पाण्ड्य राजवंश
पाण्ड्य राजवंश का प्रारम्भिक उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी में मिलता है। इसके अतिरिक्त अशोक के अभिलेख, महाभारत एवं रामायण में भी पाण्ड्य साम्राज्य के विषय में जानकारी मिलती है। मेगस्थनीज पाण्ड्य राज्य का उल्लेख ‘माबर‘ नाम से करता है। उसके विवरणानुसार पाण्ड्य राज्य पर ‘हैराक्ट‘ की पुत्री का शासन था, तथा वह राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। पाण्ड्यों की राजधानी 'मदुरा' (मदुरई) थी, जिसके विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र से जानकारी मिलती है। मदुरा अपने कीमती मोतियों, उच्चकोटि के वस्त्रों एवं उन्नतिशील व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। 'इरिथ्रियन सी' के विवरण के आधार पर पाण्ड्यों की प्रारम्भिक राजधानी 'कोरकई' को माना जाता है। सम्भवतः पाण्ड्य राज्य मदुरई, रामनाथपुरम, तिरुनेल्वेलि, तिरुचिरापल्ली एवं ट्रान्कोर तक विस्तृत था। पाण्ड्यों का राजचिह्न मत्स्य (मछली) था। पाण्ड्य राज्य को 'मिनावर', 'कबूरियार', 'पंचावर', 'तेन्नार', 'मरार', 'वालुडी' तथा 'सेलियार' नामों से जाना जाता है।
प्रमुख शासक
पाण्ड्य राजवंश के निम्न शासक प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं-
राजनीतिक दशा
दक्षिण भारत के चेर, चोल तथा पाण्ड्य राज्यों के उद्भव के संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि, ये राज्य कुल संघ प्रतीत होते हैं। इस प्रकार के राज्य उत्तरी भारत में भी थे, जिन्हें कौटिल्य ने कुल संघ कहा है।
संगमकालीन शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक थ। राजा का पद वंशानुगत एवं ज्येष्ठता पर आधारित था। प्रशासन का समस्त अधिकार राजा के पास होता था, इसलिए उसकी प्रवृत्ति में निरंकुशता का समावेश होता था। राजा का मुख्य आदर्श था- दिग्विजय करना, प्रजा का पुत्रवत पालना करना एवं निष्पक्ष भाव से शासन के कार्यों का संचालन करना। राजा प्रत्येक दिन अपनी सभा (नलवै) में प्रजा की कठिनाइयों को सुनता था। राज्य का सर्वोच्च न्यायालय मनरम होता था, जिसका सर्वोच्च न्यायाधीश राजा होता था। राजा का जन्मदिन प्रतिवर्ष मनाया जाता था जिसे 'पेरूनल' भी कहा जाता था। प्रतिनिधि परिषदें राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाती थीं, साथ ही वह प्रशासन में राजा का सहयोग करती थीं। इन परिषदों के सदस्य जनप्रतिनिधि, पुरोहित, ज्योतिषी, वैद्य एवं मंत्रीगण होते थे। इस परिषद को 'पंचवरम' या 'पंचमहासभा' भी कहा जाता था। इनमें-
- मंत्री - अमियचार
- पुरोहित - पुरोहितार
- सेनानायक - सेनापतियार
- दूत या राजदूत - दूतार
- गुप्तचर - ओर्रार
सैन्य व्यवस्था
संगमकालीन शासकों के पास पेशेवर सैनिक होते थे। रथ, हाथी घोड़े एव पैदल सैनिक ही सेना के महत्त्वपूर्ण अंग थे। हथियार के रूप में तलवार, धनुष बाण (बिल कोल), भाला (बेल), खड़ग (बाल), बाघम्बर आदि का प्रयोग किया जाता था। युद्ध के समय स्थापित किये जाने वाले शिविरों का विशेष महत्त्व होता था। समय के विषय में जानकारी जल घड़ी द्वारा मिलती थी। राजा के महल पर सशस्त्र महिलाओं का पहरा होता था। सेना के कप्तान को 'एनाडि' की उपाधि दी जाती थी। सेना की अग्र टुकड़ी 'तुसी' और पिछड़ी टुकड़ी 'कुलै' कहलाती थी। चोल और पाण्ड्य दोनों के शासन काल में नागरिक और सैनिक पदों पर बेल्लाल (धनी किसान) नियुक्त किए जाते थे। कलवारम् संगम तमिलों की एक विशिष्ट संस्था थी। मंत्रियों के बाद दूतों का प्रशासन में विशेष महत्त्व होता था। शासन में गुप्तचर भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, उन्हें 'ओर्रार' या 'वे' कहा जाता था।
नगर विभाजन
प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्य या मंडलम 'नाडु' में तथा नाडु 'उर' में विभाजित था। 'पत्तिनाम' समुद्र तटीय कस्बे को कहते थे। बड़े गांव को 'पेरूर', छोटे गांव को 'सिरूर' तथा पुराने गाँव को 'मुडूर' कहते थे। अवै छोटे ग्रामों की सभा थी, जो विवादों व व्यापार तथा रोज़गार आदि से सम्बन्धित थी। सालै प्रमुख सड़क को कहते थे। तेरू नगर के प्रमुख ग्वाले थे। पेडियल सार्वजनिक स्थल को कहा जाता था। पेडियन ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई थी। मनरम की ग्रामीण एवं नगर प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। नगरम् शब्द वर्णिक ग्रामों हेतु प्रयुक्त हुआ है।
राजकीय आय के स्रोत एवं कर व्यवस्था
संगम कालीन राजकीय आय के महत्त्वपूर्ण स्रोतों में कृषि तथा व्यापार पर लगने वाले कर थे। भूमि पर लगने वाले कर को 'कराई' तथा सामन्तों द्वारा दिये जाने वाले कर एवं लूट द्वारा प्राप्त धन को 'ईराई' कहा जाता था। सीमा शुल्क द्वारा प्राप्त धन को 'उल्गू' या 'संगम' कहा जाता था। राज्य की ओर से धन के अतिरिक्त मांग एवं ज़बरन लिए गये उपहार को 'इराबू'। मा या वेल्लि भूमि की प्रसिद्ध माप थी। अंगुल रैखिक माप की ईकाई थी। कलम तरल माप की ईकाई थी। कडमै या पाडु राजा को अदा किया जाने वाला कर था। कर अदा करने वाले क्षेत्र की ईकाई वारियमवारि थी। भूमि के इस इकाई से कर वसूल करने वाला अधिकारी 'वारियार' कहलाता था।
आर्थिक स्थिति
संगम काल में महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पादन के रूप में गन्ना, रागी, चावल एवं कपास का उत्पादन किया जाता था। चेर राज्य कटहल, काली मिर्च, भैंस एवं हल्दी के लिए प्रसिद्ध था। पारी जैसे कम क्षेत्रफल वाले राज्य में अनेक प्रकार के अनाज, कटहल, अनेक तरह के कंदमूल, फल आदि की पैदावार होती थी। तमिल देश की भूमि अपनी उर्वरता के लिए प्रसिद्ध थी। संगम कवियों के ये उल्लेख- “हाथी के लेटने के लिए जितनी भूमि की ज़रूरत पड़ती है, उससे सात व्यक्तियों के पेट भरने का अनाज मिल जाता है” तथा “एक वेल्लि भूमि में एक सहस्र कलम चावल पैदा होता है”। इस प्रदेश की उर्वरता के दीप्त प्रमाण हैं। कृषकों में संगम काल में 'वेल्लाल' वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान था। वेल्लाल वर्ग दो भागों में बंटे थे-
- सम्पन्न कृषक या वेल्लाल वर्ग- इनकी नियुक्ति सेना एवं प्रशासकीय कार्यो के लिए की जाती थी।
- विपन्न कृषक या मज़दूर कृषक वर्ग- इनके पास अपनी स्वयं की ज़मीन नहीं होती थी और ये सम्पन्न वेल्लालों की ज़मीन पर काम करके अपना जीवन-यापन करते थे। इनकी संख्या संगम युग में अधिक थी। इनके प्रमुख को 'वेलरि' कहा जाता था। अधिकांश व्यापार वस्तु विनिमय द्वारा होता था। अनाज (धान) विनिमय का माध्यम था।
व्यापार
संगम साहित्य में व्यापारी वर्ग को 'वेनिगर' कहा गया है। इस वर्ग के लोग ही आंतरिक एवं विदेशी व्यापार का संचालन करते थे। संगमकालीन विदेशी व्यापार का अधिकांश भाग पुहार बन्दरगाह से संचालित होता था, इसलिए यहां के निवासी काफ़ी सम्पन्न थे। पाण्ड्य देश के 'शालियूर' और चेर देश के 'बकंदर' नगर के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह थे। पुहार, तोण्डी, मुशिर एवं वज्जि स्थलों की खुदाई से ऐसे अवशेष मिले हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि, यहां यवन लोग बड़ी संख्या में रहते थे। चेरों की प्रारम्भिक राजधानी 'कुरूर' में किये गये उत्खनन में रोमन सुराहियों के टुकड़े एवं रोमन ताम्र सिक्के मिले हैं। यवन लोग 'मुखिरी' बन्दरगाह पर अपने जहाजों पर सोना लादकर लाते थे और बदले में यहां से काली मिर्च एवं ऐसी वस्तुएं ले जाते थे, जो उनके यहां उपलब्ध नहीं होती थी। पुहार का कावेरी पत्तनम एक विशाल वाणिज्य केन्द्र था, जिसका टाल्मी ने खबेरिस के रूप् में उल्लेख किया है। नीर पेयाऊ एक अन्य समुद्र बन्दरगाह था, जहां पर पश्चिम से घोड़े और उत्तर से उत्पादित वस्तुएं लाए जाती थी। मणिग्रामम, नानादेसिस, वलंजियर, वलंगै, इलंगै आदि प्रमुख व्यापारिक संघ थे।
पुरा साक्ष्यों से प्रमाण
पुरातात्विक साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि तत्कालीन नगर 'अरिकामेडु' एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। जहां पर वस्तुओं को एकत्र कर भारत के विभिन्न भागों में भेजा जाता था। रोमन सम्राट 'ऑगस्टस' तथा 'रिवेरियस' के मुहर वाले सोने के सिक्के मुजीरिस, पुहार एवं अरिकामेडु से मिले हैं। मुजीरिस में रोमन सम्राट 'आफगस्टस' का मंदिर रोमनों द्वारा बनवाया गया था। 'विरुकाम्पुलियर' नामक स्थान चोल, चेर एवं पाण्ड्य तीनों राज्यों के संगम स्थल के रूप में प्रसिद्ध था। उरैयूर सूती कपड़ों के व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ के महीन सूती कपड़ों की विश्व के बाज़ारों में बड़ी खपत थी। पुहार एक सर्वदेशीय नगर था, जहाँ विविध भाषाएँ बोलने वाले देश-विदेश के नागरिक एक साथ सौहार्दपूर्वक रहते थे। यहाँ मुख्य निर्यातक वस्तुयें थीं- काली मिर्च, हाथी दाँत, मोती, मलमल, रेशमी कपड़े, क़ीमती रत्न, हीरे, नीलम, क़ीमती पत्थर आदि। यहाँ की आयात की जाने वाली मुख्य वस्तुऐं थीं, काँच, प्रवाल, मूँगा, शराब, सोना, तांबा, चांदी, सिक्के, आदि। रोमन साम्राज्य के लोगों के अतिरिक्त तमिल प्रदेश के लोगों का व्यापार मिस्र, अरब, चीन एवं मलय द्वीप से था। पश्चिमी तट के प्रमुख बन्दरगाह नौरा (कैन्नौर), तोण्डी, मुशिरि और नैल्सिंडा आदि थे। संगम युगीन राज्यों के कुछ भागों से नीरा (54-68 ई.) के सोने एवं चांदी के सिक्के मिले हैं। स्ट्रेबों के अनुसार ऑगस्टस-सीजर के दरबार में किसी पाण्ड्य नरेश ने लगभग दूसरी सदी ई.पू. में दो दूतमण्डल भेजे थे। सम्भवतः इसका उद्देश्य व्यापारिक सम्बन्धों को प्रगांढ़ बनाना था। संगम काल के अन्य व्यावसायिक वर्ग थे- 'पुलैयन' (रस्सी बनाने वाला), चरवाहे, एनियर (शिकारी), मछुआरे, कुम्हार, लुहार, स्वर्णकार, बढ़ई आदि। 'मलवर' नाम के लोगों का व्यवसाय डाका डालना था। 'अवनम' संगम काल में बाज़ार को कहते थे। इस काल के व्यापार के विषय में विस्तृत जानकारी पहली सदी में किसी अज्ञात रचयिता द्वारा लिखी गयी पुस्तक 'पेरिप्लस ऑफ़ दि एरीथ्रियन सी' से मिलती है। इस समय व्यापारिक कारवाँ का नेतृत्व करने वाले स्थल सार्थवाह को 'मासात्तुवान' एवं समुद्री सार्थवाह को 'मानमिकन्' कहा जाता था।
सामाजिक स्थिति
संगमकालीन समाज व्यवस्था पूरी तरह से एक व्यवस्था के अनुसार ही व्यवस्थित की गई थी-
वर्ण एवं जाति व्यवस्था
तमिल प्रदेश में उत्तर भारत की तरह चातुर्वर्ण व्यवस्था मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी थी। संगम साहित्य में समाज को पाँच वर्गों में विभक्त किये जाने के प्रमाण मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं-
- 1. ब्राह्मण (पुरोहित वर्ग) - इन्हें समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। इनका पदार्पण तमिल प्रदेश में संगम काल में हुआ।
- 2. अरसर (शासक वर्ग) - राजपरिवार से जुड़े ये लोग राजनीतिक दृष्टि से प्रतिष्ठित होते थे।
- 3. वेनिगर (वाणिक् वर्ग) - ये लोग तमिल प्रदेश के आन्तरिक एवं बाह्म व्यापार का संचालन करते थे।
- 4. वेल्लाल (बड़े कृषक एवं शासक वर्ग) - तमिल ग्रंथ 'पुरनानूरू' के उल्लेख के आधार पर यह ज्ञात होता है कि, यह वर्ग शासक वर्ग के समान ही प्रतिष्ठित था। इनकी नियुक्ति सेना में उच्च पदों पर की जाती थी। चोल सेना में इस वर्ग को 'अरशु' एवं 'बेल' तथा पाण्ड्य सेना में इन्हें 'कविदी' कहा जाता था।
- 5. बेल्लार (मज़दूर कृषक वर्ग) - इनका मुख्य व्यवसाय कृषि करना था। इनके मुखियों को 'वेल्लरि' कहा जाता था। दास प्रथा का प्रचलन संगम काल में नहीं था।
वैदिक संस्कृत के प्रचलन के कारण राजदरबारों में ब्राह्मणों तथा पुरोहितों की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हो गयी। राजदरबार में कवि के रूप में ब्राहाणों को रखा जाता था। राजा करिकाल ने एक कवि को 1,60,000 स्वर्ण मुद्राओं से पुरस्कृत किया था। तमिल भूमि में ब्राह्मण का दर्शन पहले संगम युग में होता है। वेल्लाल चौथी जाति के अन्तर्गत आते थे। अधिकतर भूमि इन्हीं के पास रहती थी। खेत-मज़दूर का काम सबसे निचले वर्ग के लोग करते थे, जिन्हें 'कडैसियर' कहा जाता था। पेरियार लोग खेत-मज़दूर के अतिरिक्त पशु खाल या चर्म का काम करते थे। एनियर बाघिकों (शिकारियों) की जाति थी। मलवर और कलवर नामक दो जातियाँ तमिल प्रदेश के उत्तरी सीमा पर रहती थीं। लूट-पाट करना इनका मुख्य पेशा था। मरुवर धनी यवन लोगों के निवास स्थल को कहते थे।
विवाह
संगमकालीन ग्रंथ तोल्काप्पियम में आठों प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वैसे एक पत्नी प्रथा का प्रचलन था, परन्तु सम्पन्न वर्ग के लोग एक से अधिक पत्नी रखते थे। संगमयुगीन ग्रंथों में प्रेम विवाह को ‘पंचतिणै‘, एक पक्षीय प्रेम को ‘कैक्किणै‘ एवं अनुचित प्रेम को पेरुन्दिणै‘ कहा गया है।
स्त्रियों की स्थिति
संगम काल में स्त्रियों की स्थिति बहुत सन्तोषजनक नहीं थी, लड़की के जन्म को अशुभ माना जाता था। परिवार पितृसत्तात्मक होता था। निम्नवर्ग की स्त्री खेतों में काम करती थीं। उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियाँ, जैसे ओवैयर एवं नच्चेलियर ने एक सफल कवयित्री के रूप में अपने को स्थापित किया और इस वर्ग की स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं। विधिवाओं की स्थिति इतनी बदतर थी कि, वे स्वेच्छा से सती होना अधिक सरल समझती थीं। स्वैच्छिक सती प्रथा का प्रचलन संगमकालीम समाज में था। संगमकालीन समाज में गणिकाओं एवं नर्तकियों के रूप में क्रमशः 'परत्तियर' व 'कणिगैचर' का उल्लेख मिलता है। ये वेश्यावृति द्वारा जीवनयापन करती थीं।
मनोरंजन
प्रायः कविता पाठ संगीत, गायन, वादन, नृत्य कला, नाटक आदि द्वारा मनोरंजन किया जाता था। 'याल' नामक किसी वाद्य यंत्र का ज़िक्र मिलता है। मनोरंजन के अन्य साधन भी थे जैसे- 'शिकार खेलना', 'कुश्ती लड़ना', 'पासा खेलना', 'गोली खेलना' आदि। पेरियाल, फ्लाई-याल तथा सेनगोट्रिटपाल जैसे विभिन्न प्रकार के वाद्य यन्त्रों का भी वर्णन मिलता है।
धार्मिक स्थिति
वैदिक धर्म व ब्राह्मण धर्म का प्रचलन तमिल प्रदेश में अधिक था। ब्राह्मण, राजा के पुरोहित का काम करते थे और बदले में दान प्राप्त करते थे। संगम काल में तमिल प्रदेश में मुरुगन, शिव, बलराम एव कृष्ण की उपासना की जाती थी। इनमें से मरुगन या मुरकन की उपासना, सर्वाधिक पुरानी थी। कालान्तर में मुरुगन को 'सुब्रह्मण्यम' कहा गया और स्कन्द-कार्तिकेय से इस देवता का एकीकरण किया गया। मुरुगन का एक अन्य नाम 'वेल्लन' भी मिलता है। वेल्लन का सम्बन्ध बेल से है, जिसका अर्थ वही है। यह इस देवता का प्रमुख अस्त्र था। किसान लोग मरुडम इन्द्र देव की पूजा करते थे। पुहार के वार्षिक उत्सव में इन्द्र की विशेष प्रकार की पूजा होती थी। कौर्रलै विजय की देवी थी। स्कन्द-कार्तिकेय को उत्तर भारत में शिव-पार्वती के पुत्र के रूप में जाना जाता है। तमिल प्रदेश में मुरुगन का प्रतीक मुर्गा (कुक्कट) को माना गया है, जिसे पर्वत-शिखर पर क्रीड़ा करना पसन्द है। मुरुगन तमिलों के सर्वश्रेष्ठ देवता थे। संगम काल में तमिल प्रदेश में बलि प्रथा का प्रचलन था।
धार्मिक विश्वास
मणिमेखलै में शैव धर्म में ‘'पालिक' सम्प्रदाय का वर्णन मिलता है। बौद्ध धर्म के प्रचलन का भी उल्लेख हमें संगम साहित्य से मिलता है। 'शिलप्पादिकारम' तथा 'मणिमेखलै' महाकाव्यों तथा कावेरीपट्नम से भी बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म के संस्थानों के उल्लेख मिलते हैं। 'मरियम्मा' (परशुराम की माता) चेचक से संबंधित शीतला माता थी, जबकि वेलम्मा सीमा की देवी थी। संगमकालीन मंदिरों में विभिन्न देवताओं के अनेक मंदिरों का विशेष उल्लेख हुआ है। मंदिर नागर, कोइल, कोट्टम, पुराई या देवालय कहलाते थे। वन देवी (कुडुरैकरडाबलु) की तुलना प्रायः दुर्गा के साथ तुलना की जाती है।
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