"बंजारानामा -नज़ीर अकबराबादी": अवतरणों में अंतर
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'''बंजारानामा''' अठारवीं शताब्दी के भारतीय शायर [[नज़ीर अकबराबादी]] द्वारा लिखी गयी एक प्रसिद्ध रचना है। इस रचना का मुख्य सन्देश है- "सांसारिक सफलताओं पर अभिमान करना मूर्खता है क्योंकि मनुष्य की परिस्थितियाँ पलक झपकते बदल सकतीं हैं। धन-सम्पति तो आनी-जानी चीज़ है किन्तु मृत्यु, एक निश्चित सत्य है जो, कभी न कभी हर मनुष्य के साथ घटेगा।" यह रचना तेज़ी से भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में लोकप्रिय हो गई और इसकी ख्याति लगभग पिछली दो शताब्दियों से बनी हुई है, हालांकि इसकी भाषा देसी और सरल है, पर इसमें पाई जाने वाली छवियाँ और कल्पनाएँ इतना झकझोर देने वालीं हैं कि यह "गीत कई हजार वर्षों की शिक्षाओं को एक सार रुप में सामने लेकर आता है। इसमें बंजारे का पात्र मृत्यु की ओर इशारा है: जिस तरह यह कभी नहीं बता सकते कि कोई बंजारा कब अपना सारा सामान लाद कर किसी स्थान से चल देगा, उसी तरह से मृत्यु कभी भी आ सकती है। | |||
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क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर<ref>ऊंट</ref> क्या गौनें पल्ला सर भारा | क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर<ref>ऊंट</ref> क्या गौनें पल्ला सर भारा | ||
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा | क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा | ||
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा | सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा | ||
ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है | ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है | ||
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क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद<ref>खांड</ref>, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है | क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद<ref>खांड</ref>, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है | ||
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है | क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है | ||
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा | सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा | ||
तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा | तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा | ||
पंक्ति 46: | पंक्ति 47: | ||
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा | क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा | ||
धन-दौलत नाती-पोता क्या इक कुनबा काम न आवेगा | धन-दौलत नाती-पोता क्या इक कुनबा काम न आवेगा | ||
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा | सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा | ||
हर | हर मंज़िल में अब साथ तेरे, ये जितना डेरा-डांडा है | ||
जर, दाम, दिरम का भांडा है, बन्दूक, सिपर और खांडा है | जर, दाम, दिरम का भांडा है, बन्दूक, सिपर और खांडा है | ||
जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों-मुल्कों हांडा है | जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों-मुल्कों हांडा है | ||
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जब चलते-चलते रस्ते में, ये गोन तेरी रह जावेगी | जब चलते-चलते रस्ते में, ये गोन तेरी रह जावेगी | ||
इक बधिया तेरी | इक बधिया तेरी मिट्टी पर, फिर घास न चरने आवेगी | ||
ये खेप जो तूने लादी है, सब हिस्सों में बट जावेगी | ये खेप जो तूने लादी है, सब हिस्सों में बट जावेगी | ||
घी पूत, जंवाई, पोता क्या, बंजारिन पास न आवेगी | घी पूत, जंवाई, पोता क्या, बंजारिन पास न आवेगी | ||
पंक्ति 63: | पंक्ति 63: | ||
ये धूम-धड़क्का साथ लिये, क्यों फिरता है जंगल-जंगल | ये धूम-धड़क्का साथ लिये, क्यों फिरता है जंगल-जंगल | ||
इक तिनका साथ न जावेगा, मौकूफ हुआ जब अन्न ओर जल | इक तिनका साथ न जावेगा, मौकूफ हुआ जब अन्न ओर जल | ||
घर-बार अटारी, चौपारी, क्या | घर-बार अटारी, चौपारी, क्या ख़ासा, तनसुख है मसलन | ||
क्या चिलमन, पर्दे, फर्श नये, क्या लाल पलंग और रंगमहल | क्या चिलमन, पर्दे, फर्श नये, क्या लाल पलंग और रंगमहल | ||
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। | सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। | ||
पंक्ति 85: | पंक्ति 85: | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==बाहरी कड़ियाँ== | |||
*[http://www.youtube.com/watch?v=dUi_OUBk7FA सब ठाठ पड़ा रह जावेगा (यू-ट्यूब पर सुनें)] | |||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{उर्दू शायर}} | {{उर्दू शायर}} | ||
[[Category:रीतिकालीन साहित्य]][[Category:नज़ीर अकबराबादी]][[Category:कविता]][[Category:काव्य कोश]][[Category:साहित्य कोश]] | [[Category:रीतिकालीन साहित्य]][[Category:नज़ीर अकबराबादी]][[Category:कविता]][[Category:काव्य कोश]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
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13:30, 1 नवम्बर 2014 के समय का अवतरण
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बंजारानामा अठारवीं शताब्दी के भारतीय शायर नज़ीर अकबराबादी द्वारा लिखी गयी एक प्रसिद्ध रचना है। इस रचना का मुख्य सन्देश है- "सांसारिक सफलताओं पर अभिमान करना मूर्खता है क्योंकि मनुष्य की परिस्थितियाँ पलक झपकते बदल सकतीं हैं। धन-सम्पति तो आनी-जानी चीज़ है किन्तु मृत्यु, एक निश्चित सत्य है जो, कभी न कभी हर मनुष्य के साथ घटेगा।" यह रचना तेज़ी से भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में लोकप्रिय हो गई और इसकी ख्याति लगभग पिछली दो शताब्दियों से बनी हुई है, हालांकि इसकी भाषा देसी और सरल है, पर इसमें पाई जाने वाली छवियाँ और कल्पनाएँ इतना झकझोर देने वालीं हैं कि यह "गीत कई हजार वर्षों की शिक्षाओं को एक सार रुप में सामने लेकर आता है। इसमें बंजारे का पात्र मृत्यु की ओर इशारा है: जिस तरह यह कभी नहीं बता सकते कि कोई बंजारा कब अपना सारा सामान लाद कर किसी स्थान से चल देगा, उसी तरह से मृत्यु कभी भी आ सकती है।
टुक हिर्सो-हवा[1] को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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