"पिण्ड (श्राद्ध)": अवतरणों में अंतर
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श्राद्ध-कर्म में पके हुए [[चावल]], दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। हमारे देश में सूंघना यानी कि आधा भोजन करना माना जाता है। इस प्रकार श्राद्ध करने वाला पिण्डदान से पहले अपने पितरों की उपस्थिति को ख़ुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है। | {{श्राद्ध विषय सूची}}{{अस्वीकरण}} | ||
==== | {{सूचना बक्सा त्योहार | ||
|चित्र=Shradh-Kolaj.jpg | |||
|चित्र का नाम= श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण | |||
|अन्य नाम = | |||
|अनुयायी =सभी [[हिन्दू धर्म|हिन्दू धर्मावलम्बी]] | |||
|उद्देश्य = [[श्राद्ध]] पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।। | |||
|प्रारम्भ = वैदिक-पौराणिक | |||
|तिथि=[[भाद्रपद]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[पूर्णिमा]] से [[सर्वपितृ अमावस्या]] अर्थात् [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष]] [[अमावस्या]] तक | |||
|उत्सव = | |||
|अनुष्ठान =श्राद्ध-कर्म में पके हुए [[चावल]], [[दूध]] और [[तिल]] को मिश्रित करके जो 'पिण्ड' बनाते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। | |||
|धार्मिक मान्यता = | |||
|प्रसिद्धि = | |||
|संबंधित लेख=[[पितृ पक्ष]], [[श्राद्ध के नियम]], [[अन्वष्टका कृत्य (श्राद्ध)|अन्वष्टका कृत्य]], [[अष्टका कृत्य (श्राद्ध)|अष्टका कृत्य]], [[अन्वाहार्य श्राद्ध]], [[विसर्जन (श्राद्ध)|श्राद्ध विसर्जन]], [[पितृ विसर्जन अमावस्या]], [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]], [[माध्यावर्ष कृत्य (श्राद्ध)|माध्यावर्ष कृत्य]], [[मातामह श्राद्ध]], [[पितर]], [[श्राद्ध और ग्रहण]], [[श्राद्ध करने का स्थान]], [[श्राद्ध की आहुति]], [[श्राद्ध की कोटियाँ]], [[श्राद्ध की महत्ता]], [[श्राद्ध प्रपौत्र द्वारा]], [[श्राद्ध फलसूची]], [[श्राद्ध वर्जना]], [[श्राद्ध विधि (संक्षिप्त)|श्राद्ध विधि]], [[गया]], [[नासिक]], [[आदित्य देवता]] और [[रुद्र|रुद्र देवता]] | |||
|शीर्षक 1= | |||
|पाठ 1= | |||
|शीर्षक 2= | |||
|पाठ 2= | |||
|अन्य जानकारी=[[ब्रह्म पुराण]] के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है। | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
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[[श्राद्ध]]-कर्म में पके हुए [[चावल]], [[दूध]] और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे [[विज्ञान]] भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो [[पिता]], [[दादा]], परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। हमारे देश में सूंघना यानी कि आधा भोजन करना माना जाता है। इस प्रकार श्राद्ध करने वाला पिण्डदान से पहले अपने पितरों की उपस्थिति को ख़ुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है। | |||
====पिण्डदान==== | |||
पिण्ड दाहिने हाथ में लिया जाए। मन्त्र के साथ पितृतीथर् मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड किसी थाली या पत्तल में क्रमशः स्थापित करें-<ref>{{cite web |url=http://hindi.awgp.org/?gayatri/AWGP_Offers/parivar_nirman/sanskar/sradh/ |title=अखिल विश्व गायत्री परिवार |accessmonthday=3 अक्टूबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | पिण्ड दाहिने हाथ में लिया जाए। मन्त्र के साथ पितृतीथर् मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड किसी थाली या पत्तल में क्रमशः स्थापित करें-<ref>{{cite web |url=http://hindi.awgp.org/?gayatri/AWGP_Offers/parivar_nirman/sanskar/sradh/ |title=अखिल विश्व गायत्री परिवार |accessmonthday=3 अक्टूबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | ||
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| प्रथम पिण्ड देवताओं के निमित्त- | | प्रथम पिण्ड [[देवता|देवताओं]] के निमित्त- | ||
| <poem>ॐ उदीरतामवर उत्परास, ऽउन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। | | <poem>ॐ उदीरतामवर उत्परास, ऽउन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। | ||
असुं यऽईयुरवृका ऋतज्ञाः, ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु।- 19.49</poem> | असुं यऽईयुरवृका ऋतज्ञाः, ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु।- 19.49</poem> | ||
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| दूसरा पिण्ड ऋषियों के निमित्त- | | दूसरा पिण्ड [[ऋषि|ऋषियों]] के निमित्त- | ||
| <poem>ॐ अंगिरसो नः पितरो नवग्वा, अथवार्णो भृगवः सोम्यासः। | | <poem>ॐ अंगिरसो नः पितरो नवग्वा, अथवार्णो भृगवः सोम्यासः। | ||
तेषां वय सुमतौ यज्ञियानाम्, अपि भद्रे सौमनसे स्याम॥ - 19.50</poem> | तेषां वय सुमतौ यज्ञियानाम्, अपि भद्रे सौमनसे स्याम॥ - 19.50</poem> | ||
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यदि तीर्थ श्राद्ध में, पितृपक्ष में से एक से अधिक पितरों की शान्ति के लिए पिण्ड अपिर्त करने हों, तो नीचे लिखे वाक्य में पितरों के नाम-गोत्र आदि जोड़ते हुए वाञ्छित संख्या में पिण्डदान किये जा सकते हैं। ........... गोत्रस्य अस्मद् ....... नाम्नो, अक्षयतृप्त्यथरँ इदं पिण्डं तस्मै स्वधा॥ पिण्ड समपर्ण के बाद पिण्डों पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्राथर्ना की जाती है । | यदि [[तीर्थ]] श्राद्ध में, पितृपक्ष में से एक से अधिक पितरों की शान्ति के लिए पिण्ड अपिर्त करने हों, तो नीचे लिखे वाक्य में पितरों के नाम-गोत्र आदि जोड़ते हुए वाञ्छित संख्या में पिण्डदान किये जा सकते हैं। ........... गोत्रस्य अस्मद् ....... नाम्नो, अक्षयतृप्त्यथरँ इदं पिण्डं तस्मै स्वधा॥ पिण्ड समपर्ण के बाद पिण्डों पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्राथर्ना की जाती है । | ||
[[चित्र: | [[चित्र:Pind dan shradh.jpg|thumb|right|[[श्राद्ध]] के समय पिण्डदान करते श्रद्धालु]] | ||
* निम्न मन्त्र पढ़ते हुए पिण्ड पर दूध दुहराएँ- ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्। -18.36 | * निम्न मन्त्र पढ़ते हुए पिण्ड पर दूध दुहराएँ- ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्। -18.36 | ||
*पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश को दुहराएँ- ॐ दुग्धम्। दुग्धम्। दुग्धम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्॥ | *पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश को दुहराएँ- ॐ दुग्धम्। दुग्धम्। दुग्धम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्॥ | ||
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ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम् | ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम् | ||
====< | ====पिंडदान==== | ||
कर्म, पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व पुरुषों की आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं। पुनर्जन्म<ref>देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् 4|4|4 एवं भगवदगीता 2|22 | [[गया]] में [[आश्विन]] - [[कृष्णपक्ष]] में बहुत अधिक लोग श्राद्ध करने जाते हैं। पूरे श्राद्ध [[पक्ष]] वे यहां रहते हैं। श्राद्धपक्ष के लिए पिंडदान आदि का क्रम इस प्रकार है-<ref>{{cite web |url=http://www.amarujala.com/Shradh/Detail.aspx?Secid=3&SubSecid=14 |title=अमर उजाला |accessmonthday=3 अक्टूबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | ||
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! हिन्दू तिथियाँ | |||
! पिंडदान विवरण | |||
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| [[भाद्रपद]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[चतुर्दशी]] | |||
| पुनपुन तट पर श्राद्ध। | |||
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| [[भाद्रपद]] [[पूर्णिमा]] | |||
| [[फल्गु नदी]] में स्नान और नदी पर खीर के पिंड से श्राद्ध। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[प्रतिपदा]] | |||
| ब्रह्मकुंड, प्रेतशिला, राम कुंड एवं रामशिला पर श्राद्ध और काकबलि। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[द्वितीया]] | |||
| उत्तरमानस, उदीची, [[कनखल]], दक्षिणमानस और जिह्वालोल तीर्थों पर पिंडदान। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[तृतीया]] | |||
| सरस्वती स्नान, मतंगवापी, धर्मारण्य और [[बोधगया]] में श्राद्ध। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[चतुर्थी]] | |||
| ब्रह्मसरोवर पर श्राद्ध, आम्रसेचन और काकबलि। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[पंचमी]] | |||
| विष्णुपद मंदिर में रुद्रपद, ब्रह्मपद और विष्णुपद पर खीर के पिंड से श्राद्ध। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[षष्ठी]] से [[अष्टमी]] तक | |||
| विष्णुपद के सोलह वेदी नामक मंडप में 14 स्थानों पर और पास के मंडप में दो स्थानों पर पिंडदान होता है। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[नवमी]] | |||
| रामगया में श्राद्ध और सीता कुंड पर माता, पितामही को बालू के पिंड दिए जाते हैं। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[दशमी]] | |||
| गय सिर और गय कूप के पास पिंड दान किया जाता है। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[एकादशी]] | |||
| मुंडपृष्ठ, आदिगया और धौतपाद में खोवे या तिल-गुड़ से पिंडदान। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[द्वादशी]] | |||
| भीमगया, गोप्रचार और गदालोल में पिंडदान। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[त्रियोदशी]] | |||
| [[फल्गु]] में स्नान करके [[दूध]] का तर्पण, गायत्री, सावित्री तथा सरस्वती तीर्थ पर क्रमशः प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल स्नान और संध्या। | |||
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| [[आश्विन]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[चतुर्दशी]] | |||
| वैतरणी स्नान और तर्पण। | |||
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| [[आश्विन]] [[अमावस्या]] | |||
| [[अक्षय वट]] के नीचे श्राद्ध और [[ब्राह्मण]]-भोजन। | |||
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| [[आश्विन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[प्रतिपदा]] | |||
| गायत्री घाट पर [[दही]]-अक्षत का पिंड देकर गया श्राद्ध समाप्त किया जाता है। | |||
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====पिण्डदान का सिद्धान्त==== | |||
कर्म, [[पुनर्जन्म]] एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व पुरुषों की आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं। पुनर्जन्म<ref>देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् 4|4|4 एवं भगवदगीता 2|22 अयमात्मेदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यत्रवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा मान्धर्व वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मां वान्येषां वा भूतानाम्। बृह. उप. 4|4|4; तथा शरीरणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।। गीता 2|22।</ref> के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर में प्रविष्ट होती है। [[चित्र:Shradha.jpg|thumb|250px|left|[[श्राद्ध]] के समय पिण्डदान करते श्रद्धालु]] किन्तु तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धान्त यह बतलाता है कि तीनों पूर्वजों की आत्माएँ 50 या 100 वर्षों के उपरान्त भी वायु में सन्तरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्धि या सारतत्त्व वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्यस्मृति, [[मार्कण्डेय पुराण]]<ref>1|268=मार्कण्डेयपुराण 29|38</ref>, [[मत्स्य पुराण]]<ref>मत्स्यपुराण 19|11-12</ref> एवं [[अग्नि पुराण]]<ref>[[अग्निपुराण]] 163|41-42</ref> में आया है कि पितामह लोग ([[पितर]]) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख एवं राज्य देते हैं। [[मत्स्यपुराण]]<ref>[[मत्स्यपुराण]] 19|2</ref> में [[ऋषि|ऋषियों]] द्वारा पूछा गया एक प्रश्न ऐसा आया है कि वह भोजन, जिसे ब्राह्मण (श्राद्ध में आमंत्रित) खाता है या जो कि अग्नि में डाला जाता है, क्या उन मृतात्माओं के द्वारा खाया जाता है, जो (मृत्युपरान्त) अच्छे या बुरे शरीर धारण कर चुके होंगे। मत्स्य पुराण<ref>[[मत्स्य पुराण]] श्लोक 3-9</ref> में यह उत्तर दिया गया है कि पिता, पितामह, प्रपितामह, वैदिक उक्तियों के अनुसार, क्रम से वसुओं, [[रुद्र|रुद्रों]] तथा आदित्यों के समान रूप माने गये हैं; कि नाम एवं गोत्र (श्राद्ध के समय वर्णित), उच्चरित मंत्र एवं श्रद्धा आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं; कि यदि किसी के पिता (अपने अच्छे कर्मों के कारण) [[देवता]] हो गये हैं, तो श्राद्ध में दिया हुआ भोजन अमृत हो जाता है और वे उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे दैत्य (असुर) हो गये हैं तो वह (श्राद्ध में दिया गया भोजन) उनके पास भाँति-भाँति के आनन्दों के रूप में पहुँचता है। यदि वे पशु हो गये हैं तो वह उनके लिए घास हो जाता है और यदि वे सर्प हो गये हैं तो श्राद्ध भोजन वायु बनकर उनकी सेवा करता है, आदि-आदि। श्राद्धकल्पतरु<ref>श्राद्धकल्पतरु पृ. 5</ref> ने मत्स्य पुराण<ref>मत्स्य पुराण 19|5-9</ref> के श्लोक मार्कण्डयपुराण में कहकर उदधृत किये हैं। विश्वरूप<ref>विश्वरूप याज्ञ. 1|265</ref> ने भी उपर्युक्त विरोध उपस्थित करके स्वयं कई उत्तर दिये हैं। एक उत्तर यह है–यह बात पूर्णरूपेण शास्त्र पर आधारित है। अत: जब शास्त्र कहता है कि पितरों को संतुष्टी मिलती है और कर्ता को मनोवांछित फल प्राप्त होता है, तो कोई विरोध खड़ा नहीं करना चाहिए। एक दूसरा उत्तर यह है–वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता हैं, जो कि सभी स्थानों पर अपनी पहुँच रखते हैं, अत: पितर लोग जहाँ पर भी हों वे उन्हें संतुष्ट करने की शक्ति रखते हैं। विश्वरूप ने प्रश्नकर्ताओं को नास्तिक कहा है, जैसा कि कुछ अन्य लोगों एवं पश्चात्यकालीन लेखकों ने कहा है। | |||
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07:54, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण |
पिण्ड (श्राद्ध)
| |
अनुयायी | सभी हिन्दू धर्मावलम्बी |
उद्देश्य | श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।। |
प्रारम्भ | वैदिक-पौराणिक |
तिथि | भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात् आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक |
अनुष्ठान | श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो 'पिण्ड' बनाते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। |
संबंधित लेख | पितृ पक्ष, श्राद्ध के नियम, अन्वष्टका कृत्य, अष्टका कृत्य, अन्वाहार्य श्राद्ध, श्राद्ध विसर्जन, पितृ विसर्जन अमावस्या, तर्पण, माध्यावर्ष कृत्य, मातामह श्राद्ध, पितर, श्राद्ध और ग्रहण, श्राद्ध करने का स्थान, श्राद्ध की आहुति, श्राद्ध की कोटियाँ, श्राद्ध की महत्ता, श्राद्ध प्रपौत्र द्वारा, श्राद्ध फलसूची, श्राद्ध वर्जना, श्राद्ध विधि, गया, नासिक, आदित्य देवता और रुद्र देवता |
अन्य जानकारी | ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है। |
श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। हमारे देश में सूंघना यानी कि आधा भोजन करना माना जाता है। इस प्रकार श्राद्ध करने वाला पिण्डदान से पहले अपने पितरों की उपस्थिति को ख़ुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है।
पिण्डदान
पिण्ड दाहिने हाथ में लिया जाए। मन्त्र के साथ पितृतीथर् मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड किसी थाली या पत्तल में क्रमशः स्थापित करें-[1]
क्रमांक | पिण्ड | श्लोक |
---|---|---|
1 | प्रथम पिण्ड देवताओं के निमित्त- | ॐ उदीरतामवर उत्परास, ऽउन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। |
2 | दूसरा पिण्ड ऋषियों के निमित्त- | ॐ अंगिरसो नः पितरो नवग्वा, अथवार्णो भृगवः सोम्यासः। |
3 | तीसरा पिण्ड दिव्य मानवों के निमित्त- | ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासः, अग्निष्वात्ताः पथिभिदेर्वयानैः। |
4 | चौथा पिण्ड दिव्य पितरों के निमित्त- | ॐ ऊजरँ वहन्तीरमृतं घृतं, पयः कीलालं परिस्रुत्। |
5 | पाँचवाँ पिण्ड यम के निमित्त- | ॐ पितृव्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। |
6 | छठवाँ पिण्ड मनुष्य-पितरों के निमित्त- | ॐ ये चेह पितरो ये च नेह, याँश्च विद्म याँ2 उ च न प्रविद्म। |
7 | सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के निमित्त- | ॐ नमो वः पितरो रसाय, नमो वः पितरः शोषाय, नमो वः पितरो जीवाय, नमो वः पितरः स्वधायै, नमो वः पितरो घोराय, |
8 | आठवाँ पिण्ड पुत्रदार रहितों के निमित्त- | ॐ पितृवंशे मृता ये च, मातृवंशे तथैव च। गुरुश्वसुरबन्धूनां, ये चान्ये बान्धवाः स्मृताः॥ |
9 | नौवाँ पिण्ड उच्छिन्न कुलवंश वालों के निमित्त- | ॐ उच्छिन्नकुलवंशानां, येषां दाता कुले नहि। |
10 | दसवाँ पिण्ड गभर्पात से मर जाने वालों के निमित्त- | ॐ विरूपा आमगभार्श्च, ज्ञाताज्ञाताः कुले मम। |
11 | ग्यारहवाँ पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त- | ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा, ये प्रदग्धाः कुले मम। |
12 | बारहवाँ पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त- | ॐ ये बान्धवाऽ बान्धवा वा, ये ऽन्यजन्मनि बान्धवाः। |
यदि तीर्थ श्राद्ध में, पितृपक्ष में से एक से अधिक पितरों की शान्ति के लिए पिण्ड अपिर्त करने हों, तो नीचे लिखे वाक्य में पितरों के नाम-गोत्र आदि जोड़ते हुए वाञ्छित संख्या में पिण्डदान किये जा सकते हैं। ........... गोत्रस्य अस्मद् ....... नाम्नो, अक्षयतृप्त्यथरँ इदं पिण्डं तस्मै स्वधा॥ पिण्ड समपर्ण के बाद पिण्डों पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्राथर्ना की जाती है ।
- निम्न मन्त्र पढ़ते हुए पिण्ड पर दूध दुहराएँ- ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्। -18.36
- पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश को दुहराएँ- ॐ दुग्धम्। दुग्धम्। दुग्धम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्॥
- निम्नांकित मन्त्र से पिण्ड पर दही चढ़ाएँ-
ॐ दधिक्राव्णे ऽअकारिषं, जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखाकरत्प्रण, आयु षि तारिषत्। -23.32
- पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश दुहराएँ-
ॐ दधि। दधि। दधि। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्।
- नीचे लिखे मन्त्रों साथ पिण्डों पर शहद चढ़ाएँ-
ॐ मधुवाताऽऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीनर्: सन्त्वोषधीः।
ॐ मधु नक्तमुतोषसो, मधुमत्पाथिर्व रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।
ॐ मधुमान्नो वनस्पतिर, मधुमाँ2ऽ अस्तु सूयर्:। माध्वीगार्वो भवन्तु नः। -13.27-29
- पिण्डदानकर्त्ता निम्नांकित मन्त्रांश को दुहराएँ-
ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्
पिंडदान
गया में आश्विन - कृष्णपक्ष में बहुत अधिक लोग श्राद्ध करने जाते हैं। पूरे श्राद्ध पक्ष वे यहां रहते हैं। श्राद्धपक्ष के लिए पिंडदान आदि का क्रम इस प्रकार है-[2]
हिन्दू तिथियाँ | पिंडदान विवरण |
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भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी | पुनपुन तट पर श्राद्ध। |
भाद्रपद पूर्णिमा | फल्गु नदी में स्नान और नदी पर खीर के पिंड से श्राद्ध। |
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा | ब्रह्मकुंड, प्रेतशिला, राम कुंड एवं रामशिला पर श्राद्ध और काकबलि। |
आश्विन कृष्ण द्वितीया | उत्तरमानस, उदीची, कनखल, दक्षिणमानस और जिह्वालोल तीर्थों पर पिंडदान। |
आश्विन कृष्ण तृतीया | सरस्वती स्नान, मतंगवापी, धर्मारण्य और बोधगया में श्राद्ध। |
आश्विन कृष्ण चतुर्थी | ब्रह्मसरोवर पर श्राद्ध, आम्रसेचन और काकबलि। |
आश्विन कृष्ण पंचमी | विष्णुपद मंदिर में रुद्रपद, ब्रह्मपद और विष्णुपद पर खीर के पिंड से श्राद्ध। |
आश्विन कृष्ण षष्ठी से अष्टमी तक | विष्णुपद के सोलह वेदी नामक मंडप में 14 स्थानों पर और पास के मंडप में दो स्थानों पर पिंडदान होता है। |
आश्विन कृष्ण नवमी | रामगया में श्राद्ध और सीता कुंड पर माता, पितामही को बालू के पिंड दिए जाते हैं। |
आश्विन कृष्ण दशमी | गय सिर और गय कूप के पास पिंड दान किया जाता है। |
आश्विन कृष्ण एकादशी | मुंडपृष्ठ, आदिगया और धौतपाद में खोवे या तिल-गुड़ से पिंडदान। |
आश्विन कृष्ण द्वादशी | भीमगया, गोप्रचार और गदालोल में पिंडदान। |
आश्विन कृष्ण त्रियोदशी | फल्गु में स्नान करके दूध का तर्पण, गायत्री, सावित्री तथा सरस्वती तीर्थ पर क्रमशः प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल स्नान और संध्या। |
आश्विन कृष्ण चतुर्दशी | वैतरणी स्नान और तर्पण। |
आश्विन अमावस्या | अक्षय वट के नीचे श्राद्ध और ब्राह्मण-भोजन। |
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा | गायत्री घाट पर दही-अक्षत का पिंड देकर गया श्राद्ध समाप्त किया जाता है। |
पिण्डदान का सिद्धान्त
कर्म, पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व पुरुषों की आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं। पुनर्जन्म[3] के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर में प्रविष्ट होती है।
किन्तु तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धान्त यह बतलाता है कि तीनों पूर्वजों की आत्माएँ 50 या 100 वर्षों के उपरान्त भी वायु में सन्तरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्धि या सारतत्त्व वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्यस्मृति, मार्कण्डेय पुराण[4], मत्स्य पुराण[5] एवं अग्नि पुराण[6] में आया है कि पितामह लोग (पितर) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख एवं राज्य देते हैं। मत्स्यपुराण[7] में ऋषियों द्वारा पूछा गया एक प्रश्न ऐसा आया है कि वह भोजन, जिसे ब्राह्मण (श्राद्ध में आमंत्रित) खाता है या जो कि अग्नि में डाला जाता है, क्या उन मृतात्माओं के द्वारा खाया जाता है, जो (मृत्युपरान्त) अच्छे या बुरे शरीर धारण कर चुके होंगे। मत्स्य पुराण[8] में यह उत्तर दिया गया है कि पिता, पितामह, प्रपितामह, वैदिक उक्तियों के अनुसार, क्रम से वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के समान रूप माने गये हैं; कि नाम एवं गोत्र (श्राद्ध के समय वर्णित), उच्चरित मंत्र एवं श्रद्धा आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं; कि यदि किसी के पिता (अपने अच्छे कर्मों के कारण) देवता हो गये हैं, तो श्राद्ध में दिया हुआ भोजन अमृत हो जाता है और वे उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे दैत्य (असुर) हो गये हैं तो वह (श्राद्ध में दिया गया भोजन) उनके पास भाँति-भाँति के आनन्दों के रूप में पहुँचता है। यदि वे पशु हो गये हैं तो वह उनके लिए घास हो जाता है और यदि वे सर्प हो गये हैं तो श्राद्ध भोजन वायु बनकर उनकी सेवा करता है, आदि-आदि। श्राद्धकल्पतरु[9] ने मत्स्य पुराण[10] के श्लोक मार्कण्डयपुराण में कहकर उदधृत किये हैं। विश्वरूप[11] ने भी उपर्युक्त विरोध उपस्थित करके स्वयं कई उत्तर दिये हैं। एक उत्तर यह है–यह बात पूर्णरूपेण शास्त्र पर आधारित है। अत: जब शास्त्र कहता है कि पितरों को संतुष्टी मिलती है और कर्ता को मनोवांछित फल प्राप्त होता है, तो कोई विरोध खड़ा नहीं करना चाहिए। एक दूसरा उत्तर यह है–वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता हैं, जो कि सभी स्थानों पर अपनी पहुँच रखते हैं, अत: पितर लोग जहाँ पर भी हों वे उन्हें संतुष्ट करने की शक्ति रखते हैं। विश्वरूप ने प्रश्नकर्ताओं को नास्तिक कहा है, जैसा कि कुछ अन्य लोगों एवं पश्चात्यकालीन लेखकों ने कहा है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अखिल विश्व गायत्री परिवार (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 3 अक्टूबर, 2010।
- ↑ अमर उजाला (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 3 अक्टूबर, 2010।
- ↑ देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् 4|4|4 एवं भगवदगीता 2|22 अयमात्मेदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यत्रवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा मान्धर्व वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मां वान्येषां वा भूतानाम्। बृह. उप. 4|4|4; तथा शरीरणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।। गीता 2|22।
- ↑ 1|268=मार्कण्डेयपुराण 29|38
- ↑ मत्स्यपुराण 19|11-12
- ↑ अग्निपुराण 163|41-42
- ↑ मत्स्यपुराण 19|2
- ↑ मत्स्य पुराण श्लोक 3-9
- ↑ श्राद्धकल्पतरु पृ. 5
- ↑ मत्स्य पुराण 19|5-9
- ↑ विश्वरूप याज्ञ. 1|265
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