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'''निरुपा रॉय''' ([[अंग्रेज़ी]]: Nirupa Roy; जन्म- [[4 जनवरी]], [[1931]], [[गुजरात]]; मृत्यु- [[13 अक्टूबर]], [[2004]]) को [[हिन्दी]] सिनेमा में एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने अपने किरदारों से [[माँ]] के चरित्र को नये आयाम दिये। वैसे उनका मूल नाम 'कोकिला बेन' था। भारतीय सिनेमा में जब भी माँ के किरदार को सशक्त करने की बात आती है तो सबसे पहला नाम निरुपा रॉय का ही आता है, जिन्होंने अपनी बेमिसाल अदायगी से माँ के किरदार को [[हिन्दी सिनेमा]] में बुलन्दियों पर पहुँचाया। इस बेहतरीय अदाकारा को तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' देकर सम्मानित किया गया था। | '''निरुपा रॉय''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Nirupa Roy''; जन्म- [[4 जनवरी]], [[1931]], [[गुजरात]]; मृत्यु- [[13 अक्टूबर]], [[2004]]) को [[हिन्दी]] सिनेमा में एक ऐसी [[अभिनेत्री]] के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने अपने किरदारों से [[माँ]] के चरित्र को नये आयाम दिये। वैसे उनका मूल नाम 'कोकिला बेन' था। [[भारतीय सिनेमा]] में जब भी माँ के किरदार को सशक्त करने की बात आती है तो सबसे पहला नाम निरुपा रॉय का ही आता है, जिन्होंने अपनी बेमिसाल अदायगी से माँ के किरदार को [[हिन्दी सिनेमा]] में बुलन्दियों पर पहुँचाया। इस बेहतरीय अदाकारा को तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' देकर सम्मानित किया गया था। | ||
==जन्म तथा परिवार== | ==जन्म तथा परिवार== | ||
निरुपा रॉय का जन्म 4 जनवरी, 1931 को गुजरात राज्य के बलसाड में एक | निरुपा रॉय का जन्म 4 जनवरी, 1931 को गुजरात राज्य के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती [[परिवार]] में हुआ था। गौर वर्ण की वजह से उन्हें 'धोरी चकली' कहकर पुकारा जाता था। उनके [[पिता]] रेलवे में सरकारी नौकर थे। निरुपा रॉय ने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की। जब वह मात्र 15 [[साल]] की ही थीं, उनका उनका [[विवाह]] [[मुंबई]] में कार्यरत राशनिंग विभाग के कर्मचारी कमल रॉय से हो गया। [[विवाह]] के बाद निरुपा रॉय भी मुंबई आ गईं। रॉय दम्पत्ति दो पुत्रों के [[माता]]-[[पिता]] भी बने, जिनके नाम 'योगेश' और 'किरन' रखे गये। | ||
====प्रारम्भिक संघर्ष==== | ====प्रारम्भिक संघर्ष==== | ||
उन्हीं | उन्हीं दिनों निर्माता-निर्देशक बी. एम. व्यास अपनी नई फ़िल्म 'रनकदेवी' के लिए नए चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने अपनी फ़िल्म में कलाकारों की आवश्यकता के लिए अख़बार में विज्ञापन दिया। निरुपा रॉय के पति फ़िल्मों के बेहद शौकीन थे और [[अभिनेता]] बनने की इच्छा रखते थे। कमल रॉय अपनी पत्नी को लेकर बी. एम. व्यास से मिलने गए और अभिनेता बनने की पेशकश की, लेकिन बी. एम. व्यास ने कहा कि उनका व्यक्तित्व अभिनेता बनने के लायक़ नहीं है। लेकिन यदि वह चाहें तो उनकी पत्नी को फ़िल्म में अभिनेत्री के रूप में काम मिल सकता है। फ़िल्म 'रनकदेवी' में निरुपा रॉय 150 [[रुपया|रुपये]] प्रति माह पर काम करने लगीं। किंतु कुछ समय बाद ही उन्हें भी इस फ़िल्म से अलग कर दिया गया। यह निरुपा रॉय के संघर्ष की शुरुआत थी।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://dr-mahesh-parimal.blogspot.in/2010/10/blog-post_15.html |title=निरुपा रॉय|accessmonthday=4 अक्टूबर|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | ||
==कैरियर की शुरुआत== | ==कैरियर की शुरुआत== | ||
निरुपा रॉय ने अपने सिने कैरियर की शुरुआत [[1946]] में प्रदर्शित [[गुजराती भाषा|गुजराती]] फ़िल्म 'गणसुंदरी' से की थी। वर्ष [[1949]] में प्रदर्शित फ़िल्म 'हमारी मंजिल' से उन्होंने [[हिन्दी]] फ़िल्म की ओर भी | निरुपा रॉय ने अपने सिने कैरियर की शुरुआत [[1946]] में प्रदर्शित [[गुजराती भाषा|गुजराती]] फ़िल्म 'गणसुंदरी' से की थी। वर्ष [[1949]] में प्रदर्शित फ़िल्म 'हमारी मंजिल' से उन्होंने [[हिन्दी]] फ़िल्म की ओर भी रुख़ किया। ओ. पी. दत्ता के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में उनके नायक की भूमिका प्रेम अदीब ने निभाई। उसी वर्ष उन्हें [[पी. जयराज|जयराज]] के साथ फ़िल्म 'ग़रीबी' में काम करने का अवसर मिला। इन फ़िल्मों की सफलता के बाद वह अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुईं। [[1951]] में निरुपा रॉय की एक और महत्त्वपूर्ण फ़िल्म 'हर हर महादेव' आई। इस फ़िल्म में उन्होंने [[पार्वती देवी|देवी पार्वती]] की भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म की सफलता के बाद वह दर्शकों के बीच देवी के रूप में भी प्रसिद्ध हो गईं। इसी दौरान उन्होंने फ़िल्म 'वीर भीमसेन' में [[द्रौपदी]] का किरदार निभाया, जिसे काफ़ी वाहवाही मिली। पचास और साठ के दशक में निरुपा रॉय ने जितनी भी फ़िल्मों में काम किया, उनमें से अधिकतर फ़िल्मों की कहानी धार्मिक और [[भक्ति]] भावना से पूर्ण थी। हालांकि 1951 में प्रदर्शित फ़िल्म 'सिंदबाद द सेलर' में निरुपा रॉय ने नकारात्मक चरित्न भी निभाया। | ||
==सफलता== | ==सफलता== | ||
वर्ष [[1953]] में प्रदर्शित फ़िल्म '[[दो बीघा ज़मीन]]' निरुपा रॉय के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। विमल रॉय के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में वह एक किसान की पत्नी की भूमिका में दिखाई दीं। फ़िल्म में [[बलराज साहनी]] ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बेहतरीन अभिनय से सजी इस फ़िल्म में दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। [[1955]] में 'फ़िल्मिस्तान स्टूडियो' के बैनर तले बनी फ़िल्म 'मुनीम जी' निरुपा रॉय की अहम फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म में उन्होंने [[देवानंद]] की [[माँ]] की भूमिका निभाई थी। फ़िल्म में अपने सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ सहायक | वर्ष [[1953]] में प्रदर्शित फ़िल्म '[[दो बीघा ज़मीन]]' निरुपा रॉय के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। [[विमल रॉय]] के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में वह एक किसान की पत्नी की भूमिका में दिखाई दीं। फ़िल्म में [[बलराज साहनी]] ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बेहतरीन अभिनय से सजी इस फ़िल्म में दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। [[1955]] में 'फ़िल्मिस्तान स्टूडियो' के बैनर तले बनी फ़िल्म 'मुनीम जी' निरुपा रॉय की अहम फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म में उन्होंने [[देवानंद]] की [[माँ]] की भूमिका निभाई थी। फ़िल्म में अपने सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' से सम्मानित की गईं। लेकिन इसके बाद छह [[वर्ष]] तक उन्होंने माँ की भूमिका स्वीकार नहीं की।<ref name="mcc"/> | ||
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[[1961]] में प्रदर्शित फ़िल्म 'छाया' में उन्होंने एक बार फिर माँ की भूमिका निभाई। इसमें उन्होंने [[आशा पारेख]] की माँ की भूमिका निभाई थीं। इस फ़िल्म में भी उनके जबरदस्त अभिनय को देखते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक | [[1961]] में प्रदर्शित फ़िल्म 'छाया' में उन्होंने एक बार फिर माँ की भूमिका निभाई। इसमें उन्होंने [[आशा पारेख]] की माँ की भूमिका निभाई थीं। इस फ़िल्म में भी उनके जबरदस्त अभिनय को देखते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। सन [[1975]] में प्रदर्शित फ़िल्म '[[दीवार (फ़िल्म)|दीवार]]' निरुपा रॉय के कैरियर की महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार की जाती है। [[यश चोपड़ा]] के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में उन्होंने अच्छाई और बुराई का प्रतिनिधित्व करने वाले [[शशि कपूर]] और [[अमिताभ बच्चन]] की माँ की भूमिका निभाई। फ़िल्म में उन्होंने अपने स्वाभाविक अभिनय से माँ के चरित्र को जीवंत कर दिया। | ||
निरुपा रॉय के सिने कैरियर पर नज़र डालें तो पता चलता है कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की माँ के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही। उन्होंने सर्वप्रथम फ़िल्म '[[दीवार (फ़िल्म)|दीवार]]' में अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका निभाई थी। इसके बाद 'खून पसीना', 'मुकद्दर का सिकंदर', 'अमर अकबर एंथनी', 'सुहाग', 'इंकलाब', ' | निरुपा रॉय के सिने कैरियर पर नज़र डालें तो पता चलता है कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की माँ के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही। उन्होंने सर्वप्रथम फ़िल्म '[[दीवार (फ़िल्म)|दीवार]]' में अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका निभाई थी। इसके बाद 'खून पसीना', 'मुकद्दर का सिकंदर', 'अमर अकबर एंथनी', 'सुहाग', 'इंकलाब', 'गिरफ़्तार', 'मर्द' और 'गंगा जमुना सरस्वती' जैसी फ़िल्मों में भी वह अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका में दिखाई दीं। वर्ष [[1999]] में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्म 'लाल बादशाह' में वह अंतिम बार अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका में दिखाई दीं।<ref name="mcc"/> | ||
==मुख्य फ़िल्में== | ==मुख्य फ़िल्में== | ||
निरुपा रॉय ने अपने पांच दशक के लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फ़िल्मों में अभिनय किया। उनकी कैरियर की उल्लेखनीय फ़िल्मों में कुछ हैं- | निरुपा रॉय ने अपने पांच दशक के लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फ़िल्मों में अभिनय किया। उनकी कैरियर की उल्लेखनीय फ़िल्मों में कुछ हैं- | ||
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निरुपा रॉय को तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' दिया गया था। सबसे पहले उन्हें [[1956]] की फ़िल्म 'मुनीम जी' के लिए यह पुरस्कार दिया गया, जिसमें निरुपा रॉय [[देवानंद]] की माँ की भूमिका में थीं। इसके बाद उन्हें सन [[1962]] की फ़िल्म 'छाया' के लिए यह पुरस्कार दिया गया। इसके बाद उन्हें फ़िल्म 'शहनाई' के लिए [[1965]] में पुरस्कृत किया गया था। | निरुपा रॉय को तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' दिया गया था। सबसे पहले उन्हें [[1956]] की फ़िल्म 'मुनीम जी' के लिए यह पुरस्कार दिया गया, जिसमें निरुपा रॉय [[देवानंद]] की माँ की भूमिका में थीं। इसके बाद उन्हें सन [[1962]] की फ़िल्म 'छाया' के लिए यह पुरस्कार दिया गया। इसके बाद उन्हें फ़िल्म 'शहनाई' के लिए [[1965]] में पुरस्कृत किया गया था। | ||
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निरुपा रॉय
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पूरा नाम | निरुपा रॉय |
अन्य नाम | कोकिला बेन |
जन्म | 4 जनवरी, 1931 |
जन्म भूमि | बलसाड, गुजरात |
मृत्यु | 13 अक्टूबर, 2004 |
पति/पत्नी | कमल रॉय |
संतान | दो पुत्र- 'योगेश' और 'किरन' |
कर्म भूमि | गुजरात, मुंबई |
कर्म-क्षेत्र | अभिनय |
मुख्य फ़िल्में | 'गंगा तेरे देश में', 'छाया', 'शहनाई', 'मर्द', 'बेताब', 'शहीद', 'दीवार', 'अमर अकबर एंथनी', 'पाताल भैरवी', 'ग़रीबी', 'हर हर महादेव', 'चालबाज' 'पूरब और पश्चिम', 'लाल बादशाह' आदि। |
पुरस्कार-उपाधि | 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' (तीन बार), 'मुनीम जी' (1956), 'छाया' (1962), 'शहनाई' (1965) |
प्रसिद्धि | माँ की भूमिका में प्रसिद्ध |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | निरुपा रॉय ने अपने सिने कैरियर की शुरुआत 1946 में प्रदर्शित गुजराती फ़िल्म 'गणसुंदरी' से की थी। |
निरुपा रॉय (अंग्रेज़ी: Nirupa Roy; जन्म- 4 जनवरी, 1931, गुजरात; मृत्यु- 13 अक्टूबर, 2004) को हिन्दी सिनेमा में एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने अपने किरदारों से माँ के चरित्र को नये आयाम दिये। वैसे उनका मूल नाम 'कोकिला बेन' था। भारतीय सिनेमा में जब भी माँ के किरदार को सशक्त करने की बात आती है तो सबसे पहला नाम निरुपा रॉय का ही आता है, जिन्होंने अपनी बेमिसाल अदायगी से माँ के किरदार को हिन्दी सिनेमा में बुलन्दियों पर पहुँचाया। इस बेहतरीय अदाकारा को तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' देकर सम्मानित किया गया था।
जन्म तथा परिवार
निरुपा रॉय का जन्म 4 जनवरी, 1931 को गुजरात राज्य के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ था। गौर वर्ण की वजह से उन्हें 'धोरी चकली' कहकर पुकारा जाता था। उनके पिता रेलवे में सरकारी नौकर थे। निरुपा रॉय ने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की। जब वह मात्र 15 साल की ही थीं, उनका उनका विवाह मुंबई में कार्यरत राशनिंग विभाग के कर्मचारी कमल रॉय से हो गया। विवाह के बाद निरुपा रॉय भी मुंबई आ गईं। रॉय दम्पत्ति दो पुत्रों के माता-पिता भी बने, जिनके नाम 'योगेश' और 'किरन' रखे गये।
प्रारम्भिक संघर्ष
उन्हीं दिनों निर्माता-निर्देशक बी. एम. व्यास अपनी नई फ़िल्म 'रनकदेवी' के लिए नए चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने अपनी फ़िल्म में कलाकारों की आवश्यकता के लिए अख़बार में विज्ञापन दिया। निरुपा रॉय के पति फ़िल्मों के बेहद शौकीन थे और अभिनेता बनने की इच्छा रखते थे। कमल रॉय अपनी पत्नी को लेकर बी. एम. व्यास से मिलने गए और अभिनेता बनने की पेशकश की, लेकिन बी. एम. व्यास ने कहा कि उनका व्यक्तित्व अभिनेता बनने के लायक़ नहीं है। लेकिन यदि वह चाहें तो उनकी पत्नी को फ़िल्म में अभिनेत्री के रूप में काम मिल सकता है। फ़िल्म 'रनकदेवी' में निरुपा रॉय 150 रुपये प्रति माह पर काम करने लगीं। किंतु कुछ समय बाद ही उन्हें भी इस फ़िल्म से अलग कर दिया गया। यह निरुपा रॉय के संघर्ष की शुरुआत थी।[1]
कैरियर की शुरुआत
निरुपा रॉय ने अपने सिने कैरियर की शुरुआत 1946 में प्रदर्शित गुजराती फ़िल्म 'गणसुंदरी' से की थी। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फ़िल्म 'हमारी मंजिल' से उन्होंने हिन्दी फ़िल्म की ओर भी रुख़ किया। ओ. पी. दत्ता के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में उनके नायक की भूमिका प्रेम अदीब ने निभाई। उसी वर्ष उन्हें जयराज के साथ फ़िल्म 'ग़रीबी' में काम करने का अवसर मिला। इन फ़िल्मों की सफलता के बाद वह अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुईं। 1951 में निरुपा रॉय की एक और महत्त्वपूर्ण फ़िल्म 'हर हर महादेव' आई। इस फ़िल्म में उन्होंने देवी पार्वती की भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म की सफलता के बाद वह दर्शकों के बीच देवी के रूप में भी प्रसिद्ध हो गईं। इसी दौरान उन्होंने फ़िल्म 'वीर भीमसेन' में द्रौपदी का किरदार निभाया, जिसे काफ़ी वाहवाही मिली। पचास और साठ के दशक में निरुपा रॉय ने जितनी भी फ़िल्मों में काम किया, उनमें से अधिकतर फ़िल्मों की कहानी धार्मिक और भक्ति भावना से पूर्ण थी। हालांकि 1951 में प्रदर्शित फ़िल्म 'सिंदबाद द सेलर' में निरुपा रॉय ने नकारात्मक चरित्न भी निभाया।
सफलता
वर्ष 1953 में प्रदर्शित फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' निरुपा रॉय के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। विमल रॉय के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में वह एक किसान की पत्नी की भूमिका में दिखाई दीं। फ़िल्म में बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बेहतरीन अभिनय से सजी इस फ़िल्म में दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। 1955 में 'फ़िल्मिस्तान स्टूडियो' के बैनर तले बनी फ़िल्म 'मुनीम जी' निरुपा रॉय की अहम फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म में उन्होंने देवानंद की माँ की भूमिका निभाई थी। फ़िल्म में अपने सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' से सम्मानित की गईं। लेकिन इसके बाद छह वर्ष तक उन्होंने माँ की भूमिका स्वीकार नहीं की।[1]
माँ का चरित्र
1961 में प्रदर्शित फ़िल्म 'छाया' में उन्होंने एक बार फिर माँ की भूमिका निभाई। इसमें उन्होंने आशा पारेख की माँ की भूमिका निभाई थीं। इस फ़िल्म में भी उनके जबरदस्त अभिनय को देखते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। सन 1975 में प्रदर्शित फ़िल्म 'दीवार' निरुपा रॉय के कैरियर की महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार की जाती है। यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में उन्होंने अच्छाई और बुराई का प्रतिनिधित्व करने वाले शशि कपूर और अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका निभाई। फ़िल्म में उन्होंने अपने स्वाभाविक अभिनय से माँ के चरित्र को जीवंत कर दिया।
निरुपा रॉय के सिने कैरियर पर नज़र डालें तो पता चलता है कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की माँ के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही। उन्होंने सर्वप्रथम फ़िल्म 'दीवार' में अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका निभाई थी। इसके बाद 'खून पसीना', 'मुकद्दर का सिकंदर', 'अमर अकबर एंथनी', 'सुहाग', 'इंकलाब', 'गिरफ़्तार', 'मर्द' और 'गंगा जमुना सरस्वती' जैसी फ़िल्मों में भी वह अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका में दिखाई दीं। वर्ष 1999 में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्म 'लाल बादशाह' में वह अंतिम बार अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका में दिखाई दीं।[1]
मुख्य फ़िल्में
निरुपा रॉय ने अपने पांच दशक के लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फ़िल्मों में अभिनय किया। उनकी कैरियर की उल्लेखनीय फ़िल्मों में कुछ हैं-
- लाल बादशाह - 1999
- जहाँ तुम ले चलो - 1999
- आँसू बने अंगारे - 1993
- गंगा तेरे देश में - 1988
- पाताल भैरवी - 1985
- मर्द - 1985
- बेताब - 1983
- खून और पानी - 1981
- सुहाग - 1979
- अमर अकबर एंथनी - 1979
- खानदान - 1979
- दीवार - 1975
- शहीद - 1965
- शहनाई - 1965
- छाया - 1962
- बाजीगर - 1959
- चालबाज - 1958
- नागमणि - 1957
- मुनीम जी - 1956
- दो बीघा ज़मीन - 1953
- दशावतार - 1951
- श्री विष्णु भगवान - 1951
- हर हर महादेव - 1950
- ग़रीबी - 1949
पुरस्कार व सम्मान
निरुपा रॉय को तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' दिया गया था। सबसे पहले उन्हें 1956 की फ़िल्म 'मुनीम जी' के लिए यह पुरस्कार दिया गया, जिसमें निरुपा रॉय देवानंद की माँ की भूमिका में थीं। इसके बाद उन्हें सन 1962 की फ़िल्म 'छाया' के लिए यह पुरस्कार दिया गया। इसके बाद उन्हें फ़िल्म 'शहनाई' के लिए 1965 में पुरस्कृत किया गया था।
निधन
भारतीय हिन्दी सिनेमा में माँ के किरदार को जीवंत करने वाली इस महान् अभिनेत्री की 13 अक्टूबर, 2004 को मौत हो गई। उन्हें आज भी बॉलीवुड की सबसे सर्वश्रेष्ठ माँ माना जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 निरुपा रॉय (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 4 अक्टूबर, 2012।
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