"भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य -लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा": अवतरणों में अंतर

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मुंडा-परिवार की भाषाओं में संताली बहुत ही लोकप्रिय भाषा है। इसे [[संथाली भाषा|संथाली]] भी कहा जाता है। प्राय: 500 किलोमीटर क्षेत्र में बसे मुंडा आदिवासियों में 57 प्रतिशत लोग संताली बोलते हैं। [[1971]] की जनगणना के अनुसार संताली भाषा-भाषियों की संस्था 36,93,558 है। [[भारत]] में संताल आदिवासी एक बड़े भूभाग में बसे हैं। सर्वेक्षण से यह ज्ञात होता है कि उत्तर में इसकी सीमा रेखा [[गंगा नदी]] है तथा दक्षिण में वैतरणी नदी। फिर भी प्रमुख रूप से ये [[बिहार]] के संताल परगना जिले में ही बसे हैं। छुटपुछ रूप से ये बिहार के भागलपुर, मुंगेर, सिंहभूम, बंगाल के बर्दमान, बांकुड़ा, मिदनापुर तथा [[आसाम]] के जलपाइगुड़ी में भी जा बसे हैं। संताली में हिन्दी के चार-चार परंपरित कंठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दंत्य तथा ओष्ठ्य वर्णों का प्रचलन है और प्रत्येक वर्ण के अंत में अनुनासिक व्यंजन मिलता है। साथ ही, हिन्दी के समान वर्णों का क्रम भी अल्पप्राण के बाद महाप्राण है अर्थात् प्रत्येक वर्ग के वर्ण न तो लगातार महाप्राण हो सकते हैं और नही अल्पप्राण ही। चूँकि संताली भाषा-भाषी आज [[बिहार]], [[बंगाल]] और आसाम के विभिन्न क्षेत्रों में बसे हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से परस्पर सांस्कृतिक संपर्क के कारण संतालों ने कार्यभाषा के बहुतेरे शब्दों को अपना लिया है। इसीलिए हिन्दी का [[तत्सम]], [[तद्भव]], देशज और विदेशी शब्दों के यथातथ्य रूप संताली में मुक्त रूप से प्रचलित है। ऐसे शब्दों की संख्या तो बहुत है, किंतु साम्य-दिग्दर्शन हेतु कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
मुंडा-परिवार की भाषाओं में संताली बहुत ही लोकप्रिय भाषा है। इसे [[संथाली भाषा|संथाली]] भी कहा जाता है। प्राय: 500 किलोमीटर क्षेत्र में बसे मुंडा आदिवासियों में 57 प्रतिशत लोग संताली बोलते हैं। [[1971]] की जनगणना के अनुसार संताली भाषा-भाषियों की संस्था 36,93,558 है। [[भारत]] में संताल आदिवासी एक बड़े भूभाग में बसे हैं। सर्वेक्षण से यह ज्ञात होता है कि उत्तर में इसकी सीमा रेखा [[गंगा नदी]] है तथा दक्षिण में वैतरणी नदी। फिर भी प्रमुख रूप से ये [[बिहार]] के संताल परगना जिले में ही बसे हैं। छुटपुछ रूप से ये बिहार के भागलपुर, मुंगेर, सिंहभूम, बंगाल के बर्दमान, बांकुड़ा, मिदनापुर तथा [[आसाम]] के जलपाइगुड़ी में भी जा बसे हैं। संताली में हिन्दी के चार-चार परंपरित कंठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दंत्य तथा ओष्ठ्य वर्णों का प्रचलन है और प्रत्येक वर्ण के अंत में अनुनासिक व्यंजन मिलता है। साथ ही, हिन्दी के समान वर्णों का क्रम भी अल्पप्राण के बाद महाप्राण है अर्थात् प्रत्येक वर्ग के वर्ण न तो लगातार महाप्राण हो सकते हैं और नही अल्पप्राण ही। चूँकि संताली भाषा-भाषी आज [[बिहार]], [[बंगाल]] और आसाम के विभिन्न क्षेत्रों में बसे हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से परस्पर सांस्कृतिक संपर्क के कारण संतालों ने कार्यभाषा के बहुतेरे शब्दों को अपना लिया है। इसीलिए हिन्दी का [[तत्सम]], [[तद्भव]], देशज और विदेशी शब्दों के यथातथ्य रूप संताली में मुक्त रूप से प्रचलित है। ऐसे शब्दों की संख्या तो बहुत है, किंतु साम्य-दिग्दर्शन हेतु कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
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संताली भाषा में ऐसे शब्द भी प्रचलित हैं जिनका प्रचलन तो हिन्दी भाषा में नहीं है, किंतु विकल्प से उनसे ध्वनिगत समान शब्द हिन्दी भाषा वर्तमान है। वस्तुत: मूल रूप से ऐसे शब्द संताली से हिन्दी में आए हैं और स्वतंत्र रूप से मुंडा भाषा-परिवार में विकसित होने के कारण आज ध्वन्यात्मक रूप से ये हिन्दी से भिन्न प्रतीत हो रहे हैं। भाषा की परिवर्तनशीलता की तुला पर हिन्दी और संताली के रूप-भेद का दिशा-निर्देश सहज रूप से सम्भव है-
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

13:06, 13 मार्च 2014 का अवतरण

यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।
लेखक- लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा

सरल, निश्च्छल और आडंबहीन नागरिक के रूप में भारत के आदिवासी रामायण-महाभारत काल से ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। प्रकृति से उनका तादात्म्य संबंध रहा है जिसके परिणामस्वरूप उनकी संगीतमय नैसर्गिक बोली ऐसी प्रतीत होती है, जैसे बाँसुरी बज रही हो। देश के विभिन्न भाग में फैले आदिवासियों में सामाजिक और सांस्कृतिक एकरूपता मिलती है। यह दुर्भाग्य का विषय है कि अपने देश में आदिवासियों का निरंतर शोषण हो रहा है। इसका प्रमुख कारण है उनके प्रति उपेक्षाभाव। इसके अतिरिक्त देश के सामंतवादी पृष्ठभूमि तथा जाति-पाँति के भेदभाव भी आदिवासी-शोषण के लिए बहुत अधिक उत्तरदायी है। भारतवर्ष में आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से आदिवासियों का शोषण तो हुआ ही है, वे सांस्कृतिक शोषण के शिकार रहे हैं। उनकी अपनी मातृभाषा रही है, जो शनै: शनै: लुप्त होती जा रही है। आदिवासी जब बोलते हैं, तो उनसे संगीतमयी ध्वनि निकलती है।
भारत के आदिवासियों में प्रचलित आदिवासी भाषाएँ दो भाषा-परिवार के अन्तर्गत वर्गीकृत की गई हैं- आस्ट्रो एशियाटिक (आग्नेय) भाषा परिवार तथा, द्रविड़ भाषापरिवार। आस्ट्रो एशियाटिक भाषा-परिवार की मुंडा शाखा के अन्तर्गत तीन महत्वपूर्ण भाषाएँ हैं- ‘संताली’, ‘हो’ तथा ‘मुंडारी’। इसी प्रकार द्रविड़ भाषा की उत्तरी द्रविड़ शाखा के अन्तर्गत महत्वपूर्ण भाषा ‘कुरुख’ है जो भारतीय आदिवासियों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है।
‘संताली’, ‘हो’ या ‘मुंडारी’ चूँकि एक ही भाषा-परिवार से व्यत्पन्न हैं, इसलिए उनकी रूपरचना में बहुत कुछ साम्य स्वाभाविक है। वैसे विरोहर, भूमिज, तुरी और असुरी आदि इस परिवार की गौण बोलियाँ हैं। सर जॉर्ज ग्रियर्सन के अनुसार संताल, हो, मुंडा, भूमिज, विरोहर आदि आदिवासियों के पूर्वज खरवार कहे जाते हैं। आज खरवार छोटानागपुर के गृहस्थ हैं, जिनकी जीविका का साधन कृषिकार्य है। चूँकि मुंडा दक्षिण से होते हुए उत्तर भारत में आ बसे हैं, इसलिय आर्यभाषाओं से पारस्परिक संपर्क के कारण इनमें हिन्दी के बहुतेरे शब्द आ गए हैं।

संताली

मुंडा-परिवार की भाषाओं में संताली बहुत ही लोकप्रिय भाषा है। इसे संथाली भी कहा जाता है। प्राय: 500 किलोमीटर क्षेत्र में बसे मुंडा आदिवासियों में 57 प्रतिशत लोग संताली बोलते हैं। 1971 की जनगणना के अनुसार संताली भाषा-भाषियों की संस्था 36,93,558 है। भारत में संताल आदिवासी एक बड़े भूभाग में बसे हैं। सर्वेक्षण से यह ज्ञात होता है कि उत्तर में इसकी सीमा रेखा गंगा नदी है तथा दक्षिण में वैतरणी नदी। फिर भी प्रमुख रूप से ये बिहार के संताल परगना जिले में ही बसे हैं। छुटपुछ रूप से ये बिहार के भागलपुर, मुंगेर, सिंहभूम, बंगाल के बर्दमान, बांकुड़ा, मिदनापुर तथा आसाम के जलपाइगुड़ी में भी जा बसे हैं। संताली में हिन्दी के चार-चार परंपरित कंठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दंत्य तथा ओष्ठ्य वर्णों का प्रचलन है और प्रत्येक वर्ण के अंत में अनुनासिक व्यंजन मिलता है। साथ ही, हिन्दी के समान वर्णों का क्रम भी अल्पप्राण के बाद महाप्राण है अर्थात् प्रत्येक वर्ग के वर्ण न तो लगातार महाप्राण हो सकते हैं और नही अल्पप्राण ही। चूँकि संताली भाषा-भाषी आज बिहार, बंगाल और आसाम के विभिन्न क्षेत्रों में बसे हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से परस्पर सांस्कृतिक संपर्क के कारण संतालों ने कार्यभाषा के बहुतेरे शब्दों को अपना लिया है। इसीलिए हिन्दी का तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों के यथातथ्य रूप संताली में मुक्त रूप से प्रचलित है। ऐसे शब्दों की संख्या तो बहुत है, किंतु साम्य-दिग्दर्शन हेतु कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-

तत्सम ईश्वर, आरसी, ऋषि, कथा, खंड, तुला, तेज, दया, गुरू, विष आदि।
तद्भव आधा, उपास, ओदा, ऊँट, कर्जा, घोड़ा, मुती, आचार, विचार, भितरी आदि।
देशज आलू, काबू, चाभी, लोटा, घानी आदि।
विदेशी आमदनी, इंजिन, इंसाफ, इनाम, एलान, कायदा, कारखाना, किस्सा, खुशामद, तारीख, मतलब आदि।

संताली भाषा में ऐसे शब्द भी प्रचलित हैं जिनका प्रचलन तो हिन्दी भाषा में नहीं है, किंतु विकल्प से उनसे ध्वनिगत समान शब्द हिन्दी भाषा वर्तमान है। वस्तुत: मूल रूप से ऐसे शब्द संताली से हिन्दी में आए हैं और स्वतंत्र रूप से मुंडा भाषा-परिवार में विकसित होने के कारण आज ध्वन्यात्मक रूप से ये हिन्दी से भिन्न प्रतीत हो रहे हैं। भाषा की परिवर्तनशीलता की तुला पर हिन्दी और संताली के रूप-भेद का दिशा-निर्देश सहज रूप से सम्भव है-

1. अल्पप्राण – महाप्राण
अल्पप्राण से महाप्राण
हिन्दी संताली
ऊँट ऊँठ
तम्बाकू तंमासुर
तरबूज तारभुज
महाप्राण से अल्पप्राण
ढिबरी डिबरी
फल पाल
हाथी हाती
दुख दुक
2. घोष - अघोष
अघोष से घोष
हिन्दी संताली
जुटाना जुड़ाव
शुक्रतारा भुरका
सस्ता साहता
मस्जिद महजिद
घोष से अघोष
अवसर अपसर
दिमाग दिमाक
जुलान जुलाप
नारियल नारकोड़
बालिग बालोक


टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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