"विरजा शक्तिपीठ": अवतरणों में अंतर
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*यहाँ की शक्ति 'विमला' तथा भैरव 'जगन्नाथ पुरुषोत्तम' हैं। | |||
*108 शक्तिपीठों की सूची में 'विरजा पीठ' का उल्लेख नहीं है, अपितु वहाँ पुरुषोत्तम पीठ का उल्लेख है, जिसकी शक्ति का नाम 'विमला' है- | |||
<blockquote>'गंगायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।<ref>[[मत्स्यपुराण]]-13/35</ref></blockquote> | |||
<blockquote>'गंगायां मंगला प्रोक्ता विमला पुरुषोत्तमे॥<ref>श्रीमद्देवी भागवत-7/30/64</ref></blockquote> | |||
इस तरह शब्दार्थ की दृष्टि से 'विरजा' तथा 'विमला' दोनों ही एक ही शक्तियाँ हैं। उनमें अंतर नहीं है और यही 'कात्यायनी विरजा' तथा 'विमला उभय' नाम से दो विभिन्न स्थानों पर स्थित हैं। अतः दोनों ही स्थान [[शक्तिपीठ]] के रूप में मान्य हैं। | |||
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[[ओडिशा]] के तीन स्थल प्रख्यात हैं- [[भुवनेश्वर]], याजपुर तथा [[कोणार्क]]। इसमें याजपुर को महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। | [[ओडिशा]] के तीन स्थल प्रख्यात हैं- [[भुवनेश्वर]], याजपुर तथा [[कोणार्क]]। इसमें याजपुर को महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। |
12:25, 27 सितम्बर 2014 का अवतरण
विरजा शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है।
स्थान भेद
इस शक्तिपीठ के स्थान को लेकर मतांतर है। कुछ विद्वान इसको 'जगन्नाथपुरी' में भगवान श्री जगन्नाथ जी के मंदिर के प्रांगण में स्थित भैरव 'जगन्नाथ' को पीठ मानते हैं-
- 'उल्कले नाभिदेशस्तु विरजाक्षेत्रनुच्यते। विमला सा महादेवी जगन्नाथस्तु भैरवः॥'[1]
इस स्थान पर सती की 'नाभि' का निपात हुआ था। जबकि कुछ विद्वान 'पूर्णागिरि' में नाभि का निपात मानते हैं।
- यहाँ की शक्ति 'विमला' तथा भैरव 'जगन्नाथ पुरुषोत्तम' हैं।
- 108 शक्तिपीठों की सूची में 'विरजा पीठ' का उल्लेख नहीं है, अपितु वहाँ पुरुषोत्तम पीठ का उल्लेख है, जिसकी शक्ति का नाम 'विमला' है-
'गंगायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।[2]
'गंगायां मंगला प्रोक्ता विमला पुरुषोत्तमे॥[3]
इस तरह शब्दार्थ की दृष्टि से 'विरजा' तथा 'विमला' दोनों ही एक ही शक्तियाँ हैं। उनमें अंतर नहीं है और यही 'कात्यायनी विरजा' तथा 'विमला उभय' नाम से दो विभिन्न स्थानों पर स्थित हैं। अतः दोनों ही स्थान शक्तिपीठ के रूप में मान्य हैं।
याजपुर
ओडिशा के तीन स्थल प्रख्यात हैं- भुवनेश्वर, याजपुर तथा कोणार्क। इसमें याजपुर को महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है।
याजपुर मंदिर में द्विभुजी देवी विरजा तथा उनके वाहन सिंह की प्रतिमा है। कहते हैं, ब्रह्मा जी द्वारा यहाँ किए गए यज्ञ-कुण्ड से देवी का प्राकट्य हुआ। यह मंदिर वैतरणी नदी घाट से लगभग 2 किलोमीटर दूर प्राचीन गरुड़स्तंभ के पास है। यहाँ पर श्राद्ध-तर्पण आदि का विशेष महत्त्व है। इसे नाभि गयाक्षेत्र, चक्रक्षेत्र आदि भी कहते हैं।
ऐतिहासिक तथ्य
संपूर्ण ओडिशा (तत्कालीन उत्कल) भगवती का नाभि क्षेत्र कहा जाता है। उत्कल किसी नगर या गाँव का नहीं वरन् एक देश या राज्य का नाम है, जो विरजा क्षेत्र है-
- "वर्षाणां भारतं श्रेष्ठं देशानामुत्कलः स्मृतः। उत्कलेन समोदेशो देशों नाऽस्ति महीतले॥"[4]
'विरजा' शब्द को 'क्षेत्र' शब्द के विशेषण के रूप में लेने पर समग्र उत्कल ही 'मलविमुक्त' है, जहाँ की आराध्या 'विमला' हैं तथा भैरव 'जगन्नाथ पुरुषोत्तम'।
पुराणों के अनुसार
कालिका पुराण के अनुसार प्रथम पीठ 'औंड्र पीठ' है-
"औंड्राख्यं प्रथमं पीठं द्वितीयं जाल शैलकम्।...
औंड्रपीठं पश्चिमे तु तथैवोंड्रेश्वरी शिवाम्।
कात्यायनीं जगन्नाथ मोड्रेशं च प्रपूजयेता॥"[5]
यह औण्ड्रपीठ ही ओडिशा है तथा जगन्नाथ जी के प्रभु पुरुषोत्तम जगन्नाथ ही तंत्र चूड़ामणि के उल्लिखित भैरव (जगन्नाथ) हैं। याजपुर की विरजा देवी उत्कल की प्रधान देवी हैं जिनका वर्णन ब्रह्मपुराण में इस प्रकार मिलता है-
विरजे विरजा माता ब्रह्माणी संप्रतिष्ठिता।
यस्याः संदर्शनात्मर्त्यः घुनात्या सप्तमं कुलम्॥[6]
कुब्जिकातंत्र, ज्ञानार्णव तंत्रादि में भी इनका उल्लेख है तथा महाभारत के वनपर्व[7] में पाण्डवों के वनवास के दौरान वैतरणीस्थित विरजा देवी तीर्थ का उल्लेख है।
यातायात और परिवहन
पुरी भुवनेश्वर के आगे है, जो देश के विभिन्न स्थानों से रेल तथा सड़क मार्ग से जुड़ा है। याजपुर हावड़ा वाल्टेयर रेलवे लाइन पर वैतरणी रोड स्टेशन से लगभग 18 किलोमीटर दूर वैतरणी नदी के तट पर स्थित है। याजपुर के लिए वैतरणी रोड स्टेशन से ही बस की सुविधा उपलब्ध है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तंत्र चूड़ामणि, पीठनिर्णय, अध्याय 4
- ↑ मत्स्यपुराण-13/35
- ↑ श्रीमद्देवी भागवत-7/30/64
- ↑ कालिकापुराण-1/8
- ↑ कालिकापुराण 64/43-44
- ↑ ब्रह्मपुराण 42/1
- ↑ वनपर्व महाभारत 85/86