"पाण्ड्य साम्राज्य": अवतरणों में अंतर
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*इस राज्य की राजधानी मदुरा थी, जो तमिल संस्कृति और साहित्य का प्रसिद्ध केन्द्र था। | *इस राज्य की राजधानी मदुरा थी, जो तमिल संस्कृति और साहित्य का प्रसिद्ध केन्द्र था। |
09:56, 24 सितम्बर 2011 का अवतरण
पाड्य और केरल
इन्हें भी देखें: पाण्ड्य राजवंश एवं पांड़्य देश
- तमिलनाडु में जहाँ आजकल मदुरा और तेनेवली के ज़िले हैं, वहाँ पर प्राचीन समय में पाड्य राज्य की स्थिति थी। चोलमण्डल के समान पाड्य राज्य की सीमा भी उसके राजा की शक्ति के अनुसार घटती-बढ़ती रही।
- इस राज्य की राजधानी मदुरा थी, जो तमिल संस्कृति और साहित्य का प्रसिद्ध केन्द्र था।
- पाड्य राज्य का प्राचीन राजनीतिक इतिहास अधंकार में है, यद्यपि साहित्य द्वारा इस राज्य के कतिपय राजाओं के नाम हमें ज्ञात हैं।
- छठी सदी के अन्तिम भाग में 'कंडुगोन' नामक राजा ने पाड्य राज्य के उत्कर्ष का सूत्रपात किया। उसके वंश के अरिकेशरी मारवर्मा, कोच्चडयन्, रणधीर, मारवर्मा, राजसिंह प्रथम और नेडुन्जडयन् वरगुण नामक राजा हुए। जिनके शासन काल में पाड्य राज्य ने अच्छी उन्नति की, और समीप के प्रदेशों को जीतकर अपने राज्य के क्षेत्र का विस्तार भी किया।
- ये राजा आठवीं सदी में हुए थे।
- पाड्य देश के बाद के राजाओं में श्रीमार श्रीवल्लभ बहुत प्रसिद्ध हुआ। उसका शासन काल लगभग 815 से 832 ई. तक था। श्रीमार श्रीवल्लभ ने सिंहलद्वीप (श्रीलंका) पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन किया, और फिर चोल, पल्लव तथा गंग राजाओं को परास्त किया। निःसन्देह श्रीवल्लभ इस राज्य का बहुत प्रतापी राजा था और उसके समय में पाड्य देश एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल राज्य बन गया था।
- किंतु पाड्य राज्य की यह समृद्धी देर तक क़ायम नहीं रही। दसवीं सदी में चोल राज्य का किस प्रकार उत्कर्ष हुआ, इस पर हम पिछले प्रकरण में प्रकाश डाल चुके हैं। चोलराज परान्तक प्रथम (907-949) ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए पाड्य देश पर भी आक्रमण किया और उसे विजय कर लिया। इस समय मदुरा के राजसिंहासन पर मारवर्मा जयसिंह द्वितीय आरूढ़ था, जो परान्तक के द्वारा परास्त हो गया और मदुरा पर चोल राज का अधिकार हो गया। इसी उपलक्ष्य में परान्तक ने 'मदुरैकोण्ड' की उपाधि धारण की थी। चोलों की इस विजय के कारण पाड्य देश की स्थिति एक सामन्त राज्य के समान रह गई, क्योंकि बाद के पाड्य राजा प्रतापी चोल सम्राटों के विरुद्ध विद्रोह कर स्वतंत्र होने की शक्ति नहीं रखते थे।
- पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि, पाड्य राजाओं ने चोलों का जुआ उतार फैंकने का कभी प्रयत्न ही नहीं किया।
- दसवीं सदी के मध्य में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने चोलों को बुरी तरह से पराजित किया, तो पाड्य राजा ने इस स्थिति से लाभ उठाकर स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया। पर जो प्रतापी राष्ट्रकूट सम्राट चोलों को जीतने में समर्थ हुआ, उसने पाड्य राज्य को भी अपना वशवर्ती बना लिया और अपने पुत्र जटावर्मा को वहाँ का शासन करने के लिए नियत किया। इसके बाद भी अनेक बार पाड्य राज्य ने स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, पर बारहवीं सदी के अन्त तक उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई और उसकी स्थिति अधीनस्थ राज्य के समान ही बनी रही।
- बारहवीं सदी के अन्त में जब चोल राज्य निर्बल हो गया तो, पाड्य राज्य को अपने उत्कर्ष का अवसर प्राप्त हो गया और उसके राजा जटावर्मा कुलशेखर (1190-1216) ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। एक बार फिर से पाड्य राज्य का उत्कर्ष काल प्रारम्भ हुआ और वह सुदूर दक्षिण की प्रधान राजशक्ति बन गया। जटावर्मा कुलशेखर का उत्तराधिकारी मारवर्मा सुन्दर पाड्य (1216-1238) बहुत प्रसिद्ध हुआ। चोल मण्डल से भी आगे बढ़कर उसने काञ्जी पर अधिकार कर लिया। दक्षिण भारत के होयसाल, काकतीय आदि राजवंशों के अन्य अनेक राज्यों को भी इस प्रतापी राजा ने अपने अधीन किया।
- तेरहवीं सदी इस राज्य के उत्कर्ष की सदी थी और इसके राजा जहाँ वीर और प्रतापी थे, वहाँ साथ ही मन्दिरों का निर्माण कर अपने राज्य को नगरों को विभूषित करने पर भी वे बहुत ध्यान देते थे।
- चौदहवीं सदी के प्रारम्भ भाग में जब अलाउद्दीन ख़िलज़ी के सेनापति मलिक काफ़ूर ने दक्षिणी भारत की विजय यात्रा की, तो उसने मदुरा का भी ध्वंस किया। इसी समय पाड्य राज्य की स्वतंत्रता और उत्कर्ष का भी अन्त हो गया।
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