"शिक्षा -स्वामी विवेकानन्द": अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) ('{{सूचना बक्सा पुस्तक |चित्र=Shiksha-vivekanand.jpg |चित्र का नाम='शिक...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "करनेवाली" to "करने वाली") |
||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
|टिप्पणियाँ = | |टिप्पणियाँ = | ||
}} | }} | ||
इस पुस्तक में [[स्वामी विवेकानन्द]] की शिक्षा पर विधायक और स्फूर्तिप्रद विचारों को प्रस्तुत किया गया है। स्वामीजी का ओजपूर्ण और प्रगतिशील व्यक्तित्व था। उन्होंने अपने विचारों में यह प्रतिपादित किया कि आज [[भारत]] को मानवता तथा चरित्र का निर्माण | इस पुस्तक में [[स्वामी विवेकानन्द]] की शिक्षा पर विधायक और स्फूर्तिप्रद विचारों को प्रस्तुत किया गया है। स्वामीजी का ओजपूर्ण और प्रगतिशील व्यक्तित्व था। उन्होंने अपने विचारों में यह प्रतिपादित किया कि आज [[भारत]] को मानवता तथा चरित्र का निर्माण करने वाली शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है। उनके मत से सभी प्रकार की शिक्षा और संस्कृति का आधार धर्म होना चाहिये। उन्होंने अपने इस सिद्धान्त को अपनी कृतियों और व्याख्यानों में बराबर पुरस्सर किया है। मद्रास-सरकार के शिक्षा मंत्री श्री टी.एस. अविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संग्रह कर उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। यह पुस्तक उसी का [[हिन्दी]] रूपान्तर है। इस पुस्तक का अनुवाद हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पं. द्वारकानाथजी तिवारी, बी.ए., एल.एल.बी., दुर्ग, सी.पी. ने करके दिया है। उनका यह कहना अनुवाद भाषा तथा भाव दोनों की दृष्टि से सच्चा रहा है। पं. शुकदेव प्रसादजी तिवारी ([[विनय मोहन शर्मा|विनयमोहन शर्मा]]) एम.ए., एल.एल.बी., प्राध्यापक, नागपुर महाविद्यालय के बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के कार्य में हमें बहुमूल्य सूचनाएँ दी हैं। | ||
==प्रकाशक की ओर से== | ==प्रकाशक की ओर से== | ||
मद्रास सरकार के भूतपूर्व शिक्षामंत्री श्री टी.एस. आविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संकलन किया था जो 1943 में [[रामकृष्ण मठ]], [[मद्रास]] से ‘Education’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का पण्डित द्वारकानाथजी तिवारी द्वारा किया गया हिन्दी रूपान्तर ‘शिक्षा’ नाम से अब तक हमारे मठ से प्रकाशित होता रहा। बाद में मूल अंग्रेज़ी पुस्तक के पंचम संस्मरण में कुछ नये अध्याय जोड़े गये एवं कुछ अध्यायों का पुनर्लेखन किया गया। तदनुसार प्रस्तुत परिवर्धन एवं परिशोधन किया गया है। इसमें समाविष्ट ‘व्यक्तिमत्व का विकास’, ‘साध्य तथा साधन’, ‘कर्तव्य क्या है’, ‘स्वामी की तरह कर्म करो’ ये नये अध्याय स्वामी विवेकानन्द के साहित्य के [[हिन्दी]] [[अनुवाद]] से संकलित किये गये हैं। | मद्रास सरकार के भूतपूर्व शिक्षामंत्री श्री टी.एस. आविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संकलन किया था जो 1943 में [[रामकृष्ण मठ]], [[मद्रास]] से ‘Education’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का पण्डित द्वारकानाथजी तिवारी द्वारा किया गया हिन्दी रूपान्तर ‘शिक्षा’ नाम से अब तक हमारे मठ से प्रकाशित होता रहा। बाद में मूल अंग्रेज़ी पुस्तक के पंचम संस्मरण में कुछ नये अध्याय जोड़े गये एवं कुछ अध्यायों का पुनर्लेखन किया गया। तदनुसार प्रस्तुत परिवर्धन एवं परिशोधन किया गया है। इसमें समाविष्ट ‘व्यक्तिमत्व का विकास’, ‘साध्य तथा साधन’, ‘कर्तव्य क्या है’, ‘स्वामी की तरह कर्म करो’ ये नये अध्याय स्वामी विवेकानन्द के साहित्य के [[हिन्दी]] [[अनुवाद]] से संकलित किये गये हैं। | ||
पंक्ति 43: | पंक्ति 43: | ||
{{स्वामी विवेकानंद की रचनाएँ}} | {{स्वामी विवेकानंद की रचनाएँ}} | ||
[[Category:स्वामी विवेकानन्द]] | [[Category:स्वामी विवेकानन्द]] | ||
[[Category:हिन्दू दर्शन]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:दर्शन कोश]] | [[Category:हिन्दू दर्शन]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:दर्शन कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
13:19, 6 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण
शिक्षा -स्वामी विवेकानन्द
| |
लेखक | स्वामी विवेकानन्द |
मूल शीर्षक | शिक्षा |
प्रकाशक | रामकृष्ण मठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2006 |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
मुखपृष्ठ रचना | अजिल्द |
इस पुस्तक में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा पर विधायक और स्फूर्तिप्रद विचारों को प्रस्तुत किया गया है। स्वामीजी का ओजपूर्ण और प्रगतिशील व्यक्तित्व था। उन्होंने अपने विचारों में यह प्रतिपादित किया कि आज भारत को मानवता तथा चरित्र का निर्माण करने वाली शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है। उनके मत से सभी प्रकार की शिक्षा और संस्कृति का आधार धर्म होना चाहिये। उन्होंने अपने इस सिद्धान्त को अपनी कृतियों और व्याख्यानों में बराबर पुरस्सर किया है। मद्रास-सरकार के शिक्षा मंत्री श्री टी.एस. अविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संग्रह कर उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। यह पुस्तक उसी का हिन्दी रूपान्तर है। इस पुस्तक का अनुवाद हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पं. द्वारकानाथजी तिवारी, बी.ए., एल.एल.बी., दुर्ग, सी.पी. ने करके दिया है। उनका यह कहना अनुवाद भाषा तथा भाव दोनों की दृष्टि से सच्चा रहा है। पं. शुकदेव प्रसादजी तिवारी (विनयमोहन शर्मा) एम.ए., एल.एल.बी., प्राध्यापक, नागपुर महाविद्यालय के बड़े आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के कार्य में हमें बहुमूल्य सूचनाएँ दी हैं।
प्रकाशक की ओर से
मद्रास सरकार के भूतपूर्व शिक्षामंत्री श्री टी.एस. आविनाशीलिंगम्जी ने स्वामीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का संकलन किया था जो 1943 में रामकृष्ण मठ, मद्रास से ‘Education’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का पण्डित द्वारकानाथजी तिवारी द्वारा किया गया हिन्दी रूपान्तर ‘शिक्षा’ नाम से अब तक हमारे मठ से प्रकाशित होता रहा। बाद में मूल अंग्रेज़ी पुस्तक के पंचम संस्मरण में कुछ नये अध्याय जोड़े गये एवं कुछ अध्यायों का पुनर्लेखन किया गया। तदनुसार प्रस्तुत परिवर्धन एवं परिशोधन किया गया है। इसमें समाविष्ट ‘व्यक्तिमत्व का विकास’, ‘साध्य तथा साधन’, ‘कर्तव्य क्या है’, ‘स्वामी की तरह कर्म करो’ ये नये अध्याय स्वामी विवेकानन्द के साहित्य के हिन्दी अनुवाद से संकलित किये गये हैं।
पुस्तक के कुछ अंश
- जानना यानी प्रकट करना
मनुष्य की अन्तनिर्हित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान मनुष्य में स्वभाव-सिद्ध है; कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता; सब अन्दर ही है। हम जो कहते हैं कि मनुष्य ‘जानता’ है, यथार्थ में, मानवशास्त्र-संगत भाषा में, हमें कहना चाहिए कि वह ‘आविष्कार करता’ है, ‘अनावृत’ या ‘प्रकट’ करता है। मनुष्य जो कुछ ‘सीखता’ है, वह वास्तव में ‘आविष्कार करना’ ही है। ‘आविष्कार’ का अर्थ है- मनुष्य का अपनी अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण को हटा लेना। हम कहते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया। तो क्या वह आविष्कार कहीं एक कोने में न्यूटन की राह देखते बैठा था ? नहीं, वरन् उसके मन में ही था। जब समय आया, तो उसने उसे जान लिया या ढूँढ़ निकाला। संसार को जो कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह सब मन से ही निकला है। विश्व का असीम ज्ञानभण्डार स्वयं तुम्हारे मन में है। बाहरी संसार तो एक सुझाव, एक प्रेरक मात्र है, जो तुम्हें अपने ही मन का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता है। सेवा के गिरने से न्यूटन को कुछ सूझ पड़ा और उसने अपने मन का अध्ययन किया। उसने अपने मन में विचार की पुरानी कड़ियों को फिर से व्यवस्थित किया और उनमें एक नयी कड़ी को देख पाया, जिसे हम गुरुत्वाकर्षण का नियम कहते हैं। वह न तो सेव में था न पृथ्वी के केन्द्रस्थ किसी वस्तु में।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख