"महादेव गोविन्द रानाडे": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
(''''महादेव गोविन्द रानाडे''' (जन्म- 13 जनवरी, 1842; मृत्यु- [[16 ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
(5 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 13 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''महादेव गोविन्द रानाडे''' (जन्म- [[13 जनवरी]], 1842; मृत्यु- [[16 जनवरी]], [[1901]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान और न्यायविद थे। रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। [[प्रार्थना समाज]], [[आर्य समाज]] और [[ब्रह्म समाज]] का इनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। गोविंद रानाडे 'दक्कन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक थे। इन्होंने '[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]]' की स्थापना का भी समर्थन किया था। रानाडे स्वदेशी के समर्थक और देश में ही निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करने के पक्षधर थे।
{{सूचना बक्सा प्रसिद्ध व्यक्तित्व
|चित्र=M-g-ranade.jpg
|चित्र का नाम=महादेव गोविन्द रानाडे
|पूरा नाम=महादेव गोविन्द रानाडे
|अन्य नाम=
|जन्म=[[18 जनवरी]], 1842
|जन्म भूमि=[[पुणे]], [[महाराष्ट्र]]
|मृत्यु=[[16 जनवरी]], [[1901]]
|मृत्यु स्थान=
|अभिभावक=गोविंद अमृत रानाडे
|पति/पत्नी=
|संतान=
|गुरु=
|कर्म भूमि=[[भारत]]
|कर्म-क्षेत्र=
|मुख्य रचनाएँ='विधवा पुनर्विवाह', 'मालगुजारी क़ानून', 'राजा राममोहन राय की जीवनी' आदि।
|विषय=सामाजिक
|खोज=
|भाषा=
|शिक्षा= एल.एल.बी.
|विद्यालय=
|पुरस्कार-उपाधि=
|प्रसिद्धि=
|विशेष योगदान=गोविन्द रानाडे ने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे [[बाल विवाह]] के कट्टर विरोधी और [[विधवा विवाह]] के समर्थक थे।
|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|शीर्षक 3=
|पाठ 3=
|शीर्षक 4=
|पाठ 4=
|शीर्षक 5=
|पाठ 5=
|अन्य जानकारी=गोविंद रानाडे 'दक्कन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक थे।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''महादेव गोविन्द रानाडे''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Mahadev Govind Ranade'', जन्म- [[18 जनवरी]], 1842; मृत्यु- [[16 जनवरी]], [[1901]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान् और न्यायविद थे। उन्हें "महाराष्ट्र का सुकरात" कहा जाता है। रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। [[प्रार्थना समाज]], [[आर्य समाज]] और [[ब्रह्म समाज]] का इनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। गोविंद रानाडे 'दक्कन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक थे। इन्होंने '[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]]' की स्थापना का भी समर्थन किया था। रानाडे स्वदेशी के समर्थक और देश में ही निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करने के पक्षधर थे।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
गोविंद रानाडे का जन्म 1842 ई. में [[पुणे]] में हुआ था। उनके [[पिता]] का नाम 'गोविंद अमृत रानाडे' था। पुणे में आरंभिक शिक्षा पाने के बाद रानाडे ने ग्यारह वर्ष की उम्र में [[अंग्रेज़ी]] शिक्षा आरंभ की। 1859 ई. में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और 21 मेधावी विद्यार्थियों में उनका अध्ययन मूल्यांकन शामिल था। आगे शिक्षा जारी रखने के लिए उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। पुणे के 'एलफिंस्टन कॉलेज' में वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। एल.एल.बी. पास करने के बाद वे उप-न्यायाधीश नियुक्त किए गए। वे निर्भीकतापूर्वक निर्णय देने के लिए प्रसिद्ध थे। शिक्षा प्रसार में उनकी रुचि देखकर [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] को अपने लिए संकट का अनुभव होने लगा था, और यही कारण था कि उन्होंने रानाडे का स्थानांतरण शहर से बाहर एक परगने में कर दिया। रानाडे को सज्जानता की सज़ा भुगतनी पड़ी थी। उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना। वे जब लोकसेवा की ओर मुड़े तो उन्होंने देश में अपने ढंग के महाविद्यालय स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए। वे आधुनिक शिक्षा के हिमायती तो थे ही, लेकिन भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप।
गोविंद रानाडे का जन्म 1842 ई. में [[पुणे]] में हुआ था। उनके [[पिता]] का नाम 'गोविंद अमृत रानाडे' था। पुणे में आरंभिक शिक्षा पाने के बाद रानाडे ने ग्यारह वर्ष की उम्र में [[अंग्रेज़ी]] शिक्षा आरंभ की। 1859 ई. में उन्होंने [[मुंबई विश्वविद्यालय]] से प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और 21 मेधावी विद्यार्थियों में उनका अध्ययन मूल्यांकन शामिल था। आगे शिक्षा जारी रखने के लिए उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। पुणे के 'एलफिंस्टन कॉलेज' में वे [[अंग्रेज़ी]] के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। एल.एल.बी. पास करने के बाद वे उप-न्यायाधीश नियुक्त किए गए। वे निर्भीकतापूर्वक निर्णय देने के लिए प्रसिद्ध थे। शिक्षा प्रसार में उनकी रुचि देखकर [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] को अपने लिए संकट का अनुभव होने लगा था, और यही कारण था कि उन्होंने रानाडे का स्थानांतरण शहर से बाहर एक परगने में कर दिया। रानाडे को सज्जानता की सज़ा भुगतनी पड़ी थी। उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना। वे जब लोकसेवा की ओर मुड़े तो उन्होंने देश में अपने ढंग के महाविद्यालय स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए। वे आधुनिक शिक्षा के हिमायती तो थे ही, लेकिन [[भारत]] की आवश्यकताओं के अनुरूप।
====कठिनाईयों से सामना====
====कठिनाईयों से सामना====
महादेव गोविंद रानाडे को अनेक क्षेत्रों में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। इससे जो समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उससे उन्हें पीड़ाओं को भी सहना पड़ा। समाज सुधार की रस्सी पर चलने जैसा कठिन काम उन्होंने किया था। ब्रिटिश सरकार उनके हर काम पर नज़र रख रही थी। परंपराओं को तोड़ने के कारण वे जनता के भी कोप भाजन बने थे।
महादेव गोविंद रानाडे को अनेक क्षेत्रों में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। इससे जो समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उससे उन्हें पीड़ाओं को भी सहना पड़ा। समाज सुधार की रस्सी पर चलने जैसा कठिन काम उन्होंने किया था। [[ब्रिटिश सरकार]] उनके हर काम पर नज़र रख रही थी। परंपराओं को तोड़ने के कारण वे जनता के भी कोप भाजन बने थे।
==इंसानियत की मिशाल==
 
एक दिन रानाडे अपने घर से न्यायालय जाने के लिए निकले। उन्होंने देखा कि एक वृद्ध महिला ने लकड़ियों का बोझ उठा रखा है। रानाडे को उस वृद्धा के शरीर की अंतिम अवस्था पर तरस आ गया और उन्होंने उससे पूछा- "क्या मैं आपकी कुछ सेवा कर सकता हूँ?" इस पर वृद्धा ने कहा- "लकड़ियों का यह गट्ठर मेरे सिर से उतार दो।" रानाडे ने गट्ठर नीचे उतार दिया। तभी रानाडे को पहचानने वाले उनके एक पड़ोसी ने उस वृद्ध महिला से कहा कि आप नहीं जानतीं, यह सेशन न्यायाधीश है और तुम इनसे ऐसा काम करवा रही हो। वृद्धा के कुछ भी बोलने के पहले ही रानाडे ने जवाब दिया- "मैं न्यायाधीश होने से पहले एक मनुष्य भी हूँ।"  
==इंसानियत की मिसाल==
एक दिन रानाडे अपने घर से [[न्यायालय]] जाने के लिए निकले। उन्होंने देखा कि एक वृद्ध महिला ने लकड़ियों का बोझ उठा रखा है। रानाडे को उस वृद्धा के शरीर की अंतिम अवस्था पर तरस आ गया और उन्होंने उससे पूछा- "क्या मैं आपकी कुछ सेवा कर सकता हूँ?" इस पर वृद्धा ने कहा- "लकड़ियों का यह गट्ठर मेरे सिर से उतार दो।" रानाडे ने गट्ठर नीचे उतार दिया। तभी रानाडे को पहचानने वाले उनके एक पड़ोसी ने उस वृद्ध महिला से कहा कि आप नहीं जानतीं, यह सेशन न्यायाधीश है और तुम इनसे ऐसा काम करवा रही हो। वृद्धा के कुछ भी बोलने के पहले ही रानाडे ने जवाब दिया- "मैं न्यायाधीश होने से पहले एक मनुष्य भी हूँ।"
====समाज सुधार कार्य====
====समाज सुधार कार्य====
रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। वे [[प्रार्थना समाज]] और [[ब्रह्म समाज]] आदि के सुधार कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने जनता से बराबर संपर्क बनाये रखा। [[दादाभाई नौरोजी]] के पथ प्रदर्शन में वे शिक्षित लोगों को देशहित के कार्यों की ओर प्रेरित करते रहे। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने [[महाराष्ट्र]] में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का विरोध किया। [[धर्म]] में उनका अंधविश्वास नहीं था। वे मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे [[बाल विवाह]] के कट्टर विरोधी और [[विधवा विवाह]] के समर्थक थे। इसके लिए उन्होंने एक समिति गठित की थी। 'दकन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में भी वे प्रमुख थे।
रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। वे [[प्रार्थना समाज]] और [[ब्रह्म समाज]] आदि के सुधार कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने जनता से बराबर संपर्क बनाये रखा। [[दादाभाई नौरोजी]] के पथ प्रदर्शन में वे शिक्षित लोगों को देशहित के कार्यों की ओर प्रेरित करते रहे। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने [[महाराष्ट्र]] में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का विरोध किया। [[धर्म]] में उनका अंधविश्वास नहीं था। वे मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे [[बाल विवाह]] के कट्टर विरोधी और [[विधवा विवाह]] के समर्थक थे। इसके लिए उन्होंने एक समिति 'विधवा विवाह मण्डल' की स्थापना भी की थी। महादेव गोविन्द रानाडे 'दक्क्खन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में भी प्रमुख थे।
 
==राजनीतिक गतिविधि==
==राजनीतिक गतिविधि==
महादेव गोविंद रानाडे ने '[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]]' की स्थापना का समर्थन किया था और [[1885]] ई. के उसके प्रथम मुंबई अधिवेशन में भाग भी लिया। राजनीतिक सम्मेलनों के साथ सामाजिक सम्मेलनों के आयोजन का श्रेय उन्हीं को है। वे मानते थे कि मनुष्य की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रगति एक दूसरे पर आश्रित है। अत: ऐसा व्यापक सुधारवादी आंदोलन होना चाहिए, जो मनुष्य की चतुर्मुखी उन्नति में सहायक हो। वे सामाजिक सुधार के लिए केवल पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना पर्याप्त नहीं मानते थे। उनका कहना था कि रचनात्मक कार्य से ही यह संभव हो सकता है। वे स्वदेशी के समर्थक थे और देश में निर्मित वस्तुओं के उपयोग पर बल देते थे। देश की एकता उनके लिए सर्वोपरी थी। उन्होंने कहा था कि- "प्रत्येक भारतवासी को यह समझना चाहिए कि पहले मैं भारतीय हूँ और बाद में [[हिन्दू]], [[ईसाई]], [[पारसी]], [[मुसलमान]] आदि कुछ और।
महादेव गोविंद रानाडे ने '[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]]' की स्थापना का समर्थन किया था और [[1885]] ई. के उसके प्रथम मुंबई अधिवेशन में भाग भी लिया। राजनीतिक सम्मेलनों के साथ सामाजिक सम्मेलनों के आयोजन का श्रेय उन्हीं को है। वे मानते थे कि मनुष्य की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रगति एक दूसरे पर आश्रित है। अत: ऐसा व्यापक सुधारवादी आंदोलन होना चाहिए, जो मनुष्य की चतुर्मुखी उन्नति में सहायक हो। वे सामाजिक सुधार के लिए केवल पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना पर्याप्त नहीं मानते थे। उनका कहना था कि रचनात्मक कार्य से ही यह संभव हो सकता है। वे स्वदेशी के समर्थक थे और देश में निर्मित वस्तुओं के उपयोग पर बल देते थे। देश की एकता उनके लिए सर्वोपरी थी। उन्होंने कहा था कि- "प्रत्येक भारतवासी को यह समझना चाहिए कि पहले मैं भारतीय हूँ और बाद में [[हिन्दू]], [[ईसाई]], [[पारसी]], [[मुसलमान]] आदि कुछ और।"
====रचनाएँ====
====रचनाएँ====
रानाडे प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने अनेक [[ग्रंथ|ग्रंथों]] की रचना की थी, जिनमें से प्रमुख हैं-
रानाडे प्रकांड विद्वान् थे। उन्होंने अनेक [[ग्रंथ|ग्रंथों]] की रचना की थी, जिनमें से प्रमुख हैं-
#विधवा पुनर्विवाह
#विधवा पुनर्विवाह
#मालगुजारी क़ानून
#मालगुजारी क़ानून
पंक्ति 20: पंक्ति 62:
देश की भरपूर सेवा करने वाले और समाज को नई राहें दिखाने वाले गोविंद रानाडे का निधन [[16 जनवरी]], [[1901]] ई. में हुआ।
देश की भरपूर सेवा करने वाले और समाज को नई राहें दिखाने वाले गोविंद रानाडे का निधन [[16 जनवरी]], [[1901]] ई. में हुआ।


{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{समाज सुधारक}}
{{समाज सुधारक}}
[[Category:न्यायधीश]][[Category:राजनेता]][[Category:लेखक]][[Category:राजनीतिज्ञ]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:राजनीति कोश]][[Category:समाज सुधारक]][[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:राजनेता]][[Category:लेखक]][[Category:राजनीतिज्ञ]][[Category:चरित कोश]][[Category:राजनीति कोश]][[Category:समाज सुधारक]][[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:न्यायाधीश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

08:14, 29 दिसम्बर 2019 के समय का अवतरण

महादेव गोविन्द रानाडे
महादेव गोविन्द रानाडे
महादेव गोविन्द रानाडे
पूरा नाम महादेव गोविन्द रानाडे
जन्म 18 जनवरी, 1842
जन्म भूमि पुणे, महाराष्ट्र
मृत्यु 16 जनवरी, 1901
अभिभावक गोविंद अमृत रानाडे
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ 'विधवा पुनर्विवाह', 'मालगुजारी क़ानून', 'राजा राममोहन राय की जीवनी' आदि।
विषय सामाजिक
शिक्षा एल.एल.बी.
विशेष योगदान गोविन्द रानाडे ने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी गोविंद रानाडे 'दक्कन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक थे।

महादेव गोविन्द रानाडे (अंग्रेज़ी: Mahadev Govind Ranade, जन्म- 18 जनवरी, 1842; मृत्यु- 16 जनवरी, 1901) भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान् और न्यायविद थे। उन्हें "महाराष्ट्र का सुकरात" कहा जाता है। रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। प्रार्थना समाज, आर्य समाज और ब्रह्म समाज का इनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। गोविंद रानाडे 'दक्कन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक थे। इन्होंने 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना का भी समर्थन किया था। रानाडे स्वदेशी के समर्थक और देश में ही निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करने के पक्षधर थे।

जीवन परिचय

गोविंद रानाडे का जन्म 1842 ई. में पुणे में हुआ था। उनके पिता का नाम 'गोविंद अमृत रानाडे' था। पुणे में आरंभिक शिक्षा पाने के बाद रानाडे ने ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ी शिक्षा आरंभ की। 1859 ई. में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और 21 मेधावी विद्यार्थियों में उनका अध्ययन मूल्यांकन शामिल था। आगे शिक्षा जारी रखने के लिए उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। पुणे के 'एलफिंस्टन कॉलेज' में वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। एल.एल.बी. पास करने के बाद वे उप-न्यायाधीश नियुक्त किए गए। वे निर्भीकतापूर्वक निर्णय देने के लिए प्रसिद्ध थे। शिक्षा प्रसार में उनकी रुचि देखकर अंग्रेज़ों को अपने लिए संकट का अनुभव होने लगा था, और यही कारण था कि उन्होंने रानाडे का स्थानांतरण शहर से बाहर एक परगने में कर दिया। रानाडे को सज्जानता की सज़ा भुगतनी पड़ी थी। उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना। वे जब लोकसेवा की ओर मुड़े तो उन्होंने देश में अपने ढंग के महाविद्यालय स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए। वे आधुनिक शिक्षा के हिमायती तो थे ही, लेकिन भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप।

कठिनाईयों से सामना

महादेव गोविंद रानाडे को अनेक क्षेत्रों में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। इससे जो समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उससे उन्हें पीड़ाओं को भी सहना पड़ा। समाज सुधार की रस्सी पर चलने जैसा कठिन काम उन्होंने किया था। ब्रिटिश सरकार उनके हर काम पर नज़र रख रही थी। परंपराओं को तोड़ने के कारण वे जनता के भी कोप भाजन बने थे।

इंसानियत की मिसाल

एक दिन रानाडे अपने घर से न्यायालय जाने के लिए निकले। उन्होंने देखा कि एक वृद्ध महिला ने लकड़ियों का बोझ उठा रखा है। रानाडे को उस वृद्धा के शरीर की अंतिम अवस्था पर तरस आ गया और उन्होंने उससे पूछा- "क्या मैं आपकी कुछ सेवा कर सकता हूँ?" इस पर वृद्धा ने कहा- "लकड़ियों का यह गट्ठर मेरे सिर से उतार दो।" रानाडे ने गट्ठर नीचे उतार दिया। तभी रानाडे को पहचानने वाले उनके एक पड़ोसी ने उस वृद्ध महिला से कहा कि आप नहीं जानतीं, यह सेशन न्यायाधीश है और तुम इनसे ऐसा काम करवा रही हो। वृद्धा के कुछ भी बोलने के पहले ही रानाडे ने जवाब दिया- "मैं न्यायाधीश होने से पहले एक मनुष्य भी हूँ।"

समाज सुधार कार्य

रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। वे प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज आदि के सुधार कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने जनता से बराबर संपर्क बनाये रखा। दादाभाई नौरोजी के पथ प्रदर्शन में वे शिक्षित लोगों को देशहित के कार्यों की ओर प्रेरित करते रहे। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने महाराष्ट्र में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का विरोध किया। धर्म में उनका अंधविश्वास नहीं था। वे मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे। इसके लिए उन्होंने एक समिति 'विधवा विवाह मण्डल' की स्थापना भी की थी। महादेव गोविन्द रानाडे 'दक्क्खन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में भी प्रमुख थे।

राजनीतिक गतिविधि

महादेव गोविंद रानाडे ने 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना का समर्थन किया था और 1885 ई. के उसके प्रथम मुंबई अधिवेशन में भाग भी लिया। राजनीतिक सम्मेलनों के साथ सामाजिक सम्मेलनों के आयोजन का श्रेय उन्हीं को है। वे मानते थे कि मनुष्य की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रगति एक दूसरे पर आश्रित है। अत: ऐसा व्यापक सुधारवादी आंदोलन होना चाहिए, जो मनुष्य की चतुर्मुखी उन्नति में सहायक हो। वे सामाजिक सुधार के लिए केवल पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना पर्याप्त नहीं मानते थे। उनका कहना था कि रचनात्मक कार्य से ही यह संभव हो सकता है। वे स्वदेशी के समर्थक थे और देश में निर्मित वस्तुओं के उपयोग पर बल देते थे। देश की एकता उनके लिए सर्वोपरी थी। उन्होंने कहा था कि- "प्रत्येक भारतवासी को यह समझना चाहिए कि पहले मैं भारतीय हूँ और बाद में हिन्दू, ईसाई, पारसी, मुसलमान आदि कुछ और।"

रचनाएँ

रानाडे प्रकांड विद्वान् थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें से प्रमुख हैं-

  1. विधवा पुनर्विवाह
  2. मालगुजारी क़ानून
  3. राजा राममोहन राय की जीवनी
  4. मराठों का उत्कर्ष
  5. धार्मिक एवं सामाजिक सुधार

निधन

देश की भरपूर सेवा करने वाले और समाज को नई राहें दिखाने वाले गोविंद रानाडे का निधन 16 जनवरी, 1901 ई. में हुआ।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख