"छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6 खण्ड-9 से 13": अवतरणों में अंतर
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13:43, 13 अक्टूबर 2011 का अवतरण
- छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय छठा का यह नौवें से तेरहवें खण्ड तक है।
- ब्रह्म की सर्वव्यापकता
इन खण्डों में विविध पदार्थों के माध्यम से 'ब्रह्म की सर्वव्यापकता' को सिद्ध किया गया है। ब्रह्मऋषि उद्दालक अपने पुत्र से कहते हैं कि जिस प्रकार मधुमक्खियां विभिन्न पुष्पों से मधु एकत्र करती हैं और जब वह मधु एकरूप हो जाता है, तब यह कहना कठिन है कि अमुक मधु किस पुष्प का है या उसे किस मधुमक्खी ने संचित किया है। इसी प्रकार जो 'ब्रह्म' को जान लेता है, वह स्वयं को ब्रह्म से अलग नहीं मानता।
श्वेतकेतु के पुन: पूछने पर उन्होंने दूसरा उदाहरण नदियों का दिया। जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम की ओर बहने वाली नदियां समुद्र में जाकर मिल जाती हैं और अपना अस्तित्त्व समाप्त कर देती है, तब वे सागर के जल में विलीन होकर नहीं कह कसतीं कि वह जल किस नदी का है। उसी प्रकार उस परम 'सत्व' से प्रकट होने के उपरान्त, समस्त जीवात्माएं उसी 'सत्व' में विलीन होकर अपना व्यक्तिगत स्वरूप नष्ट कर देती हैं। सागर की भांति 'ब्रह्म' का भी यही स्वरूप है।
पुन: समझाने का आग्रह करने पर उन्होंने वृक्ष के दृष्टान्त से समझाया। वृक्ष की जड़ पर, मध्य में या फिर शीर्ष पर प्रहार करने से रस ही निकलता है। यह रस उस परम शक्ति के होने का प्रमाण है। यदि वह उसमें न होता, तो वह वृक्ष और उसकी डालियां सूख चुकी होतीं। इसी प्रकार यह वृक्ष-रूपी शरीर जीवनतत्त्व से रहित होने पर नष्ट हो जाता है, परन्तु जीवात्मा का नाश नहीं होता। ऐसे सूक्ष्म भाव से ही यह सम्पूर्ण जगत है। यह सत्य है और तुम्हारे भीतर विद्यमान 'आत्मा' भी सत्य और 'सनातन ब्रह्म' का ही अंश है।
इसके बाद ब्रह्मऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु से एक महान वटवृक्ष से एक फल तोड़कर लाने को कहा। फल लाने के बाद उसे तोड़कर देखने को कहा और पूछा कि इसमें क्या है? श्वेतकेतु ने कहा कि इसमें दाने या बीज हैं। फिर उन्होंने बीज को तोड़ने के लिए कहा। बीज के टूटने पर पूछा कि इसमें क्या है? इस पर श्वेतकेतु ने उत्तर दिया कि इसके अन्दर तो कुछ नहीं दिखाई दे रहा। तब ऋषि उद्दालक ने कहा-'हे सौम्य! इस वटवृक्ष का यह जो अणुरूप है, उसके समान ही यह सूक्ष्म जगत है। वही सत्य है, वही सत्य तुम हो। उसी पर यह विशाल वृक्ष खड़ा हुआ है।'
श्वेतकेतु द्वारा और स्पष्ट करने का आग्रह करने पर ऋषि उद्दालक ने नमक के उदाहरण द्वारा उसे समझाया। उन्होंने नमक की एक डली मंगाकर पानी में वह नमक की डली पानी में निकालकर उसे दे दे, परन्तु वह उसे नहीं निकाल सका। फिर उन्होंने उसे ऊपर से, बीच से और नीचे से पीने के लिए कहा, तो उसने कहा कि यह सारा पानी नमकीन है। तब ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझाया कि जिस प्रकार वह नमक सारे पानी में घुला हुआ हैं और तुम उसे अलग से नहीं देख सकते, उसी प्रकार तुम उस परम सत्य 'ब्रह्म' के रूप को अनुभव तो कर सकते हो, पर उसे देख नहीं सकते। यह सम्पूर्ण जगत भी अतिसूक्ष्म रूप से 'सत्यतत्त्व' आत्मा में विद्यमान है। यही 'ब्रह्म' है। जब तक यह तुम्हारी देह में विद्यमान है, तभी तक तुम स्वयं भी 'सत्य' हो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-1 |
खण्ड-1 | खण्ड-2 | खण्ड-3 | खण्ड-4 | खण्ड-5 | खण्ड-6 | खण्ड-7 | खण्ड-8 | खण्ड-9 | खण्ड-10 | खण्ड-11 | खण्ड-12 | खण्ड-13 |
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-2 |
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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-3 |
खण्ड-1 से 5 | खण्ड-6 से 10 | खण्ड-11 | खण्ड-12 | खण्ड-13 से 19 |
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-4 | |
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-5 | |
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6 |
खण्ड-1 से 2 | खण्ड-3 से 4 | खण्ड-5 से 6 | खण्ड-7 | खण्ड-8 | खण्ड-9 से 13 | खण्ड-14 से 16 |
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-7 | |
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-8 |