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'''पुलोमा''' [[हिन्दू]] मान्यताओं और पौराणिक [[महाकाव्य]] [[महाभारत]] के उल्लेखानुसार वैश्वानर नामक [[दैत्य]] की चार [[पुत्री|पुत्रियों]] में से एक पुत्री थी, जो [[भृगु|ऋषि भृगु]] की पत्नी थी।
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*पुलोमा के पुत्र [[च्यवन|महर्षि च्यवन]] थे। अन्य मत से यह कश्यप<ref>मारीच</ref>की पत्नी थी<ref>[[भागवत पुराण]] 6-6-33-4; [[ब्रह्माण्ड पुराण]] 3.6.25; [[मत्स्य पुराण]] 6.22; [[वायुपुराण]] 68.23; [[विष्णु पुराण]] 1.21.8-9)</ref>
==आश्रम में राक्षस का आगमन==
पुलोमा अपने पति भृगु को बहुत ही प्यारी थी। उसके उदर में भृगु के वीर्य से उत्पन्न गर्भ पल रहा था। उनकी कुक्षि में उस गर्भ के प्रकट होने पर एक समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगु जी स्नान करने के लिये आश्रम से बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनके आश्रम पर आया। आश्रम में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृगु की पतिव्रता पत्नी पर पड़ी और वह कामदेव के वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। सुन्दरी ने उस राक्षस को अभ्यागत अतिथि मानकर वन में फल-मूल आदि से उसका सत्कार करने के लिये उसे न्योता दिया। वह राक्षस काम से पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमा को अकेली देख बड़े हर्ष का अनुभव किया, क्योंकि वह सती-साध्वी पुलोमा को हर ले जाना चाहता था। मन में उस शुभ लक्षणा सती के अपहरण की इच्छा रखकर वह प्रसन्नता से फूल उठा। पवित्र मुसकान वाली पुलोमा को पहले उस पुलोमा नामक राक्षस ने वरण<ref>बाल्यावस्था में पुलोमा रो रही थी। उसके रूदन की निवृत्ति के लिये पिता ने डराते हुए कहा- "रे राक्षस ! तू इसे पकड़ ले।" घर में पुलोमा राक्षस पहले से ही छिपा हुआ था। उसने मन ही मन वरण कर लिया- "यह मेरी पत्नी है।" बात केवल इतनी ही थी। इसका अभिप्राय यह है कि हँसी खेल में भी या डाँटने डपटने के लिये भी बालकों से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये और राक्षस का नाम भी नहीं रखना चाहिये।</ref> किया था।<ref>[[महाभारत आदि पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-19]]</ref> किन्तु पीछे उसके पिता ने शास्त्र विधि के अनुसार महर्षि भृगु के साथ उसका [[विवाह]] कर दिया। उसके पिता का वह अपराध राक्षस के हृदय में सदा काँटे सा कसकता रहता था। यही अच्छा मौका है, ऐसा विचार कर उसने उस समय पुलोमा को हर ले जाने का पक्का निश्चय कर लिया।
==अग्निदेव और राक्षस की वार्ता==
इतने में ही राक्षस ने देखा, अग्निहोत्र गृह में अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे हैं। तब पुलोमा राक्षस ने उस समय प्रज्वलित पावक से पूछा- "अग्निदेव! मैं सत्य की शपथ देकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है? पावक! तुम देवताओं के मुख हो। अतः मेरे पूछने पर ठीक-ठीक बताओ। पहले तो मैंने ही इस सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने के लिये वरण किया था। किन्तु बाद में असत्य व्यहार करने वाले इसके पिता ने [[भृगु]] के साथ इसका विवाह कर दिया। यदि यह एकान्त में मिली हुई सुन्दरी भृगु की भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; क्योंकि मैं इसे इस आश्रम से हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदय को दग्ध सा कर रहा है। इस सुमध्यमा को, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगु ने अन्यायपूर्वक हड़प लिया है।" इस प्रकार वह राक्षस भृगु की पत्नी के प्रति, यह मेरी है या भृगु की। ऐसा संशय रखते हुए प्रज्वलित अग्नि को सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा- "अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियों के भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने! तुम पुण्य और पाप के विषय में साक्षी की भाँति स्थित रहते हो; अतः सच्ची बात बताओ। असत्य बर्ताव करने वाले भृगु ने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्या का अपहरण किया है। यदि यह वही है तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो। सर्वज्ञ अग्निदेव! तुम्हारे मुख से सब बातें सुनकर भृगु की इस भार्या को तुम्हारे देखते-देखते इस आश्रम से हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो।"


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==राक्षस का भस्म होना==
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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06:19, 7 मई 2017 के समय का अवतरण

पुलोमा एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पुलोमा (बहुविकल्पी)

पुलोमा हिन्दू मान्यताओं और पौराणिक महाकाव्य महाभारत के उल्लेखानुसार वैश्वानर नामक दैत्य की चार पुत्रियों में से एक थी, जो ऋषि भृगु की पत्नी थी। अन्य मत से यह कश्यप[1]की पत्नी थी।[2] पुलोमा के पुत्र महर्षि च्यवन थे।

आश्रम में राक्षस का आगमन

पुलोमा अपने पति भृगु को बहुत ही प्यारी थी। उसके उदर में भृगु के वीर्य से उत्पन्न गर्भ पल रहा था। उनकी कुक्षि में उस गर्भ के प्रकट होने पर एक समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगु जी स्नान करने के लिये आश्रम से बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनके आश्रम पर आया। आश्रम में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृगु की पतिव्रता पत्नी पर पड़ी और वह कामदेव के वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। सुन्दरी ने उस राक्षस को अभ्यागत अतिथि मानकर वन में फल-मूल आदि से उसका सत्कार करने के लिये उसे न्योता दिया। वह राक्षस काम से पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमा को अकेली देख बड़े हर्ष का अनुभव किया, क्योंकि वह सती-साध्वी पुलोमा को हर ले जाना चाहता था। मन में उस शुभ लक्षणा सती के अपहरण की इच्छा रखकर वह प्रसन्नता से फूल उठा। पवित्र मुसकान वाली पुलोमा को पहले उस पुलोमा नामक राक्षस ने वरण[3] किया था।[4] किन्तु पीछे उसके पिता ने शास्त्र विधि के अनुसार महर्षि भृगु के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके पिता का वह अपराध राक्षस के हृदय में सदा काँटे सा कसकता रहता था। यही अच्छा मौका है, ऐसा विचार कर उसने उस समय पुलोमा को हर ले जाने का पक्का निश्चय कर लिया।

अग्निदेव और राक्षस की वार्ता

इतने में ही राक्षस ने देखा, अग्निहोत्र गृह में अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे हैं। तब पुलोमा राक्षस ने उस समय प्रज्वलित पावक से पूछा- "अग्निदेव! मैं सत्य की शपथ देकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है? पावक! तुम देवताओं के मुख हो। अतः मेरे पूछने पर ठीक-ठीक बताओ। पहले तो मैंने ही इस सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने के लिये वरण किया था। किन्तु बाद में असत्य व्यहार करने वाले इसके पिता ने भृगु के साथ इसका विवाह कर दिया। यदि यह एकान्त में मिली हुई सुन्दरी भृगु की भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; क्योंकि मैं इसे इस आश्रम से हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदय को दग्ध सा कर रहा है। इस सुमध्यमा को, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगु ने अन्यायपूर्वक हड़प लिया है।" इस प्रकार वह राक्षस भृगु की पत्नी के प्रति, यह मेरी है या भृगु की। ऐसा संशय रखते हुए प्रज्वलित अग्नि को सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा- "अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियों के भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने! तुम पुण्य और पाप के विषय में साक्षी की भाँति स्थित रहते हो; अतः सच्ची बात बताओ। असत्य बर्ताव करने वाले भृगु ने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्या का अपहरण किया है। यदि यह वही है तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो। सर्वज्ञ अग्निदेव! तुम्हारे मुख से सब बातें सुनकर भृगु की इस भार्या को तुम्हारे देखते-देखते इस आश्रम से हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो।"

राक्षस की यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिह्वाओं वाले अग्निदेव बहुत दु:खी हुए। एक ओर वे झूठ से डरते थे तो दूसरी ओर भृगु के शाप से; अतः धीरे से इस प्रकार बोले- "दानवनन्दन! इसमें संदेह नहीं कि पहले तुम्हीं ने इस पुलोमा का वरण किया था, किन्तु विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए इसके साथ तुमने विवाह नहीं किया था। पिता ने तो यह यशस्विनी पुलोमा भृगु को ही दी है। तुम्हारे वरण करने पर भी इसके महायशस्वी पिता तुम्हारे हाथ में इसे इसलिये नहीं देते कि उनके मन में तुमसे श्रेष्ठ वर मिल जाने का लोभ था। दानव! तदनन्तर महर्षि भृगु ने मुझे साक्षी बनाकर वेदोक्त क्रिया द्वारा विधिपूर्वक इसका पाणिग्रहण किया था। यह वही है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषय में मैं झूठ नहीं बोल सकता। दानवश्रेष्ठ! लोक में असत्य की कभी पूजा नहीं होती है।"[5]

राक्षस का भस्म होना

अग्नि का यह वचन सुनकर उस राक्षस ने वराह का रूप धारण करके मन और वायु समान वेग से सुन्दरी पुलोमा का अपहरण किया। उस समय वह गर्भ जो अपनी माता की कुक्षि में निवास कर रहा था, अत्यन्त रोष के कारण योग बल से माता के उदर से च्युत होकर बाहर निकल आया। च्युत होने के कारण ही उसका नाम च्यवन हुआ। माता के उदर से च्युत होकर गिरे हुए उस सूर्य के समान तेजस्वी गर्भ को देखते ही वह राक्षस पुलोमा को छोड़कर गिर पड़ा और तत्काल जलकर भस्म हो गया।[6]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 317 |

  1. मारीच
  2. भागवत पुराण 6-6-33-4; ब्रह्माण्ड पुराण 3.6.25; मत्स्य पुराण 6.22; वायुपुराण 68.23; विष्णु पुराण 1.21.8-9)
  3. बाल्यावस्था में पुलोमा रो रही थी। उसके रूदन की निवृत्ति के लिये पिता ने डराते हुए कहा- "रे राक्षस ! तू इसे पकड़ ले।" घर में पुलोमा राक्षस पहले से ही छिपा हुआ था। उसने मन ही मन वरण कर लिया- "यह मेरी पत्नी है।" बात केवल इतनी ही थी। इसका अभिप्राय यह है कि हँसी खेल में भी या डाँटने डपटने के लिये भी बालकों से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये और राक्षस का नाम भी नहीं रखना चाहिये।
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-19
  5. महाभारत आदि पर्व अध्याय 5 श्लोक 20-34
  6. महाभारत आदि पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14

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