"कार्तिकेय": अवतरणों में अंतर
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'''कार्तिकेय''' भगवान [[शिव]] और [[पार्वती देवी|माता पार्वती]] के पुत्र हैं। माता द्वारा दिये गए एक शाप के कारण ही ये सदैव बालक रूप में रहते हैं। परंतु उनके इस बालक स्वरूप का भी एक रहस्य है। इनका एक नाम 'स्कन्द' भी है और इन्हें [[दक्षिण भारत]] में 'मुरुगन' भी कहा जाता है। भगवान कार्तिकेय के अधिकतर [[भक्त]] तमिल [[हिन्दू]] हैं। इनकी [[पूजा]] मुख्यत: [[भारत]] के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर [[तमिलनाडु]] में होती है। इसके अतिरिक्त विश्व में [[श्रीलंका]], [[मलेशिया]], सिंगापुर आदि में भी इन्हें पूजा जाता है। भगवान स्कंद के सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिलनाडू में स्थित हैं, इन्हें '''तमिलों के देवता''' कह कर भी संबोधित किया जाता है। | |||
==जन्म कथा== | |||
कार्तिकेय की जन्म कथा के विषय में [[पुराण|पुराणों]] से ज्ञात होता है कि पिता [[दक्ष]] के यहाँ आयोजित एक [[यज्ञ]] में भगवान [[शिव]] के अपमान से दु:खी होकर [[सती]] यज्ञ की [[अग्नि]] में ही आत्मदाह कर लेती हैं। उनके ऐसा करने से सृष्टि शक्ति हीन हो जाती है। तब दैत्यों का अत्याचार ओर आतंक फैल जाता है और देवताओं को पराजय का समाना करना पड़ता है, जिस कारण सभी [[देवता]] भगवान [[ब्रह्मा]] के पास पहुंचते हैं और अपनी रक्षार्थ उनसे प्रार्थना करते हैं। ब्रह्मा उनके दु:ख को जानकर उनसे कहते हैं कि [[तारक]] का अंत भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही संभव है। परंतु सती के अंत के पश्चात भगवान शिव गहन साधना में लीन हुए रहते हैं। [[इंद्र]] और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं। तब भगवान शंकर [[पार्वती]] के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का [[विवाह]] हो जाता है। इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता है। कार्तिकेय तारकासुर का वध करके देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं। पुराणों के अनुसार [[षष्ठी]] तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन स्कन्द भगवान की [[पूजा]] का विशेष महत्व है। | |||
गणेश जी के आश्वासन पर भोलेनाथ वापस पार्वती के पास पहुंचे तथा खेल खेलने को कहा। इस पर पार्वती हंस पड़ी व बोलीं ‘अभी पास क्या चीज़ है, जिससे खेल खेला जाए।’ यह सुनकर भोलेनाथ चुप हो गए। इस पर [[नारद]] | ====स्वरूप==== | ||
[[चित्र:Bhagwan-Shiv-1.jpg|thumb|[[शिव]], [[पार्वती देवी|पार्वती]], [[गणेश]] और कार्तिकेय | कार्तिकेय स्वामी सेनाधिप हैं, शक्ति के अधिदेव हैं, प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन सभी कुछ इनकी कृपा से सम्पन्न होते हैं। कृत्तिकाओं ने इन्हें अपना पुत्र बनाया था, इस कारण इन्हें 'कार्तिकेय' कहा गया, देवताओं ने इन्हें अपना सेनापतित्व प्रदान किया। [[मयूर]] पर आसीन देवसेनापति कुमार कार्तिक की आराधना [[दक्षिण भारत]] मे सबसे ज्यादा होती है, यहाँ पर यह 'मुरुगन' नाम से विख्यात हैं। [[स्कन्दपुराण]] के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय ही हैं तथा यह पुराण सभी पुराणों में सबसे विशाल है। | ||
==माता का शाप== | |||
एक बार शंकर भगवान ने पार्वती के साथ जुआ खेलने की अभिलाषा प्रकट की। खेल में भगवान शंकर अपना सब कुछ हार गए। हारने के बाद भोलेनाथ अपनी लीला को रचते हुए पत्तो के वस्त्र पहनकर [[गंगा नदी|गंगा]] के तट पर चले गए। कार्तिकेय जी को जब सारी बात पता चली, तो वह माता पार्वती से समस्त वस्तुएँ वापस लेने आए। इस बार खेल में पार्वती हार गईं तथा कार्तिकेय शंकर जी का सारा सामान लेकर वापस चले गए। अब इधर पार्वती भी चिंतित हो गईं कि सारा सामान भी गया तथा पति भी दूर हो गए। पार्वती जी ने अपनी व्यथा अपने प्रिय पुत्र [[गणेश]] को बताई तो मातृ भक्त गणोश जी स्वयं खेल खेलने शंकर भगवान के पास पहुंचे। गणेश जी जीत गए तथा लौटकर अपनी जीत का समाचार माता को सुनाया। इस पर पार्वती बोलीं कि उन्हें अपने पिता को साथ लेकर आना चाहिए था। गणेशफिर भोलेनाथ की खोज करने निकल पड़े। भोलेनाथ से उनकी भेंट [[हरिद्वार]] में हुई। उस समय भोलेनाथ भगवान [[विष्णु]] व कार्तिकेय के साथ भ्रमण कर रहे थे। पार्वती से नाराज़ भोलेनाथ ने लौटने से मना कर दिया। भोलेनाथ के भक्त [[रावण]] ने गणेश के वाहन मूषक को बिल्ली का रूप धारण करके डरा दिया। मूषक गणेश जी को छोड़कर भाग गए। इधर भगवान विष्णु ने भोलेनाथ की इच्छा से पासा का रूप धारण कर लिया। गणेश जी ने माता के उदास होने की बात भोलेनाथ को कह सुनाई। इस पर भोलेनाथ बोले कि हमने नया पासा बनवाया है, अगर तुम्हारी माता पुन: खेल खेलने को सहमत हों, तो मैं वापस चल सकता हूँ। | |||
गणेश जी के आश्वासन पर भोलेनाथ वापस पार्वती के पास पहुंचे तथा खेल खेलने को कहा। इस पर पार्वती हंस पड़ी व बोलीं- ‘अभी पास क्या चीज़ है, जिससे खेल खेला जाए।’ यह सुनकर भोलेनाथ चुप हो गए। इस पर [[नारद]] ने अपनी [[वीणा]] आदि सामग्री उन्हें दी। इस खेल में भोलेनाथ हर बार जीतने लगे। एक दो पासे फैंकने के बाद गणेश जी समझ गए तथा उन्होंने भगवान विष्णु के पासा रूप धारण करने का रहस्य माता पार्वती को बता दिया। सारी बात सुनकर पार्वती जी को क्रोध आ गया। रावण ने माता को समझाने का प्रयास किया, पर उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तथा क्रोधवश उन्होंने भोलेनाथ को शाप दे दिया कि [[गंगा नदी|गंगा]] की धारा का बोझ उनके सिर पर रहेगा। नारद को कभी एक स्थान पर न टिकने का अभिषाप मिला। भगवान विष्णु को शाप दिया कि यही रावण तुम्हारा शत्रु होगा तथा रावण को शाप दिया कि विष्णु ही तुम्हारा विनाश करेंगे। कार्तिकेय को भी माता पार्वती ने कभी जवान न होने का शाप दे दिया। | |||
[[चित्र:Bhagwan-Shiv-1.jpg|thumb|[[शिव]], [[पार्वती देवी|पार्वती]], [[गणेश]] और कार्तिकेय]] | |||
==पार्वती का वरदान== | ==पार्वती का वरदान== | ||
इस पर सर्वजन चिंतित हो उठे। तब नारद जी ने अपनी विनोदपूर्ण बातों से माता का क्रोध शांत किया, तो माता ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। नारद जी बोले कि आप सभी को वरदान दें, तभी मैं वरदान | इस पर सर्वजन चिंतित हो उठे। तब नारद जी ने अपनी विनोदपूर्ण बातों से माता का क्रोध शांत किया, तो माता ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। नारद जी बोले कि आप सभी को वरदान दें, तभी मैं वरदान लूँगा। पार्वती जी सहमत हो गईं। तब शंकर ने कार्तिक शुक्ल के दिन जुए में विजयी रहने वाले को वर्ष भर विजयी बनाने का वरदान मांगा। भगवान विष्णु ने अपने प्रत्येक छोटे-बड़े कार्य में सफलता का वर मांगा, परंतु कार्तिकेय ने सदा बालक रहने का ही वर मांगा तथा कहा- ‘मुझे विषय वासना का संसर्ग न हो तथा सदा भगवत स्मरण में लीन रहूँ।’ अंत में नारद जी ने देवर्षि होने का वरदान मांगा। माता पार्वती ने [[रावण]] को समस्त [[वेद|वेदों]] की सुविस्तृत व्याख्या देते हुए सबके लिए तथास्तु कहा। | ||
अंत में नारद जी ने देवर्षि होने का वरदान मांगा। माता पार्वती ने रावण को समस्त वेदों की सुविस्तृत व्याख्या देते हुए सबके लिए तथास्तु कहा। | ==विभिन्न नाम== | ||
संस्कृत ग्रंथ [[अमरकोष]] के अनुसार कार्तिकेय के निम्न नाम हैं: | संस्कृत ग्रंथ [[अमरकोष]] के अनुसार कार्तिकेय के निम्न नाम हैं: | ||
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==मुरुगन के प्रसिद्ध मन्दिर== | |||
निम्नलिखित छः आवास, जिसे 'आरुपदै विदु' के नाम से जाना जाता है, [[भारत]] के [[तमिलनाडु]] में भगवान मुरुगन के भक्तों के लिए बहुत ही मुख्य तीर्थ स्थानों में से हैं- | |||
#पलनी मुरुगन मन्दिर - [[कोयंबटूर]] से 100 कि.मी. पूर्वी-दक्षिण में स्थित। | |||
#स्वामीमलई मुरुगन मन्दिर - [[कुंभकोणम]] के पास। | |||
#तिरुत्तनी मुरुगन मन्दिर - [[चेन्नई]] से 84 कि.मी.। | |||
#पज्हमुदिर्चोलाई मुरुगन मन्दिर - [[मदुरई]] से 10 कि.मी. उत्तर में स्थित। | |||
#श्री सुब्रहमन्य स्वामी देवस्थानम, तिरुचेन्दुर - तूतुकुडी से 40 कि.मी. दक्षिण में स्थित। | |||
#तिरुप्परनकुंद्रम मुरुगन मन्दिर - मदुरई से 10 कि.मी. दक्षिण में स्थित। | |||
*'मरुदमलै मुरुगन मन्दिर' (कोयंबतूर का उपनगर) एक और प्रमुख तीर्थ स्थान है। | |||
*[[भारत]] के [[कर्णाटक]] में मंगलौर शहर के पास 'कुक्के सुब्रमण्या मन्दिर' भी बहुत प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है, जो भगवान 'मुरुगन' को समर्पित हैं। लेकिन यह भगवान मुरुगन के उन छः निवास स्थान का हिस्सा नहीं है, जो तमिलनाडु में स्थित हैं।<ref>{{cite web |url=http://hi.drikpanchang.com/vrats/skanda-sashti-dates.html |title= स्कंद षष्ठी|accessmonthday= 23 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी}}</ref> | |||
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12:19, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण
कार्तिकेय भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र हैं। माता द्वारा दिये गए एक शाप के कारण ही ये सदैव बालक रूप में रहते हैं। परंतु उनके इस बालक स्वरूप का भी एक रहस्य है। इनका एक नाम 'स्कन्द' भी है और इन्हें दक्षिण भारत में 'मुरुगन' भी कहा जाता है। भगवान कार्तिकेय के अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिलनाडु में होती है। इसके अतिरिक्त विश्व में श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर आदि में भी इन्हें पूजा जाता है। भगवान स्कंद के सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिलनाडू में स्थित हैं, इन्हें तमिलों के देवता कह कर भी संबोधित किया जाता है।
जन्म कथा
कार्तिकेय की जन्म कथा के विषय में पुराणों से ज्ञात होता है कि पिता दक्ष के यहाँ आयोजित एक यज्ञ में भगवान शिव के अपमान से दु:खी होकर सती यज्ञ की अग्नि में ही आत्मदाह कर लेती हैं। उनके ऐसा करने से सृष्टि शक्ति हीन हो जाती है। तब दैत्यों का अत्याचार ओर आतंक फैल जाता है और देवताओं को पराजय का समाना करना पड़ता है, जिस कारण सभी देवता भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचते हैं और अपनी रक्षार्थ उनसे प्रार्थना करते हैं। ब्रह्मा उनके दु:ख को जानकर उनसे कहते हैं कि तारक का अंत भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही संभव है। परंतु सती के अंत के पश्चात भगवान शिव गहन साधना में लीन हुए रहते हैं। इंद्र और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं। तब भगवान शंकर पार्वती के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का विवाह हो जाता है। इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता है। कार्तिकेय तारकासुर का वध करके देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं। पुराणों के अनुसार षष्ठी तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन स्कन्द भगवान की पूजा का विशेष महत्व है।
स्वरूप
कार्तिकेय स्वामी सेनाधिप हैं, शक्ति के अधिदेव हैं, प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन सभी कुछ इनकी कृपा से सम्पन्न होते हैं। कृत्तिकाओं ने इन्हें अपना पुत्र बनाया था, इस कारण इन्हें 'कार्तिकेय' कहा गया, देवताओं ने इन्हें अपना सेनापतित्व प्रदान किया। मयूर पर आसीन देवसेनापति कुमार कार्तिक की आराधना दक्षिण भारत मे सबसे ज्यादा होती है, यहाँ पर यह 'मुरुगन' नाम से विख्यात हैं। स्कन्दपुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय ही हैं तथा यह पुराण सभी पुराणों में सबसे विशाल है।
माता का शाप
एक बार शंकर भगवान ने पार्वती के साथ जुआ खेलने की अभिलाषा प्रकट की। खेल में भगवान शंकर अपना सब कुछ हार गए। हारने के बाद भोलेनाथ अपनी लीला को रचते हुए पत्तो के वस्त्र पहनकर गंगा के तट पर चले गए। कार्तिकेय जी को जब सारी बात पता चली, तो वह माता पार्वती से समस्त वस्तुएँ वापस लेने आए। इस बार खेल में पार्वती हार गईं तथा कार्तिकेय शंकर जी का सारा सामान लेकर वापस चले गए। अब इधर पार्वती भी चिंतित हो गईं कि सारा सामान भी गया तथा पति भी दूर हो गए। पार्वती जी ने अपनी व्यथा अपने प्रिय पुत्र गणेश को बताई तो मातृ भक्त गणोश जी स्वयं खेल खेलने शंकर भगवान के पास पहुंचे। गणेश जी जीत गए तथा लौटकर अपनी जीत का समाचार माता को सुनाया। इस पर पार्वती बोलीं कि उन्हें अपने पिता को साथ लेकर आना चाहिए था। गणेशफिर भोलेनाथ की खोज करने निकल पड़े। भोलेनाथ से उनकी भेंट हरिद्वार में हुई। उस समय भोलेनाथ भगवान विष्णु व कार्तिकेय के साथ भ्रमण कर रहे थे। पार्वती से नाराज़ भोलेनाथ ने लौटने से मना कर दिया। भोलेनाथ के भक्त रावण ने गणेश के वाहन मूषक को बिल्ली का रूप धारण करके डरा दिया। मूषक गणेश जी को छोड़कर भाग गए। इधर भगवान विष्णु ने भोलेनाथ की इच्छा से पासा का रूप धारण कर लिया। गणेश जी ने माता के उदास होने की बात भोलेनाथ को कह सुनाई। इस पर भोलेनाथ बोले कि हमने नया पासा बनवाया है, अगर तुम्हारी माता पुन: खेल खेलने को सहमत हों, तो मैं वापस चल सकता हूँ।
गणेश जी के आश्वासन पर भोलेनाथ वापस पार्वती के पास पहुंचे तथा खेल खेलने को कहा। इस पर पार्वती हंस पड़ी व बोलीं- ‘अभी पास क्या चीज़ है, जिससे खेल खेला जाए।’ यह सुनकर भोलेनाथ चुप हो गए। इस पर नारद ने अपनी वीणा आदि सामग्री उन्हें दी। इस खेल में भोलेनाथ हर बार जीतने लगे। एक दो पासे फैंकने के बाद गणेश जी समझ गए तथा उन्होंने भगवान विष्णु के पासा रूप धारण करने का रहस्य माता पार्वती को बता दिया। सारी बात सुनकर पार्वती जी को क्रोध आ गया। रावण ने माता को समझाने का प्रयास किया, पर उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तथा क्रोधवश उन्होंने भोलेनाथ को शाप दे दिया कि गंगा की धारा का बोझ उनके सिर पर रहेगा। नारद को कभी एक स्थान पर न टिकने का अभिषाप मिला। भगवान विष्णु को शाप दिया कि यही रावण तुम्हारा शत्रु होगा तथा रावण को शाप दिया कि विष्णु ही तुम्हारा विनाश करेंगे। कार्तिकेय को भी माता पार्वती ने कभी जवान न होने का शाप दे दिया।
पार्वती का वरदान
इस पर सर्वजन चिंतित हो उठे। तब नारद जी ने अपनी विनोदपूर्ण बातों से माता का क्रोध शांत किया, तो माता ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। नारद जी बोले कि आप सभी को वरदान दें, तभी मैं वरदान लूँगा। पार्वती जी सहमत हो गईं। तब शंकर ने कार्तिक शुक्ल के दिन जुए में विजयी रहने वाले को वर्ष भर विजयी बनाने का वरदान मांगा। भगवान विष्णु ने अपने प्रत्येक छोटे-बड़े कार्य में सफलता का वर मांगा, परंतु कार्तिकेय ने सदा बालक रहने का ही वर मांगा तथा कहा- ‘मुझे विषय वासना का संसर्ग न हो तथा सदा भगवत स्मरण में लीन रहूँ।’ अंत में नारद जी ने देवर्षि होने का वरदान मांगा। माता पार्वती ने रावण को समस्त वेदों की सुविस्तृत व्याख्या देते हुए सबके लिए तथास्तु कहा।
विभिन्न नाम
संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार कार्तिकेय के निम्न नाम हैं:
- भूतेश
- भगवत्
- महासेन
- शरजन्मा
- षडानन
- पार्वतीनन्दन
- स्कन्द
- सेनानी
- अग्निभू
- गुह
- बाहुलेय
- तारकजित्
- विशाख
- शिखिवाहन
- शक्तिश्वर
- कुमार
- क्रौञ्चदारण
मुरुगन के प्रसिद्ध मन्दिर
निम्नलिखित छः आवास, जिसे 'आरुपदै विदु' के नाम से जाना जाता है, भारत के तमिलनाडु में भगवान मुरुगन के भक्तों के लिए बहुत ही मुख्य तीर्थ स्थानों में से हैं-
- पलनी मुरुगन मन्दिर - कोयंबटूर से 100 कि.मी. पूर्वी-दक्षिण में स्थित।
- स्वामीमलई मुरुगन मन्दिर - कुंभकोणम के पास।
- तिरुत्तनी मुरुगन मन्दिर - चेन्नई से 84 कि.मी.।
- पज्हमुदिर्चोलाई मुरुगन मन्दिर - मदुरई से 10 कि.मी. उत्तर में स्थित।
- श्री सुब्रहमन्य स्वामी देवस्थानम, तिरुचेन्दुर - तूतुकुडी से 40 कि.मी. दक्षिण में स्थित।
- तिरुप्परनकुंद्रम मुरुगन मन्दिर - मदुरई से 10 कि.मी. दक्षिण में स्थित।
- 'मरुदमलै मुरुगन मन्दिर' (कोयंबतूर का उपनगर) एक और प्रमुख तीर्थ स्थान है।
- भारत के कर्णाटक में मंगलौर शहर के पास 'कुक्के सुब्रमण्या मन्दिर' भी बहुत प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है, जो भगवान 'मुरुगन' को समर्पित हैं। लेकिन यह भगवान मुरुगन के उन छः निवास स्थान का हिस्सा नहीं है, जो तमिलनाडु में स्थित हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्कंद षष्ठी (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 23 अक्टूबर, 2013।
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