"कवियों की ब्रजभाषा": अवतरणों में अंतर
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'''यह बात अनदेखी करने योग्य''' नहीं है कि, ब्रजभाषा के कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन को ही केन्द्र में रखा है, चाहे वे कवि संत हो, दरबारी हो, राजा हो या | |||
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<blockquote><poem>आदि ही धोबी न धोबे को लेत कि पानी ते बूड़े में पाऊँ न पाऊँ। | <blockquote><poem>आदि ही धोबी न धोबे को लेत कि पानी ते बूड़े में पाऊँ न पाऊँ। | ||
ज़ोर रहे खुलि ठौर ही ठौर औ तापर खोपै चली है अगांऊँ। | |||
‘लौकी’ कहै हम जाच्यो दीवान जू और मैं जाय के काहि सताऊँ। | ‘लौकी’ कहै हम जाच्यो दीवान जू और मैं जाय के काहि सताऊँ। | ||
जो पै मया करि दोन्हो झगा तो सूची तगा दोउ साथ ही पाऊँ।</poem></blockquote> | जो पै मया करि दोन्हो झगा तो सूची तगा दोउ साथ ही पाऊँ।</poem></blockquote> | ||
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ना जानूं वह हैगा कैसा। ये सखि साजन, ना सखि पैसा।</poem></blockquote> | ना जानूं वह हैगा कैसा। ये सखि साजन, ना सखि पैसा।</poem></blockquote> | ||
'''भारतेन्दु की इन दो मुकरियों में भी''' | '''भारतेन्दु की इन दो मुकरियों में भी''' व्यंग्य रूप में सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया, सामान्य-जीवन के बिम्ब पर आधारित प्रस्तुत मिलती है- | ||
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भीतर-भीतर सब रस चूसै | भीतर-भीतर सब रस चूसै | ||
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क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़।</poem></blockquote> | क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़।</poem></blockquote> | ||
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14:05, 6 मई 2017 के समय का अवतरण
यह बात अनदेखी करने योग्य नहीं है कि, ब्रजभाषा के कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन को ही केन्द्र में रखा है, चाहे वे कवि संत हो, दरबारी हो, राजा हो या फ़कीर हो। रहीम के निम्नलिखित शब्द-चित्रों में श्रमजीवी की सहधर्मिता अंकित है-
लइके सुघर खुरपिया पिय के साथ।
छइबे एक छतरिया बरसत पाथ।।
एक बहुत ही अप्रसिद्ध कवि के कलिवर्णन में शासन की दुर्व्यवस्था का यथार्थ चित्र इस प्रकार दिया गया है-
कानूंगोय चौधरी गुमाश्ता मुसद्दी कोऊ माल मार खाय कोरो काग़ज़ ही दिखायो है।
फ़ौजदार नायब मुसाहब अकोर लैके झूठौ करै सांचो पुनि साँचे को झुठायौ है।
आठौ याम धावै जाके उलटोले लगावै दोष भडुवा और मसखरे को नीके अपनायौ है।
कीजिए सहाय जू कृपाल श्री गोविन्दलाल कठिन कराल कलिकाल चढ़ि आयौ है।
सूमों के चित्र बड़े अतिरंजित होते हुए भी बड़े चुभते हैं। एक चित्र है, जिसमें दीवान जी का दिया हुआ झगा ऐसा तार-तार है, न उसे धोबी लेता है और न ही वह पहना जाता है। कवि झगा के साथ ही सुई तागा भी माँगने के लिए विवश हो जात है-
आदि ही धोबी न धोबे को लेत कि पानी ते बूड़े में पाऊँ न पाऊँ।
ज़ोर रहे खुलि ठौर ही ठौर औ तापर खोपै चली है अगांऊँ।
‘लौकी’ कहै हम जाच्यो दीवान जू और मैं जाय के काहि सताऊँ।
जो पै मया करि दोन्हो झगा तो सूची तगा दोउ साथ ही पाऊँ।
अमीर खुसरो से शुरू करके भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तक मुकरी, पहेली जैसी शब्द-क्रीड़ाओं में भी प्रसंग ठेठ गाँव के जीवन के मिलते है। कहीं-कहीं उनमें ग्राम्यता है, पर उक्ति की सहजता में वह ग्राम्यता तिरोहित हो जाती है। उदाहरण के लिए ‘सखि साजन’ वाली मुकरियों में अत्यन्त सामान्य जीवन के सन्दर्भ ही गृहस्थ जीवन के रस-व्यंजक रूप में प्रस्तुत किये गये हैं-
जब माँगू तब जल भरि लावै। मेरे मन की विपति बुझावै।
मन का भारी तन का छोटा। ए सखि साजन ना सखि लोटा।
बाट चलत मोरा अँचरा गहे। मेरी सुने न अपनी कहे।
ना कुछ मो सों झगड़ा-झंटा। ए सखि साजन ना सखि काँटा।
हाट चलत में पड़ा जो पाया। खोटा जरा न मैं परखाया।
ना जानूं वह हैगा कैसा। ये सखि साजन, ना सखि पैसा।
भारतेन्दु की इन दो मुकरियों में भी व्यंग्य रूप में सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया, सामान्य-जीवन के बिम्ब पर आधारित प्रस्तुत मिलती है-
सीटी देकर पास बुलावै
रुपया ले तो निकट बिठावै।
लै भागै मोहि खेलहि खेल
क्यों सखि साजन ना सखि रेल।।
भीतर-भीतर सब रस चूसै
हंसि-हंसि तन मन धन मूसै।
ज़ाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़।
इन विविध उदाहरणों से यह बात स्पष्ट है कि, ब्रजभाषा काव्य के बारे में आम धारणा सही नहीं है कि, ब्रजभाषा काव्य एकांगी या सीमित भावभूमि का काव्य है। चाहे सगुण भक्त कवि हों, चाहे निर्गुण भक्त कवि; चाहे, आचार्य कवि हों, चाहे स्वछन्द कवि, चाहे सूक्तिकार हों, सभी लोक व्यवहार के प्रति बहुत सजग हैं और लौकिक जीवन की समझ इन सबकी बहुत गहरी नुकीली है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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