"नरकासुर": अवतरणों में अंतर
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'''नरकासुर''' पुराणानुसार एक प्रसिद्ध [[असुर]] था, जिसे [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] के गर्भ से उत्पन्न विष्णुपुत्र कहा जाता है। यह [[वराह अवतार]] के समय पैदा हुआ था, जब [[विष्णु]] ने पृथ्वी का उद्धार किया था।<ref>भागवत 10.59.14-30; 65(5) 1.</ref> अत: यह पृथ्वी का पुत्र था। नरकासुर [[बाणासुर]] की संगति में पड़कर दुष्ट हो गया था, जिस कारण [[वसिष्ठ]] ने इसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दे दिया। | |||
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12:58, 18 जुलाई 2013 का अवतरण
नरकासुर पुराणानुसार एक प्रसिद्ध असुर था, जिसे पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न विष्णुपुत्र कहा जाता है। यह वराह अवतार के समय पैदा हुआ था, जब विष्णु ने पृथ्वी का उद्धार किया था।[1] अत: यह पृथ्वी का पुत्र था। नरकासुर बाणासुर की संगति में पड़कर दुष्ट हो गया था, जिस कारण वसिष्ठ ने इसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दे दिया।
परिचय
जब लंका का राजा रावण मारा गया, उस समय पृथ्वी के गर्भ से उसी स्थान पर नरकासुर का जन्म हुआ, जहाँ जानकी (सीता) का जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु तक राजा जनक ने इसे पाला था। बाद में पृथ्वी इसे ले गई और विष्णु ने इसे प्राग्ज्योतिषपुर का राजा बना दिया। नरकासुर मथुरा के राजा कंस का असुर मित्र था।[2] विदर्भ की राजकुमारी माया से इसका विवाह हुआ और विवाह के समय भगवान विष्णु ने इसे एक दुर्भेथ रथ दिया।
बाणासुर की संगति
कुछ दिनों तक तो नरकासुर ठीक से राज्य करता रहा, किन्तु बाणासुर की संगति में पड़कर यह दुष्ट हो गया। अब वसिष्ठ ने इसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दे दिया। किंतु नरकासुर ने तपोबल से ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वर पाया कि उसे देवता, असुर, राक्षस आदि कोई भी नहीं मार सकेगा और उसका राज्य सदा ही बना रहेगा। नरकासुर द्विविद नामक एक वानर का भी मित्र था।[3] नरकासुर ने हयग्रीव, सुंद आदि की सहायता से देवराज इन्द्र को जीता, वरुण का छाता और अदिति के कुंडल ले भागा तथा घोर अत्याचार करने लगा।
वध
नरकासुर के अत्याचारों से ग्रस्त इन्द्र ने कृष्ण से कहा- "भौमासुर (नरकासुर) अनेक देवताओं का वध कर चुका है, कन्याओं का बलात्कार करता है। उसने अदिति के अमृतस्त्रावी दोनों दिव्य कुण्डल ले लिये हैं, अब मेरा 'ऐरावत' भी लेना चाहता है। उससे उद्धार करो।" कृष्ण ने आश्वासन देकर नरकासुर पर आक्रमण किया। उन्होंने सुदर्शन चक्र से उसके दो टुकड़े कर दिए, अनेक दैत्यों को मार डाला। भूमि ने प्रकट होकर कृष्ण से कहा- "जिस समय वराह रूप में आपने मेरा उद्धार किया था, तब आप ही के स्पर्श से यह पुत्र मुझे प्राप्त हुआ था। अब आपने स्वयं ही उसे मार डाला हैं। आप अदिति के कुण्डल ले लीजिए, किंतु नरकासुर के वंश की रक्षा कीजिए।" कृष्ण ने युद्ध समाप्त कर दिया तथा कुण्डल अदिति को लौटा दिये।[4] नरकासुर के भंडार में कुबेर की सम्पत्ति से भी अधिक धन था और अनेक राजकुमारियाँ उसके बंदीगृह में बन्द थीं। इन राजकुमारियों को श्रीकृष्ण द्वारिका ले आये थे।[5] अहंकार के कारण ही नरकासुर अपनी शक्ति, अधिकार तथा सारा राज्य खो बैठा था।[6]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 10.59.14-30; 65(5) 1.
- ↑ भागवत 10.2.2; 36.63
- ↑ भागवत 10.67.2; 69(3) 1.
- ↑ ब्रह्म पुराण, 202 ।-विष्णु पुराण, 5।29
- ↑ भागबत 8.10.33
- ↑ भागवत 10.59.14-22; 37.16;1.10.29
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