"कब तक पुकारूँ -रांगेय राघव": अवतरणों में अंतर

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रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूँ’ उपन्यास में करनट कबिलों के जीवन यथार्थ का अनेक पक्षों में अंकन हुआ है। इसमें उन्होंने समाज में सर्वथा उपेक्षित उस वर्ग का चित्रण अत्यन्त सरल और रोचक शैली में प्रस्तुत किया है, जिसे सभ्य समाज ‘नट’ या ‘करनट’ कहकर पुकारता है। इन कबिलों की कोई नैतिकता नहीं होती। इनमें मर्द, औरत को वेश्या बनाकर उसके द्वारा धन कमाते हैं। करनटों में यह छूट है। वहाँ कोई बुराई ‘सेक्स’ के आधार पर नहीं मानी जाती। उपन्यासकार इस भाव को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं, "औरत का काम औरत का काम है। उसमें बुरा–भला क्या? कौन नहीं करती? नहीं तो मार–मार कर खाल उड़ा देगा दरोगा और तेरे बाप और खसम दोनों को जेल भेज देगा। फिर कमरा न रहेगा तो क्या करेगी? फिर भी तो पेट भरने को यही करना होगा?"<ref>रांगेय राघव : कब तक पुकारूँ, राजपाल एण्ड सन्ज, पृ. सं. 3 </ref> उपन्यास में अभिव्यक्त करनट समाज खानाबदोश, घोर उत्पीड़ित एवं शोषित है। यह उपन्यास संपूर्ण भारतीय ग्रामीण परिवेश को अपने साथ लेकर चलता हुआ प्रतीत होता है। जिसमें करनटों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया गया है।<ref>{{cite web |url=http://kosh.khsindia.org/hindi/%E0%A4%B8.%E0%A4%AA%E0%A5%82.%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%95-13,%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%82-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B8-2011,%E0%A4%AA%E0%A5%83-182 |title=स.पू.अंक-13,अक्टू-दिस-2011,पृ-182 |accessmonthday=24 जनवरी |accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूँ’ उपन्यास में करनट कबिलों के जीवन यथार्थ का अनेक पक्षों में अंकन हुआ है। इसमें उन्होंने समाज में सर्वथा उपेक्षित उस वर्ग का चित्रण अत्यन्त सरल और रोचक शैली में प्रस्तुत किया है, जिसे सभ्य समाज ‘नट’ या ‘करनट’ कहकर पुकारता है। इन कबिलों की कोई नैतिकता नहीं होती। इनमें मर्द, औरत को वेश्या बनाकर उसके द्वारा धन कमाते हैं। करनटों में यह छूट है। वहाँ कोई बुराई ‘सेक्स’ के आधार पर नहीं मानी जाती। उपन्यासकार इस भाव को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं, "औरत का काम औरत का काम है। उसमें बुरा–भला क्या? कौन नहीं करती? नहीं तो मार–मार कर खाल उड़ा देगा दरोगा और तेरे बाप और खसम दोनों को जेल भेज देगा। फिर कमरा न रहेगा तो क्या करेगी? फिर भी तो पेट भरने को यही करना होगा?"<ref>रांगेय राघव : कब तक पुकारूँ, राजपाल एण्ड सन्ज, पृ. सं. 3 </ref> उपन्यास में अभिव्यक्त करनट समाज खानाबदोश, घोर उत्पीड़ित एवं शोषित है। यह उपन्यास संपूर्ण भारतीय ग्रामीण परिवेश को अपने साथ लेकर चलता हुआ प्रतीत होता है। जिसमें करनटों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया गया है।<ref>{{cite web |url=http://kosh.khsindia.org/hindi/%E0%A4%B8.%E0%A4%AA%E0%A5%82.%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%95-13,%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%82-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B8-2011,%E0%A4%AA%E0%A5%83-182 |title=स.पू.अंक-13,अक्टू-दिस-2011,पृ-182 |accessmonthday=24 जनवरी |accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
==कथानक==
==कथानक==
'कब तक पुकारुं’ में जरायम पेशा समझी जाने वाली नटों की करनट जाति का चित्रण हुआ है। इसमें ऐसे ही एक करनट सुखराम अपनी जीवनगाथा इस उपन्‍यास में कहता है। करनट सुखराम अपने को ठाकुर समझता है। उसका [[विवाह]] करनट जाति की प्‍यारी से होता है, जो पहले एक दरोगा द्वारा भ्रष्‍ट की जाती है और फिर एक सिपाही की रखैल बन यौन कुण्ठाओं का शिकार बन जाती है। कजरी भी अपने पति को छोडकर सुखराम के साथ रहती है। कजरी इस संसार को छोड देती है। उस बच्‍ची का वह कोमल कान्‍त रुदन वह रुदन जिसमें इतिहास की विभीषिकाएं खो गई है, वह बच्‍ची जिसके पवित्र नयनों में नया जागरण ऐसे दैदीप्‍यमान हो रहा है, जैसे आदि महान में जीवन कुलबुलाया था। चन्‍दा [[अंग्रेज़]] युवती सूसन की कन्‍या होती है, जिसे सुखराम पालता है। वह लड़की चन्‍दा ठाकुर नरेश से प्रेम करती है और वह भी ठकुराइन बनने का स्‍वप्‍न देखती है। अन्‍त में मानसिक आवेग की अवस्‍था में ही चन्‍दा की मृत्‍यु हो जाती है।  
'कब तक पुकारुं’ में जरायम पेशा समझी जाने वाली नटों की करनट जाति का चित्रण हुआ है। इसमें ऐसे ही एक करनट सुखराम अपनी जीवनगाथा इस उपन्‍यास में कहता है। करनट सुखराम अपने को ठाकुर समझता है। उसका [[विवाह]] करनट जाति की प्‍यारी से होता है, जो पहले एक दरोगा द्वारा भ्रष्‍ट की जाती है और फिर एक सिपाही की रखैल बन यौन कुण्ठाओं का शिकार बन जाती है। कजरी भी अपने पति को छोडकर सुखराम के साथ रहती है। कजरी इस संसार को छोड देती है। उस बच्‍ची का वह कोमल कान्‍त रुदन वह रुदन जिसमें इतिहास की विभीषिकाएं खो गई है, वह बच्‍ची जिसके पवित्र नयनों में नया जागरण ऐसे दैदीप्‍यमान हो रहा है, जैसे आदि महान् में जीवन कुलबुलाया था। चन्‍दा [[अंग्रेज़]] युवती सूसन की कन्‍या होती है, जिसे सुखराम पालता है। वह लड़की चन्‍दा ठाकुर नरेश से प्रेम करती है और वह भी ठकुराइन बनने का स्‍वप्‍न देखती है। अन्‍त में मानसिक आवेग की अवस्‍था में ही चन्‍दा की मृत्‍यु हो जाती है।  
==वस्‍तु विधान==  
==वस्‍तु विधान==  
‘कब तक पुकारुं ’ में सुखराम की कथा मुख्‍यकथा है और प्रासंगिक कथाओं में कजरी और प्‍यारी की कथा है। सुखराम, कजरी और प्‍यारी के चारों ओर उपन्‍यास की कथा घूमती है। अन्‍य कथाओं में चंदा सूसन और लारेंस आदि की कथाएं है। उपन्‍यास को लेखक ने मनोवैज्ञानिक धरातल पर स्‍थापित करते हुए इतिवृत्‍तात्‍मक बना दिया है और वह जासूसी और अय्यारी उपन्‍यासों की तरह किस्‍सागोई से कम नहीं है। लेखक ने कई पीढ़ियों को एक साथ गूंथने का प्रयास किया है, इसलिए इसका वस्‍तु विधान बोझिल हो गया है। जिस प्रकार ‘भूले बिखरे चित्र’ मे ज्‍वालाप्रसाद की चार पीढ़ियों के कथानक को जोड़ने का प्रयत्‍न किया गया है, वही कार्य सुखराम यहाँ करता है किन्‍तु यहाँ बिखराव आ गया है। चन्‍दा की विस्‍तृत कथा को उपन्‍यासकार उपन्‍यास का अंग नही बना सका है। अनेकानेक स्‍थलों पर अनावश्‍यक विस्‍तार है। यह अनावश्‍यक विस्‍तार आंचलिक चित्रण की  प्रवृत्ति अचल के रीति-रिवाजों, लोकाचारों, वातावरण-चित्रण प्रकृति-चित्रण और नैतिक-सामाजिक मान्‍यताओं की स्‍थापना के फलस्‍वरुप हुआ है।  लेखक अधिक कष्‍टों के जीवन चित्रण करना चाहता है, इसलिए अनावश्‍यक प्रसंगों को उपन्‍यास में स्‍थान मिल गया है। अत: समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के फलस्‍वरुप उपन्‍यास की वस्‍तु अंविति मे बाधा पहुँची है।
‘कब तक पुकारुं ’ में सुखराम की कथा मुख्‍यकथा है और प्रासंगिक कथाओं में कजरी और प्‍यारी की कथा है। सुखराम, कजरी और प्‍यारी के चारों ओर उपन्‍यास की कथा घूमती है। अन्‍य कथाओं में चंदा सूसन और लारेंस आदि की कथाएं है। उपन्‍यास को लेखक ने मनोवैज्ञानिक धरातल पर स्‍थापित करते हुए इतिवृत्‍तात्‍मक बना दिया है और वह जासूसी और अय्यारी उपन्‍यासों की तरह किस्‍सागोई से कम नहीं है। लेखक ने कई पीढ़ियों को एक साथ गूंथने का प्रयास किया है, इसलिए इसका वस्‍तु विधान बोझिल हो गया है। जिस प्रकार ‘भूले बिखरे चित्र’ मे ज्‍वालाप्रसाद की चार पीढ़ियों के कथानक को जोड़ने का प्रयत्‍न किया गया है, वही कार्य सुखराम यहाँ करता है किन्‍तु यहाँ बिखराव आ गया है। चन्‍दा की विस्‍तृत कथा को उपन्‍यासकार उपन्‍यास का अंग नहीं बना सका है। अनेकानेक स्‍थलों पर अनावश्‍यक विस्‍तार है। यह अनावश्‍यक विस्‍तार आंचलिक चित्रण की  प्रवृत्ति अचल के रीति-रिवाजों, लोकाचारों, वातावरण-चित्रण प्रकृति-चित्रण और नैतिक-सामाजिक मान्‍यताओं की स्‍थापना के फलस्‍वरुप हुआ है।  लेखक अधिक कष्‍टों के जीवन चित्रण करना चाहता है, इसलिए अनावश्‍यक प्रसंगों को उपन्‍यास में स्‍थान मिल गया है। अत: समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के फलस्‍वरुप उपन्‍यास की वस्‍तु अंविति मे बाधा पहुँची है।
==चरित्र वर्णन==
==चरित्र वर्णन==
सुखराम, कजरी और प्‍यारी इस उपन्‍यास के मूल्‍य पात्र है इसलिए इनके चारों ओर इसकी कथा घूमती है और अन्‍य पात्रों में चन्‍दा, सूसन और लारेंस आदि है किन्‍तु चन्‍दा को छोडकर अन्‍य पात्र गौण है। सुखराम ही उपन्‍यास का केन्‍द्रबिंदु है, इसलिए उसे उपन्‍यास का नायक मानना चाहिये। सुखराम में आभिजात्‍य वर्ग की महत्‍वाकांक्षाएँ है। ‘अधूरा क़िला’ उसकी महत्‍वाकांक्षाओं का प्रतीक है। शोषण के प्रति उसके हदय में विद्रोह है। पुलिस और समाज के शोषण वर्गो के प्रति उसके हदय में विद्रोह की भावना है। उसकी पत्‍नी प्‍यारी रुग्‍तमखा की रखैल बन जाती है, किन्‍तु वह पत्‍नी का ग़ुलाम बनना नही चाहता। लेखक की मानवतावादी भावनाओं को सुखराम ही अभिव्‍यक्‍त करता है। वह अभावों, कमियों, बुर्बलताओं और शक्तियों का पुंज है। प्‍यारी अपने वर्ग की नारियों की दुर्बलताओं और अभावों को अभिव्‍यक्‍त करती है। प्‍यारी का चित्रण लेखक ने करनटों के नारी जीवन की दुर्दशाओं और भोग्‍या नारी के चित्रण करने के लिए किया है। प्‍यारी, अपनी परिस्थितियों से पीडित होकर, करनटी के नारी समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन की अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम बन कर रह जाती है, किन्‍तु कजरी परिस्थितियों से ऊपर उठकर अपने को अभिव्‍यक्‍त करती है। कजरी भी भोग्‍या है किन्‍तु उसमें प्रतिष्‍ठा के साथ-साथ नारी सुलभ ईर्ष्‍या भी है और नारी का ममत्‍व भी। नारी की संवेदनशीलता और करुणा भी उसमें कम नही है। प्‍यारी के समान परिस्थितियों से पीड़ित बनकर उपन्‍यास में अभिव्‍यक्‍त होती है। पात्रों के सृजन में लेखक पूर्ण रुप से निर्वैक्तिक नही रहा है, क्‍योंकि वह समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के पूर्वाग्रह से मुक्‍त नही हो सका है। इतना होने पर भी सुखराम, प्‍यारी और कजरी हास्‍य और अश्रु, आशाओं और निराशाओं में झुलते हुए अपना जीवन जीते हैं। सुखराम और कजरी बदलती परिस्थितियों के साथ उठते गिरते आगे बढ़ते हैं किन्तु प्‍यारी में विकास की सम्‍भावनायें नही है। नि:स्‍सदेह सुखराम, कजरी और प्‍यारी उपन्यास के प्राणवान पात्र  है।
सुखराम, कजरी और प्‍यारी इस उपन्‍यास के मूल्‍य पात्र है इसलिए इनके चारों ओर इसकी कथा घूमती है और अन्‍य पात्रों में चन्‍दा, सूसन और लारेंस आदि है किन्‍तु चन्‍दा को छोडकर अन्‍य पात्र गौण है। सुखराम ही उपन्‍यास का केन्‍द्रबिंदु है, इसलिए उसे उपन्‍यास का नायक मानना चाहिये। सुखराम में आभिजात्‍य वर्ग की महत्‍वाकांक्षाएँ है। ‘अधूरा क़िला’ उसकी महत्‍वाकांक्षाओं का प्रतीक है। शोषण के प्रति उसके हदय में विद्रोह है। पुलिस और समाज के शोषण वर्गो के प्रति उसके हदय में विद्रोह की भावना है। उसकी पत्‍नी प्‍यारी रुग्‍तमखा की रखैल बन जाती है, किन्‍तु वह पत्‍नी का ग़ुलाम बनना नहीं चाहता। लेखक की मानवतावादी भावनाओं को सुखराम ही अभिव्‍यक्‍त करता है। वह अभावों, कमियों, बुर्बलताओं और शक्तियों का पुंज है। प्‍यारी अपने वर्ग की नारियों की दुर्बलताओं और अभावों को अभिव्‍यक्‍त करती है। प्‍यारी का चित्रण लेखक ने करनटों के नारी जीवन की दुर्दशाओं और भोग्‍या नारी के चित्रण करने के लिए किया है। प्‍यारी, अपनी परिस्थितियों से पीडित होकर, करनटी के नारी समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन की अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम बन कर रह जाती है, किन्‍तु कजरी परिस्थितियों से ऊपर उठकर अपने को अभिव्‍यक्‍त करती है। कजरी भी भोग्‍या है किन्‍तु उसमें प्रतिष्‍ठा के साथ-साथ नारी सुलभ ईर्ष्‍या भी है और नारी का ममत्‍व भी। नारी की संवेदनशीलता और करुणा भी उसमें कम नहीं है। प्‍यारी के समान परिस्थितियों से पीड़ित बनकर उपन्‍यास में अभिव्‍यक्‍त होती है। पात्रों के सृजन में लेखक पूर्ण रुप से निर्वैक्तिक नहीं रहा है, क्‍योंकि वह समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के पूर्वाग्रह से मुक्‍त नहीं हो सका है। इतना होने पर भी सुखराम, प्‍यारी और कजरी हास्‍य और अश्रु, आशाओं और निराशाओं में झुलते हुए अपना जीवन जीते हैं। सुखराम और कजरी बदलती परिस्थितियों के साथ उठते गिरते आगे बढ़ते हैं किन्तु प्‍यारी में विकास की सम्‍भावनायें नहीं है। नि:स्‍सदेह सुखराम, कजरी और प्‍यारी उपन्यास के प्राणवान पात्र  है।
==उद्देश्‍य==
==उद्देश्‍य==
करनटों के नैतिक जीवन को प्रस्‍तुत करना ही उपन्यासकार का उद्देश्‍य है। लेखक का कथन है, ‘मैंने इनकी नैतिकता को समाज का आदर्श बनाकर प्रस्‍तुत नहीं किया है।’ बल्कि पाठकों को इसमें मैक्‍स की ऐसी जानकारी के रुप में हासिल करना चाहिये कि यह इनमें होता है। यह सारा समाज खानाबदोश है, उत्‍पीडित है, शोषित है। न इनके सामाजिक नियम शाश्वत है। न हमारी नैतिकता के बन्‍धन ही शाश्‍वत है। सुखराम के शब्‍दों में लेखक उपन्‍यास के आशय को स्‍पष्‍ट कर रहा है, ‘यह कमीने, नीच ही आज इन्‍सान है। इनके अतिरिक्‍त सबमें पाप घुस गया है क्‍योंकि इन सबके स्‍थार्थ और अहंकारों ने इनकी [[आत्मा]] को दास बना दिया है। ये कमीने और ग़रीब अशिक्षा और अंधकार में छटपटा रहे हैं। जब तक ये शिक्षित नहीं होते, तब तक इन पर अत्‍याचार होता ही रहेगा। जब तक ये शिक्षित नहीं होते, तब तक इनके अज्ञान, फूट और घृणा पर संसार में जघन्‍यता का केन्‍द्र बना रहेगा। तब तक इनके पुत्र धरती की मिट्टी में पैदा होते रहेंगे। शोषण की घुटन सदा नहीं रहेगी। वह मिट जायेगी, सदा के लिए मिट जायेगी।' इस उपन्‍यास में लेखक ने जीवन के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण प्रस्‍तुत किया है।<ref> हिंदी उपन्यासों का शास्त्रीय विवेचन- डॉ.महाविरमल लोढा</ref>
करनटों के नैतिक जीवन को प्रस्‍तुत करना ही उपन्यासकार का उद्देश्‍य है। लेखक का कथन है, ‘मैंने इनकी नैतिकता को समाज का आदर्श बनाकर प्रस्‍तुत नहीं किया है।’ बल्कि पाठकों को इसमें मैक्‍स की ऐसी जानकारी के रुप में हासिल करना चाहिये कि यह इनमें होता है। यह सारा समाज खानाबदोश है, उत्‍पीडित है, शोषित है। न इनके सामाजिक नियम शाश्वत है। न हमारी नैतिकता के बन्‍धन ही शाश्‍वत है। सुखराम के शब्‍दों में लेखक उपन्‍यास के आशय को स्‍पष्‍ट कर रहा है, ‘यह कमीने, नीच ही आज इन्‍सान है। इनके अतिरिक्‍त सबमें पाप घुस गया है क्‍योंकि इन सबके स्‍थार्थ और अहंकारों ने इनकी [[आत्मा]] को दास बना दिया है। ये कमीने और ग़रीब अशिक्षा और अंधकार में छटपटा रहे हैं। जब तक ये शिक्षित नहीं होते, तब तक इन पर अत्‍याचार होता ही रहेगा। जब तक ये शिक्षित नहीं होते, तब तक इनके अज्ञान, फूट और घृणा पर संसार में जघन्‍यता का केन्‍द्र बना रहेगा। तब तक इनके पुत्र धरती की मिट्टी में पैदा होते रहेंगे। शोषण की घुटन सदा नहीं रहेगी। वह मिट जायेगी, सदा के लिए मिट जायेगी।' इस उपन्‍यास में लेखक ने जीवन के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण प्रस्‍तुत किया है।<ref> हिंदी उपन्यासों का शास्त्रीय विवेचन- डॉ.महाविरमल लोढा</ref>

14:17, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

कब तक पुकारूँ -रांगेय राघव
'कब तक पुकारूँ' उपन्यास का आवरण पृष्ठ
'कब तक पुकारूँ' उपन्यास का आवरण पृष्ठ
लेखक रांगेय राघव
मुख्य पात्र सुखराम, कजरी और प्‍यारी
प्रकाशक राजपाल एंड सन्स
ISBN 8170283264
देश भारत
पृष्ठ: 442
भाषा हिन्दी
प्रकार उपन्यास

कब तक पुकारूँ प्रसिद्ध साहित्यकार, कहानीकार और उपन्यासकार रांगेय राघव द्वारा लिखा गया उपन्यास है। राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सीमा से जुड़ा 'बैर' एक ग्रामीण क्षेत्र है। वहाँ नटों की भी बस्ती है। तत्कालीन जरायम पेशा करनटों की संस्कृति पर आधारित एक सफल आँचलिक उपन्यास है। सुखराम करनट अवैध सम्बन्ध से उत्पन्न नायक है। नट खेल-तमाशे दिखाते हैं और नटनियाँ तमाशों के साथ-साथ दर्शकों को यौन-संतुष्टि देकर आजीविका में इजाफा करती हैं। करनटों की युवा लड़कियाँ प्रायः ठाकुरों के पास जाया करती थीं। नैतिकता क्या है, इसका ज्ञान उन्हें नहीं था। थोड़े से पैसों की खातिर वे कहीं भी चलने को तैयार हो जाती थीं।

पात्र परिचय

सुखराम इस उपन्यास का बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्ति है। सामाजिक विसंगतियों के बीच वह जूझता रहता है। निर्बलों के ऊपर होने वाले अत्याचार वह सह नहीं पाता है। कुछ पात्र तो महज कुप्रवृत्तियों में फँसे रहने के लिए ही रचे गए हैं। नारी पात्रों में प्यारी और कजरी प्रमुख हैं। प्यारी स्वच्छंद जीवन जीने वाली युवती है। कई व्यक्तियों के साथ उसके शारीरिक सम्बन्ध हैं जिन्हें वह अन्यथा नहीं मानती। यह तो शरीर की एक भूख है। खाते रहो, फिर लग जाती है। इसी प्रकार कजरी का चरित्र भी ऐसे ही जन-जीवन में ढला हुआ है। वह प्यारी की सौत बनकर सुखराम के साथ रहने लगती है और तरह-तरह के षड्यंत्र रचते हुए सौतिया डाह दिखाती है। अन्य स्त्री पात्र भी ऐसे ही हैं। भाषा-शैली करनटों के बीच व्यवहार की है। सभ्य समाज में जिस शब्दावली का उपयोग नहीं होता, वह भी इस उपन्यास में है। कुल मिलाकर यह बहुत सफल उपन्यास माना गया है।[1]

समाजवादी-यथार्थवादी चित्रण

रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूँ’ उपन्यास में करनट कबिलों के जीवन यथार्थ का अनेक पक्षों में अंकन हुआ है। इसमें उन्होंने समाज में सर्वथा उपेक्षित उस वर्ग का चित्रण अत्यन्त सरल और रोचक शैली में प्रस्तुत किया है, जिसे सभ्य समाज ‘नट’ या ‘करनट’ कहकर पुकारता है। इन कबिलों की कोई नैतिकता नहीं होती। इनमें मर्द, औरत को वेश्या बनाकर उसके द्वारा धन कमाते हैं। करनटों में यह छूट है। वहाँ कोई बुराई ‘सेक्स’ के आधार पर नहीं मानी जाती। उपन्यासकार इस भाव को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं, "औरत का काम औरत का काम है। उसमें बुरा–भला क्या? कौन नहीं करती? नहीं तो मार–मार कर खाल उड़ा देगा दरोगा और तेरे बाप और खसम दोनों को जेल भेज देगा। फिर कमरा न रहेगा तो क्या करेगी? फिर भी तो पेट भरने को यही करना होगा?"[2] उपन्यास में अभिव्यक्त करनट समाज खानाबदोश, घोर उत्पीड़ित एवं शोषित है। यह उपन्यास संपूर्ण भारतीय ग्रामीण परिवेश को अपने साथ लेकर चलता हुआ प्रतीत होता है। जिसमें करनटों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया गया है।[3]

कथानक

'कब तक पुकारुं’ में जरायम पेशा समझी जाने वाली नटों की करनट जाति का चित्रण हुआ है। इसमें ऐसे ही एक करनट सुखराम अपनी जीवनगाथा इस उपन्‍यास में कहता है। करनट सुखराम अपने को ठाकुर समझता है। उसका विवाह करनट जाति की प्‍यारी से होता है, जो पहले एक दरोगा द्वारा भ्रष्‍ट की जाती है और फिर एक सिपाही की रखैल बन यौन कुण्ठाओं का शिकार बन जाती है। कजरी भी अपने पति को छोडकर सुखराम के साथ रहती है। कजरी इस संसार को छोड देती है। उस बच्‍ची का वह कोमल कान्‍त रुदन वह रुदन जिसमें इतिहास की विभीषिकाएं खो गई है, वह बच्‍ची जिसके पवित्र नयनों में नया जागरण ऐसे दैदीप्‍यमान हो रहा है, जैसे आदि महान् में जीवन कुलबुलाया था। चन्‍दा अंग्रेज़ युवती सूसन की कन्‍या होती है, जिसे सुखराम पालता है। वह लड़की चन्‍दा ठाकुर नरेश से प्रेम करती है और वह भी ठकुराइन बनने का स्‍वप्‍न देखती है। अन्‍त में मानसिक आवेग की अवस्‍था में ही चन्‍दा की मृत्‍यु हो जाती है।

वस्‍तु विधान

‘कब तक पुकारुं ’ में सुखराम की कथा मुख्‍यकथा है और प्रासंगिक कथाओं में कजरी और प्‍यारी की कथा है। सुखराम, कजरी और प्‍यारी के चारों ओर उपन्‍यास की कथा घूमती है। अन्‍य कथाओं में चंदा सूसन और लारेंस आदि की कथाएं है। उपन्‍यास को लेखक ने मनोवैज्ञानिक धरातल पर स्‍थापित करते हुए इतिवृत्‍तात्‍मक बना दिया है और वह जासूसी और अय्यारी उपन्‍यासों की तरह किस्‍सागोई से कम नहीं है। लेखक ने कई पीढ़ियों को एक साथ गूंथने का प्रयास किया है, इसलिए इसका वस्‍तु विधान बोझिल हो गया है। जिस प्रकार ‘भूले बिखरे चित्र’ मे ज्‍वालाप्रसाद की चार पीढ़ियों के कथानक को जोड़ने का प्रयत्‍न किया गया है, वही कार्य सुखराम यहाँ करता है किन्‍तु यहाँ बिखराव आ गया है। चन्‍दा की विस्‍तृत कथा को उपन्‍यासकार उपन्‍यास का अंग नहीं बना सका है। अनेकानेक स्‍थलों पर अनावश्‍यक विस्‍तार है। यह अनावश्‍यक विस्‍तार आंचलिक चित्रण की प्रवृत्ति अचल के रीति-रिवाजों, लोकाचारों, वातावरण-चित्रण प्रकृति-चित्रण और नैतिक-सामाजिक मान्‍यताओं की स्‍थापना के फलस्‍वरुप हुआ है। लेखक अधिक कष्‍टों के जीवन चित्रण करना चाहता है, इसलिए अनावश्‍यक प्रसंगों को उपन्‍यास में स्‍थान मिल गया है। अत: समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के फलस्‍वरुप उपन्‍यास की वस्‍तु अंविति मे बाधा पहुँची है।

चरित्र वर्णन

सुखराम, कजरी और प्‍यारी इस उपन्‍यास के मूल्‍य पात्र है इसलिए इनके चारों ओर इसकी कथा घूमती है और अन्‍य पात्रों में चन्‍दा, सूसन और लारेंस आदि है किन्‍तु चन्‍दा को छोडकर अन्‍य पात्र गौण है। सुखराम ही उपन्‍यास का केन्‍द्रबिंदु है, इसलिए उसे उपन्‍यास का नायक मानना चाहिये। सुखराम में आभिजात्‍य वर्ग की महत्‍वाकांक्षाएँ है। ‘अधूरा क़िला’ उसकी महत्‍वाकांक्षाओं का प्रतीक है। शोषण के प्रति उसके हदय में विद्रोह है। पुलिस और समाज के शोषण वर्गो के प्रति उसके हदय में विद्रोह की भावना है। उसकी पत्‍नी प्‍यारी रुग्‍तमखा की रखैल बन जाती है, किन्‍तु वह पत्‍नी का ग़ुलाम बनना नहीं चाहता। लेखक की मानवतावादी भावनाओं को सुखराम ही अभिव्‍यक्‍त करता है। वह अभावों, कमियों, बुर्बलताओं और शक्तियों का पुंज है। प्‍यारी अपने वर्ग की नारियों की दुर्बलताओं और अभावों को अभिव्‍यक्‍त करती है। प्‍यारी का चित्रण लेखक ने करनटों के नारी जीवन की दुर्दशाओं और भोग्‍या नारी के चित्रण करने के लिए किया है। प्‍यारी, अपनी परिस्थितियों से पीडित होकर, करनटी के नारी समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन की अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम बन कर रह जाती है, किन्‍तु कजरी परिस्थितियों से ऊपर उठकर अपने को अभिव्‍यक्‍त करती है। कजरी भी भोग्‍या है किन्‍तु उसमें प्रतिष्‍ठा के साथ-साथ नारी सुलभ ईर्ष्‍या भी है और नारी का ममत्‍व भी। नारी की संवेदनशीलता और करुणा भी उसमें कम नहीं है। प्‍यारी के समान परिस्थितियों से पीड़ित बनकर उपन्‍यास में अभिव्‍यक्‍त होती है। पात्रों के सृजन में लेखक पूर्ण रुप से निर्वैक्तिक नहीं रहा है, क्‍योंकि वह समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के पूर्वाग्रह से मुक्‍त नहीं हो सका है। इतना होने पर भी सुखराम, प्‍यारी और कजरी हास्‍य और अश्रु, आशाओं और निराशाओं में झुलते हुए अपना जीवन जीते हैं। सुखराम और कजरी बदलती परिस्थितियों के साथ उठते गिरते आगे बढ़ते हैं किन्तु प्‍यारी में विकास की सम्‍भावनायें नहीं है। नि:स्‍सदेह सुखराम, कजरी और प्‍यारी उपन्यास के प्राणवान पात्र है।

उद्देश्‍य

करनटों के नैतिक जीवन को प्रस्‍तुत करना ही उपन्यासकार का उद्देश्‍य है। लेखक का कथन है, ‘मैंने इनकी नैतिकता को समाज का आदर्श बनाकर प्रस्‍तुत नहीं किया है।’ बल्कि पाठकों को इसमें मैक्‍स की ऐसी जानकारी के रुप में हासिल करना चाहिये कि यह इनमें होता है। यह सारा समाज खानाबदोश है, उत्‍पीडित है, शोषित है। न इनके सामाजिक नियम शाश्वत है। न हमारी नैतिकता के बन्‍धन ही शाश्‍वत है। सुखराम के शब्‍दों में लेखक उपन्‍यास के आशय को स्‍पष्‍ट कर रहा है, ‘यह कमीने, नीच ही आज इन्‍सान है। इनके अतिरिक्‍त सबमें पाप घुस गया है क्‍योंकि इन सबके स्‍थार्थ और अहंकारों ने इनकी आत्मा को दास बना दिया है। ये कमीने और ग़रीब अशिक्षा और अंधकार में छटपटा रहे हैं। जब तक ये शिक्षित नहीं होते, तब तक इन पर अत्‍याचार होता ही रहेगा। जब तक ये शिक्षित नहीं होते, तब तक इनके अज्ञान, फूट और घृणा पर संसार में जघन्‍यता का केन्‍द्र बना रहेगा। तब तक इनके पुत्र धरती की मिट्टी में पैदा होते रहेंगे। शोषण की घुटन सदा नहीं रहेगी। वह मिट जायेगी, सदा के लिए मिट जायेगी।' इस उपन्‍यास में लेखक ने जीवन के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण प्रस्‍तुत किया है।[4]

यह समाजवादी चेतना का उपन्‍यास है। इस उपन्‍यास में लेखक ने समाजवादी-यथार्थवाद का सफल चित्रांकन किया है। शोषण, सामाजिक अन्‍याय, बुर्जुआ मनोवृत्ति एवं असमानता के विरुद्ध आवाज़ उठाई है। प्रगतिशील चेतना के फलस्‍वरुप इसको समाजवादी चेतना का उपन्‍यास कह सकते है क्‍योंकि करनटी के जीवन का चित्रण कर, शोषित वर्ग पर होने वाले शोषण का चित्र खींचकर जनवादी परम्‍परा में अपना स्‍थान बना दिया है। वर्ग संघर्ष की कहानी होने के कारण समाजवादी उपन्‍यासों की श्रेणी में इस उपन्‍यास को स्‍थान मिलना चाहिये।[5]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डॉ. रांगेय राघव: एक अद्वितीय उपन्यासकार (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।
  2. रांगेय राघव : कब तक पुकारूँ, राजपाल एण्ड सन्ज, पृ. सं. 3
  3. स.पू.अंक-13,अक्टू-दिस-2011,पृ-182 (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।
  4. हिंदी उपन्यासों का शास्त्रीय विवेचन- डॉ.महाविरमल लोढा
  5. कब तक पुकारुं (1957) (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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