"प्रतिज्ञा उपन्यास भाग-15": अवतरणों में अंतर
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दाननाथ यहाँ से चले, तो उनके जी में ऐसा आ रहा था कि इसी वक्त घर-बार छोड़ कर कहीं निकल जाऊँ! कमलाप्रसाद अपने साथ उन्हें भी ले डूबा था। जनता की दृष्टि में कमलाप्रसाद और वह अभिन्न थे। यह असंभव था कि उनमें से एक कोई काम करे और उसका यश या अपयश दूसरे को न मिले। जनता के सामने अब किस मुँह से खड़े होंगे क्या यह उनके सार्वजनिक जीवन का अंत था? क्या वह अपने को इस कलंक से | दाननाथ यहाँ से चले, तो उनके जी में ऐसा आ रहा था कि इसी वक्त घर-बार छोड़ कर कहीं निकल जाऊँ! कमलाप्रसाद अपने साथ उन्हें भी ले डूबा था। जनता की दृष्टि में कमलाप्रसाद और वह अभिन्न थे। यह असंभव था कि उनमें से एक कोई काम करे और उसका यश या अपयश दूसरे को न मिले। जनता के सामने अब किस मुँह से खड़े होंगे क्या यह उनके सार्वजनिक जीवन का अंत था? क्या वह अपने को इस कलंक से पृथक् कर सकते थे? | ||
मगर कमलाप्रसाद इतना गया-बीता आदमी है! इतना कुटिल, इतना भ्रष्टाचारी! इतना नीच! फिर और किस पर विश्वास किया जाए? ऐसा धर्मानुरागी मनुष्य अब इतना पतित हो सकता है, तो फिर दूसरों से क्या आशा? जो प्राणी शील और परोपकार का पुतला था, वह ऐसा कामांध क्यों कर हो गया? क्या संसार में कोई भी सच्चा, नेक निष्कपट व्यक्ति नहीं है। | मगर कमलाप्रसाद इतना गया-बीता आदमी है! इतना कुटिल, इतना भ्रष्टाचारी! इतना नीच! फिर और किस पर विश्वास किया जाए? ऐसा धर्मानुरागी मनुष्य अब इतना पतित हो सकता है, तो फिर दूसरों से क्या आशा? जो प्राणी शील और परोपकार का पुतला था, वह ऐसा कामांध क्यों कर हो गया? क्या संसार में कोई भी सच्चा, नेक निष्कपट व्यक्ति नहीं है। | ||
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'तुम किसी के दिल का हाल क्या जानो! पहले मैं उन्हें धर्म और सच्चाई का पुतला समझता था। पर आज मालूम हुआ कि वह लंपट ही नहीं, परले सिरे के झूठे हैं। पूर्णा ने बहुत अच्छा किया। मार डालती तो और भी अच्छा करती। न मालूम उसने क्यों छोड़ दिया। तुम्हारा भाई समझ कर उसे दया आ गई होगी?' | 'तुम किसी के दिल का हाल क्या जानो! पहले मैं उन्हें धर्म और सच्चाई का पुतला समझता था। पर आज मालूम हुआ कि वह लंपट ही नहीं, परले सिरे के झूठे हैं। पूर्णा ने बहुत अच्छा किया। मार डालती तो और भी अच्छा करती। न मालूम उसने क्यों छोड़ दिया। तुम्हारा भाई समझ कर उसे दया आ गई होगी?' | ||
प्रेमा ने एक क्षण सोच कर संदिग्ध भाव से कहा - 'मुझे अब भी विश्वास नहीं आता। पूर्णा बराबर मेरे यहाँ आती थी। वह उसकी ओर कभी आँख उठा कर भी न देखते थे। इसमें | प्रेमा ने एक क्षण सोच कर संदिग्ध भाव से कहा - 'मुझे अब भी विश्वास नहीं आता। पूर्णा बराबर मेरे यहाँ आती थी। वह उसकी ओर कभी आँख उठा कर भी न देखते थे। इसमें ज़रूर कोई-न-कोई पेंच है। भैया जी को बहुत चोट तो नहीं आई।' | ||
दाननाथ ने व्यंग्य करके कहा - 'जा कर जरा मरहम-पट्टी कर आओ न!' | दाननाथ ने व्यंग्य करके कहा - 'जा कर जरा मरहम-पट्टी कर आओ न!' | ||
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प्रेमा ने तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा - 'भगवान जाने, तुम बड़े निर्दयी हो, किसी को विपत्ति में देख कर भी तुम्हें दया नहीं आती।' | प्रेमा ने तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा - 'भगवान जाने, तुम बड़े निर्दयी हो, किसी को विपत्ति में देख कर भी तुम्हें दया नहीं आती।' | ||
'ऐसे पापियों पर दया करना दया का | 'ऐसे पापियों पर दया करना दया का दुरुपयोग करना है। अगर मैं बगीचे में उस वक्त होता या किसी तरह मेरे कानों में पूर्णा के चिल्लाने की आवाज़ पहुँच जाती, तो चाहे फाँसी ही पाता, पर कमलाप्रसाद को जिंदा न छोड़ता, और फाँसी क्यों होती, क्या क़ानून अंधा है? ऐसी दशा में मैं क्या, सभी ऐसा ही करते। दुष्ट, जिसे एक अनाथिनी अबला पर अत्याचार करते लज्जा न आई और वह भी जो उसी की शरण आ पड़ी थी। मैं ऐसे आदमी का ख़ून कर डालना पाप नहीं समझता।' | ||
प्रेमा को ये कठोर बातें अप्रिय लगीं। कदाचित यह बात सिद्ध होने पर उसके मन में भी ऐसे ही भाव आते, किंतु इस समय उसे जान पड़ा कि केवल उसे जलाने के लिए, केवल उसका अपमान करने के लिए यह चोट की गई है। अगर इस बात को सच भी मान लिया जाए, तो भी ऐसी जली-कटी बातें करने का प्रयोजन? क्या ये बातें दिल में रखी जा सकती थीं? | प्रेमा को ये कठोर बातें अप्रिय लगीं। कदाचित यह बात सिद्ध होने पर उसके मन में भी ऐसे ही भाव आते, किंतु इस समय उसे जान पड़ा कि केवल उसे जलाने के लिए, केवल उसका अपमान करने के लिए यह चोट की गई है। अगर इस बात को सच भी मान लिया जाए, तो भी ऐसी जली-कटी बातें करने का प्रयोजन? क्या ये बातें दिल में रखी जा सकती थीं? | ||
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'मैंने तो कभी तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। क्यों व्यर्थ का दोष लगाते हो? मेरी जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है।' | 'मैंने तो कभी तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। क्यों व्यर्थ का दोष लगाते हो? मेरी जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है।' | ||
'हाँ, इच्छा न होगी, मैंने कह दिया न! मना करता, तो | 'हाँ, इच्छा न होगी, मैंने कह दिया न! मना करता, तो ज़रूर इच्छा होती! मेरे कहने से छूत लग गई।' | ||
प्रेमा समझ गई कि यह उसी चंदे वाले जलसे की तरफ इशारा है। अब और कोई बातचीत करने का अवसर न था। दाननाथ ने वह अपराध अब तक क्षमा नहीं किया था। वहाँ से उठ कर अपने कमरे में चली गई। | प्रेमा समझ गई कि यह उसी चंदे वाले जलसे की तरफ इशारा है। अब और कोई बातचीत करने का अवसर न था। दाननाथ ने वह अपराध अब तक क्षमा नहीं किया था। वहाँ से उठ कर अपने कमरे में चली गई। | ||
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दाननाथ माता के सामने ससुराल की कोई बुराई न करते थे। औरतों को अप्रसन्न करने का इससे कोई सरल उपाय नहीं है। फिर अभी उन्होंने प्रेमा से कठोर बातें की थीं, उसका कुछ खेद भी था। अब उन्हें मालूम हो रहा था कि वही बातें सहानुभूति के ढंग से भी कही जा सकती थीं। मन खेद प्रकट करने के लिए आतुर हो रहा था बोले - 'सब गप है, अम्माँ जी।' | दाननाथ माता के सामने ससुराल की कोई बुराई न करते थे। औरतों को अप्रसन्न करने का इससे कोई सरल उपाय नहीं है। फिर अभी उन्होंने प्रेमा से कठोर बातें की थीं, उसका कुछ खेद भी था। अब उन्हें मालूम हो रहा था कि वही बातें सहानुभूति के ढंग से भी कही जा सकती थीं। मन खेद प्रकट करने के लिए आतुर हो रहा था बोले - 'सब गप है, अम्माँ जी।' | ||
'गप कैसी, | 'गप कैसी, बाज़ार में सुने चली आती हूँ। गंगा-किनारे यही बात हो रही थी। वह ब्राह्मणी वनिता-भवन पहुँच गई।' | ||
दाननाथ ने आँखें फाड़ कर पूछा - 'वनिता-भवन! वहाँ कैसे पहुँची।' | दाननाथ ने आँखें फाड़ कर पूछा - 'वनिता-भवन! वहाँ कैसे पहुँची।' | ||
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'नहीं, उनकी भूल नहीं सरासर मेरा दोष था। मैं शीघ्र ही इसका प्रायश्चित करूँगा। मैं एक जलसे में सारा भंडाफोड़ कर दूँगा। इन पाखंडियों की कलई खोल दूँगा।' | 'नहीं, उनकी भूल नहीं सरासर मेरा दोष था। मैं शीघ्र ही इसका प्रायश्चित करूँगा। मैं एक जलसे में सारा भंडाफोड़ कर दूँगा। इन पाखंडियों की कलई खोल दूँगा।' | ||
'कलई तो | 'कलई तो काफ़ी तौर पर खुल गई, अब उसे और खोलने की क्या ज़रूरत है।' | ||
' | 'ज़रूरत है- कम-से-कम अपनी इज्जत बनाने के लिए इसकी बड़ी सख्त ज़रूरत है। मैं जनता को दिखा दूँगा कि इन पाखंडियों से मेरा मेल-मिलाप किस ढंग का था। इस अवसर पर मौन रह जाना मेरे लिए घातक होगा। उफ! मुझे कितना बड़ा धोखा हुआ। अब मुझे मालूम हो गया कि मुझमें मनुष्यों को परखने की शक्ति नहीं है; लेकिन अब लोगों को मालूम हो जाएगा कि मैं जितना जानी दोस्त हो सकता हूँ, उतना ही जानी दुश्मन भी हो सकता हूँ। जिस वक्त कमलाप्रसाद ने उस अबला पर कुदृष्टि डाली, अगर मैं मौजूद होता, तो अवश्य गोली मार देता। जरा इस षडयंत्र को तो देखो कि बेचारी को उस बगीचे में लिवा ले गया, जहाँ दिन को आधी रात का-सा सन्नाटा रहता है। बहुत ही अच्छा हुआ। इससे श्रद्धा हो गई है। जी चाहता है, जा कर उसके दर्शन करूँ। मगर अभी न जाऊँगा। सबसे पहले इस बगुलाभगत की खबर लेनी है।' | ||
प्रेमा ने पति को श्रद्धा की दृष्टि से देखा। उनका हृदय इतना पवित्र है, वह आज तक यह न समझी थी। अब तक उसने उनका जो स्वरूप देखा था वह एक कृतघ्न, द्वेषी, विचारहीन, कुटिल मनुष्य का था। अगर यह चरित्र देख कर भी वह दाननाथ का आदर करती थी, तो इसका कारण यह प्रेम था, जो दाननाथ को उससे था। आज उसने उनके शुद्ध, निर्मल अंतःकरण की झलक देखी। कितना सच्चा पश्चात्ताप था! कितना पवित्र क्रोध! एक अबला का कितना सम्मान! | प्रेमा ने पति को श्रद्धा की दृष्टि से देखा। उनका हृदय इतना पवित्र है, वह आज तक यह न समझी थी। अब तक उसने उनका जो स्वरूप देखा था वह एक कृतघ्न, द्वेषी, विचारहीन, कुटिल मनुष्य का था। अगर यह चरित्र देख कर भी वह दाननाथ का आदर करती थी, तो इसका कारण यह प्रेम था, जो दाननाथ को उससे था। आज उसने उनके शुद्ध, निर्मल अंतःकरण की झलक देखी। कितना सच्चा पश्चात्ताप था! कितना पवित्र क्रोध! एक अबला का कितना सम्मान! | ||
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उसने कमरे के द्वार पर आ कर कहा - 'मैं तो समझती हूँ इस समय तुम्हारा चुप रह जाना ही अच्छा है। कुछ दिनों तक लोग तुम्हें बदनाम करेंगे, पर अंत में तुम्हारा आदर करेंगे। मुझे भी यही शंका है कि यदि तुमने भैया जी का विरोध किया तो पिता जी को बड़ा दुःख होगा।' | उसने कमरे के द्वार पर आ कर कहा - 'मैं तो समझती हूँ इस समय तुम्हारा चुप रह जाना ही अच्छा है। कुछ दिनों तक लोग तुम्हें बदनाम करेंगे, पर अंत में तुम्हारा आदर करेंगे। मुझे भी यही शंका है कि यदि तुमने भैया जी का विरोध किया तो पिता जी को बड़ा दुःख होगा।' | ||
दाननाथ ने मानो विष का घूँट पी कर कहा - 'अच्छी बात है, जैसी तुम्हारी इच्छा। मगर याद रखो, मैं कहीं बाहर मुँह दिखाने | दाननाथ ने मानो विष का घूँट पी कर कहा - 'अच्छी बात है, जैसी तुम्हारी इच्छा। मगर याद रखो, मैं कहीं बाहर मुँह दिखाने लायक़ न रहूँगा।' | ||
प्रेमा ने प्रेम-कृतज्ञ नेत्रों से देखा। कंठ गद्गद् हो गया। मुँह से एक शब्द न निकला। पति के | प्रेमा ने प्रेम-कृतज्ञ नेत्रों से देखा। कंठ गद्गद् हो गया। मुँह से एक शब्द न निकला। पति के महान् त्याग ने उसे विभोर कर दिया। उसके एक इशारे पर अपमान, निंदा, अनादर सहने के लिए तैयार हो कर दाननाथ ने आज उसके हृदय पर अधिकार पा लिया। वह मुँह से कुछ न बोली, पर उसका एक-एक रोम पति को आशीर्वाद दे रहा था। | ||
त्याग ही वह शक्ति है, जो हृदय पर विजय पा सकती है। | त्याग ही वह शक्ति है, जो हृदय पर विजय पा सकती है। | ||
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10:50, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण
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दाननाथ यहाँ से चले, तो उनके जी में ऐसा आ रहा था कि इसी वक्त घर-बार छोड़ कर कहीं निकल जाऊँ! कमलाप्रसाद अपने साथ उन्हें भी ले डूबा था। जनता की दृष्टि में कमलाप्रसाद और वह अभिन्न थे। यह असंभव था कि उनमें से एक कोई काम करे और उसका यश या अपयश दूसरे को न मिले। जनता के सामने अब किस मुँह से खड़े होंगे क्या यह उनके सार्वजनिक जीवन का अंत था? क्या वह अपने को इस कलंक से पृथक् कर सकते थे?
मगर कमलाप्रसाद इतना गया-बीता आदमी है! इतना कुटिल, इतना भ्रष्टाचारी! इतना नीच! फिर और किस पर विश्वास किया जाए? ऐसा धर्मानुरागी मनुष्य अब इतना पतित हो सकता है, तो फिर दूसरों से क्या आशा? जो प्राणी शील और परोपकार का पुतला था, वह ऐसा कामांध क्यों कर हो गया? क्या संसार में कोई भी सच्चा, नेक निष्कपट व्यक्ति नहीं है।
घर पहुँच कर ज्योंही वह घर में गए, प्रेमा ने पूछा - 'तुमने भी भैया के विषय में कोई बात सुनी? अभी महरी न जाने कहाँ से ऊटपटाँग बातें सुन आई है। मुझे तो विश्वास नहीं आता।'
दाननाथ ने आँखें बचा कर कहा - 'विश्वास न आने का कारण!'
'तुमने भी कुछ सुना है?'
'हाँ सुना है। तुम्हारे घर ही से चला आ रहा हूँ।'
'तो सचमुच भैया जी पूर्णा को बगीचे ले गए थे?'
'बिल्कुल सच है!'
'पूर्णा ने भैया को मार कर गिरा दिया, यह भी सच है?'
'जी हाँ, यह भी सच है।'
'तुमसे किसने कहा?'
'तुम्हारे पिता जी ने!'
'पिता जी की न पूछो। वह तो भैया पर उधार ही खाए रहते हैं।'
'तो क्या समझ लूँ कि उन्होंने कमलाप्रसाद पर मिथ्या दोष लगाया।'
'नहीं, यह मैं नहीं कहती; मगर भैया में ऐसी आदत कभी न थी।'
'तुम किसी के दिल का हाल क्या जानो! पहले मैं उन्हें धर्म और सच्चाई का पुतला समझता था। पर आज मालूम हुआ कि वह लंपट ही नहीं, परले सिरे के झूठे हैं। पूर्णा ने बहुत अच्छा किया। मार डालती तो और भी अच्छा करती। न मालूम उसने क्यों छोड़ दिया। तुम्हारा भाई समझ कर उसे दया आ गई होगी?'
प्रेमा ने एक क्षण सोच कर संदिग्ध भाव से कहा - 'मुझे अब भी विश्वास नहीं आता। पूर्णा बराबर मेरे यहाँ आती थी। वह उसकी ओर कभी आँख उठा कर भी न देखते थे। इसमें ज़रूर कोई-न-कोई पेंच है। भैया जी को बहुत चोट तो नहीं आई।'
दाननाथ ने व्यंग्य करके कहा - 'जा कर जरा मरहम-पट्टी कर आओ न!'
प्रेमा ने तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा - 'भगवान जाने, तुम बड़े निर्दयी हो, किसी को विपत्ति में देख कर भी तुम्हें दया नहीं आती।'
'ऐसे पापियों पर दया करना दया का दुरुपयोग करना है। अगर मैं बगीचे में उस वक्त होता या किसी तरह मेरे कानों में पूर्णा के चिल्लाने की आवाज़ पहुँच जाती, तो चाहे फाँसी ही पाता, पर कमलाप्रसाद को जिंदा न छोड़ता, और फाँसी क्यों होती, क्या क़ानून अंधा है? ऐसी दशा में मैं क्या, सभी ऐसा ही करते। दुष्ट, जिसे एक अनाथिनी अबला पर अत्याचार करते लज्जा न आई और वह भी जो उसी की शरण आ पड़ी थी। मैं ऐसे आदमी का ख़ून कर डालना पाप नहीं समझता।'
प्रेमा को ये कठोर बातें अप्रिय लगीं। कदाचित यह बात सिद्ध होने पर उसके मन में भी ऐसे ही भाव आते, किंतु इस समय उसे जान पड़ा कि केवल उसे जलाने के लिए, केवल उसका अपमान करने के लिए यह चोट की गई है। अगर इस बात को सच भी मान लिया जाए, तो भी ऐसी जली-कटी बातें करने का प्रयोजन? क्या ये बातें दिल में रखी जा सकती थीं?
उसके मन में प्रबल उत्कंठा हुई कि चल कर कमलाप्रसाद को देख कर आएँ, पर इस भय से कि तब तो यह और भी बिगड़ जाएँगे, उसने यह इच्छा प्रकट न की। मन-ही-मन ऐंठ कर रह गई।
एक क्षण के बाद दाननाथ ने कहा - 'जी चाहता हो, तो जा कर देख आओ। चोट तो ऐसी गहरी नहीं है, पर मक्कर ऐसा किए हुए हैं, मानो गोली लग गई हो।'
प्रेमा ने विरक्त हो कर कहा - 'तुम तो देख ही आए, मैं जा कर क्या करूँगी।'
'नहीं भाई, मैं किसी को रोकता नहीं। ऐसा न हो, पीछे से कहने लगो तुमने जाने न दिया। मैं बिल्कुल नहीं रोकता।'
'मैंने तो कभी तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। क्यों व्यर्थ का दोष लगाते हो? मेरी जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है।'
'हाँ, इच्छा न होगी, मैंने कह दिया न! मना करता, तो ज़रूर इच्छा होती! मेरे कहने से छूत लग गई।'
प्रेमा समझ गई कि यह उसी चंदे वाले जलसे की तरफ इशारा है। अब और कोई बातचीत करने का अवसर न था। दाननाथ ने वह अपराध अब तक क्षमा नहीं किया था। वहाँ से उठ कर अपने कमरे में चली गई।
दाननाथ के दिल का बुखार न निकलने पाया। वह महीनों से अवसर खोज रहे थे कि एक बार प्रेमा से खूब खुली-खुली बातें करें, पर यह अवसर उनके हाथ से निकल गया। वह खिसियाए हुए बाहर जाना चाहते थे कि सहसा उनकी माता जी आ कर बोलीं - 'आज ससुराल की ओर तो नहीं गए थे बेटा? कुछ गड़बड़ सुन रही हूँ।'
दाननाथ माता के सामने ससुराल की कोई बुराई न करते थे। औरतों को अप्रसन्न करने का इससे कोई सरल उपाय नहीं है। फिर अभी उन्होंने प्रेमा से कठोर बातें की थीं, उसका कुछ खेद भी था। अब उन्हें मालूम हो रहा था कि वही बातें सहानुभूति के ढंग से भी कही जा सकती थीं। मन खेद प्रकट करने के लिए आतुर हो रहा था बोले - 'सब गप है, अम्माँ जी।'
'गप कैसी, बाज़ार में सुने चली आती हूँ। गंगा-किनारे यही बात हो रही थी। वह ब्राह्मणी वनिता-भवन पहुँच गई।'
दाननाथ ने आँखें फाड़ कर पूछा - 'वनिता-भवन! वहाँ कैसे पहुँची।'
'अब यह मैं क्या जानूँ? मगर वहाँ पहुँच गई, इसमें संदेह नहीं। कई आदमी वहाँ पता लगा आए। मैं कमलाप्रसाद को देखते ही भाँप गई थी कि यह आदमी निगाह का अच्छा नहीं है, लेकिन तुम किसकी सुनते थे?'
'अम्माँ, किसी के दिल का हाल कोई क्या जानता है?'
'जिनके आँखें हैं, वह जान ही जाते हैं। हाँ, तुम जैसे आदमी धोखा खा जाते हैं। अब शहर में तुम जिधर जाओगे, उधर उँगलियाँ उठेंगी। लोग तुम्हें दोषी ठहराएँगे। वह औरत वहाँ जा कर न जाने क्या-क्या बातें बनाएगी। एक-एक बात की सौ-सौ लगाएगी। यह मैं कभी न मानूँगी कि पहले से कुछ साँठ-गाँठ न थी। अगर पहले से कोई बातचीत न थी तो वह कमलाप्रसाद के साथ अकेले बगीचे में गई क्यों? मगर अब वह सारा अपराध कमलाप्रसाद के सिर रख कर आप निकल जाएगी। मुझे डर है कि कहीं तुम्हें भी न घसीटे। जरा मुझसे उसकी भेंट हो जाती, तो मैं पूछती।'
दाननाथ के पेट में चूहे दौड़ने लगे। उनके पेट में कोई बात न पच सकती थी। प्रेमा के कमरे के द्वार पर जा कर बोले - 'कुछ सुना, पूर्णा वनिता-भवन पहुँच गई।'
प्रेमा ने उनकी ओर देखा। उसकी आँखें लाल थीं। वह बातें, जो हृदय को मलते रहने पर उसके मुख से न निकलने पाती थी, 'कर्तव्य और शंका जिन्हें अंदर ही दबा देती थी', आँसू बन कर निकल जाती थीं। चंदे वाले जलसे में जाना इतना घोर अपराध था कि क्षमा ही न किया जा सके? वह जहाँ जाते हैं, जो करते हैं, क्या उससे पूछ कर करते हैं? इसमें संदेह नहीं कि विद्या, बुद्धि और उम्र में उससे बढ़े हुए हैं, इसलिए वह अधिक स्वतंत्र हैं, उन्हें उस पर निगरानी रखने का हक है। वह अगर उसे कोई अनुचित बात करते देखें, तो रोक सकते हैं। लेकिन उस जलसे में जाना तो कोई अनुचित बात न थी। क्या कोई बात इसीलिए अनुचित हो जाती है कि अमृतराय का उसमें हाथ है? इनमें इतनी सहानुभूति भी नहीं, सब कुछ जान कर भी अनजान बनते हैं!
दाननाथ उसकी लाल आँखें देख कर प्रेम से द्रवित हो उठे। अपनी कठोरता पर लज्जा आई। प्रेम की प्रगति जल के प्रवाह की भाँति है, जो थोड़ी देर के लिए रूक जाए, पर अपनी गति नहीं बदल सकती, यह बात वह क्यों भूल गए। एक अकट सत्य के विरोध करने का प्रायश्चित अब उनके सिवाय और कौन करेगा? मधुर कंठ से बोले - 'पूर्णा तो वनिता-भवन पहुँच गई।'
प्रेमा कुछ निश्चय न कर सकी कि इस खबर पर प्रसन्न हो या खिन्न? दाननाथ ने यह बात किस इरादे से कही? उसका क्या आशय था, वह कुछ न जान सकी। दाननाथ कदाचित उसका मनोभाव ताड़ गए। बोले - 'अब उसके विषय में कोई चिंता न रही। अमृतराय उसका बेड़ा पार लगा देंगे?'
प्रेमा को यह वाक्य भी पहले-सा जान पड़ा। यह अमृतराय की प्रशंसा है या निंदा? अमृतराय उसका बेड़ा कैसे पार लगा देंगे? साधारण तो इस वाक्य का यही अर्थ है कि अब पूर्णा को आश्रय मिल गया, लेकिन क्या यह व्यंग्य नहीं हो सकता?
दाननाथ ने कुछ लज्जित हो कर कहा - 'अब मुझे ऐसा जान पड़ता है कि अमृतराय पर मेरा संदेह बिल्कुल मिथ्या था। मैंने आँखें बंद करके कमलाप्रसाद की प्रत्येक बात को वेद-वाक्य समझ लिया था। मैंने अमृतराय पर कितना बड़ा अन्याय किया है, इसका अनुभव अब मैं कुछ-कुछ कर सकता हूँ। मैं कमलाप्रसाद की आँखों से देखता था। इस धूर्त ने मुझे बड़ा चकमा दिया। न-जाने मेरी बुद्धि पर क्यों ऐसा परदा पड़ा गया कि अपने अनन्य मित्र पर ऐसे संदेह करने लगा?'
प्रेमा के मुख-मंडल पर स्नेह का जैसा गहरा रंग इस समय दिखाई दिया वैसा और पहले दाननाथ ने कभी न देखा था। यह कुछ वैसा ही गर्वपूर्ण आनंद था, जैसे माता को दो रूठे हुए भाइयों के मनोमालिन्य के दूर हो जाने से होता है। बोली - 'अमृतराय की भी तो भूल थी कि उन्होंने तुमसे मिलना-जुलना छोड़ दिया? कभी-कभी आपस में भेंट होती रहती, तो ऐसा भ्रम क्यों उत्पन्न होता? खेत में हल न चलने ही से तो घास-पात जम आता है।'
'नहीं, उनकी भूल नहीं सरासर मेरा दोष था। मैं शीघ्र ही इसका प्रायश्चित करूँगा। मैं एक जलसे में सारा भंडाफोड़ कर दूँगा। इन पाखंडियों की कलई खोल दूँगा।'
'कलई तो काफ़ी तौर पर खुल गई, अब उसे और खोलने की क्या ज़रूरत है।'
'ज़रूरत है- कम-से-कम अपनी इज्जत बनाने के लिए इसकी बड़ी सख्त ज़रूरत है। मैं जनता को दिखा दूँगा कि इन पाखंडियों से मेरा मेल-मिलाप किस ढंग का था। इस अवसर पर मौन रह जाना मेरे लिए घातक होगा। उफ! मुझे कितना बड़ा धोखा हुआ। अब मुझे मालूम हो गया कि मुझमें मनुष्यों को परखने की शक्ति नहीं है; लेकिन अब लोगों को मालूम हो जाएगा कि मैं जितना जानी दोस्त हो सकता हूँ, उतना ही जानी दुश्मन भी हो सकता हूँ। जिस वक्त कमलाप्रसाद ने उस अबला पर कुदृष्टि डाली, अगर मैं मौजूद होता, तो अवश्य गोली मार देता। जरा इस षडयंत्र को तो देखो कि बेचारी को उस बगीचे में लिवा ले गया, जहाँ दिन को आधी रात का-सा सन्नाटा रहता है। बहुत ही अच्छा हुआ। इससे श्रद्धा हो गई है। जी चाहता है, जा कर उसके दर्शन करूँ। मगर अभी न जाऊँगा। सबसे पहले इस बगुलाभगत की खबर लेनी है।'
प्रेमा ने पति को श्रद्धा की दृष्टि से देखा। उनका हृदय इतना पवित्र है, वह आज तक यह न समझी थी। अब तक उसने उनका जो स्वरूप देखा था वह एक कृतघ्न, द्वेषी, विचारहीन, कुटिल मनुष्य का था। अगर यह चरित्र देख कर भी वह दाननाथ का आदर करती थी, तो इसका कारण यह प्रेम था, जो दाननाथ को उससे था। आज उसने उनके शुद्ध, निर्मल अंतःकरण की झलक देखी। कितना सच्चा पश्चात्ताप था! कितना पवित्र क्रोध! एक अबला का कितना सम्मान!
उसने कमरे के द्वार पर आ कर कहा - 'मैं तो समझती हूँ इस समय तुम्हारा चुप रह जाना ही अच्छा है। कुछ दिनों तक लोग तुम्हें बदनाम करेंगे, पर अंत में तुम्हारा आदर करेंगे। मुझे भी यही शंका है कि यदि तुमने भैया जी का विरोध किया तो पिता जी को बड़ा दुःख होगा।'
दाननाथ ने मानो विष का घूँट पी कर कहा - 'अच्छी बात है, जैसी तुम्हारी इच्छा। मगर याद रखो, मैं कहीं बाहर मुँह दिखाने लायक़ न रहूँगा।'
प्रेमा ने प्रेम-कृतज्ञ नेत्रों से देखा। कंठ गद्गद् हो गया। मुँह से एक शब्द न निकला। पति के महान् त्याग ने उसे विभोर कर दिया। उसके एक इशारे पर अपमान, निंदा, अनादर सहने के लिए तैयार हो कर दाननाथ ने आज उसके हृदय पर अधिकार पा लिया। वह मुँह से कुछ न बोली, पर उसका एक-एक रोम पति को आशीर्वाद दे रहा था।
त्याग ही वह शक्ति है, जो हृदय पर विजय पा सकती है।
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