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रोको, रोको !
रोको, रोको!
ये डोली मेरी कहां चली,
ये डोली मेरी कहां चली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।
छूटा-गाँव, छूटी गली।

10:59, 24 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

छूटा गांव, छूटी गली -अशोक चक्रधर
खिड़कियाँ
खिड़कियाँ
कवि अशोक चक्रधर
प्रकाशक डायमण्ड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली
देश भारत
पृष्ठ: 173
भाषा हिन्दी
विषय कविताएँ
अशोक चक्रधर की रचनाएँ


रोको, रोको!
ये डोली मेरी कहां चली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।

रोक ले बाबुल, दौड़ के आजा, बहरे हुए कहार,
अंधे भी हैं ये, इन्हें न दीखें, तेरे मेरे अंसुओं की धार।
ये डोली मेरी कहां चली,

छूटा-गाँव, छूटी गली।

कपड़े सिलाए, गहने गढ़ाए, दिए तूने मखमल थान,
बेच के धरती, खोल के गैया, बांधा तूने सब सामान,
दान दहेज सहेज के सारा, राह भी दी अनजान,
मील के पत्थर कैसे बांचूं, दिया न अक्षर-ज्ञान।
गिरी है मुझ पर बिजली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।
ये डोली मेरी कहां चली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।

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