"महाकाव्य में अयोध्या": अवतरणों में अंतर
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[[अयोध्या]] का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। [[रामायण]] के अनुसार यह नगर [[सरयू नदी]] के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।<ref>कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5</ref> | [[अयोध्या]] का उल्लेख [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] में विस्तार से मिलता है। [[रामायण]] के अनुसार यह नगर [[सरयू नदी]] के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।<ref>कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5</ref> अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों [[मनु]] ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।<ref>'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12</ref> | ||
==नगर का विस्तार== | |||
अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था,<ref>विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34</ref> जिसकी पुष्टि '[[वाल्मीकि रामायण]]' में भी होती है।<ref>आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7</ref> एक परवर्ती [[जैन]] लेखक [[हेमचन्द्र राय चौधरी]]<ref>यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।</ref> ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है।<ref>द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। | |||
त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912</ref> जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है। साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए [[कनिंघम]]<ref>ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342</ref> का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है। | |||
त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912</ref> जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है। | ====धार्मिक महत्ता==== | ||
धार्मिक महत्ता की दृष्टि से [[अयोध्या]] [[हिन्दू|हिन्दुओं]] और [[जैन|जैनियों]] का एक पवित्र तीर्थ स्थल था। इसकी गणना [[भारत]] की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। ये सात पुरियाँ निम्नलिखित थीं- | |||
<blockquote>अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।</blockquote> | |||
रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34</ref> | ==रामायण का उल्लेख== | ||
अयोध्या में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली [[हाथी]] थे। [[रामायण]] के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी- [[ब्राह्मण]], [[क्षत्रिय]], [[वैश्य]] तथा [[शूद्र]]। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। रामायण में उल्लेख है कि [[कौशल्या]] को जब [[राम]] के वन गमन का समाचार मिला तो वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उस समय कौशल्या के समस्त अंगों में धूल लिपट गयी थी और श्रीराम ने अपने हाथों से उनके अंगों की धूल साफ़ की।<ref>उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना। | |||
रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34</ref> इस प्रसंग के सन्दर्भ में एच. डी. सांकलिया<ref>हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, अयोध्या मिथ आर रियलिटी (पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, 1973 ई.), पृष्ठ 46</ref> का विचार है कि यदि कमरे की फ़र्श पक्की रही होती तो ऐसा होना सम्भव नहीं था। अत: प्रकारान्तर से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अयोध्या के भवन [[मिट्टी]] के बने थे। इस तथ्य की पुरातात्विक प्रमाणों से भी पुष्टि होती है। प्राचीन स्थलों की खुदाई में कच्चे भवनों के [[अवशेष]] कई स्थानों पर मिले हैं। | |||
रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 12</ref> | ==नगर संरचना== | ||
अयोध्या बड़े-बड़े फ़ाटकों और दरवाज़ों से सुशोभित था। यहाँ पर सब प्रकार के यंत्र और [[अस्त्र शस्त्र]] संचित थे। इसके पृथक-पृथक बाज़ार थे। इस पुरी में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे।<ref>कपाट तोरणवर्ती सुविभक्तांतरायणाम्। सर्वयंत्रायुधवती मुषितां सर्वशिल्पिभि:।। | |||
रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 12</ref> अयोध्या के चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई थी, जिसमें प्रवेश करना या लांघना अत्यन्त कठिन था। यह नगरी दूसरों के लिए सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जेय थी।<ref>दुर्गमभीपरिखाँ दुर्गमन्यैर्दुरा सदाम्। वाजिवाराण सम्पूर्ण गोभिरुष्टै: खरैस्तथा।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 13</ref> अयोध्या के भीतर सुन्दर लम्बी तथा चौड़ी सड़कें थीं, जिन पर प्रतिदिन [[जल]] का छिड़काव होता था तथा [[फूल]] बिखेरे जाते थे।<ref>राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता। मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 8</ref> प्रतिदिन जल का छिड़काव सूचित करता है कि तत्कालीन सड़कें कच्ची थीं। | |||
====व्यापारिक केन्द्र==== | |||
अयोध्या व्यापार का एक व्यापारिक केन्द्र भी था। व्यापार के निमित्त विभिन्न देशों से यहाँ पर वणिक आया करते थे।<ref>नानादेशनिवासैश्च वाणीभिरुपशोभिताम्।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 14</ref> [[अयोध्या]] में सम्पूर्ण प्रकार के शिल्पी रहा करते थे।<ref>सर्वयंत्रयुधवतीमुषितां सर्वाशिल्पभि:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 30</ref> रामायण में अयोध्या की व्यापारिक समितियों को 'निगम' कहा गया है। इस ग्रन्थ से विदित होता है कि महत्त्वपूर्ण अवसरों पर निगमों के प्रतिनिधि राजसभा में आमंत्रित किये जाते थे।<ref>पौरजानपदश्रेष्ठा नैगमाश्च गणै: सह।। तत्रैव, अयोध्याकाण्ड, अध्याय 14, 80</ref> | |||
[[चित्र:View-Of-Ayodhya-3.jpg|thumb|250px|अयोध्या का एक दृश्य<br />A View of Ayodhya<br /> वर्ष-1783]] | [[चित्र:View-Of-Ayodhya-3.jpg|thumb|250px|अयोध्या का एक दृश्य<br />A View of Ayodhya<br /> वर्ष-1783]] | ||
;वीर योद्धा | |||
अयोध्या नगर में ऐसे-ऐसे वीर योद्धा थे, जो कि शब्दवेधी [[बाण अस्त्र|बाण]] चला सकते थे, जिनका बड़ा ही अचूक निशाना होता था।<ref>ये च वाणेन विध्यंति विविक्तपरापरम्। शब्दवेध्यां च विततं लघुहस्ता विशाखा:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 20</ref> ये अपने बाहुबल से तीखे अस्त्रों से वनों में मस्त विचरण करने वाले [[शेर]], व्याघ्र और शूकरों को मार सकने में पूरी तरह से समर्थ थे।<ref>हिंसव्याघ्रवराहणं मतानां नदतां बने। हत्तारो निशितै: शस्तैर्वलाद्वाहुबलैरपि।। तत्रैव, बालकाण्ड, संर्ग 5, पंक्ति 22</ref> | |||
==सघन बस्ती== | |||
अयोध्या में बस्ती बहुत ही सघन थी। यहाँ नागरिकों सहित [[दशरथ]] इस नगर में उसी प्रकार निवास करते थे, जिस प्रकार स्वर्गलोक में [[इन्द्र]] निवास करते हैं। [[रामायण]] में यहाँ के नागरिकों के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का एक आदर्श चित्रण मिलता है। निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों का सम्मान करते थे। वहाँ के [[क्षत्रिय]] [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के अनुयायी थे और [[वैश्य]] क्षत्रियों के अनुयायी थे। [[शूद्र]] अपने कार्य और सेवा के प्रति सजग रहना अपना कर्तव्य समझते थे। वे तीनों वर्णों की सेवा करते थे।<ref>क्षत्र ब्रह्ममुखं चासीद्वैश्या: क्षत्रमनुव्रता। शुद्रा: स्वकर्मनिरतास्त्रीचर्णानुपचारिण:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 22</ref> अयोध्या के ब्राह्मण जितेन्द्रिय, अपने कर्मों में सलंग्न, दानी एवं स्वाध्यावसायी थे।<ref>स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेद्रिया:। दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे।। तत्रै, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 13</ref> वे धर्मशील, सुसंयत तथा महर्षियों के तुल्य पुण्यात्मा थे। महातेजस्वी दशरथ इन नागरिकों के बीच उसी प्रकार सुशोभित थे, जिस प्रकार [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] के बीच [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]] सुशोभित होता है।<ref>ता पुरीं स महातेजा राजा दशरथो महान। शशास शमितामित्रों नक्षत्राणीव चंद्रमा।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 27</ref> | |||
==इक्ष्वाकु राजा== | |||
अयोध्या के [[सूर्यवंश|सूर्यवंशी]] राजाओं को 'इक्ष्वाकु' इसलिए कहा जाता है, क्योंकि ये [[मनु]] के वंशज हैं।<ref>विष्णुपुराण (विल्सन संस्करण), भाग 3, पृष्ठ 259</ref> [[पुराण|पुराणों]] में इन राजाओं की वंशावलियाँ मिलती हैं।<ref> एफ, ई. पार्जिटर इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृष्ठ 90</ref> [[महाभारत]]<ref>महाभारत, 4/55/2170</ref> में सोलह राजाओं का उल्लेख मिलता है, जिनमें से कुछ अयोध्या से सम्बन्धित थे। ये मांधातु, सागर, [[भगीरथ]], [[अंबरीष]], दिलीप द्वितीय और राम दाशरथि थे। महाभारत में ही इक्ष्वाकु, ककुष्ठा, रघु और निमि का उल्लेख मिलता है।<ref>तत्रैव, 13/227-34</ref> [[युधिष्ठर]] के [[राजसूय यज्ञ]] के समय अयोध्या में दीर्घयग्न शासन कर रहे थे।<ref>तत्रैव, 241-42</ref> इक्ष्वाकु, मनु वैवस्वत के नवें पुत्र थे, जिन्होंने अयोध्या में शासन किया।<ref>वायु पुराण, 85, 3-4</ref> रामायण में उल्लेखित राजाओं की वंशावलि संदेह पैदा करती है। रामायण में [[राम]] के काल तक 35 राजाओं का उल्लेख है, जबकि पुराणों में 63 राजाओं का उल्लेख मिलता है।<ref>पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशनल, पृष्ठ 91</ref> | |||
पुराणों में दिलीप नामधारी दो राजाओं की चर्चा है, जिसमें एक भगीरथ के पितामह तथा दूसरे रघु के पिता या पितामह थे, जबकि रामायण में एक ही दिलीप की चर्चा मिलती है, जो भगीरथ के पिता और रघु के पितामह थे।<ref>विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2 (इलाहाबाद, 1954), पृष्ठ 19</ref> | |||
==वशिष्ठ गोत्र== | |||
[[इक्ष्वाकु वंश]] में अयोध्या के सिंहासन के उत्तराधिकारी का प्रश्न सामान्यत: ज्येष्ठाधिकार के नियम से निश्चित किया जाता था। अयोध्या के नरेश वशिष्ठ गोत्र से सम्बन्धित थे। [[वशिष्ठ]] उनके वंशानुगत पुरोहित थे।<ref>विष्णुपुराण भाग 4, पृष्ठ 3, 18; पद्मपुराण भाग 6, पृष्ठ 219, 44</ref> अयोध्या युवनाश्व एवं उनके पुत्र मांधातृ के काल में ख्याति को प्राप्त हो गया था।<ref>महाभारत, 3, पृष्ठ 126</ref> कालान्तर में अयोध्या के प्रभुत्व में ह्रास दृष्टिगत होता है। राजा जह्नु के राजस्व काल में [[कान्यकुब्ज]] के [[हैहय राजवंश|हैहयों]] ने अयोध्या पर विजय प्राप्त की। यह नगर पुन: अंबरीष के शासन काल में प्रसिद्धि को प्राप्त कर सका।<ref>ब्रह्मपुराण, 78, 55-57; पद्मपुराण, 5/22/7-18</ref> [[दशरथ]] के शासन काल में हुए [[अश्वमेध यज्ञ]] में पूर्वी तथा दक्षिणी देशों एवं सुदुर [[पंजाब]] प्रदेश के नरेश आमंत्रित थे। पार्जिटर का विचार है कि तत्कालीन समय में अयोध्या एवं वशिष्ठों का सुसंस्कृत ब्राह्मण क्षेत्र से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था।<ref>एफ, ई. पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृष्ठ 314</ref> | |||
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08:55, 8 नवम्बर 2013 का अवतरण
अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।[1] अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।[2]
नगर का विस्तार
अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था,[3] जिसकी पुष्टि 'वाल्मीकि रामायण' में भी होती है।[4] एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र राय चौधरी[5] ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है।[6] जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है। साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम[7] का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।
धार्मिक महत्ता
धार्मिक महत्ता की दृष्टि से अयोध्या हिन्दुओं और जैनियों का एक पवित्र तीर्थ स्थल था। इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। ये सात पुरियाँ निम्नलिखित थीं-
अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।
रामायण का उल्लेख
अयोध्या में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली हाथी थे। रामायण के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। रामायण में उल्लेख है कि कौशल्या को जब राम के वन गमन का समाचार मिला तो वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उस समय कौशल्या के समस्त अंगों में धूल लिपट गयी थी और श्रीराम ने अपने हाथों से उनके अंगों की धूल साफ़ की।[8] इस प्रसंग के सन्दर्भ में एच. डी. सांकलिया[9] का विचार है कि यदि कमरे की फ़र्श पक्की रही होती तो ऐसा होना सम्भव नहीं था। अत: प्रकारान्तर से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अयोध्या के भवन मिट्टी के बने थे। इस तथ्य की पुरातात्विक प्रमाणों से भी पुष्टि होती है। प्राचीन स्थलों की खुदाई में कच्चे भवनों के अवशेष कई स्थानों पर मिले हैं।
नगर संरचना
अयोध्या बड़े-बड़े फ़ाटकों और दरवाज़ों से सुशोभित था। यहाँ पर सब प्रकार के यंत्र और अस्त्र शस्त्र संचित थे। इसके पृथक-पृथक बाज़ार थे। इस पुरी में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे।[10] अयोध्या के चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई थी, जिसमें प्रवेश करना या लांघना अत्यन्त कठिन था। यह नगरी दूसरों के लिए सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जेय थी।[11] अयोध्या के भीतर सुन्दर लम्बी तथा चौड़ी सड़कें थीं, जिन पर प्रतिदिन जल का छिड़काव होता था तथा फूल बिखेरे जाते थे।[12] प्रतिदिन जल का छिड़काव सूचित करता है कि तत्कालीन सड़कें कच्ची थीं।
व्यापारिक केन्द्र
अयोध्या व्यापार का एक व्यापारिक केन्द्र भी था। व्यापार के निमित्त विभिन्न देशों से यहाँ पर वणिक आया करते थे।[13] अयोध्या में सम्पूर्ण प्रकार के शिल्पी रहा करते थे।[14] रामायण में अयोध्या की व्यापारिक समितियों को 'निगम' कहा गया है। इस ग्रन्थ से विदित होता है कि महत्त्वपूर्ण अवसरों पर निगमों के प्रतिनिधि राजसभा में आमंत्रित किये जाते थे।[15]
- वीर योद्धा
अयोध्या नगर में ऐसे-ऐसे वीर योद्धा थे, जो कि शब्दवेधी बाण चला सकते थे, जिनका बड़ा ही अचूक निशाना होता था।[16] ये अपने बाहुबल से तीखे अस्त्रों से वनों में मस्त विचरण करने वाले शेर, व्याघ्र और शूकरों को मार सकने में पूरी तरह से समर्थ थे।[17]
सघन बस्ती
अयोध्या में बस्ती बहुत ही सघन थी। यहाँ नागरिकों सहित दशरथ इस नगर में उसी प्रकार निवास करते थे, जिस प्रकार स्वर्गलोक में इन्द्र निवास करते हैं। रामायण में यहाँ के नागरिकों के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का एक आदर्श चित्रण मिलता है। निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों का सम्मान करते थे। वहाँ के क्षत्रिय ब्राह्मणों के अनुयायी थे और वैश्य क्षत्रियों के अनुयायी थे। शूद्र अपने कार्य और सेवा के प्रति सजग रहना अपना कर्तव्य समझते थे। वे तीनों वर्णों की सेवा करते थे।[18] अयोध्या के ब्राह्मण जितेन्द्रिय, अपने कर्मों में सलंग्न, दानी एवं स्वाध्यावसायी थे।[19] वे धर्मशील, सुसंयत तथा महर्षियों के तुल्य पुण्यात्मा थे। महातेजस्वी दशरथ इन नागरिकों के बीच उसी प्रकार सुशोभित थे, जिस प्रकार नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा सुशोभित होता है।[20]
इक्ष्वाकु राजा
अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं को 'इक्ष्वाकु' इसलिए कहा जाता है, क्योंकि ये मनु के वंशज हैं।[21] पुराणों में इन राजाओं की वंशावलियाँ मिलती हैं।[22] महाभारत[23] में सोलह राजाओं का उल्लेख मिलता है, जिनमें से कुछ अयोध्या से सम्बन्धित थे। ये मांधातु, सागर, भगीरथ, अंबरीष, दिलीप द्वितीय और राम दाशरथि थे। महाभारत में ही इक्ष्वाकु, ककुष्ठा, रघु और निमि का उल्लेख मिलता है।[24] युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ के समय अयोध्या में दीर्घयग्न शासन कर रहे थे।[25] इक्ष्वाकु, मनु वैवस्वत के नवें पुत्र थे, जिन्होंने अयोध्या में शासन किया।[26] रामायण में उल्लेखित राजाओं की वंशावलि संदेह पैदा करती है। रामायण में राम के काल तक 35 राजाओं का उल्लेख है, जबकि पुराणों में 63 राजाओं का उल्लेख मिलता है।[27] पुराणों में दिलीप नामधारी दो राजाओं की चर्चा है, जिसमें एक भगीरथ के पितामह तथा दूसरे रघु के पिता या पितामह थे, जबकि रामायण में एक ही दिलीप की चर्चा मिलती है, जो भगीरथ के पिता और रघु के पितामह थे।[28]
वशिष्ठ गोत्र
इक्ष्वाकु वंश में अयोध्या के सिंहासन के उत्तराधिकारी का प्रश्न सामान्यत: ज्येष्ठाधिकार के नियम से निश्चित किया जाता था। अयोध्या के नरेश वशिष्ठ गोत्र से सम्बन्धित थे। वशिष्ठ उनके वंशानुगत पुरोहित थे।[29] अयोध्या युवनाश्व एवं उनके पुत्र मांधातृ के काल में ख्याति को प्राप्त हो गया था।[30] कालान्तर में अयोध्या के प्रभुत्व में ह्रास दृष्टिगत होता है। राजा जह्नु के राजस्व काल में कान्यकुब्ज के हैहयों ने अयोध्या पर विजय प्राप्त की। यह नगर पुन: अंबरीष के शासन काल में प्रसिद्धि को प्राप्त कर सका।[31] दशरथ के शासन काल में हुए अश्वमेध यज्ञ में पूर्वी तथा दक्षिणी देशों एवं सुदुर पंजाब प्रदेश के नरेश आमंत्रित थे। पार्जिटर का विचार है कि तत्कालीन समय में अयोध्या एवं वशिष्ठों का सुसंस्कृत ब्राह्मण क्षेत्र से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था।[32]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5
- ↑ 'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12
- ↑ विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34
- ↑ आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7
- ↑ यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।
- ↑ द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912
- ↑ ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342
- ↑ उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना। रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34
- ↑ हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, अयोध्या मिथ आर रियलिटी (पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, 1973 ई.), पृष्ठ 46
- ↑ कपाट तोरणवर्ती सुविभक्तांतरायणाम्। सर्वयंत्रायुधवती मुषितां सर्वशिल्पिभि:।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 12
- ↑ दुर्गमभीपरिखाँ दुर्गमन्यैर्दुरा सदाम्। वाजिवाराण सम्पूर्ण गोभिरुष्टै: खरैस्तथा।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 13
- ↑ राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता। मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 8
- ↑ नानादेशनिवासैश्च वाणीभिरुपशोभिताम्।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 14
- ↑ सर्वयंत्रयुधवतीमुषितां सर्वाशिल्पभि:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 30
- ↑ पौरजानपदश्रेष्ठा नैगमाश्च गणै: सह।। तत्रैव, अयोध्याकाण्ड, अध्याय 14, 80
- ↑ ये च वाणेन विध्यंति विविक्तपरापरम्। शब्दवेध्यां च विततं लघुहस्ता विशाखा:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 20
- ↑ हिंसव्याघ्रवराहणं मतानां नदतां बने। हत्तारो निशितै: शस्तैर्वलाद्वाहुबलैरपि।। तत्रैव, बालकाण्ड, संर्ग 5, पंक्ति 22
- ↑ क्षत्र ब्रह्ममुखं चासीद्वैश्या: क्षत्रमनुव्रता। शुद्रा: स्वकर्मनिरतास्त्रीचर्णानुपचारिण:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 22
- ↑ स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेद्रिया:। दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे।। तत्रै, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 13
- ↑ ता पुरीं स महातेजा राजा दशरथो महान। शशास शमितामित्रों नक्षत्राणीव चंद्रमा।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 27
- ↑ विष्णुपुराण (विल्सन संस्करण), भाग 3, पृष्ठ 259
- ↑ एफ, ई. पार्जिटर इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृष्ठ 90
- ↑ महाभारत, 4/55/2170
- ↑ तत्रैव, 13/227-34
- ↑ तत्रैव, 241-42
- ↑ वायु पुराण, 85, 3-4
- ↑ पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशनल, पृष्ठ 91
- ↑ विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2 (इलाहाबाद, 1954), पृष्ठ 19
- ↑ विष्णुपुराण भाग 4, पृष्ठ 3, 18; पद्मपुराण भाग 6, पृष्ठ 219, 44
- ↑ महाभारत, 3, पृष्ठ 126
- ↑ ब्रह्मपुराण, 78, 55-57; पद्मपुराण, 5/22/7-18
- ↑ एफ, ई. पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृष्ठ 314
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