"वल्लभ संप्रदाय": अवतरणों में अंतर
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'''पुष्टिमार्ग / वल्लभ | {{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय | ||
भक्ति का एक संप्रदाय जिसकी स्थापना | |चित्र=Vallabhacharya.jpg | ||
|चित्र का नाम=वल्लभाचार्य | |||
|विवरण='वल्लभ सम्प्रदाय' [[हिन्दू|हिन्दुओं]] के [[वैष्णव सम्प्रदाय|वैष्णव सम्प्रदायों]] में से एक है। [[वल्लभाचार्य]] ने अपने शुद्धाद्वैत दर्शन के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया था। | |||
|शीर्षक 1=अन्य नाम | |||
वल्लभाचार्य ने अपने शुद्धाद्वैत दर्शन के आधार पर इस मत का प्रतिपादन | |पाठ 1='वल्लभ मत', 'पुष्टिमार्ग' | ||
|शीर्षक 2=संस्थापक | |||
[[भागवत पुराण]] के अनुसार भगवान् का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है। <ref> 'पोषणं तदनुग्रह:' भागवत पुराण (2 / 10) </ref> आचार्य वल्लभ ने इसी भाव के आधार पर अपना पुष्टिमार्ग चलाया। | |पाठ 2=[[वल्लभाचार्य]] | ||
#मर्यादाभक्ति | |शीर्षक 3=भक्ति के प्रकार | ||
# | |पाठ 3='मर्यादाभक्ति' तथा 'पुष्टिभक्ति' | ||
|शीर्षक 4= | |||
|पाठ 4= | |||
#पूर्ण पुरुषोत्तम रस अथवा आनन्दस्वरूप परंब्रह्म श्रीकृष्ण रूप | |शीर्षक 5= | ||
#अक्षर ब्रह्म, जो गणितानन्द है और वह पुन: दो प्रकार के रूपों में परिणत होता है- एक पूर्ण पुरुषोत्तम का अक्षर धाम और दूसरा काल, कर्म, स्वभावरूप में प्रकट होने वाले, प्रकृति, जीव तथा अनेक देवी-देवताओं का | |पाठ 5= | ||
#अन्तर्यामी | |शीर्षक 6= | ||
|पाठ 6= | |||
भगवान जीवों पर अनुग्रह करने के लिए ही अवतार | |शीर्षक 7= | ||
|पाठ 7= | |||
जीव को भगवान के अनुग्रह या पोषण की आवश्यकता क्यों होती है, इसका उत्तर वल्लभाचार्य ने जीवसृष्टि का स्वरूप समझाते हुए दिया है। लीला-विलास के लिए ब्रह्म की जब एक से अनेक होने की इच्छा होती है, तब अक्षर-ब्रह्म के अंश रूप असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। सच्चिदानन्द अक्षर ब्रह्म के चित अंश से असंख्य निराकार जीव, सत अंश से जड़ प्रकृति तथा आनन्द अंश से अन्तर्यामी रूप अग्नि से स्फुलिंग निकलने की तरह प्रकट होते हैं। जीव में केवल सत और चित अंश होता है, आनन्द अंश तिरोहित रहता है। इसी कारण वह भगवान के छ: गुणों-ऐर्श्वय, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- से हीन होता है, परिणामस्वरूप वह दीन, हीन, पराधीन, दु:खी , जन्म-मरण के दोष से युक्त, अंहकारी, विपरीत ज्ञान में भ्रमित और आसक्तिग्रस्त रहता है। यही उसकी क्षीणता या दुर्बलता है। भगवान् अपने अनुग्रह से उसे पुष्ट करते हैं, उसकी क्षीणता दीनता में बदल जाती है। | |शीर्षक 8= | ||
|पाठ 8= | |||
परन्तु सभी जीव इस अनुग्रह या पोषण के अधिकारी नहीं बन सकते। | |शीर्षक 9= | ||
#दैवी | |पाठ 9= | ||
# | |शीर्षक 10=विशेष | ||
|पाठ 10=वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना समय की आवश्यकता का अनुभव करके की थी। अपने 'कृष्णश्रय' नामक प्रकरण-ग्रन्थ में उन्होंने उस समय का विशद चित्रण किया है। | |||
|संबंधित लेख=[[हिन्दू धर्म]], [[वल्लभाचार्य]], [[वैष्णव सम्प्रदाय]], [[निम्बार्क सम्प्रदाय]] | |||
|अन्य जानकारी=जो [[भक्त]] साधन निरपेक्ष हो, भगवान के अनुग्रह से स्वत: उत्पन्न हो और जिसमें भगवान दयालु होकर स्वत: जीव पर दया करें, वह 'पुष्टिभक्ति' कहलाती है। ऐसा भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
|अद्यतन= | |||
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'''पुष्टिमार्ग / वल्लभ सम्प्रदाय'''<br /> | |||
'''वल्लभ सम्प्रदाय''' [[भक्ति]] का एक संप्रदाय, जिसकी स्थापना [[वल्लभाचार्य|महाप्रभु वल्लभाचार्य]] ने की थी। इसे 'वल्लभ संप्रदाय' या 'वल्लभ मत' भी कहते हैं। [[चैतन्य महाप्रभु]] से भी पहले 'पुष्टिमार्ग' के संस्थापक वल्लभाचार्य [[राधा]] की [[पूजा]] करते थे, जहां कुछ संप्रदायों के अनुसार, भक्तों की पहचान राधा की सहेलियों (सखी) के रूप में होती है, जिन्हें राधाकृष्ण के लिए अंतरंग व्यवस्था करने के लिए विशेषाधिकार प्राप्त होता है। अपने [[वैष्णव]] सहधर्मियों के साथ राधावल्लभी, [[भागवतपुराण]] के प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं, लेकिन कुछ अंतरंगता जो राधा और [[गोपी|गोपियों]] के साथ रिश्तों की परिधि के बाहर है, वह इस सम्प्रदाय के दर्शन में शामिल नहीं है। | |||
==संस्थापक== | |||
वल्लभाचार्य ने अपने शुद्धाद्वैत दर्शन के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया, जो भक्त साधन निरपेक्ष हो, भगवान के अनुग्रह से स्वत: उत्पन्न हो और जिसमें भगवान दयालु होकर स्वत: जीव पर दया करें, वह 'पुष्टिभक्ति' कहलाती है। ऐसा [[भक्त]] भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह आराध्य के प्रति आत्मसमर्पण करता है। इसको 'प्रेमलक्षणा भक्ति' भी कहते हैं। ऐसी भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ बताई गई है। | |||
==भक्ति के प्रकार== | |||
[[भागवत पुराण]] के अनुसार भगवान् का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है।<ref> 'पोषणं तदनुग्रह:' भागवत पुराण (2 / 10) </ref> आचार्य वल्लभ ने इसी भाव के आधार पर अपना पुष्टिमार्ग चलाया। इसका मूल सूत्र [[उपनिषद|उपनिषदों]] में पाया जाता है। [[कठोपनिषद]] में कहा गया है कि परमात्मा जिस पर अनुग्रह करता है उसी को अपना साक्षात्कार कराता है। वल्लभाचार्य ने जीव आत्माओं को परमात्मा का अंश माना है जो चिंगारी की तरह उस महान् आत्मा से छिटके हैं। यद्यपि ये अलग-अलग हैं तथापि गुण में समान हैं। इसी आधार पर वल्लभ ने अपने या पराये शरीर को कष्ट देना अनुचित बताया है। पुष्टिमार्ग में परमात्मा की कृपा के शम-दमादि बहिरंग साधन हैं और श्रवण, मनन, निदिध्यासन अन्तरंग साधन। भगवान में चित्त की प्रवणता सेवा है और सर्वात्मभाव मानसी सेवा है। आचार्य की सम्मति में भगवान का अनुग्रह (कृपा) ही पुष्टि है। भक्ति दो प्रकार की है- | |||
#मर्यादाभक्ति | |||
#पुष्टिभक्ति | |||
'''मर्यादाभक्ति''' - इस में शास्त्रविहित ज्ञान और कर्म की अपेक्षा होती है। [[वेद]]-विहित कर्म का अनुसरण करना तथा ज्ञानप्राप्ति का प्रयत्न करना मर्यादा मार्ग कहा जाता है। | |||
'''पुष्टिभक्ति''' - भगवान के अनुग्रह से जो भक्ति उत्पन्न होती है, वह पुष्टिभक्ति कहलाती है। ऐसा भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त और किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण करता है। इसको प्रेमलक्षणा भक्ति भी कहते हैं। [[नारद]] ने इस भक्ति को कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ बतलाया है। उनके अनुसार यह भक्ति साधन नहीं, स्वत: फलरूपा है। पुष्टिमार्ग की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए <ref> '[[मुण्डकोपनिषद]]' की 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य:' </ref> श्रुति को उद्धृत किया जाता है, जिसमें आत्मा की उपलब्धि केवल कृपा के द्वारा बतायी गयी है। <ref> 'कठोपनिषद' (1/ 2/ 20) </ref> कठोपनिषद में भी भगवान के प्रसाद से ही आत्मदर्शन सम्भव बताया गया है। | |||
==भगवान के स्वरूप== | |||
[[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] में तो भगवान के अनुग्रह की महिमा स्थान-स्थान पर बतायी गयी है। शुद्धाद्वैत के अनुसार ब्रह्म सत, चित और आनन्द-स्वरूप है। उसके मुख्य तीन स्वरूप हैं- | |||
#पूर्ण पुरुषोत्तम रस अथवा आनन्दस्वरूप परंब्रह्म [[श्रीकृष्ण]] रूप | |||
#अक्षर ब्रह्म, जो गणितानन्द है और वह पुन: दो प्रकार के रूपों में परिणत होता है- एक पूर्ण पुरुषोत्तम का अक्षर धाम और दूसरा काल, कर्म, स्वभावरूप में प्रकट होने वाले, प्रकृति, जीव तथा अनेक देवी-देवताओं का रूप | |||
#अन्तर्यामी रूप | |||
मर्यादा-मार्ग अक्षर ब्रह्म की वाणी से उत्पन्न हुआ है, उसका साधक ज्ञान के द्वारा अक्षर-धाम की मुक्ति को ही ध्येय बनाता है। इस मार्ग में भगवान साधन-परतन्त्र रहता हैं, अर्थात साधक के वेद मर्यादित साधनों के अनुसार ही फल देता है। मर्यादा की रक्षा करना उसके लिए आवश्यक होता है, परन्तु पुष्टिमार्ग साक्षात पुरुषोत्तम श्री[[कृष्ण]] के शरीर से उत्पन्न हुआ है। उसका अनुयायी आत्मसमर्पण-युक्त रसात्मक प्रेम के द्वारा भगवान की आनन्दलीला में लीन होने का इच्छुक होता है। पुष्टिमार्ग एकमात्र भगवान के अनुग्रह पर निर्भर है। | |||
==अवतार== | |||
{{main|अवतार}} | |||
भगवान जीवों पर अनुग्रह करने के लिए ही [[अवतार]] रूप में प्रकट होते हैं। उनके अवतार धारण करने का हेतु साधुओं का परित्राण या दुष्टों का विनाश नहीं, वरन् साधन-निरेपक्ष मुक्ति प्रदान करना है। उनका यह अनुग्रह भी उनकी लीला मात्र है, जिसका उससे बाह्य कोई अन्य प्रयोजन नहीं है। वह उनकी नित्यलीला का एक प्रमुख रूप है। इस अनुग्रह पर आश्रित पुष्टिभक्ति नवधा भक्ति से भिन्न है। नवधा भक्ति साधन-भक्ति या मर्यादा-भक्ति है, असमें भजन, पूजन आदि की अपेक्षा होती है। पुष्टिभक्ति रागात्मिका या रागानुगा भक्ति है, जो भगवत कृपा से प्राप्त भगवत प्रेम पर ही आश्रित है। इसीलिए इसे प्रेम-लक्षणा भक्ति कहते हैं। | |||
जीव को भगवान के अनुग्रह या पोषण की आवश्यकता क्यों होती है, इसका उत्तर वल्लभाचार्य ने जीवसृष्टि का स्वरूप समझाते हुए दिया है। लीला-विलास के लिए ब्रह्म की जब एक से अनेक होने की इच्छा होती है, तब अक्षर-ब्रह्म के अंश रूप असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। सच्चिदानन्द अक्षर ब्रह्म के चित अंश से असंख्य निराकार जीव, सत अंश से जड़ प्रकृति तथा आनन्द अंश से अन्तर्यामी रूप अग्नि से स्फुलिंग निकलने की तरह प्रकट होते हैं। जीव में केवल सत और चित अंश होता है, आनन्द अंश तिरोहित रहता है। इसी कारण वह भगवान के छ: गुणों-ऐर्श्वय, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- से हीन होता है, परिणामस्वरूप वह दीन, हीन, पराधीन, दु:खी , जन्म-मरण के दोष से युक्त, अंहकारी, विपरीत ज्ञान में भ्रमित और आसक्तिग्रस्त रहता है। यही उसकी क्षीणता या दुर्बलता है। भगवान् अपने अनुग्रह से उसे पुष्ट करते हैं, उसकी क्षीणता दीनता में बदल जाती है। परन्तु सभी जीव इस अनुग्रह या पोषण के अधिकारी नहीं बन सकते। | |||
====जीवों के प्रकार==== | |||
उपरोक्त सम्बन्ध में वल्लभाचार्य ने जीवों के प्रकार-भेद गिनाये हैं प्रथमत: जीव दो प्रकार के होते हैं- | |||
#दैवी | |||
#आसुरी | |||
*दैवी जीव पुन: दो प्रकार के होते हैं- | *दैवी जीव पुन: दो प्रकार के होते हैं- | ||
#पुष्टिजीव | #पुष्टिजीव | ||
# | #मर्यादाजीव | ||
*पुन: पुष्टिजीव चार प्रकार के दोते हैं- | *पुन: पुष्टिजीव चार प्रकार के दोते हैं- | ||
#शुद्धपुष्ट | #शुद्धपुष्ट | ||
#पुष्टिपुष्टि | #पुष्टिपुष्टि | ||
#मर्यादापुष्ट | #मर्यादापुष्ट | ||
# | #प्रवाहपुष्ट | ||
पुष्टिजीवों में शुद्ध पुष्टिजीव तो नित्य और मुक्त होते हैं, वे भगवान् के षड्गुण अप्राकृत शरीर से भगवान् की नित्य सेवा का आनन्दलाभ करते हैं। अवतार-दशा में वे भी भगवान् के साथ अवतरित होते हैं, उनकी स्थिति सिद्ध अवस्था की होती है। शेष तीन प्रकार के पुष्टिजीवों की भक्ति तीन प्रकार की होती है और वे उसी के अनुसार पुन: पुष्टि-पुष्टि, मर्यादापुष्ट और प्रवाहपुष्ट-तीन प्रकार के होते | ये ही चार प्रकार के पुष्टिजीव भगवान् की सेवा (भक्ति) के अधिकारी होते हैं। उनका जन्म ही सेवा के हेतु होता है। मर्यादाजीव पूर्ण पुरुषोत्तम की सेवा (भक्ति) के योग्य नहीं होते। वे जैसा कि पहले बताया जा चुका है, केवल कर्म और ज्ञान द्वारा स्वर्गादि लोक या अक्षर-सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। आसुरी जीव प्रवाहशील होते हैं। इनमें से यज्ञ आसुरी जीव तो भगवान के प्रति उत्कट वैर-भाव रखने के फलस्वरूप संहार के द्वारा उद्धार प्राप्त करते हैं, परन्तु दुष्ट आसुरी जीवों का कभी उद्धार नहीं होता, वे निरन्तर जन्म-मरण के बन्धन में पड़े रहते हैं। पुष्टिजीवों में शुद्ध पुष्टिजीव तो नित्य और मुक्त होते हैं, वे भगवान् के षड्गुण अप्राकृत शरीर से भगवान् की नित्य सेवा का आनन्दलाभ करते हैं। अवतार-दशा में वे भी भगवान् के साथ अवतरित होते हैं, उनकी स्थिति सिद्ध अवस्था की होती है। शेष तीन प्रकार के पुष्टिजीवों की भक्ति तीन प्रकार की होती है और वे उसी के अनुसार पुन: पुष्टि-पुष्टि, मर्यादापुष्ट और प्रवाहपुष्ट-तीन प्रकार के होते हैं। भगवानि के आनन्दकाय से उत्पन्न ये पुष्टिजीव भी पाप और अहन्ता-ममतामय संसार में लिप्त हो सकते हैं, परन्तु उनमें भक्ति का बीच सहज ही अंकुरित हो जाता है जो फलीभूत होकर अन्त में उन्हें अभीष्ट की प्राप्ति कराता है। सर्वभाव से भगवान की कृपा पर ही निर्भर रहते हुए वे आनन्दरूप श्रीकृष्ण की आराधना में रत रहते हैं और चातक की तरह अनन्य भाव से निरन्तर उन्हीं का ध्यान करते रहते हैं। इसी प्रेमभक्ति के आधार पर अंशरूप जीव अंशी ब्रह्म के साथ जो सम्बन्ध स्थापित करता है, वही ब्रह्म-सम्बन्ध है। | ||
==दीक्षा तथा सेवा== | |||
इसी प्रेमभक्ति के आधार पर अंशरूप जीव अंशी ब्रह्म के साथ जो सम्बन्ध स्थापित करता है, वही ब्रह्म-सम्बन्ध है। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होते समय ही भक्त गुरु के आदेश से 'श्रीकृष्ण: शरणं मम' मंन्त्र का उच्चारण करके श्रीकृष्ण को अपने तन,मन,धन,पुत्र कलत आदि के समर्पण का संकल्प करता है और इस प्रकार समस्त सांसारिक दोषों से निवृत्ति | पुष्टिमार्ग में दीक्षित होते समय ही भक्त गुरु के आदेश से 'श्रीकृष्ण: शरणं मम' मंन्त्र का उच्चारण करके [[श्रीकृष्ण]] को अपने तन,मन,धन,पुत्र कलत आदि के समर्पण का संकल्प करता है और इस प्रकार समस्त सांसारिक दोषों से निवृत्ति प्राप्त करता है। इसके बाद [[भक्त]] किसी भी वस्तु को भगवान को समर्पित किये बिना ग्रहण नहीं कर सकता। इस सर्वात्मसमर्पण के भाव को दृढ़ करके तीन प्रकार की सेवा की जाती है- | ||
#तनुजा, अर्थात् अपने तथा अपने पुत्र, स्त्री आदि के शरीर को भगवत् की सेवा में लगाना | #'''तनुजा''', अर्थात् अपने तथा अपने पुत्र, स्त्री आदि के शरीर को भगवत् की सेवा में लगाना | ||
#वित्तजा, अर्थात् धन, यश आदि को भगवान् के निमित्त अर्पित करना | #'''वित्तजा''', अर्थात् धन, यश आदि को भगवान् के निमित्त अर्पित करना | ||
#मानसी, अर्थात् मन का निरोध करके निरन्तर भगवान में लीन | #'''मानसी''', अर्थात् मन का निरोध करके निरन्तर भगवान में लीन रखना | ||
"माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुदृढ: सर्वतोधिक:। स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तस्तया मुक्तर्न चान्यथा" <ref> तत्त्वदीप-निबन्ध शा0 प्र0, 46 </ref> तथा योग आदि को भी प्रारम्भिक स्थिति में स्वीकृति दी है। | 'मानसी' सेवा ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और कठिन है। वल्लभाचार्य ने भक्ति के सामान्य लक्षणों में प्रेम-भक्ति के साथ-साथ भगवान् के माहात्म्य के ज्ञान और उसके निरन्तर [[ध्यान]] का भी उल्लेख किया है- "माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुदृढ: सर्वतोधिक:। स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तस्तया मुक्तर्न चान्यथा"<ref> तत्त्वदीप-निबन्ध शा0 प्र0, 46 </ref> तथा योग आदि को भी प्रारम्भिक स्थिति में स्वीकृति दी है। परन्तु वस्तुत: पुष्टिमार्गीय भक्ति ऐकान्तिक और एकात्मक है। श्रवणकीर्तनादि नवधा भक्ति का अन्तिम सोपान आत्मसमर्पण उसका प्रथम सोपान है। भक्तों के सत्संग, उनके चरित्रों के श्रवण-मनन आदि से आत्मसमर्पण का भाव दृढ़ होता है। इस प्रकार निरन्तर अभ्यास से जब भगवान के प्रति माहात्म्यज्ञानयुक्त उत्कट प्रेम दृढ़ हो जाता है, तभी समझना चाहिये कि भगवान का अनुग्रह प्राप्त हो गया। यह प्रेम वियोग का अनुभव प्राप्त होने पर और अधिक प्रबल होता जाता है तथा मन में श्रीकृष्ण-मिलन की आकांक्षा और अधिक तीव्र होती जाती है। | ||
====आसक्ति==== | |||
'नारदभक्ति-सूत्र' में वर्णित एकादश आसक्तियों को इस सम्बन्ध में उद्धृत किया जाता है- | श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-विरह की दैन्यपूर्ण विकलता के अनुभव से संसार का मोह नष्ट हो जाता है और उसे संसार के प्रति अनासक्ति हो जाती है। इस स्थिति को पुष्टिमार्गीय परिभाषा में रागविनाश की स्थिति है। इस स्थिति में गृहादि से अरुचि हो जाती है तथा स्त्री-पुरुष आदि सांसारिक सम्बन्ध बंध्य प्रतीत होने लगते हैं। आसक्ति कई प्रकार की होती हैं। 'नारदभक्ति-सूत्र' में वर्णित एकादश आसक्तियों को इस सम्बन्ध में उद्धृत किया जाता है- | ||
#गुणासक्ति या माहात्म्यासक्ति | #गुणासक्ति या माहात्म्यासक्ति | ||
#रूपासक्ति | #रूपासक्ति | ||
#पूजासक्ति | #पूजासक्ति | ||
#स्मरणासक्ति | #स्मरणासक्ति | ||
#दास्यासक्ति | #दास्यासक्ति | ||
#सख्यासक्ति | #सख्यासक्ति | ||
#कान्तासक्ति | #कान्तासक्ति | ||
#वात्सल्यासक्ति | #वात्सल्यासक्ति | ||
#आत्मनिवेदनासक्ति | #आत्मनिवेदनासक्ति | ||
#तन्मयतासक्ति | #तन्मयतासक्ति | ||
#परम | #परम विरहासक्ति | ||
यह पुष्टिमार्गीय प्रेम-लक्षणा भक्ति 'शाण्डिल्यभक्तिसूत्र' के शब्दों में 'परानुरक्तिरीश्वरे' ईश्वर में अति अनुरक्ति या 'नारदभक्तिसूत्र' की शब्दावली में "सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च' कही गयी है। प्रेम के अनेक भाग हैं, अत: भक्ति | वस्तुत: ये आसक्तियाँ विकासक्रम के अनुसार ही गयी हैं। माहात्म्यासक्ति आसक्ति की प्रारम्भिक अवस्था है तथा परमविरहासक्ति अन्तिम। आसक्ति के उपरान्त विकास की तीसरी स्थिति व्यसन कहलाती है। इसी को निरोध या आत्मविस्मृति की स्थिति व्यसन कहलाती है। इसी को निरोध या आत्मविस्मृति की स्थिति भी कहते हैं, जो प्रेम-भक्ति की अन्तिम और पूर्ण परिणति है। इस स्थिति में एक प्रकार से आत्मा का नाश हो जाता है, अत: उसे आत्म-निवृत्ति भी कहते हैं। भक्त का भगवान् के साथ प्रेममय एकीकरण हो जाता है। वह प्रेम के लिए ही प्रेम करता है तथा उसका प्रत्येक अनुभव ठीक उसी प्रकार होता है, जैसा कि स्वयं भगवान का अनुभव हो सकता है। | ||
'वार्ता' के अनुसार [[सूरदास]], [[परमानन्ददास]] और [[कुम्भनदास]]- वल्लभाचार्य के तीनों प्रधान शिष्य निकुंजलीला का ही ध्यान करते हुए राधाभाव में तन्मय होकर गोलोक सिधारे थें। महाप्रभु वल्लभाचार्य [[चैतन्य महाप्रभु]] के समकालीन थे। | यह पुष्टिमार्गीय प्रेम-लक्षणा भक्ति 'शाण्डिल्यभक्तिसूत्र' के शब्दों में 'परानुरक्तिरीश्वरे' ईश्वर में अति अनुरक्ति या 'नारदभक्तिसूत्र' की शब्दावली में "सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च' कही गयी है। प्रेम के अनेक भाग हैं, अत: भक्ति की किसी भी भाव से की जा सकती है। [[भक्ति]] के भाव-विस्तार को इतना व्यापक माना गया है कि भागवत के "कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते" के अनुसार काम, क्रोध, भय, स्नेह, ऐक्य अथवा सौहार्द किसी भाव से नित्य ध्यान धरने से भगवन्मय होने का विश्वास प्रकट किया गया है। [[सूरदास]] ने भागवत के उक्त वचन का प्रमाण देते हुए [[गोपी|गोपियों]] की कान्तारति की व्याख्या की है- | ||
#मंगलादर्शन | |||
#श्रृंगार | <blockquote>"काम क्रोध में नेह सुहृदता कोई विधि करै कोई। धरैं ध्यान हरि को जो हट करि सूर सो हरि सों होई"।</blockquote> | ||
#गोचारण | |||
#राजभोग | [[वल्लभाचार्य]] ने 'सुबोधिनी' में उक्त [[श्लोक]] की व्याख्या करते हुए लिखा है कि काम स्त्री-भाव में, क्रोध शत्रु-भाव में, भय वधिक-भाव में, स्नेह संम्बन्धियों के भाव में, ऐक्य ज्ञान-अवस्था में और सौहार्द सख्य-भाव में होता है; किसी भी भाव से भजन करने से वह भाव भगवन्मय हो जाता है। परन्तु वल्लभाचार्य ने [[गोवर्धन]] के मन्दिर में श्रीनाथजी की सेवा-पद्धति की जो व्यवस्था की थी, वह बालभाव की थी। आज भी वह परम्परा सम्प्रदाय में चली आ रही है। सूरदास और परमानन्ददास को सम्प्रदाय में दीक्षित करते समय उन्होंने गोपाल कृष्ण के ही वात्सल्यभाव के पद गाने का आदेश दिया था। इससे भी प्रमाणित होता है कि पुष्टिमार्ग में प्रारम्भ में वात्सल्यभाव की भक्ति का ही विशेष माहात्म्य था। परन्तु वल्लभाचार्य ने सख्य और कान्तारति को स्वीकार न किया हो, यह बात नहीं है। एक स्थल पर स्वयं उन्होंने यह आकांक्षा व्यक्त की है कि मेरे [[हृदय]] में गोपियों के विरह का दु:ख पैदा हो जाय। उनके भक्तों, विशेषत: सूरदास, परमानन्ददास आदि की रचनाओं में तो सख्य और कान्तारति का बहुत अधिक विस्तार है और उससे असन्दिग्ध रूप में प्रमाणित हो जाता है कि पुष्टिमार्गीय भक्ति-पद्धति में कम-से-कम गोसाई विट्ठलनाथ के समय सख्य और कान्तारति का माहात्म्य कहीं अधिक हो गया था। | ||
#राजभोग | ==श्रीनाथजी की दैनिक सेवाएँ== | ||
#उत्थापन | 'वार्ता' के अनुसार [[सूरदास]], [[परमानन्ददास]] और [[कुम्भनदास]]- वल्लभाचार्य के तीनों प्रधान शिष्य निकुंजलीला का ही ध्यान करते हुए राधाभाव में तन्मय होकर [[गोलोक]] सिधारे थें। महाप्रभु वल्लभाचार्य [[चैतन्य महाप्रभु]] के समकालीन थे। [[चैतन्य महाप्रभु|चैतन्य]] के साथ उनकी दो-एक बार भेंट हुई थी तथा उन्होंने गौड़ीय वैष्णवों को [[श्रीनाथजी मंदिर मथुरा|श्रीनाथजी]] की सेवा में नियुक्त किया था। अत: यह स्वाभाविक है कि वे चैतन्य के [[गौड़ीय सम्प्रदाय]] में प्रचलित कान्तारति और गोपीभाव की महत्ता से भली भाँति परिचित थे। उनके समकालीन [[राधावल्लभ सम्प्रदाय|राधावल्लभी]] और [[हरिदासी सम्प्रदाय|हरिदासी]] [[वैष्णव सम्प्रदाय]] भी लोकप्रिय हो रहे थे। इनमें कान्तारति की एकान्त रूप से मान्यता थी। अत: अपने सम्प्रदाय में वात्सल्यभाव की भक्ति-पद्धति प्रतिष्ठित करते हुए उन्होंने कान्ताभाव की सम्भावनाओं को अवश्य स्वीकार किया होगा। फिर भी श्रीनाथजी की आठ दैनिक सेवाओं- | ||
#भोग | #मंगलादर्शन | ||
#सन्ध्या | #श्रृंगार | ||
#शयन | #गोचारण | ||
#राजभोग | |||
#राजभोग | |||
#उत्थापन | |||
#भोग | |||
#सन्ध्या | |||
#शयन | |||
इनमें [[आरती पूजन|आरती]] के साथ श्रीनाथ जी के नित्यकर्मो का विधान है, कान्ताभाव की सेवा का समावेश नहीं है। वल्लभाचार्य ने [[राधा]] को भी मान्यता नहीं दी थी, किन्तु उनके द्वितीय पुत्र [[विट्ठलनाथ]] ने श्रीनाथजी की सेवा के मण्डन में राधा को भी दैनिक सेवाओं में तो नहीं, ब्रह्मोत्सवों के रूप में सम्मिलित किया। [[कृष्ण जन्माष्टमी|श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव]] की तरह [[राधाष्टमी|राधा का जन्मोत्सव]] भी मनाया जाने लगा। कदाचित [[विट्ठलनाथ]] के समय में मधुर भाव की भक्ति का प्रभाव [[गौड़ीय सम्प्रदाय|गौड़ीय]], [[राधावल्लभ सम्प्रदाय|राधावल्लभी]] और [[हरिदासी सम्प्रदाय|हरिदासी सम्प्रदायों]] के प्रभाव से बहुत अधिक हो गया था और यही कारण है कि [[सूरदास]] तथा अन्य सभी [[अष्टछाप कवि|अष्टछाप के कवियों]] की रचनाओं में राधा तथा [[राधा]]-[[कृष्ण]] के युगल रूप की भक्ति से सम्बन्धित पदों की प्रचुरता है। | |||
विट्ठलनाथ ने 'स्वामिन्यष्टक', 'स्वामिनीस्तोत्र' तथा 'श्रृंगाररसमण्डन' की रचना करके राधा तथा दाम्पत्य रति की महत्ता प्रतिपादित की है। यद्यपि पुष्टिमार्ग में रागानुगा भक्ति की उस प्रकार की विवेचना नहीं मिलती, जैसी गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के 'भक्तिरसामृतसिन्धु' और उज्ज्वलनीलमणि' आदि ग्रन्थों में मिलती है, फिर भी इस सम्प्रदाय की भक्ति-पद्धति और अनुयायी कवियों की, विशेष रूप से सूरदास की कृतियों कसे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि पुष्टिमार्ग में भी दास्य, वात्सल्य, साख्य और माधुर्य, चारों प्रकार की रति भक्ति-पद्धति में समाविष्ट है तथा भावावेश और घनिष्ठता की दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्व माधुर्य भाव की कान्तारति का ही है, जिसकी आदर्श स्वयं स्वामिनी राधा जी हैं। पुष्टिमार्ग के आदर्श भक्त [[नन्द]], [[यशोदा]], गोप और [[गोपी]] हैं, जिन्होंने अपने-अपने भाव के अनुसार भक्ति प्राप्त की थी। भक्ति का माधुर्य भाव अलौकिक काम-भावना है, जिसमें वासना का अभाव है। यह भाव भगवान की असीम कृपा से ही प्राप्त होता है। | |||
==पुष्टिमार्गीय भक्ति== | |||
पुष्टिमार्गीय भक्ति स्वत: पूर्ण है। भक्ति के अतिरिक्त भक्त को और किसी बात की आकांक्षा नहीं होती। फिर भी, भक्ति सिद्ध हो जाने पर भक्त को अनायास और अकस्मात अलौकिक सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है। स्वयं भगवान भक्त को अपना स्वामी मानने लगते हैं भगवान के साथ एकीकरण तथा सेवा-उपयोगी देह-पुष्टिभक्ति के ये ही फल कहे जा सकते हैं। सेवा के सम्बन्ध में ऊपर कुछ उल्लेख किया गया है। वस्तुत: सच्ची सेवा तो भक्ति ही है। परन्तु पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में सेवा के रूप में बहुत-सा कर्मकाण्ड तथा प्रचुर विधि-विधान विकसित हो गया है। आठ दैनिक सेवाओं का ऊपर उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त अनेक व्रतोत्सवों और वर्षोत्सवों के रूप में विशेष 'सेवाएँ' भी होती रहती हैं। | पुष्टिमार्गीय भक्ति स्वत: पूर्ण है। भक्ति के अतिरिक्त भक्त को और किसी बात की आकांक्षा नहीं होती। फिर भी, भक्ति सिद्ध हो जाने पर भक्त को अनायास और अकस्मात अलौकिक सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है। स्वयं भगवान भक्त को अपना स्वामी मानने लगते हैं भगवान के साथ एकीकरण तथा सेवा-उपयोगी देह-पुष्टिभक्ति के ये ही फल कहे जा सकते हैं। सेवा के सम्बन्ध में ऊपर कुछ उल्लेख किया गया है। वस्तुत: सच्ची सेवा तो भक्ति ही है। परन्तु पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में सेवा के रूप में बहुत-सा कर्मकाण्ड तथा प्रचुर विधि-विधान विकसित हो गया है। आठ दैनिक सेवाओं का ऊपर उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त अनेक व्रतोत्सवों और वर्षोत्सवों के रूप में विशेष 'सेवाएँ' भी होती रहती हैं। | ||
*'सेवा' के अवसरों पर श्रीनाथजी का श्रृंगार किया जाता है | *'सेवा' के अवसरों पर श्रीनाथजी का श्रृंगार किया जाता है | ||
*उनका मन्दिर सजाया जाता है | *उनका मन्दिर सजाया जाता है | ||
*उनका वेश-विन्यास होता है | *उनका वेश-विन्यास होता है | ||
*उनकी आरती की जाती है | *उनकी आरती की जाती है | ||
*तरह-तरह के उत्सवों तथा मनोरंजनों का आयोजन होता है। पुष्टिमार्ग में भगवान के परमानन्दरूप को उपास्य माना गया है। वे सौन्दर्य, आनन्द और रस के आगार हैं। अत: पुष्टि-मार्गीय मन्दिरों की 'सेवा' के विकासक्रम में अनेक कलाओं को प्रोत्साहन मिला है। पाककला पर ही पुष्टिमार्ग में प्रचुर साहित्य तैयार हुआ है और मन्दिरों में भिन्न-भिन्न समयों पर जो भोग तैयार होता है, उसकी प्रशंसा कर सकना कठिन है। वेश-विन्यास, गृह-प्रसाधन, संगीत और काव्य, सभी को पुष्टिमार्गीय तत्त्वावधान और संरक्षण में अभूतपूर्व उन्नति करने का अवसर मिला। प्रत्येक अवसर की आरती के लिए विभिन्न रागों का निर्देश किया गया है, जैसे- | *तरह-तरह के उत्सवों तथा मनोरंजनों का आयोजन होता है। | ||
*मंगल आरती पर भैरव, विभास, रामकली- वीणा, [[सितार]] आदि के साथ | ====आरती तथा राग==== | ||
*फिर लगभग 9 बजे श्रृंगार के समय बिलावल | पुष्टिमार्ग में भगवान के परमानन्दरूप को उपास्य माना गया है। वे सौन्दर्य, आनन्द और [[रस]] के आगार हैं। अत: पुष्टि-मार्गीय मन्दिरों की 'सेवा' के विकासक्रम में अनेक कलाओं को प्रोत्साहन मिला है। पाककला पर ही पुष्टिमार्ग में प्रचुर साहित्य तैयार हुआ है और मन्दिरों में भिन्न-भिन्न समयों पर जो भोग तैयार होता है, उसकी प्रशंसा कर सकना कठिन है। वेश-विन्यास, गृह-प्रसाधन, संगीत और काव्य, सभी को पुष्टिमार्गीय तत्त्वावधान और संरक्षण में अभूतपूर्व उन्नति करने का अवसर मिला। प्रत्येक अवसर की आरती के लिए विभिन्न रागों का निर्देश किया गया है, जैसे- | ||
*मध्याह्न राजभोग के समय सारंग | *मंगल आरती पर भैरव, विभास, रामकली- [[वीणा]], [[सितार]] आदि के साथ | ||
*अपराह्न उत्थापन के समय सोरठ | *फिर लगभग 9 बजे श्रृंगार के समय बिलावल | ||
*फिर भोग के समय गौड़ी और पूर्वी | *मध्याह्न राजभोग के समय सारंग | ||
*अपराह्न उत्थापन के समय सोरठ | |||
*फिर भोग के समय गौड़ी और पूर्वी | |||
*उसके अनन्तर यमन और फिर विहाग। अष्टछाप कवियों को इन्हीं अवसरों के लिए प्रतिदिन नये पद रचकर गाने की प्रेरणा मिलती रही होगी। विशेष अवसरों-व्रतोत्सवों आदि के लिए वे विशेष रचना करते होंगे। | *उसके अनन्तर यमन और फिर विहाग। अष्टछाप कवियों को इन्हीं अवसरों के लिए प्रतिदिन नये पद रचकर गाने की प्रेरणा मिलती रही होगी। विशेष अवसरों-व्रतोत्सवों आदि के लिए वे विशेष रचना करते होंगे। | ||
- | ==पुष्टिमार्ग के अंग== | ||
वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना समय की आवश्यकता का अनुभव करके की थी। | पुष्टिमार्ग के तीन प्रमुख अंग हैं- | ||
#ब्रह्मवाद | |||
#आत्मनिवेदन | |||
#भगवत्सेवा | |||
वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना समय की आवश्यकता का अनुभव करके की थी। अपने 'कृष्णश्रय' नामक प्रकरण-ग्रन्थ में उन्होंने उस समय का विशद चित्रण किया है। समस्त देश म्लेच्छाकान्त था, गंगादि तीर्थ भ्रष्ट हो रहे थे, उनके अधिष्ठाता [[देवता]] अन्तर्धान हो गये थे, [[वेद]]-ज्ञान का लोप हो गया था, यज्ञ-याग का अनुष्ठान सम्भव नहीं था। ऐसे अवसर पर भक्ति का मार्ग ही एकमात्र शेष रह गया था। उन्होंने भक्ति का मार्ग राजमार्ग के समान प्रशस्त बनाया और उस पर उन सबको भी चलने के लिए आमन्त्रित किया, जो [[धर्म]] के अधिकारी नहीं समझ जाते थे। फलत: पुष्टिमार्ग में [[ब्राह्मण]] से लेकर [[शूद्र]] तक सभी श्रेणियों और वर्गों के स्त्री और पुरुष सम्मिलित हुए। [[हिन्दू]] ही नहीं, कुछ [[मुसलमान|मुसलमानों]] ने भी भक्ति का यह सहज मार्ग ग्रहण किया और कृष्ण-भक्ति के आन्दोलन को व्यापकता प्रदान की। संक्षेप में पुष्टिमार्गीय भक्ति सहज, निष्काम प्रेमभक्त है, जिसे भगवदनुग्रह का प्रत्यावर्तित रूप कह सकते हैं, क्योंकि वह एकमात्र भगवत्कृपा पर ही आश्रित है। प्रेम-भक्ति स्वत: परिपूर्ण है, उसमें किसी प्रकार की प्रार्थना विहित नहीं है, क्योंकि प्रार्थना की पूर्ति के लिए भगवान को कष्ट उठाना है। भक्त भगवान को कष्ट देना सहन नहीं कर सकता। पुष्टि-भक्ति में प्रेम को गोप्य रखना आवश्यक है, अत: अहंकार न पैदा हो जाय, इसलिए प्रेम छिपाने के लिए दम्भ करना पड़ता है। कर्मकाण्ड की नितान्त उपेक्षा प्रेम-भक्ति का लक्षण है। इस मार्ग में साधु-संन्यासी नहीं होते हैं, धार्मिक आचार्य भी पूर्ण गृहस्थ होते हैं। इसमें त्याग का नहीं, समर्पण का महत्त्व है। समर्पण से ही मानसिक वैराग्य दृढ़ होता है। सदाचार का भी इसमें कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं हैं, क्योंकि भगवन्मय जीवन में वह स्वत: सिद्ध है। इस प्रकार पुष्टिमार्ग एक प्रवृत्ति-मार्ग है, जिसमें मानसिक निवृत्ति पर ही विशेष बल दिया गया है। पुष्टिमार्ग प्रस्थान-त्रयी के स्थान पर 'प्रस्थान-चतुष्टय' मानता है, क्योंकि व्यास की; समाधिभाषा'- 'भागवत' उसका प्रधान आधार-ग्रन्थ है। | |||
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07:59, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
वल्लभ संप्रदाय
| |
विवरण | 'वल्लभ सम्प्रदाय' हिन्दुओं के वैष्णव सम्प्रदायों में से एक है। वल्लभाचार्य ने अपने शुद्धाद्वैत दर्शन के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया था। |
अन्य नाम | 'वल्लभ मत', 'पुष्टिमार्ग' |
संस्थापक | वल्लभाचार्य |
भक्ति के प्रकार | 'मर्यादाभक्ति' तथा 'पुष्टिभक्ति' |
विशेष | वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना समय की आवश्यकता का अनुभव करके की थी। अपने 'कृष्णश्रय' नामक प्रकरण-ग्रन्थ में उन्होंने उस समय का विशद चित्रण किया है। |
संबंधित लेख | हिन्दू धर्म, वल्लभाचार्य, वैष्णव सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय |
अन्य जानकारी | जो भक्त साधन निरपेक्ष हो, भगवान के अनुग्रह से स्वत: उत्पन्न हो और जिसमें भगवान दयालु होकर स्वत: जीव पर दया करें, वह 'पुष्टिभक्ति' कहलाती है। ऐसा भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। |
पुष्टिमार्ग / वल्लभ सम्प्रदाय
वल्लभ सम्प्रदाय भक्ति का एक संप्रदाय, जिसकी स्थापना महाप्रभु वल्लभाचार्य ने की थी। इसे 'वल्लभ संप्रदाय' या 'वल्लभ मत' भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु से भी पहले 'पुष्टिमार्ग' के संस्थापक वल्लभाचार्य राधा की पूजा करते थे, जहां कुछ संप्रदायों के अनुसार, भक्तों की पहचान राधा की सहेलियों (सखी) के रूप में होती है, जिन्हें राधाकृष्ण के लिए अंतरंग व्यवस्था करने के लिए विशेषाधिकार प्राप्त होता है। अपने वैष्णव सहधर्मियों के साथ राधावल्लभी, भागवतपुराण के प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं, लेकिन कुछ अंतरंगता जो राधा और गोपियों के साथ रिश्तों की परिधि के बाहर है, वह इस सम्प्रदाय के दर्शन में शामिल नहीं है।
संस्थापक
वल्लभाचार्य ने अपने शुद्धाद्वैत दर्शन के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया, जो भक्त साधन निरपेक्ष हो, भगवान के अनुग्रह से स्वत: उत्पन्न हो और जिसमें भगवान दयालु होकर स्वत: जीव पर दया करें, वह 'पुष्टिभक्ति' कहलाती है। ऐसा भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह आराध्य के प्रति आत्मसमर्पण करता है। इसको 'प्रेमलक्षणा भक्ति' भी कहते हैं। ऐसी भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ बताई गई है।
भक्ति के प्रकार
भागवत पुराण के अनुसार भगवान् का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है।[1] आचार्य वल्लभ ने इसी भाव के आधार पर अपना पुष्टिमार्ग चलाया। इसका मूल सूत्र उपनिषदों में पाया जाता है। कठोपनिषद में कहा गया है कि परमात्मा जिस पर अनुग्रह करता है उसी को अपना साक्षात्कार कराता है। वल्लभाचार्य ने जीव आत्माओं को परमात्मा का अंश माना है जो चिंगारी की तरह उस महान् आत्मा से छिटके हैं। यद्यपि ये अलग-अलग हैं तथापि गुण में समान हैं। इसी आधार पर वल्लभ ने अपने या पराये शरीर को कष्ट देना अनुचित बताया है। पुष्टिमार्ग में परमात्मा की कृपा के शम-दमादि बहिरंग साधन हैं और श्रवण, मनन, निदिध्यासन अन्तरंग साधन। भगवान में चित्त की प्रवणता सेवा है और सर्वात्मभाव मानसी सेवा है। आचार्य की सम्मति में भगवान का अनुग्रह (कृपा) ही पुष्टि है। भक्ति दो प्रकार की है-
- मर्यादाभक्ति
- पुष्टिभक्ति
मर्यादाभक्ति - इस में शास्त्रविहित ज्ञान और कर्म की अपेक्षा होती है। वेद-विहित कर्म का अनुसरण करना तथा ज्ञानप्राप्ति का प्रयत्न करना मर्यादा मार्ग कहा जाता है।
पुष्टिभक्ति - भगवान के अनुग्रह से जो भक्ति उत्पन्न होती है, वह पुष्टिभक्ति कहलाती है। ऐसा भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त और किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण करता है। इसको प्रेमलक्षणा भक्ति भी कहते हैं। नारद ने इस भक्ति को कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ बतलाया है। उनके अनुसार यह भक्ति साधन नहीं, स्वत: फलरूपा है। पुष्टिमार्ग की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए [2] श्रुति को उद्धृत किया जाता है, जिसमें आत्मा की उपलब्धि केवल कृपा के द्वारा बतायी गयी है। [3] कठोपनिषद में भी भगवान के प्रसाद से ही आत्मदर्शन सम्भव बताया गया है।
भगवान के स्वरूप
श्रीमद्भागवत में तो भगवान के अनुग्रह की महिमा स्थान-स्थान पर बतायी गयी है। शुद्धाद्वैत के अनुसार ब्रह्म सत, चित और आनन्द-स्वरूप है। उसके मुख्य तीन स्वरूप हैं-
- पूर्ण पुरुषोत्तम रस अथवा आनन्दस्वरूप परंब्रह्म श्रीकृष्ण रूप
- अक्षर ब्रह्म, जो गणितानन्द है और वह पुन: दो प्रकार के रूपों में परिणत होता है- एक पूर्ण पुरुषोत्तम का अक्षर धाम और दूसरा काल, कर्म, स्वभावरूप में प्रकट होने वाले, प्रकृति, जीव तथा अनेक देवी-देवताओं का रूप
- अन्तर्यामी रूप
मर्यादा-मार्ग अक्षर ब्रह्म की वाणी से उत्पन्न हुआ है, उसका साधक ज्ञान के द्वारा अक्षर-धाम की मुक्ति को ही ध्येय बनाता है। इस मार्ग में भगवान साधन-परतन्त्र रहता हैं, अर्थात साधक के वेद मर्यादित साधनों के अनुसार ही फल देता है। मर्यादा की रक्षा करना उसके लिए आवश्यक होता है, परन्तु पुष्टिमार्ग साक्षात पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के शरीर से उत्पन्न हुआ है। उसका अनुयायी आत्मसमर्पण-युक्त रसात्मक प्रेम के द्वारा भगवान की आनन्दलीला में लीन होने का इच्छुक होता है। पुष्टिमार्ग एकमात्र भगवान के अनुग्रह पर निर्भर है।
अवतार
भगवान जीवों पर अनुग्रह करने के लिए ही अवतार रूप में प्रकट होते हैं। उनके अवतार धारण करने का हेतु साधुओं का परित्राण या दुष्टों का विनाश नहीं, वरन् साधन-निरेपक्ष मुक्ति प्रदान करना है। उनका यह अनुग्रह भी उनकी लीला मात्र है, जिसका उससे बाह्य कोई अन्य प्रयोजन नहीं है। वह उनकी नित्यलीला का एक प्रमुख रूप है। इस अनुग्रह पर आश्रित पुष्टिभक्ति नवधा भक्ति से भिन्न है। नवधा भक्ति साधन-भक्ति या मर्यादा-भक्ति है, असमें भजन, पूजन आदि की अपेक्षा होती है। पुष्टिभक्ति रागात्मिका या रागानुगा भक्ति है, जो भगवत कृपा से प्राप्त भगवत प्रेम पर ही आश्रित है। इसीलिए इसे प्रेम-लक्षणा भक्ति कहते हैं।
जीव को भगवान के अनुग्रह या पोषण की आवश्यकता क्यों होती है, इसका उत्तर वल्लभाचार्य ने जीवसृष्टि का स्वरूप समझाते हुए दिया है। लीला-विलास के लिए ब्रह्म की जब एक से अनेक होने की इच्छा होती है, तब अक्षर-ब्रह्म के अंश रूप असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। सच्चिदानन्द अक्षर ब्रह्म के चित अंश से असंख्य निराकार जीव, सत अंश से जड़ प्रकृति तथा आनन्द अंश से अन्तर्यामी रूप अग्नि से स्फुलिंग निकलने की तरह प्रकट होते हैं। जीव में केवल सत और चित अंश होता है, आनन्द अंश तिरोहित रहता है। इसी कारण वह भगवान के छ: गुणों-ऐर्श्वय, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- से हीन होता है, परिणामस्वरूप वह दीन, हीन, पराधीन, दु:खी , जन्म-मरण के दोष से युक्त, अंहकारी, विपरीत ज्ञान में भ्रमित और आसक्तिग्रस्त रहता है। यही उसकी क्षीणता या दुर्बलता है। भगवान् अपने अनुग्रह से उसे पुष्ट करते हैं, उसकी क्षीणता दीनता में बदल जाती है। परन्तु सभी जीव इस अनुग्रह या पोषण के अधिकारी नहीं बन सकते।
जीवों के प्रकार
उपरोक्त सम्बन्ध में वल्लभाचार्य ने जीवों के प्रकार-भेद गिनाये हैं प्रथमत: जीव दो प्रकार के होते हैं-
- दैवी
- आसुरी
- दैवी जीव पुन: दो प्रकार के होते हैं-
- पुष्टिजीव
- मर्यादाजीव
- पुन: पुष्टिजीव चार प्रकार के दोते हैं-
- शुद्धपुष्ट
- पुष्टिपुष्टि
- मर्यादापुष्ट
- प्रवाहपुष्ट
ये ही चार प्रकार के पुष्टिजीव भगवान् की सेवा (भक्ति) के अधिकारी होते हैं। उनका जन्म ही सेवा के हेतु होता है। मर्यादाजीव पूर्ण पुरुषोत्तम की सेवा (भक्ति) के योग्य नहीं होते। वे जैसा कि पहले बताया जा चुका है, केवल कर्म और ज्ञान द्वारा स्वर्गादि लोक या अक्षर-सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। आसुरी जीव प्रवाहशील होते हैं। इनमें से यज्ञ आसुरी जीव तो भगवान के प्रति उत्कट वैर-भाव रखने के फलस्वरूप संहार के द्वारा उद्धार प्राप्त करते हैं, परन्तु दुष्ट आसुरी जीवों का कभी उद्धार नहीं होता, वे निरन्तर जन्म-मरण के बन्धन में पड़े रहते हैं। पुष्टिजीवों में शुद्ध पुष्टिजीव तो नित्य और मुक्त होते हैं, वे भगवान् के षड्गुण अप्राकृत शरीर से भगवान् की नित्य सेवा का आनन्दलाभ करते हैं। अवतार-दशा में वे भी भगवान् के साथ अवतरित होते हैं, उनकी स्थिति सिद्ध अवस्था की होती है। शेष तीन प्रकार के पुष्टिजीवों की भक्ति तीन प्रकार की होती है और वे उसी के अनुसार पुन: पुष्टि-पुष्टि, मर्यादापुष्ट और प्रवाहपुष्ट-तीन प्रकार के होते हैं। भगवानि के आनन्दकाय से उत्पन्न ये पुष्टिजीव भी पाप और अहन्ता-ममतामय संसार में लिप्त हो सकते हैं, परन्तु उनमें भक्ति का बीच सहज ही अंकुरित हो जाता है जो फलीभूत होकर अन्त में उन्हें अभीष्ट की प्राप्ति कराता है। सर्वभाव से भगवान की कृपा पर ही निर्भर रहते हुए वे आनन्दरूप श्रीकृष्ण की आराधना में रत रहते हैं और चातक की तरह अनन्य भाव से निरन्तर उन्हीं का ध्यान करते रहते हैं। इसी प्रेमभक्ति के आधार पर अंशरूप जीव अंशी ब्रह्म के साथ जो सम्बन्ध स्थापित करता है, वही ब्रह्म-सम्बन्ध है।
दीक्षा तथा सेवा
पुष्टिमार्ग में दीक्षित होते समय ही भक्त गुरु के आदेश से 'श्रीकृष्ण: शरणं मम' मंन्त्र का उच्चारण करके श्रीकृष्ण को अपने तन,मन,धन,पुत्र कलत आदि के समर्पण का संकल्प करता है और इस प्रकार समस्त सांसारिक दोषों से निवृत्ति प्राप्त करता है। इसके बाद भक्त किसी भी वस्तु को भगवान को समर्पित किये बिना ग्रहण नहीं कर सकता। इस सर्वात्मसमर्पण के भाव को दृढ़ करके तीन प्रकार की सेवा की जाती है-
- तनुजा, अर्थात् अपने तथा अपने पुत्र, स्त्री आदि के शरीर को भगवत् की सेवा में लगाना
- वित्तजा, अर्थात् धन, यश आदि को भगवान् के निमित्त अर्पित करना
- मानसी, अर्थात् मन का निरोध करके निरन्तर भगवान में लीन रखना
'मानसी' सेवा ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और कठिन है। वल्लभाचार्य ने भक्ति के सामान्य लक्षणों में प्रेम-भक्ति के साथ-साथ भगवान् के माहात्म्य के ज्ञान और उसके निरन्तर ध्यान का भी उल्लेख किया है- "माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुदृढ: सर्वतोधिक:। स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तस्तया मुक्तर्न चान्यथा"[4] तथा योग आदि को भी प्रारम्भिक स्थिति में स्वीकृति दी है। परन्तु वस्तुत: पुष्टिमार्गीय भक्ति ऐकान्तिक और एकात्मक है। श्रवणकीर्तनादि नवधा भक्ति का अन्तिम सोपान आत्मसमर्पण उसका प्रथम सोपान है। भक्तों के सत्संग, उनके चरित्रों के श्रवण-मनन आदि से आत्मसमर्पण का भाव दृढ़ होता है। इस प्रकार निरन्तर अभ्यास से जब भगवान के प्रति माहात्म्यज्ञानयुक्त उत्कट प्रेम दृढ़ हो जाता है, तभी समझना चाहिये कि भगवान का अनुग्रह प्राप्त हो गया। यह प्रेम वियोग का अनुभव प्राप्त होने पर और अधिक प्रबल होता जाता है तथा मन में श्रीकृष्ण-मिलन की आकांक्षा और अधिक तीव्र होती जाती है।
आसक्ति
श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-विरह की दैन्यपूर्ण विकलता के अनुभव से संसार का मोह नष्ट हो जाता है और उसे संसार के प्रति अनासक्ति हो जाती है। इस स्थिति को पुष्टिमार्गीय परिभाषा में रागविनाश की स्थिति है। इस स्थिति में गृहादि से अरुचि हो जाती है तथा स्त्री-पुरुष आदि सांसारिक सम्बन्ध बंध्य प्रतीत होने लगते हैं। आसक्ति कई प्रकार की होती हैं। 'नारदभक्ति-सूत्र' में वर्णित एकादश आसक्तियों को इस सम्बन्ध में उद्धृत किया जाता है-
- गुणासक्ति या माहात्म्यासक्ति
- रूपासक्ति
- पूजासक्ति
- स्मरणासक्ति
- दास्यासक्ति
- सख्यासक्ति
- कान्तासक्ति
- वात्सल्यासक्ति
- आत्मनिवेदनासक्ति
- तन्मयतासक्ति
- परम विरहासक्ति
वस्तुत: ये आसक्तियाँ विकासक्रम के अनुसार ही गयी हैं। माहात्म्यासक्ति आसक्ति की प्रारम्भिक अवस्था है तथा परमविरहासक्ति अन्तिम। आसक्ति के उपरान्त विकास की तीसरी स्थिति व्यसन कहलाती है। इसी को निरोध या आत्मविस्मृति की स्थिति व्यसन कहलाती है। इसी को निरोध या आत्मविस्मृति की स्थिति भी कहते हैं, जो प्रेम-भक्ति की अन्तिम और पूर्ण परिणति है। इस स्थिति में एक प्रकार से आत्मा का नाश हो जाता है, अत: उसे आत्म-निवृत्ति भी कहते हैं। भक्त का भगवान् के साथ प्रेममय एकीकरण हो जाता है। वह प्रेम के लिए ही प्रेम करता है तथा उसका प्रत्येक अनुभव ठीक उसी प्रकार होता है, जैसा कि स्वयं भगवान का अनुभव हो सकता है।
यह पुष्टिमार्गीय प्रेम-लक्षणा भक्ति 'शाण्डिल्यभक्तिसूत्र' के शब्दों में 'परानुरक्तिरीश्वरे' ईश्वर में अति अनुरक्ति या 'नारदभक्तिसूत्र' की शब्दावली में "सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च' कही गयी है। प्रेम के अनेक भाग हैं, अत: भक्ति की किसी भी भाव से की जा सकती है। भक्ति के भाव-विस्तार को इतना व्यापक माना गया है कि भागवत के "कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते" के अनुसार काम, क्रोध, भय, स्नेह, ऐक्य अथवा सौहार्द किसी भाव से नित्य ध्यान धरने से भगवन्मय होने का विश्वास प्रकट किया गया है। सूरदास ने भागवत के उक्त वचन का प्रमाण देते हुए गोपियों की कान्तारति की व्याख्या की है-
"काम क्रोध में नेह सुहृदता कोई विधि करै कोई। धरैं ध्यान हरि को जो हट करि सूर सो हरि सों होई"।
वल्लभाचार्य ने 'सुबोधिनी' में उक्त श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखा है कि काम स्त्री-भाव में, क्रोध शत्रु-भाव में, भय वधिक-भाव में, स्नेह संम्बन्धियों के भाव में, ऐक्य ज्ञान-अवस्था में और सौहार्द सख्य-भाव में होता है; किसी भी भाव से भजन करने से वह भाव भगवन्मय हो जाता है। परन्तु वल्लभाचार्य ने गोवर्धन के मन्दिर में श्रीनाथजी की सेवा-पद्धति की जो व्यवस्था की थी, वह बालभाव की थी। आज भी वह परम्परा सम्प्रदाय में चली आ रही है। सूरदास और परमानन्ददास को सम्प्रदाय में दीक्षित करते समय उन्होंने गोपाल कृष्ण के ही वात्सल्यभाव के पद गाने का आदेश दिया था। इससे भी प्रमाणित होता है कि पुष्टिमार्ग में प्रारम्भ में वात्सल्यभाव की भक्ति का ही विशेष माहात्म्य था। परन्तु वल्लभाचार्य ने सख्य और कान्तारति को स्वीकार न किया हो, यह बात नहीं है। एक स्थल पर स्वयं उन्होंने यह आकांक्षा व्यक्त की है कि मेरे हृदय में गोपियों के विरह का दु:ख पैदा हो जाय। उनके भक्तों, विशेषत: सूरदास, परमानन्ददास आदि की रचनाओं में तो सख्य और कान्तारति का बहुत अधिक विस्तार है और उससे असन्दिग्ध रूप में प्रमाणित हो जाता है कि पुष्टिमार्गीय भक्ति-पद्धति में कम-से-कम गोसाई विट्ठलनाथ के समय सख्य और कान्तारति का माहात्म्य कहीं अधिक हो गया था।
श्रीनाथजी की दैनिक सेवाएँ
'वार्ता' के अनुसार सूरदास, परमानन्ददास और कुम्भनदास- वल्लभाचार्य के तीनों प्रधान शिष्य निकुंजलीला का ही ध्यान करते हुए राधाभाव में तन्मय होकर गोलोक सिधारे थें। महाप्रभु वल्लभाचार्य चैतन्य महाप्रभु के समकालीन थे। चैतन्य के साथ उनकी दो-एक बार भेंट हुई थी तथा उन्होंने गौड़ीय वैष्णवों को श्रीनाथजी की सेवा में नियुक्त किया था। अत: यह स्वाभाविक है कि वे चैतन्य के गौड़ीय सम्प्रदाय में प्रचलित कान्तारति और गोपीभाव की महत्ता से भली भाँति परिचित थे। उनके समकालीन राधावल्लभी और हरिदासी वैष्णव सम्प्रदाय भी लोकप्रिय हो रहे थे। इनमें कान्तारति की एकान्त रूप से मान्यता थी। अत: अपने सम्प्रदाय में वात्सल्यभाव की भक्ति-पद्धति प्रतिष्ठित करते हुए उन्होंने कान्ताभाव की सम्भावनाओं को अवश्य स्वीकार किया होगा। फिर भी श्रीनाथजी की आठ दैनिक सेवाओं-
- मंगलादर्शन
- श्रृंगार
- गोचारण
- राजभोग
- राजभोग
- उत्थापन
- भोग
- सन्ध्या
- शयन
इनमें आरती के साथ श्रीनाथ जी के नित्यकर्मो का विधान है, कान्ताभाव की सेवा का समावेश नहीं है। वल्लभाचार्य ने राधा को भी मान्यता नहीं दी थी, किन्तु उनके द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ ने श्रीनाथजी की सेवा के मण्डन में राधा को भी दैनिक सेवाओं में तो नहीं, ब्रह्मोत्सवों के रूप में सम्मिलित किया। श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव की तरह राधा का जन्मोत्सव भी मनाया जाने लगा। कदाचित विट्ठलनाथ के समय में मधुर भाव की भक्ति का प्रभाव गौड़ीय, राधावल्लभी और हरिदासी सम्प्रदायों के प्रभाव से बहुत अधिक हो गया था और यही कारण है कि सूरदास तथा अन्य सभी अष्टछाप के कवियों की रचनाओं में राधा तथा राधा-कृष्ण के युगल रूप की भक्ति से सम्बन्धित पदों की प्रचुरता है।
विट्ठलनाथ ने 'स्वामिन्यष्टक', 'स्वामिनीस्तोत्र' तथा 'श्रृंगाररसमण्डन' की रचना करके राधा तथा दाम्पत्य रति की महत्ता प्रतिपादित की है। यद्यपि पुष्टिमार्ग में रागानुगा भक्ति की उस प्रकार की विवेचना नहीं मिलती, जैसी गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के 'भक्तिरसामृतसिन्धु' और उज्ज्वलनीलमणि' आदि ग्रन्थों में मिलती है, फिर भी इस सम्प्रदाय की भक्ति-पद्धति और अनुयायी कवियों की, विशेष रूप से सूरदास की कृतियों कसे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि पुष्टिमार्ग में भी दास्य, वात्सल्य, साख्य और माधुर्य, चारों प्रकार की रति भक्ति-पद्धति में समाविष्ट है तथा भावावेश और घनिष्ठता की दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्व माधुर्य भाव की कान्तारति का ही है, जिसकी आदर्श स्वयं स्वामिनी राधा जी हैं। पुष्टिमार्ग के आदर्श भक्त नन्द, यशोदा, गोप और गोपी हैं, जिन्होंने अपने-अपने भाव के अनुसार भक्ति प्राप्त की थी। भक्ति का माधुर्य भाव अलौकिक काम-भावना है, जिसमें वासना का अभाव है। यह भाव भगवान की असीम कृपा से ही प्राप्त होता है।
पुष्टिमार्गीय भक्ति
पुष्टिमार्गीय भक्ति स्वत: पूर्ण है। भक्ति के अतिरिक्त भक्त को और किसी बात की आकांक्षा नहीं होती। फिर भी, भक्ति सिद्ध हो जाने पर भक्त को अनायास और अकस्मात अलौकिक सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है। स्वयं भगवान भक्त को अपना स्वामी मानने लगते हैं भगवान के साथ एकीकरण तथा सेवा-उपयोगी देह-पुष्टिभक्ति के ये ही फल कहे जा सकते हैं। सेवा के सम्बन्ध में ऊपर कुछ उल्लेख किया गया है। वस्तुत: सच्ची सेवा तो भक्ति ही है। परन्तु पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में सेवा के रूप में बहुत-सा कर्मकाण्ड तथा प्रचुर विधि-विधान विकसित हो गया है। आठ दैनिक सेवाओं का ऊपर उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त अनेक व्रतोत्सवों और वर्षोत्सवों के रूप में विशेष 'सेवाएँ' भी होती रहती हैं।
- 'सेवा' के अवसरों पर श्रीनाथजी का श्रृंगार किया जाता है
- उनका मन्दिर सजाया जाता है
- उनका वेश-विन्यास होता है
- उनकी आरती की जाती है
- तरह-तरह के उत्सवों तथा मनोरंजनों का आयोजन होता है।
आरती तथा राग
पुष्टिमार्ग में भगवान के परमानन्दरूप को उपास्य माना गया है। वे सौन्दर्य, आनन्द और रस के आगार हैं। अत: पुष्टि-मार्गीय मन्दिरों की 'सेवा' के विकासक्रम में अनेक कलाओं को प्रोत्साहन मिला है। पाककला पर ही पुष्टिमार्ग में प्रचुर साहित्य तैयार हुआ है और मन्दिरों में भिन्न-भिन्न समयों पर जो भोग तैयार होता है, उसकी प्रशंसा कर सकना कठिन है। वेश-विन्यास, गृह-प्रसाधन, संगीत और काव्य, सभी को पुष्टिमार्गीय तत्त्वावधान और संरक्षण में अभूतपूर्व उन्नति करने का अवसर मिला। प्रत्येक अवसर की आरती के लिए विभिन्न रागों का निर्देश किया गया है, जैसे-
- मंगल आरती पर भैरव, विभास, रामकली- वीणा, सितार आदि के साथ
- फिर लगभग 9 बजे श्रृंगार के समय बिलावल
- मध्याह्न राजभोग के समय सारंग
- अपराह्न उत्थापन के समय सोरठ
- फिर भोग के समय गौड़ी और पूर्वी
- उसके अनन्तर यमन और फिर विहाग। अष्टछाप कवियों को इन्हीं अवसरों के लिए प्रतिदिन नये पद रचकर गाने की प्रेरणा मिलती रही होगी। विशेष अवसरों-व्रतोत्सवों आदि के लिए वे विशेष रचना करते होंगे।
पुष्टिमार्ग के अंग
पुष्टिमार्ग के तीन प्रमुख अंग हैं-
- ब्रह्मवाद
- आत्मनिवेदन
- भगवत्सेवा
वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना समय की आवश्यकता का अनुभव करके की थी। अपने 'कृष्णश्रय' नामक प्रकरण-ग्रन्थ में उन्होंने उस समय का विशद चित्रण किया है। समस्त देश म्लेच्छाकान्त था, गंगादि तीर्थ भ्रष्ट हो रहे थे, उनके अधिष्ठाता देवता अन्तर्धान हो गये थे, वेद-ज्ञान का लोप हो गया था, यज्ञ-याग का अनुष्ठान सम्भव नहीं था। ऐसे अवसर पर भक्ति का मार्ग ही एकमात्र शेष रह गया था। उन्होंने भक्ति का मार्ग राजमार्ग के समान प्रशस्त बनाया और उस पर उन सबको भी चलने के लिए आमन्त्रित किया, जो धर्म के अधिकारी नहीं समझ जाते थे। फलत: पुष्टिमार्ग में ब्राह्मण से लेकर शूद्र तक सभी श्रेणियों और वर्गों के स्त्री और पुरुष सम्मिलित हुए। हिन्दू ही नहीं, कुछ मुसलमानों ने भी भक्ति का यह सहज मार्ग ग्रहण किया और कृष्ण-भक्ति के आन्दोलन को व्यापकता प्रदान की। संक्षेप में पुष्टिमार्गीय भक्ति सहज, निष्काम प्रेमभक्त है, जिसे भगवदनुग्रह का प्रत्यावर्तित रूप कह सकते हैं, क्योंकि वह एकमात्र भगवत्कृपा पर ही आश्रित है। प्रेम-भक्ति स्वत: परिपूर्ण है, उसमें किसी प्रकार की प्रार्थना विहित नहीं है, क्योंकि प्रार्थना की पूर्ति के लिए भगवान को कष्ट उठाना है। भक्त भगवान को कष्ट देना सहन नहीं कर सकता। पुष्टि-भक्ति में प्रेम को गोप्य रखना आवश्यक है, अत: अहंकार न पैदा हो जाय, इसलिए प्रेम छिपाने के लिए दम्भ करना पड़ता है। कर्मकाण्ड की नितान्त उपेक्षा प्रेम-भक्ति का लक्षण है। इस मार्ग में साधु-संन्यासी नहीं होते हैं, धार्मिक आचार्य भी पूर्ण गृहस्थ होते हैं। इसमें त्याग का नहीं, समर्पण का महत्त्व है। समर्पण से ही मानसिक वैराग्य दृढ़ होता है। सदाचार का भी इसमें कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं हैं, क्योंकि भगवन्मय जीवन में वह स्वत: सिद्ध है। इस प्रकार पुष्टिमार्ग एक प्रवृत्ति-मार्ग है, जिसमें मानसिक निवृत्ति पर ही विशेष बल दिया गया है। पुष्टिमार्ग प्रस्थान-त्रयी के स्थान पर 'प्रस्थान-चतुष्टय' मानता है, क्योंकि व्यास की; समाधिभाषा'- 'भागवत' उसका प्रधान आधार-ग्रन्थ है। [5]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'पोषणं तदनुग्रह:' भागवत पुराण (2 / 10)
- ↑ 'मुण्डकोपनिषद' की 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य:'
- ↑ 'कठोपनिषद' (1/ 2/ 20)
- ↑ तत्त्वदीप-निबन्ध शा0 प्र0, 46
- ↑ [सहायक ग्रन्थ-
- अणुभाष्य : वल्लभाचार्य;
- श्रीसुबोधिनी: वल्लभाचार्य;
- तत्त्वदीप-निबन्ध: सम्प्रदाय प्रदीप: गदाधरदास द्विवेदी,
- अष्टछाप और वल्लभसम्प्रदाय: दीनदयालु गुप्त
- भागवत धर्म : बलदेव उपाध्याय।]
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