"अकबर": अवतरणों में अंतर

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'''जलाल उद्दीन मुहम्मद अकबर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Jalal-ud-din Muhammad Akbar'', जन्म: [[15 अक्टूबर]], 1542 ई. [[अमरकोट]]<ref name="akbarnama"/> - मृत्यु: [[27 अक्टूबर]], 1605 ई. [[आगरा]]) [[भारत]] का महानतम [[मुग़ल]] शंहशाह (शासनकाल 1556 - 1605 ई.) था, जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। अपने साम्राज्य की एकता बनाए रखने के लिए अकबर द्वारा ऐसी नीतियाँ अपनाई गईं, जिनसे गैर मुसलमानों की राजभक्ति जीती जा सके। [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में आज अकबर का नाम काफ़ी प्रसिद्ध है। उसने अपने शासनकाल में सभी धर्मों का सम्मान किया था, सभी जाति-वर्गों के लोगों को एक समान माना और उनसे अपने मित्रता के सम्बन्ध स्थापित किये। अकबर ने अपने शासनकाल में सारे [[भारत]] को एक साम्राज्य के अंतर्गत लाने का प्रयास किया, जिसमें वह काफ़ी हद तक सफल भी रहा।
==अकबर (शासन काल सन 1556 से 1605 )==
जब [[हुमायूँ]] [[शेरशाह]] से हारकर भागने की तैयारी में था, उस समय अकबर का जन्म [[सिंध प्रांत|सिंध]] के रेगिस्तान में अमरकोट के पास 23 नवंबर सन 1542 (लगभग) में हुआ था। हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा। सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया, किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में [[दिल्ली]] में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन 1556 के आस-पास) पंजाब के ज़िला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था। इस समय तक हुमायूँ की मृत्यु का समाचार गुप्त रखा गया और अकबर के गद्दी पर बैठने पर ही हुमायूँ को दिल्ली में दफ़नाया गया था। उसका मक़बरा उसकी दूसरी पत्नी रानी बेगम ने अपने निजी धन से बनवाना शुरू किया था, जो 13-14 वर्ष के बाद (अप्रैल सन 1570 में) बन कर तैयार हुआ था। यह मक़बरा अकबर कालीन मुग़ल स्थापत्य शैली का एक दर्शनीय नमूना है।
==अकबर और बैरमख़ाँ==
हुमायूँ ने भारत से निष्कासित होने के बाद [[क़ाबुल]] पर अधिकार किया, और 10 वर्ष के बालक अकबर को सं. 1609 (जनवरी सन 1552) में गजनी का राज्यपाल बनाया था। जब हुमायूँ पुन: भारत में आया, तब 13 वर्ष का अकबर पंजाब का राज्यपाल था। जिस समय कलानूर में उसे हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, उस समय उसकी आयु केवल 13−14 वर्ष की थी। छोटी उम्र में ही वह वयस्क व्यक्तियों से अधिक उतार−चढ़ाव के अनुभव प्राप्त कर चुका था। आरंभ में बैरमख़ाँ उसका संरक्षक था, जो उसकी तरफ से राज्य का संचालन करता था।
{{highleft}}सम्राट अकबर ने निर्माण के लिए लाल पत्थर दिया। कहा जाता है कि मन्दिर के शिल्पकार की सहायता अकबर के प्रभाव के कुछ ईसाई पादरियों ने की थी। यह मिश्रित शिल्पकला का उत्तरी भारत में अपनी क़िस्म का एक ही नमूना है। {{highclose}}
अकबर के शासन काल के आरंभिक 5 वर्ष में उसके संरक्षक बैरमख़ाँ का प्रभुत्व था। अकबर को [[बैरमख़ाँ]] की कठोर नीति कतई पंसद नहीं थी। इधर उसने अपनी  योग्यता, वीरता और प्रबंध−कुशलता का भी  परिचय दिया। वह बैरमख़ाँ के हाथ की कठपुतली बनना नहीं चाहता था। उसने सन 1560 में बैरमख़ाँ को हज भेजा और स्वतंत्रतापूर्वक राज्य की व्यवस्था करने लगा। हज के मार्ग में बैरमख़ाँ की मृत्यु हो गई थी। उस समय उसका एक मात्र पुत्र [[रहीम]] केवल 4 वर्ष का बालक था। अकबर ने रहीम को अपने संरक्षण में रखा।
==राजपूतों से वैवाहिक संबंध==
बैरमख़ाँ के अनुशासन से मुक्त होते ही अकबर ने उदार नीति से शासन करना आरंभ किया। उसने शेरशाह का अनुकरण करते हुए हिन्दुओं के साथ सद्व्यवहार किया। उनके सहयोग से राज्य विस्तार और शासन को सुदृढ़ करने में सफलता प्राप्त की थी। वह राजपूतों की वीरता और प्रतिज्ञा−पालन की आदत से प्रभावित था। उसने अपनी कुशाग्र बुद्धि से समझ लिया कि भारत में मुग़ल राज्य को सुदृढ़ और स्थायी बनाने के लिए राजपूत वीरों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है, उसके लिए वह राजपूत राजाओं से मित्रतापूर्ण वैवाहिक संबंध स्थापित करने लगा। उससे पहले सुल्तानों के काल में सुंदर हिन्दू-लड़कियों को मुसलमानी शासक बलात पकड़ कर निकाह कर लेते थे, जिससे पारस्परिक कटुता की निरंतर वृद्धि होती रही थी। अकबर ने बल के स्थान पर मित्रता का व्यवहार किया। इस प्रकार उसने सुल्तानी काल की कुप्रथा को ख़त्म कर कटुता के स्थान पर हिन्दुओं का प्रेम पाया।
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[[चित्र:govindev-temple-2.jpg|[[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्द देव मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Govind Dev Temple, Vrindavan|thumb|250px|left]]


14 जनवरी, सन 1562 में अपनी प्रथम अजमेर यात्रा में वह आमेर राजा [[बिहारीमल]] से मिला और राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर  सहयोग प्राप्त करने में सफल हुआ। इस प्रकार राजपूत राजाओं में कछवाहा नरेश सबसे पहले अकबर के सम्बन्धी और सहायक हुए। राजा बिहारीमल ने अपनी बेटी का विवाह अकबर के साथ किया। उस समय अकबर की उम्र 19 वर्ष थी। यह विवाह अकबर की उन्नति का सूत्रधार बन गया। बिहारीमल का पुत्र भगवानदास और पौत्र मानसिंह अंत तक अकबर के सहयोगी और सहायक बने रहे थे।
{{संदर्भ|हुमायूँ|जहाँगीर|दीन-ए-इलाही|अकबरनामा|आइन-इ-अकबरी|तानसेन|टोडरमल|बीरबल|बैजू बावरा}}
'''अकबर की पहली पत्नी और युवराज सलीम की माँ का मूल नाम अज्ञात है।''' वह अपने वास्तविक नाम से नहीं अपनी उपाधि 'मरियम ज़मानी' (विश्व के प्रति दयालु महिला) के नाम से प्रसिद्ध रही थी। अकबरी दरबार के इतिहासकार '[[अबुल फ़ज़ल]]' कृत '[[आइना-ए-अकबरी]]' में और [[जहाँगीर]] के लिखे आत्मचरित 'तुजुक जहाँगीर' में उसे मरियम ज़मानी ही कहा गया है । यह उपाधि उसे सलीम के जन्म पर सन 1569 में दी गई थी। '''कुछ लोगों ने उसका नाम जोधाबाई लिख दिया है, जो सही नहीं है'''। जोधाबाई  जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह सलीम के साथ सन 1585 में हुआ था।
==परिचय==
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{{main|अकबर का परिचय}}
वह सम्राट अकबर की महारानी और जहाँगीर की माता होने से मुग़ल अंत:पुर की सर्वाधिक प्रतिष्ठित नारी थीं। वह मुस्लिम बादशाह से विवाह होने पर भी  हिन्दू धर्म के प्रति निष्ठावान रही। सम्राट अकबर ने उसे पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी थी। वह हिन्दू धर्म के अनुसार धर्मोपासना, उत्सव−त्योहार एवं रीति−रिवाजों को करती थी। उसकी मृत्यु सम्राट अकबर के देहावसान के 18 वर्ष पश्चात सन 1623 में [[आगरा]] में हुई थी। उसकी याद में एक भव्य स्मारक आगरा के निकटवर्ती सिकंदरा नामक स्थान पर सम्राट के मक़बरे के समीप बनाया गया, जो आज भी है।
अकबर का जन्म [[15 अक्टूबर]], 1542 ई. (19 इसफन्दरमिज [[रविवार]], रजब हिजरी का दिन या [[विक्रम संवत]] 1599 के [[कार्तिक]] मास की छठी)<ref name="akbarnama">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=अकबरनामा |लेखक=शेख अबुल फजल |अनुवादक=डॉ. मथुरालाल शर्मा |आलोचक= |प्रकाशक=राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=1 |url=|ISBN=}}</ref> को '[[हमीदा बानो बेगम|हमीदा बानू]]' के गर्भ से [[अमरकोट]] के [[राणा वीरसाल]] के महल में हुआ था। आजकल कितने ही लोग अमरकोट को उमरकोट समझने की ग़लती करते हैं। वस्तुत: यह इलाका [[राजस्थान]] का अभिन्न अंग था। आज भी वहाँ [[हिन्दू]] [[राजपूत]] बसते हैं। रेगिस्तान और [[सिंध]] की सीमा पर होने के कारण [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने इसे सिंध के साथ जोड़ दिया और विभाजन के बाद वह [[पाकिस्तान]] का अंग बन गया।
==माता-पिता से बिछुड़ना==
{{main|अकबर का माता-पिता से बिछुड़ना}}
हुमायूँ अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए संघर्षरत था। तभी वह [[ईरान]] के तहमास्प की सहायता प्राप्त करने के ख्याल से कंधार की ओर चला। बड़ी मुश्किल से सेहवान पर उसने [[सिंध]] पार किया, फिर बलोचिस्तान के रास्ते [[क्वेटा]] के दक्षिण मस्तंग स्थान पर पहुँचा, जो कि [[कंधार]] की सीमा पर था। इस समय यहाँ पर उसका छोटा भाई [[अस्करी]] अपने भाई काबुल के शासक कामराँ की ओर से हुकूमत कर रहा था। हुमायूँ को ख़बर मिली कि, अस्करी हमला करके उसको पकड़ना चाहता है। मुकाबला करने के लिए आदमी नहीं थे। जरा-सी भी देर करने से काम बिगड़ने वाला था। उसके पास में घोड़ों की भी कमी थी। उसने तर्दी बेग से माँगा, तो उसने देने से इन्कार कर दिया। हुमायूँ, हमीदा बानू को अपने पीछे घोड़े पर बिठाकर पहाड़ों की ओर भागा। उसके जाते देर नहीं लगी कि अस्करी दो हज़ार सवारों के साथ पहुँच गया। हुमायूँ साल भर के शिशु अकबर को ले जाने में असमर्थ हुआ। वह वहीं डेरे में छूट गया। अस्करी ने भतीजे के ऊपर गुस्सा नहीं उतारा और उसे जौहर आदि के हाथ अच्छी तरह से कंधार ले गया। कंधार में अस्करी की पत्नी सुल्तान बेगम वात्सल्य दिखलाने के लिए तैयार थी।
==शिक्षा==
{{main|अकबर की शिक्षा}}
अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। हुमायूँ ने सोचा, मुल्ला की बेपरवाही से लड़का पढ़ नहीं रहा है। लोगों ने भी जड़ दिया-“मुल्ला को कबूतरबाज़ी का बहुत शौक़ है। उसने शागिर्द को भी कबूतरों के मेले में लगा दिया है”। फिर मुल्ला बायजीद शिक्षक हुए, लेकिन कोई भी फल नहीं निकला। दोनों पुराने मुल्लाओं के साथ मौलाना अब्दुल कादिर के नाम को भी शामिल करके चिट्ठी डाली गई। संयोग से मौलाना का नाम निकल आया। कुछ दिनों तक वह भी पढ़ाते रहे। [[काबुल]] में रहते अकबर को कबूतरबाज़ी और कुत्तों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं थी। हिन्दुस्तान में आया, तब भी वहीं रफ्तार बेढंगी रही। मुल्ला पीर मुहम्मद-[[बैरम ख़ाँ]] के वकील को यह काम सौंपा गया। लेकिन अकबर ने तो कसम खा ली थी कि, बाप पढ़े न हम।
==राज्याभिषेक==
{{main|अकबर का राज्याभिषेक}}
1551 ई. में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में पहली बार [[अकबर]] को [[ग़ज़नी]] की सूबेदारी सौंपी गई। [[हुमायूँ]] ने हिन्दुस्तान की पुनर्विजय के समय मुनीम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। [[सिकन्दर सूर]] से अकबर द्वारा [[सरहिन्द]] को छीन लेने के बाद हुमायूँ ने 1555 ई. में उसे अपना ‘युवराज’ घोषित किया। [[दिल्ली]] पर अधिकार कर लेने के बाद हुमायूँ ने अकबर को [[लाहौर]] का गर्वनर नियुक्त किया, साथ ही अकबर के संरक्षक मुनीम ख़ाँ को अपने दूसरे लड़के मिर्ज़ा हकीम का अंगरक्षक नियुक्त कर, तुर्क सेनापति [[बैरम ख़ाँ]] को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।


==मेवाड़ का युद्ध==
{{tocleft}}
[[राजस्थान]] में [[मेवाड़]] राज्य अपनी गौरवमयी परंपरा और अनुपम वीरता के कारण सर्वोपरि माना जाता था। [[राजपूत]] राजाओं पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अकबर ने मेवाड़ की राजधानी [[चित्तौड़]] पर विशाल सेना के साथ आक्रमण किया था। उस समय मेवाड़ का राजा उदयसिंह था । वह डरकर राजधानी से भाग गया, लेकिन वहाँ के सामंतों ने बिना राजा के ही अकबर की सेना से संघर्ष किया। इन वीरों के कारण अकबर की विशाल सेना को चित्तौड़ पर शीघ्र विजय नहीं मिली थी। बाद में कहीं मुग़ल सेना चित्तौड पर अधिकार कर सकी थी। सम्राट अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर राज्य के अधिकांश भाग को अपने राज्य में मिला लिया था, किंतु [[महाराणा प्रताप]] ने [[मुग़ल]] सम्राट की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। वे जीवन पर्यंत छापामार युद्ध कर अकबर को परेशान करते रहे थे।


==प्रशासन व्यवस्था==
<div align="center">'''[[अकबर का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
सुल्तानों के शासनकाल का प्रशासनिक या राजनैतिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं था। यही स्थिति अकबर के समय में थी। अकबर के समय में वित्तमन्त्री राजा [[टोडरमल]] ने प्रशासन का ढ़ाँचा ही बदल दिया था। उसने भूमि का नया बंदोबस्त कर राज्य को 15 सूबों में बाँट दिया था। प्रत्येक सूबे में कई सरकार(ज़िले),प्रत्येक सरकार में कई परगने और प्रत्येक परगना में कई मुहालें होते थे। सूबे के शासन को 'सिपहसालार' और सरकार के हकिम को 'फौजदार' कहा जाता था। बड़े−बड़े शहरों में 'कोतवाल' भी होते थे। सब सूबों में आगरा का सूबा सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण था। आगरा सूबा में 13 सरकारें और 203 परगने थे। आगरा सरकार में 31 परगनें थे, जिनका क्षेत्रफल 1864 वर्ग मील था। उस समय में मथुरा मंडल आगरा सरकार के अंतर्गत था और उनका प्रशासनिक केन्द्र [[महावन]] था। मथुरा नगर तब साधारण ही था, जिसका कोई प्रशासनिक महत्व नहीं था। सुल्तानों के समय से ही [[मथुरा|मथुरामंडल]] का प्रशासनिक केन्द्र महावन रहा था, मुग़ल काल में वही व्यवस्था कायम रही थी। अकबर के समय में महावन का हाक़िम अलीख़ान था। उसका पिता [[ब्रज]] के [[बच्छगाँव]] का रहने वाला क्षत्रिय था, जो पठानों के समय में मुसलमान हो गया था। अलीख़ान की पुत्री पीरजादी बचपन से ही [[कृष्ण]]−भक्त थी। उसके प्रभाव से अलीख़ान कृष्ण−भक्त हो गया था। दोनों पिता−पुत्री गो. [[विट्टलनाथ]] जी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। मथुरा मुहाल का तब विस्तार 37,347 बीघा था और उसकी मालगुजारी 11,55807 दाम थी।


==आगरा में राजधानी की व्यवस्था==
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2 |पूर्णता= |शोध=}}
मुग़लों  के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी। सुल्तान [[सिंकदर लोदी]] के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था। यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी। मुग़ल राज्य के संस्थापक [[बाबर]] ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया। बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया। मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया। इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था। कुछ समय बाद अकबर ने [[फ़तेहपुर सीकरी]] को राजधानी बनाया।
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
==तीर्थंकर और जजिया हटाना==
==संबंधित लेख==
अकबर राजा बनने के 8वें वर्ष सन 1563 में पहली बार मथुरा आया था। तभी उसे पता चला कि मथुरा में तीर्थ−यात्रियों से कर लिया जाता है। उसने तीर्थंकर बंद करने का हुक्म दे दिया, इस कर से शाही खजाने को 10 लाख सालाना की आमदनी होती थी। गैर मुस्लिमों पर एक कर और लगाया था, जो [[जज़िया]] कहलाता था। अकबर ने अपने शासन के नवें वर्ष मार्च, सन 1564 में उस कर को भी हटा दिया था। इस कर को हटवाने में अकबर की हिन्दू-रानियों और हिन्दू दरबारियों का विशेष रूप से हाथ था।
{{मुग़ल साम्राज्य}}{{अकबर के नवरत्न}}{{मुग़ल काल}}{{सल्तनतकालीन प्रशासन}}
 
[[Category:अकबर]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]][[Category:मुग़ल साम्राज्य]][[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:मध्य काल]][[Category:इतिहास कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]]
==धर्मस्थानों के निर्माण की आज्ञा==
__INDEX__
सम्राट अकबर ने सभी धर्म वालों को अपने मंदिर−देवालय आदि बनवाने की स्वतंत्रता प्रदान की थी। जिसके कारण ब्रज के विभिन्न स्थानों में पुराने पूजा−स्थलों का पुनरूद्धार किया गया और नये मंदिर−देवालयों को बनवाया गया था।
 
==गो−वध पर रोक==
हिन्दू समुदाय में गौ को पवित्र माना जाता है। मुसलमान हिन्दुओं को आंतकित करने के लिए गौ−वध किया करते थे। अकबर ने गौ−वध बंद करने की आज्ञा देकर हिन्दू जनता के मन को जीत लिया था। शाही आज्ञा से गौ−हत्या के अपराध की सजा मृत्यु थी।
==धार्मिक विद्वानों का सत्संग==
जिस समय अकबर ने अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरी में स्थानान्तरित की, उस समय उसकी धार्मिक जिज्ञासा बड़ी प्रबल थी। उसने वहाँ राजकीय इमारतों के साथ ही साथ एक इबादतखाना (उपासना गृह) भी सन 1575 में बनवाया था, जहाँ वह सभी धर्मों के विद्वानों के प्रवचन सुन उनसे विचार−विमर्श किया करता था। वह अपना अधिकांश समय धर्म−चर्चा में ही लगाता था। वह मुस्लिम धर्म के विद्वानों के साथ ही साथ ईसाई, [[जैन]] और [[वैष्णव]] धर्माचार्यों के प्रवचन सुनता था और कभी−कभी उनमें शास्त्रार्थ भी कराता था। सन 1576 से जनवरी, सन 1579 तक लगभग 3 वर्ष तक वहाँ धार्मिक विचार−विमर्श का जोर बढ़ता गया। उस समय के धर्माचार्य श्री विट्ठलनाथ जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हीरविजय सूरि श्वेतांबर जैन धर्म के विद्वान आचार्य थे। अकबर ने [[दीन-ए-इलाही]] धर्म बनाया और चलाया।
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दिल्ली के सुल्तानों के पश्चात मथुरा मंडल पर मुग़ल सम्राट का शासन हुआ था। उनमें सम्राट अकबर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। उसने अपनी राजधानी दिल्ली के बजाय आगरा में रखी थी। आगरा [[ब्रजमंडल]] का प्रमुख नगर है; अत: राजकीय रीति−नीति का प्रभाव इस भूभाग पर पड़ा था। ये सम्राट अकबर की धार्मिक नीति उदार थी, जिससे ब्रज के अन्य धर्मावलंबी प्रचुरता से लाभान्वित हुए थे। सम्राट अकबर से पहले [[ग्वालियर]] और [[बटेश्वर उत्तर प्रदेश|बटेश्वर]] (ज़िला आगरा) जैन धर्म के परंपरागत केन्द्र थे। अकबर के शासन काल में आगरा भी इस धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र हो गया था। ग्वालियर और बटेश्वर का तो पहले से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व था, किंतु आगरा राजनैतिक कारण से जैनियों का केन्द्र बना। ब्रजमंडल के जैन धर्मावलंबियों में अधिक संख्या व्यापारी वैश्यों की थी। उनमें सबसे अधिक अग्रवाल, खंडेलवाल−ओसवाल आदि थे। मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा उस समय में व्यापार−वाणिज्य का भी बड़ा केन्द्र था, इसलिए वणिक वृत्ति के जैनियों का वहाँ बड़ी संख्या में एकत्र होना स्वाभाविक था।
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मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में [[वैष्णव धर्म]] के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्मावलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था। गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे। सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूर्वक सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था। वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे। आचार्य हीर विजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे। उनकी यात्रा का वर्णन 'हीर सौभाग्य' काव्य के 14 वें सर्ग में हुआ था। उसमें लिखा है, सूरि जी ने मथुरा के विहार कर पार्श्वनाथ और जम्बू स्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपों की यात्रा की थी। सूरि जी के कुछ काल पश्चात सन 1591 में कवि दयाकुशल ने जैन तीर्थों की यात्रा कर तीर्थमाला की रचना की थी। उसके 40 वें पद्य में उसने अपने उल्लास का इस प्रकार कथन किया है,−
 
मथुरा देखिउ मन उल्लसइ । मनोहर थुंम जिहां पांचसइं ।।
 
 
गौतम जंबू प्रभवो साम । जिनवर प्रतिमा ठामोमाम ।।
 
==अकबर की मृत्यु==
सम्राट अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था। उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था। इसलिए उसकी गणना भारतवर्ष के महान सम्राटों  में की जाती है। उनका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था। अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था। उस दीर्घ काल में [[मानसिंह]] और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था। अबुलफज़ल, [[बीरबल]], टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे। उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और दानियाल का देहांत हो चुका था। पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरुद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था। जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे। जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तरकाल में उसने उस बड़े बेटे शाहज़ादा ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था। किंतु अकबर ने ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया लेकिन उस महत्वाकांक्षी युवक के मन में राज्य की जो लालसा जागी, वह उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी। जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी। अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन 1605 में हुआ था। उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफ़नाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मक़बरा बना हुआ है। अकबर के बाद सलीम जहाँगीर के नाम से मुग़ल सम्राट बना।
 
==अकबर के नवरत्न==
अकबर के दरबार में 9 विशेष दरबारी थे जिन्हें अकबर के 'नवरत्न' के नाम से भी जाना जाता है।
*[[अबुलफज़ल]] (1551 - 1602 ) ने अकबर के काल को क़लमबद्ध किया था। उसने [[अकबरनामा]] और [[आइना-ए-अकबरी]] की भी रचना की थी।
*[[फ़ैज़ी]] (1547 - 1595) अबुल फ़ज़ल का भाई था। वह फ़ारसी में कविता करता था। राजा अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था।
*मिंया [[तानसेन]] अकबर के दरबार में गायक थे। वह कविता भी लिखा करते थे।
*राजा [[बीरबल]] (1528 - 1583) दरबार के विदूषक और अकबर के सलाहकार थे।
*राजा [[टोडरमल]] अकबर के वित्त मन्त्री थे।
*राजा [[मान सिंह]] आम्बेर (आमेर, [[जयपुर]]) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे । वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे।
*[[रहीम|अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना]] एक कवि थे और अकबर के संरक्षक बैरम ख़ान के बेटे थे।
*फ़कीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थे।
*मुल्ला दो पिआज़ा अकबर के सलाहकार थे।
 
==सम्बंधित लिंक==
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अकबर विषय सूची
अकबर
अकबर
अकबर
पूरा नाम जलालउद्दीन मुहम्मद अकबर
जन्म 15 अक्टूबर सन् 1542 (लगभग)[1]
जन्म भूमि अमरकोट, सिन्ध (पाकिस्तान)
मृत्यु तिथि 27 अक्टूबर सन् 1605 (उम्र 63 वर्ष)
मृत्यु स्थान फ़तेहपुर सीकरी, आगरा
पिता/माता हुमायूँ, मरियम मक़ानी
पति/पत्नी मरियम उज़-ज़मानी (हरखाबाई)
संतान जहाँगीर के अलावा 5 पुत्र 7 बेटियाँ
उपाधि जलाल-उद-दीन
राज्य सीमा उत्तर और मध्य भारत
शासन काल 27 जनवरी, 1556 - 27 अक्टूबर, 1605
शा. अवधि 49 वर्ष
राज्याभिषेक 14 फ़रबरी 1556 कलानपुर के पास गुरदासपुर
धार्मिक मान्यता नया मज़हब बनाया दीन-ए-इलाही
युद्ध पानीपत, हल्दीघाटी
सुधार-परिवर्तन जज़िया हटाया, राजपूतों से विवाह संबंध
राजधानी फ़तेहपुर सीकरी आगरा, दिल्ली
पूर्वाधिकारी हुमायूँ
उत्तराधिकारी जहाँगीर
राजघराना मुग़ल
वंश तैमूर और चंगेज़ ख़ाँ का वंश
मक़बरा सिकन्दरा, आगरा
संबंधित लेख मुग़ल काल

जलाल उद्दीन मुहम्मद अकबर (अंग्रेज़ी: Jalal-ud-din Muhammad Akbar, जन्म: 15 अक्टूबर, 1542 ई. अमरकोट[1] - मृत्यु: 27 अक्टूबर, 1605 ई. आगरा) भारत का महानतम मुग़ल शंहशाह (शासनकाल 1556 - 1605 ई.) था, जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। अपने साम्राज्य की एकता बनाए रखने के लिए अकबर द्वारा ऐसी नीतियाँ अपनाई गईं, जिनसे गैर मुसलमानों की राजभक्ति जीती जा सके। भारत के इतिहास में आज अकबर का नाम काफ़ी प्रसिद्ध है। उसने अपने शासनकाल में सभी धर्मों का सम्मान किया था, सभी जाति-वर्गों के लोगों को एक समान माना और उनसे अपने मित्रता के सम्बन्ध स्थापित किये। अकबर ने अपने शासनकाल में सारे भारत को एक साम्राज्य के अंतर्गत लाने का प्रयास किया, जिसमें वह काफ़ी हद तक सफल भी रहा।

अकबर का उल्लेख इन लेखों में भी है: हुमायूँ, जहाँगीर, दीन-ए-इलाही, अकबरनामा, आइन-इ-अकबरी, तानसेन, टोडरमल, बीरबल एवं बैजू बावरा

परिचय

अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 ई. (19 इसफन्दरमिज रविवार, रजब हिजरी का दिन या विक्रम संवत 1599 के कार्तिक मास की छठी)[1] को 'हमीदा बानू' के गर्भ से अमरकोट के राणा वीरसाल के महल में हुआ था। आजकल कितने ही लोग अमरकोट को उमरकोट समझने की ग़लती करते हैं। वस्तुत: यह इलाका राजस्थान का अभिन्न अंग था। आज भी वहाँ हिन्दू राजपूत बसते हैं। रेगिस्तान और सिंध की सीमा पर होने के कारण अंग्रेज़ों ने इसे सिंध के साथ जोड़ दिया और विभाजन के बाद वह पाकिस्तान का अंग बन गया।

माता-पिता से बिछुड़ना

हुमायूँ अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए संघर्षरत था। तभी वह ईरान के तहमास्प की सहायता प्राप्त करने के ख्याल से कंधार की ओर चला। बड़ी मुश्किल से सेहवान पर उसने सिंध पार किया, फिर बलोचिस्तान के रास्ते क्वेटा के दक्षिण मस्तंग स्थान पर पहुँचा, जो कि कंधार की सीमा पर था। इस समय यहाँ पर उसका छोटा भाई अस्करी अपने भाई काबुल के शासक कामराँ की ओर से हुकूमत कर रहा था। हुमायूँ को ख़बर मिली कि, अस्करी हमला करके उसको पकड़ना चाहता है। मुकाबला करने के लिए आदमी नहीं थे। जरा-सी भी देर करने से काम बिगड़ने वाला था। उसके पास में घोड़ों की भी कमी थी। उसने तर्दी बेग से माँगा, तो उसने देने से इन्कार कर दिया। हुमायूँ, हमीदा बानू को अपने पीछे घोड़े पर बिठाकर पहाड़ों की ओर भागा। उसके जाते देर नहीं लगी कि अस्करी दो हज़ार सवारों के साथ पहुँच गया। हुमायूँ साल भर के शिशु अकबर को ले जाने में असमर्थ हुआ। वह वहीं डेरे में छूट गया। अस्करी ने भतीजे के ऊपर गुस्सा नहीं उतारा और उसे जौहर आदि के हाथ अच्छी तरह से कंधार ले गया। कंधार में अस्करी की पत्नी सुल्तान बेगम वात्सल्य दिखलाने के लिए तैयार थी।

शिक्षा

अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। हुमायूँ ने सोचा, मुल्ला की बेपरवाही से लड़का पढ़ नहीं रहा है। लोगों ने भी जड़ दिया-“मुल्ला को कबूतरबाज़ी का बहुत शौक़ है। उसने शागिर्द को भी कबूतरों के मेले में लगा दिया है”। फिर मुल्ला बायजीद शिक्षक हुए, लेकिन कोई भी फल नहीं निकला। दोनों पुराने मुल्लाओं के साथ मौलाना अब्दुल कादिर के नाम को भी शामिल करके चिट्ठी डाली गई। संयोग से मौलाना का नाम निकल आया। कुछ दिनों तक वह भी पढ़ाते रहे। काबुल में रहते अकबर को कबूतरबाज़ी और कुत्तों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं थी। हिन्दुस्तान में आया, तब भी वहीं रफ्तार बेढंगी रही। मुल्ला पीर मुहम्मद-बैरम ख़ाँ के वकील को यह काम सौंपा गया। लेकिन अकबर ने तो कसम खा ली थी कि, बाप पढ़े न हम।

राज्याभिषेक

1551 ई. में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में पहली बार अकबर को ग़ज़नी की सूबेदारी सौंपी गई। हुमायूँ ने हिन्दुस्तान की पुनर्विजय के समय मुनीम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। सिकन्दर सूर से अकबर द्वारा सरहिन्द को छीन लेने के बाद हुमायूँ ने 1555 ई. में उसे अपना ‘युवराज’ घोषित किया। दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद हुमायूँ ने अकबर को लाहौर का गर्वनर नियुक्त किया, साथ ही अकबर के संरक्षक मुनीम ख़ाँ को अपने दूसरे लड़के मिर्ज़ा हकीम का अंगरक्षक नियुक्त कर, तुर्क सेनापति बैरम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 अकबरनामा |लेखक: शेख अबुल फजल |अनुवादक: डॉ. मथुरालाल शर्मा |प्रकाशक: राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 1 |

संबंधित लेख