"बसंत (i) -नज़ीर अकबराबादी": अवतरणों में अंतर

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         जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
         जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥


मैदां हो सब्ज साफ चमकती भी रेत हो।
मैदां हो सब्ज साफ़ चमकती भी रेत हो।
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो।
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो।
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो।
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो।

14:12, 29 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

बसंत (i) -नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी
कवि नज़ीर अकबराबादी
जन्म 1735
जन्म स्थान दिल्ली
मृत्यु 1830
मुख्य रचनाएँ बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम आदि
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
नज़ीर अकबराबादी की रचनाएँ

आलम में जब बहार की आकर लगंत हो।
दिल को नहीं लगन हो मजे की लगंत हो।
महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो।
इशरत हो, सुख हो, ऐश हो और जी निश्चिंत हो।
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥

        अव्वल तो जाफ़रां से मकां ज़र्द ज़र्द हों।
        सहरा ओ बागो अहले जहां ज़र्द ज़र्द हों।
        जोड़े बसंतियों से निहां ज़र्द ज़र्द हों।
        इकदम तो सब जमीनो जमां ज़र्द ज़र्द हों।
        जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

मैदां हो सब्ज साफ़ चमकती भी रेत हो।
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो।
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो।
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

        आँखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग।
        महबूब गुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग।
        बजते हों ताल ढोलक व सारंगी ओ मुंहचंग।
        चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग।
        जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों।
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों।
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों।
पर्दे पड़े हों ज़र्द सुनहरी मकान हों।
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो ॥

        कसरत से तायफ़ों की मची हो उलट पुलट।
        चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट।
        बैठे हों बनके नाज़नीं परियों के ग़ट के ग़ट।
        जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट।
        जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह।
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥


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