अमावस्या पितरों हेतु विशेष फलदायक है। इस अमावस्या को '''पितृविसर्जनी अमावस्या''' अथवा '''महालया''' भी कहा जाता है। इसी तिथि को समस्त पितरों का विसर्जन होता है। जिन पितरों की पुण्य तिथि ज्ञात नहीं होती अथवा किन्हीं कारणवश जिनका श्राद्ध पितृ पक्ष के पंद्रह दिनों में नहीं हो पाता, उनका श्राद्ध, दान, तर्पण आदि इसी तिथि को किया जाता है। इस अमावस्या को सभी पितर अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के द्वार पर [[पिण्डदान]], [[श्राद्ध]] एवं [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]] आदि की कामना से जाते हैं, तथा इन सबके न मिलने पर शाप देकर पितृलोक को प्रस्थान कर जाते हैं।<ref name="cc">{{cite web |url=http://www.hindilok.com/importance-of-pitra-paksha-and-pinddaan-0920111212120090.html|title=पितरों को समर्पित श्राद्ध पक्ष की अहमियत|accessmonthday=03 अगस्त|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
====पितरों का आगमन====
[[चित्र:Pitra-Paksha-1.jpg|thumb|220px|श्राद्ध करते लोग]]
[[श्राद्ध]] से पहले श्राद्धकर्ता को एक दिन पहले उपवास रखना होता है, जिसे '''हबीक''' कहते। अगले दिन निर्धारित मृत्यु तिथि को अपराह्न में गजछाया के बाद श्राद्ध तर्पण तथा बाह्मण भोज कराया जाता है। मान्यता है कि पितृ पक्ष के दौरान [[पितर]] दोपहर बाद श्राद्धकर्ता के घर पक्षी/कौवे या चिडिया के रूप मे आते हैं। अतः श्राद्धकर्म कभी भी सुबह या एक बजे से पहले नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तक दिवंगत पितर अनुपस्थित रहते हैं। कुछ लोग भोजन पकाकर बिना पिण्ड दिये ही मन्दिर में थाली दे आते हैं। इससे भी मृतआत्मा की शान्ति नहीं होती और श्राद्धकर्ता को श्राद्ध का पुण्य नहीं मिलता।<ref name="bb"/>
==भोज्य पदार्थ==
श्राद्ध के दिन [[लहसुन]], प्याज रहित सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए, जिसमें उड़द की [[दाल]], बडे, [[चावल]], [[दूध]]-[[घी]] से बने पकवान, [[खीर]], मौसमी [[सब्जियाँ|सब्जी]] जो बेल पर लगती है, जैसे- [[तोरई]], [[लौकी]], सीताफल, [[भिण्डी]], कच्चे [[केला|केले]] की सब्जी आदि ही भोजन मे मान्य है। [[आलू]], [[मूली]], [[बैंगन]], अरबी तथा जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियाँ पितरो को नहीं चढ़ती हैं। श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन-तीन आहुतियों और तीन-तीन चावल के पिण्ड तैयार करने के बाद 'प्रेतमंजरी' के मंत्रोच्चार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरों को नाम और राशि से सम्बोधित करके आमंत्रित किया जाता है। कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से [[स्नान]] कराकर [[तिल]], [[जौ]] और [[सफ़ेद रंग]] के [[फूल]] और [[चन्दन]] आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे का पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है। फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है।
====संतानहीन का श्राद्ध====
श्राद्ध करने के लिए '[[मनुस्मृति]]' और '[[ब्रह्मवैवर्तपुराण]]' जैसे सभी प्रमुख शास्त्रों में यही बताया गया है कि दिवंगत पितरों के परिवार में या तो ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र और अगर पुत्र न हो तो धेवता (नाती), भतीजा, भांजा या शिष्य ही तिलांजलि और पिंडदान देने के पात्र होते हैं। कई ऐसे [[पितर]] भी होते हैं, जिनके पुत्र संतान नहीं होती है या फिर जो संतानहीन होते हैं। ऐसे पितरों के प्रति आदर पूर्वक अगर उनके भाई, भतीजे, भांजे या अन्य चाचा-ताऊ के परिवार के पुरुष सदस्य पितृ पक्ष में श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर पिंडदान, अन्नदान और वस्त्रदान करके ब्राह्मणों से विधिपूर्वक श्राद्ध कराते हैं तो पीड़ित [[आत्मा]] को मोक्ष मिलता है।
==स्त्री के लिए श्राद्ध का अधिकार==
एक मुख्य बात और है कि "क्या विभिन्न पारिवारिक परिस्थितियों में महिलाएँ भी श्राद्ध कर सकती है या नहीं"। इस प्रश्न को भी उठाया जाता रहा है। परिवार के पुरुष सदस्य या पुत्र-पौत्र आदि नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के [[अन्तिम संस्कार]] करते या मरने के बाद वर्षी श्राद्ध करते देखा गया है। परिस्थितियो के अनुसार यह एक अन्तिम विकल्प ही है, जो अब धीरे-धीरे चलन में आने लगा है। इस मामले में 'धर्मसिन्धु' सहित 'मनुस्मृति' और '[[गरुड़पुराण]]' आदि ग्रन्थ भी महिलाओं को पिण्डदान आदि करने का अधिकार प्रदान करते हैं। आज के समय में शंकराचार्यों ने भी इस प्रकार की व्यवस्थाओं को तर्क संगत बताया है कि श्रा़द्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को नहीं भूलें। अन्तिम संस्कार में भी महिला अपने परिवार/पितर को मुखाग्नि दे सकती है।
[[महाराष्ट्र]] सहित कई उत्तरी राज्यो में अब पुत्र/पौत्र नहीं होने पर पत्नी, बेटी, बहिन या नातिन ने भी सभी मृतक संस्कार करने आरंभ कर दिये हैं। [[काशी]] आदि के कुछ गुरुकुल आदि की [[संस्कृत]] [[वेद]] पाठशालाओं में तो कन्याओं को पांण्डित्य कर्म और वेद पठन आदि करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिसमें महिलाओं को [[श्राद्ध]] करने और कराने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।<ref name="bb"/>
 
*वैदिक परंपरा के अनुसार महिलाएँ [[यज्ञ]] अनुष्ठान, संकल्प और व्रत आदि तो रख सकती हैं, लेकिन श्राद्ध की विधि को स्वयं नहीं कर सकती हैं। विधवा स्त्री अगर संतानहीन हो तो अपने पति के नाम श्राद्ध का संकल्प रखकर [[ब्राह्मण]] या [[पुरोहित]] परिवार के पुरुष सदस्य से ही [[पिंडदान]] आदि का विधान पूरा करवा सकती है। इसी प्रकार जिन पितरों के कन्याएँ ही वंश परंपरा में हैं तो उन्हें पितरों के नाम व्रत रखकर उसके दामाद या धेवते, नाती आदि ब्राह्मण को बुलाकर श्राद्धकर्म की निवृत्ति करा सकते हैं। [[साधु]]-सन्तों के शिष्यगण या शिष्य विशेष श्राद्ध कर सकते हैं।
==पुराण और स्मृतिग्रंथों के अनुसार==
[[चित्र:Shraddh-2.jpg|thumb|left|220px|श्राद्ध कर्म करते [[ब्राह्मण]]]]
किसी भी मृतक के '[[अन्तिम संस्कार]]' और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए प्राचीन वैदिक ग्रन्थ '[[गरुड़पुराण]]' में कौन-कौन से सदस्य पुत्र के नहीं होने पर [[श्राद्ध]] कर सकते है, उसका उल्लेख अध्याय ग्यारह के [[श्लोक]] सख्या-  11, 12, 13 और 14 में विस्तार से किया गया है, जैसे-
<blockquote><poem>पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे  च सोदनः।
शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत॥
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके।
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः॥</poem></blockquote>
 
अर्थात् "ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी यह कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का [[श्राद्ध]] व [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]] और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है।<ref name="bb"/>
==सीता द्वारा पिण्डदान==
'[[वाल्मीकि रामायण]]' में [[सीता]] द्वारा पिण्डदान देकर [[दशरथ]] की [[आत्मा]] को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के दौरान भगवान [[राम]], [[लक्ष्मण]] और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए [[गया]] धाम पहुँचे। वहाँ श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की माँग कर दी। गया के आगे [[फल्गु नदी]] पर अकेली सीताजी असमंजस में पड गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ [[वट|वट वृक्ष]], [[केतकी]] के फूल और [[गाय]] को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। थोड़ी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया।[[चित्र:Pitra-Puja-shradh.jpg|thumb|250px|पितृ पूजा (श्राद्ध) करते श्रद्धालु]] बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है? इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण माँगा। तब सीताजी ने कहा कि- "यह फल्गू नदी की रेत केतकी के फूल, गाय और वट वृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं।" इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वट वृक्ष ने सही बात कही। तब सीता ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की।
 
दशरथ ने सीता की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया है। इस पर राम आश्वस्त हुए, लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीताजी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी, तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी, तुझमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी [[गया]] में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी और [[केतकी]] के फूल को श्राप दिया कि तुझे [[पूजा]] में कभी नहीं चढाया जाएगा। वट वृक्ष को सीताजी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेंगी। यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है, केतकी के फूल को पूजा-पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है।<ref name="bb"/>
==ध्यान रखने योग्य तथ्य==
श्राद्धकर्म में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे-
*[[श्राद्ध]] के दिन पवित्र भाव से पितरों के लिए भोजन बनवाएँ और श्राद्ध कर्म सम्पन्न करें।
*मध्याह्न में कुश के आसन पर स्वयं बैठें और [[ब्राह्मण]] को भी बिठाएँ। एक थाली में [[गाय]], कुत्ता और कौवे के लिए भोजन रखें। दूसरी थाली में पितरों के लिये भोजन रखें। इन दोनों थाली में भोजन समान ही रहेगा। सबसे पहले एक-एक करके गौ, कुत्ता और कौवे के लिए अंशदान करें और उसके बाद अपने पितरों का स्मरण करते हुए निम्न मंत्र का तीन बार जाप करें-
<blockquote><poem>"ॐ देवाभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नम: स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते।।"</poem></blockquote>
*यदि उक्त विधि को करना किसी के लिए संभव न हो, तब वह [[जल]] को पात्र में काले [[तिल]] डालकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]] कर सकता है।
*यदि घर में कोई भोजन बनाने वाला न हो, तो [[फल]] और मिष्ठान आदि का दान कर सकते हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindi.in.com/latest-news/money-and-life/Pitru-Paksha-Shradh-Respect-To-Ancestors-1504412-0.html|title=ऐसे करें पितरों को तृप्त करने के लिए श्राद्ध|accessmonthday=02 अगस्त|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
====अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य====
[[चित्र:Shraddh-3.jpg|thumb|150px|जलांजली देता एक व्यक्ति]]
[[चित्र:Cow-Calf.jpg|thumb|150px|[[गाय]]]]
[[चित्र:Crow.jpg|thumb|150px|कौआ]]
*जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु [[चतुर्दशी]] तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृ पक्ष की [[त्रयोदशी]] अथवा [[अमावस्या]] को किया जाता है। जिन व्यक्तियों की अकाल-मृत्यु (दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि) हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही किया जाता है। सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल [[नवमी]] को ही किया जाता है। नवमी तिथि [[माता]] के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है। संन्यासी पितृगणों का [[श्राद्ध]] केवल [[द्वादशी]] को किया जाता है। [[पूर्णिमा]] को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल [[भाद्रपद]] [[शुक्ल पक्ष]] की पूर्णिमा अथवा [[आश्विन]] में कृष्ण पक्ष की अमावस्या को किया जाता है। नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन [[शुक्ल पक्ष]] की [[प्रतिपदा]] को किया जाता है।
*पितरों के श्राद्ध के लिए '[[गया]]' को सर्वोत्तम माना गया है, इसे "तीर्थों का प्राण" तथा "पाँचवा धाम" भी कहते है। माता के श्राद्ध के लिए [[काठियावाड़]] में '[[सिद्धपुर]]' को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को 'मातृगया' के नाम से भी जाना जाता है। गया में [[पिता]] का श्राद्ध करने से पितृऋण से तथा सिद्धपुर में [[माता]] का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है।
*श्राद्ध में आमंत्रित [[ब्राह्मण]] के पैर धोकर आदर सहित आसन पर बैठाना चाहिए तथा तर्जनी से [[चंदन]]-तिलक लगाना चाहिए। श्राद्धकर्म में अधिक से अधिक तीन ब्राह्मण पर्याप्त माने गये हैं। श्राद्ध के लिए बने पकवान तैयार होने पर एक थाली में पाँच जगह थोड़े-थोड़े सभी पकवान परोसकर हाथ में [[जल]], अक्षत, [[पुष्प]], चन्दन, [[तिल]] ले कर पंचबलि ([[गाय]], कुत्ता, [[कौआ]], [[देवता]], पिपीलिका) के लिए संकल्प करना चाहिए। पंचबलि निकालकर कौआ के निमित्त निकाला गया अन्न कौआ को, कुत्ते का अन्न कुत्ते को तथा अन्य सभी अन्न [[गाय]] को देना चाहिए। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। ब्राह्मण भोजन के पश्चात् उन्हें अन्न, वस्त्र, ताम्बूल (पान का बीड़ा) एवं दक्षिणा आदि देकर [[तिलक]] कर चरणस्पर्श करना चाहिए। ब्राह्मणों के प्रस्थान उपरान्त परिवार सहित स्वयं भी भोजन करना चाहिए।
*श्राद्ध के लिए शालीन, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, शास्त्रों के ज्ञाता तथा तीन पीढि़यों से विख्यात ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए। योग्य ब्राह्मण के अभाव में भानजे, दौहित्र, दामाद, नाना, मामा, साले आदि को आमंत्रित किया जा सकता है। श्राद्ध के लिए आमंत्रित ब्राह्मण की जगह किसी अन्य को नहीं खिलाना चाहिए। श्राद्धभोक्ता को भी प्रथम निमंत्रण को त्यागकर किसी अन्य जगह नहीं जाना चाहिए। भोजन करते समय ब्राह्मण को मौन धारण कर भोजन करना चाहिए तथा हाथ के संकेत द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए।
*विकलांग अथवा अधिक अंगों वाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है। श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृ पक्ष में दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, औषध-सेवन, क्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग), पराये का अन्न खाना, यात्रा करना, क्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृ पक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है।
*श्राद्धकर्ता को प्रतिदिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए [[स्नान]] के बाद तर्पण करना चाहिए। श्राद्धकर्म में दौहित्र (पुत्री का पुत्र), कुतप (मध्यान्हः का समय), काले तिल एवं कुश अत्यन्त पवित्र माने गये है। संध्या और रात्रि के समय श्राद्ध नहीं करना चाहिए, किंतु ग्रहण काल में रात्रि को भी श्राद्ध किया जा सकता है। [[गया]], [[गंगा]], [[प्रयाग]], [[कुरुक्षेत्र]] तथा अन्य प्रमुख तीर्थों में श्राद्ध करने से पितर सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं। श्राद्धकर्म में श्रद्धा, शुद्धता, स्वच्छता एवं पवित्रता पर विशेष ध्यान देना चाहिए, इनके अभाव में श्राद्ध निष्फल हो जाता है। श्राद्धकर्म से पितरों को शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा प्रसन्न एवं तृप्त पितरों के आर्शीवाद से हमें सुख, समृद्धि, सौभाग्य, आरोग्य तथा आनन्द की प्राप्ति होती है।<ref name="cc"/>


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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07:59, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

श्राद्ध विषय सूची
पितृ पक्ष
पितृ पक्ष में पितरों को तिलांजली देना
पितृ पक्ष में पितरों को तिलांजली देना
अनुयायी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य पितृ पक्ष में किया जाने वाला श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। विधिपूर्वक श्राद्ध करने से पितर तृप्त होते हैं और प्रसन्न होकर सुख-समृद्धि तथा संतान सुख आदि प्रदान करते हैं।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात् आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
धार्मिक मान्यता 'ब्रह्मपुराण' ने श्राद्ध की परिभाषा यूँ दी है- "जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है"।
संबंधित लेख श्राद्ध के नियम, अन्वष्टका कृत्य, अष्टका कृत्य, अन्वाहार्य श्राद्ध, श्राद्ध विसर्जन, पितृ विसर्जन अमावस्या, तर्पण, माध्यावर्ष कृत्य, मातामह श्राद्ध, पितर, श्राद्ध और ग्रहण, श्राद्ध करने का स्थान, श्राद्ध की आहुति, श्राद्ध की कोटियाँ, श्राद्ध की महत्ता, श्राद्ध प्रपौत्र द्वारा, श्राद्ध फलसूची, श्राद्ध वर्जना, श्राद्ध विधि, पिण्डदान, गया, नासिक, आदित्य देवता और रुद्र देवता
विशेष पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध वर्ष के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें व्यक्ति श्राद्ध प्रक्रिया में शामिल होकर 'देव ऋण', 'ऋषि ऋण' तथा 'पितृ ऋण', तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है।
अन्य जानकारी पितृ पक्ष में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर उन्हें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं और सुख-समृद्धि आदि देते हैं।

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिन पितृ पक्ष ('पितृ' अथवा 'पिता') के नाम से जाने जाते है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध आदि सम्पन करते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा 'पितृ पक्ष' में। जिस मास और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उस तिथि को 'एकोदिष्ट श्राद्ध' किया जाता है। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को 'पितृ श्राद्ध' कहते हैं।

महत्त्व

'पितृ पक्ष' अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर सूर्य देव जब कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब हमारे पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे तर्पण की कामना करते हैं। श्राद्ध से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं।[1] पितृ पक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।[2]

तीन ऋण

भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य पर इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात् तीन प्रकार के ऋण होते हैं-

  1. देव ऋण
  2. ऋषि ऋण
  3. पितृ ऋण
श्राद्ध में पिण्डदान करते लोग

पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें व्यक्ति श्राद्ध प्रक्रिया में शामिल होकर उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है। महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि- "मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि- "राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा।" इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध-तर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी।

प्रमुख श्राद्ध स्थल

जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृगण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दु:खी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं। अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है। भारत की पावन भूमि में ऐसे कई स्थान हैं, जहाँ ऐसे भूले-भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते हैं। जैसे कि बिहार में गया के घाट पर, गंगासागर तथा महाराष्ट्र में त्र्यम्बकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, उत्तर प्रदेश में गडगंगा, उत्तराखंड में हरिद्वार भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्धकर्म को आरंभ करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं। इन स्थलों में जाकर वे श्रद्धालु भी पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ कर सकते हैं, जिन्होंने पहले कभी भी श्राद्घ न किया हो। वैसे तो पितृ पक्ष के श्राद्ध की महिमा अपार है, लेकिन जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत पिता, माता दादा, परदादा, नाना, नानी आदि का इन 16 श्राद्धों में व्रत उपवास रखकर ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा आदि देते हैं, उनके घर लक्ष्मी और विष्णु भगवान सदैव ही बने रहते हैं। अर्थात् वे सदैव ही धन धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।[2]

श्राद्ध तिथियाँ

श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिकजनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है, जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात् पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं, जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्न्यासियों का श्राद्ध द्वादशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। जीवन मे यदि कभी भूले-भटके माता-पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृ पक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-चावल, पूरी व पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा-ताऊ, चाचा, परदादा, नाना-नानी आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएँ। यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृ पक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन भी प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। 'मनुस्मृति' में इसका ख़ास प्रावधान है।

पितृ पक्ष की सभी पंद्रह तिथियाँ श्राद्ध को समर्पित हैं। अतः वर्ष के किसी भी माह एवं तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों का श्राद्ध उसी तिथि को किया जाना चाहिए। पितृ पक्ष में 'कुतप वेला' अर्थात् मध्याह्न के समय (दोपहर साढे़ बारह से एक बजे तक) श्राद्ध करना चाहिए। प्रत्येक माह की अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि मानी जाती है, किंतु आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या पितरों हेतु विशेष फलदायक है। इस अमावस्या को पितृविसर्जनी अमावस्या अथवा महालया भी कहा जाता है। इसी तिथि को समस्त पितरों का विसर्जन होता है। जिन पितरों की पुण्य तिथि ज्ञात नहीं होती अथवा किन्हीं कारणवश जिनका श्राद्ध पितृ पक्ष के पंद्रह दिनों में नहीं हो पाता, उनका श्राद्ध, दान, तर्पण आदि इसी तिथि को किया जाता है। इस अमावस्या को सभी पितर अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के द्वार पर पिण्डदान, श्राद्ध एवं तर्पण आदि की कामना से जाते हैं, तथा इन सबके न मिलने पर शाप देकर पितृलोक को प्रस्थान कर जाते हैं।[3]

पितरों का आगमन

श्राद्ध करते लोग

श्राद्ध से पहले श्राद्धकर्ता को एक दिन पहले उपवास रखना होता है, जिसे हबीक कहते। अगले दिन निर्धारित मृत्यु तिथि को अपराह्न में गजछाया के बाद श्राद्ध तर्पण तथा बाह्मण भोज कराया जाता है। मान्यता है कि पितृ पक्ष के दौरान पितर दोपहर बाद श्राद्धकर्ता के घर पक्षी/कौवे या चिडिया के रूप मे आते हैं। अतः श्राद्धकर्म कभी भी सुबह या एक बजे से पहले नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तक दिवंगत पितर अनुपस्थित रहते हैं। कुछ लोग भोजन पकाकर बिना पिण्ड दिये ही मन्दिर में थाली दे आते हैं। इससे भी मृतआत्मा की शान्ति नहीं होती और श्राद्धकर्ता को श्राद्ध का पुण्य नहीं मिलता।[2]

भोज्य पदार्थ

श्राद्ध के दिन लहसुन, प्याज रहित सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए, जिसमें उड़द की दाल, बडे, चावल, दूध-घी से बने पकवान, खीर, मौसमी सब्जी जो बेल पर लगती है, जैसे- तोरई, लौकी, सीताफल, भिण्डी, कच्चे केले की सब्जी आदि ही भोजन मे मान्य है। आलू, मूली, बैंगन, अरबी तथा जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियाँ पितरो को नहीं चढ़ती हैं। श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन-तीन आहुतियों और तीन-तीन चावल के पिण्ड तैयार करने के बाद 'प्रेतमंजरी' के मंत्रोच्चार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरों को नाम और राशि से सम्बोधित करके आमंत्रित किया जाता है। कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से स्नान कराकर तिल, जौ और सफ़ेद रंग के फूल और चन्दन आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे का पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है। फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है।

संतानहीन का श्राद्ध

श्राद्ध करने के लिए 'मनुस्मृति' और 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' जैसे सभी प्रमुख शास्त्रों में यही बताया गया है कि दिवंगत पितरों के परिवार में या तो ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र और अगर पुत्र न हो तो धेवता (नाती), भतीजा, भांजा या शिष्य ही तिलांजलि और पिंडदान देने के पात्र होते हैं। कई ऐसे पितर भी होते हैं, जिनके पुत्र संतान नहीं होती है या फिर जो संतानहीन होते हैं। ऐसे पितरों के प्रति आदर पूर्वक अगर उनके भाई, भतीजे, भांजे या अन्य चाचा-ताऊ के परिवार के पुरुष सदस्य पितृ पक्ष में श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर पिंडदान, अन्नदान और वस्त्रदान करके ब्राह्मणों से विधिपूर्वक श्राद्ध कराते हैं तो पीड़ित आत्मा को मोक्ष मिलता है।

स्त्री के लिए श्राद्ध का अधिकार

एक मुख्य बात और है कि "क्या विभिन्न पारिवारिक परिस्थितियों में महिलाएँ भी श्राद्ध कर सकती है या नहीं"। इस प्रश्न को भी उठाया जाता रहा है। परिवार के पुरुष सदस्य या पुत्र-पौत्र आदि नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के अन्तिम संस्कार करते या मरने के बाद वर्षी श्राद्ध करते देखा गया है। परिस्थितियो के अनुसार यह एक अन्तिम विकल्प ही है, जो अब धीरे-धीरे चलन में आने लगा है। इस मामले में 'धर्मसिन्धु' सहित 'मनुस्मृति' और 'गरुड़पुराण' आदि ग्रन्थ भी महिलाओं को पिण्डदान आदि करने का अधिकार प्रदान करते हैं। आज के समय में शंकराचार्यों ने भी इस प्रकार की व्यवस्थाओं को तर्क संगत बताया है कि श्रा़द्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को नहीं भूलें। अन्तिम संस्कार में भी महिला अपने परिवार/पितर को मुखाग्नि दे सकती है। महाराष्ट्र सहित कई उत्तरी राज्यो में अब पुत्र/पौत्र नहीं होने पर पत्नी, बेटी, बहिन या नातिन ने भी सभी मृतक संस्कार करने आरंभ कर दिये हैं। काशी आदि के कुछ गुरुकुल आदि की संस्कृत वेद पाठशालाओं में तो कन्याओं को पांण्डित्य कर्म और वेद पठन आदि करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिसमें महिलाओं को श्राद्ध करने और कराने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।[2]

  • वैदिक परंपरा के अनुसार महिलाएँ यज्ञ अनुष्ठान, संकल्प और व्रत आदि तो रख सकती हैं, लेकिन श्राद्ध की विधि को स्वयं नहीं कर सकती हैं। विधवा स्त्री अगर संतानहीन हो तो अपने पति के नाम श्राद्ध का संकल्प रखकर ब्राह्मण या पुरोहित परिवार के पुरुष सदस्य से ही पिंडदान आदि का विधान पूरा करवा सकती है। इसी प्रकार जिन पितरों के कन्याएँ ही वंश परंपरा में हैं तो उन्हें पितरों के नाम व्रत रखकर उसके दामाद या धेवते, नाती आदि ब्राह्मण को बुलाकर श्राद्धकर्म की निवृत्ति करा सकते हैं। साधु-सन्तों के शिष्यगण या शिष्य विशेष श्राद्ध कर सकते हैं।

पुराण और स्मृतिग्रंथों के अनुसार

श्राद्ध कर्म करते ब्राह्मण

किसी भी मृतक के 'अन्तिम संस्कार' और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए प्राचीन वैदिक ग्रन्थ 'गरुड़पुराण' में कौन-कौन से सदस्य पुत्र के नहीं होने पर श्राद्ध कर सकते है, उसका उल्लेख अध्याय ग्यारह के श्लोक सख्या- 11, 12, 13 और 14 में विस्तार से किया गया है, जैसे-

पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे च सोदनः।
शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत॥
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके।
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः॥

अर्थात् "ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी यह कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्धतर्पण और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है।[2]

सीता द्वारा पिण्डदान

'वाल्मीकि रामायण' में सीता द्वारा पिण्डदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुँचे। वहाँ श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की माँग कर दी। गया के आगे फल्गु नदी पर अकेली सीताजी असमंजस में पड गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वट वृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। थोड़ी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया।

पितृ पूजा (श्राद्ध) करते श्रद्धालु

बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है? इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण माँगा। तब सीताजी ने कहा कि- "यह फल्गू नदी की रेत केतकी के फूल, गाय और वट वृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं।" इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वट वृक्ष ने सही बात कही। तब सीता ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की।

दशरथ ने सीता की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया है। इस पर राम आश्वस्त हुए, लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीताजी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी, तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी, तुझमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी और केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढाया जाएगा। वट वृक्ष को सीताजी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेंगी। यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है, केतकी के फूल को पूजा-पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है।[2]

ध्यान रखने योग्य तथ्य

श्राद्धकर्म में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे-

  • श्राद्ध के दिन पवित्र भाव से पितरों के लिए भोजन बनवाएँ और श्राद्ध कर्म सम्पन्न करें।
  • मध्याह्न में कुश के आसन पर स्वयं बैठें और ब्राह्मण को भी बिठाएँ। एक थाली में गाय, कुत्ता और कौवे के लिए भोजन रखें। दूसरी थाली में पितरों के लिये भोजन रखें। इन दोनों थाली में भोजन समान ही रहेगा। सबसे पहले एक-एक करके गौ, कुत्ता और कौवे के लिए अंशदान करें और उसके बाद अपने पितरों का स्मरण करते हुए निम्न मंत्र का तीन बार जाप करें-

"ॐ देवाभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नम: स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते।।"

  • यदि उक्त विधि को करना किसी के लिए संभव न हो, तब वह जल को पात्र में काले तिल डालकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके तर्पण कर सकता है।
  • यदि घर में कोई भोजन बनाने वाला न हो, तो फल और मिष्ठान आदि का दान कर सकते हैं।[4]

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

जलांजली देता एक व्यक्ति
गाय
कौआ
  • जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु चतुर्दशी तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृ पक्ष की त्रयोदशी अथवा अमावस्या को किया जाता है। जिन व्यक्तियों की अकाल-मृत्यु (दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि) हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही किया जाता है। सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है। नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है। संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है। पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा अथवा आश्विन में कृष्ण पक्ष की अमावस्या को किया जाता है। नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को किया जाता है।
  • पितरों के श्राद्ध के लिए 'गया' को सर्वोत्तम माना गया है, इसे "तीर्थों का प्राण" तथा "पाँचवा धाम" भी कहते है। माता के श्राद्ध के लिए काठियावाड़ में 'सिद्धपुर' को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को 'मातृगया' के नाम से भी जाना जाता है। गया में पिता का श्राद्ध करने से पितृऋण से तथा सिद्धपुर में माता का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है।
  • श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मण के पैर धोकर आदर सहित आसन पर बैठाना चाहिए तथा तर्जनी से चंदन-तिलक लगाना चाहिए। श्राद्धकर्म में अधिक से अधिक तीन ब्राह्मण पर्याप्त माने गये हैं। श्राद्ध के लिए बने पकवान तैयार होने पर एक थाली में पाँच जगह थोड़े-थोड़े सभी पकवान परोसकर हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन, तिल ले कर पंचबलि (गाय, कुत्ता, कौआ, देवता, पिपीलिका) के लिए संकल्प करना चाहिए। पंचबलि निकालकर कौआ के निमित्त निकाला गया अन्न कौआ को, कुत्ते का अन्न कुत्ते को तथा अन्य सभी अन्न गाय को देना चाहिए। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। ब्राह्मण भोजन के पश्चात् उन्हें अन्न, वस्त्र, ताम्बूल (पान का बीड़ा) एवं दक्षिणा आदि देकर तिलक कर चरणस्पर्श करना चाहिए। ब्राह्मणों के प्रस्थान उपरान्त परिवार सहित स्वयं भी भोजन करना चाहिए।
  • श्राद्ध के लिए शालीन, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, शास्त्रों के ज्ञाता तथा तीन पीढि़यों से विख्यात ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए। योग्य ब्राह्मण के अभाव में भानजे, दौहित्र, दामाद, नाना, मामा, साले आदि को आमंत्रित किया जा सकता है। श्राद्ध के लिए आमंत्रित ब्राह्मण की जगह किसी अन्य को नहीं खिलाना चाहिए। श्राद्धभोक्ता को भी प्रथम निमंत्रण को त्यागकर किसी अन्य जगह नहीं जाना चाहिए। भोजन करते समय ब्राह्मण को मौन धारण कर भोजन करना चाहिए तथा हाथ के संकेत द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए।
  • विकलांग अथवा अधिक अंगों वाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है। श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृ पक्ष में दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, औषध-सेवन, क्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग), पराये का अन्न खाना, यात्रा करना, क्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृ पक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है।
  • श्राद्धकर्ता को प्रतिदिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्नान के बाद तर्पण करना चाहिए। श्राद्धकर्म में दौहित्र (पुत्री का पुत्र), कुतप (मध्यान्हः का समय), काले तिल एवं कुश अत्यन्त पवित्र माने गये है। संध्या और रात्रि के समय श्राद्ध नहीं करना चाहिए, किंतु ग्रहण काल में रात्रि को भी श्राद्ध किया जा सकता है। गया, गंगा, प्रयाग, कुरुक्षेत्र तथा अन्य प्रमुख तीर्थों में श्राद्ध करने से पितर सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं। श्राद्धकर्म में श्रद्धा, शुद्धता, स्वच्छता एवं पवित्रता पर विशेष ध्यान देना चाहिए, इनके अभाव में श्राद्ध निष्फल हो जाता है। श्राद्धकर्म से पितरों को शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा प्रसन्न एवं तृप्त पितरों के आर्शीवाद से हमें सुख, समृद्धि, सौभाग्य, आरोग्य तथा आनन्द की प्राप्ति होती है।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पूर्वजों के प्रति श्रृद्धा का महापर्व (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 अगस्त, 2013।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 पितृदोष निवारण के लिए पितृपक्ष के श्राद्ध (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 अगस्त, 2013।
  3. 3.0 3.1 पितरों को समर्पित श्राद्ध पक्ष की अहमियत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 03 अगस्त, 2013।
  4. ऐसे करें पितरों को तृप्त करने के लिए श्राद्ध (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 अगस्त, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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