"ख़ून फिर ख़ून है -साहिर लुधियानवी": अवतरणों में अंतर

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जंग तो ख़ुद हीं एक मअसला है
जंग तो ख़ुद हीं एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख़्शेगी
आग और ख़ून आज बख़्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी
भूख और अहतयाज कल देगी


बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
खूँ बहाना हीं क्या जरूरी है
खूँ बहाना हीं क्या ज़रूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को
घर की तारीकियाँ मिटाने को
घर जलाना हीं क्या जरूरी है
घर जलाना हीं क्या ज़रूरी है


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ख़ून फिर ख़ून है -साहिर लुधियानवी
कवि साहिर लुधियानवी
जन्म 8 मार्च, 1921
जन्म स्थान लुधियाना, पंजाब
मृत्यु 25 अक्तूबर, 1980
मृत्यु स्थान मुम्बई, महाराष्ट्र
मुख्य रचनाएँ तल्ख़ियाँ (नज़्में), परछाईयाँ (ग़ज़ल संग्रह)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
साहिर लुधियानवी की रचनाएँ

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते
धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते
साँस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

जंग तो ख़ुद हीं एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और ख़ून आज बख़्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी

बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
खूँ बहाना हीं क्या ज़रूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को
घर जलाना हीं क्या ज़रूरी है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।


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